Published on Sep 18, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत के संदर्भ में कुल मिलाकर ये कहें कि बीआरटीएस, कम चौड़ी सड़कों पर और जाम लगाते हैं. सड़क के बाक़ी बचे हिस्से को भी प्रभावित करते हैं और ट्रैफ़िक व्यवस्था को पटरी से उतारने का काम करते हैं.

शहरों की सड़कों पर गाड़ियों की बढ़ती भीड़ में बसों के लिए कम होती जा रही है जगह!

विकास, परिवहन, शहरी नीति, बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम, शहरी विकास मंत्रालय, शहरी स्थानीय निकायहाल ही में पुणे के नगर निगम ने शहर में चल रहे बीआरटी यानी बस रैपिड ट्रांज़िट सिस्टम को ख़त्म कर दिया और ख़ास बसों के लिए ख़ाली रखी जा रही सड़कों को सभी तरह के परिवहन के लिए खोल दिया. पुणे में ये बीआरटी कॉरिडोर पिछले 13 बरस में एक हज़ार करोड़ रुपए से भी ज़्यादा रक़म ख़र्च कर के बनाए गए थे. पुणे प्रशासन के इस क़दम से शहर का बीआरटी सिस्टम बेवक़्त अपनी मौत मर गया. पुणे में बीआरटीएस ख़त्म करने की सबसे बड़ी वजह मेट्रो रूट के निर्माण की वजह से लग रहा जाम बताया गया था. लेकिन, इससे भी ज़्यादा बड़ी वजह ये थी कि बीआरटीएस के लिए अलग रखी गई सड़कों पर बसों की कम तादाद. साथ ही इसे लागू करने के बावजूद प्रशासन लोगों को अपनी निजी कारें छोड़ कर बसों से सफ़र करने के लिए प्रेरित नहीं कर सका.

पुणे की मिसाल का अनुसरण करते हुए, इस लेख में हम भविष्य में शहरों की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली के तौर पर बीआरटीएस की व्यवहारिकता को समझने की कोशिश करेंगे. भारत में बीआरटीएस सेवा की शुरुआत, ब्राज़ील के क्यूरिटिबा शहर से प्रेरित हो कर की गई थी. क्यूरिटिबा में बीआरटीएस की शुरुआत यहां के उत्साही मेयर जेमी लर्नर ने की थी. अपने शहर में बीआरटीएस को क़ामयाब बनाने के बाद मेयर जेमी लर्नर ने इसे दुनिया के अन्य शहरों में भी प्रचारित किया था. भारत में जेमी लर्नर के प्रोजेक्ट को बहुत वाहवाही मिली थी. लर्नर ने इस मुद्दे पर भारत के कई शहरों में भाषण दिए थे और लोगों को बीआरटीएस की ख़ूबियां बताई थीं.

बीआरटीएस की समस्याएं इसके डिज़ाइन, इसका पालन करने में अनुशासन की कमी और शहरों की यातायात व्यवस्था की बढ़ती ज़रूरतें पूरी करने में नाकामियां हैं.

भारत सरकार के शहरी विकास मंत्रालय ने भी इस योजना को भारतीय शहरों में लागू करने के लिए चुना. जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी पुनर्विकास मिशन के तहत कई शहरों को बीआरटीएस लागू करने के लिए केंद्र सरकार की तरफ़ से वित्तीय मदद भी दी गई थी. कई शहरों ने बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम के प्रयोग किए. आज अहमदाबाद में इसे काफ़ी हद तक क़ामयाबी से चलाया जा रहा है. राजधानी दिल्ली ने भी सीमित पैमाने पर बीआरटीएस को लागू किया था. लेकिन, बाद में दिल्ली में बीआरटीएस प्रोजेक्ट ख़त्म कर दिया गया. पुणे और पिंपरी-चिंचवाड़ ने भी बीआरटीएस को पर्याप्त ईमानदारी के साथ लागू किया था. लेकिन अब दोनों ही शहरों ने बीआरटीएस को अलविदा कह दिया है. कुल मिलाकर भारत के क़रीब दो दर्जन शहरों ने बीआरटीएस को अपने यहां की सड़कों पर आज़माया.

बीआरटीएस की समस्याएं इसके डिज़ाइन, इसका पालन करने में अनुशासन की कमी और शहरों की यातायात व्यवस्था की बढ़ती ज़रूरतें पूरी करने में नाकामियां हैं. जिन शहरों ने बीआरटीएस को लागू करने का प्रयास किया, उन शहरों ने सड़कों पर बस के लिए विशेष ज़ोन बनाने के लिए सड़कों के किनारे वाले हिस्सों को ही चुना था. ऐसा करने के पीछे वजह ये थी कि फुटपाथ के बगल वाली लेन का और कई तरह से इस्तेमाल होता है. वाहन इन्हीं लेन में रुक कर मुसाफ़िरों को उतारने और चढ़ाने का काम करते हैं. कारोबारी इस्तेमाल में आने वाली गाड़ियां इन्हीं लेन में रुक कर सामान चढ़ाने और उतारने का काम करते हैं. साथ ही साथ इस लेन का इस्तेमाल कई बार गाड़ियां पार्क करने के लिए भी होता है और बहुत से खोमचे वाले अपनी दुकानें भी इसी लेन में सज़ा लेते हैं. इन चुनौतियों से पार पाने का ये तरीक़ा निकाला गया कि सड़क के बीच से किनारे की तरफ़ का हिस्सा बीआरटी के लिए एक्सक्लूसिव ज़ोन बना दिया गया. लेकिन, इसकी वजह से बीआरटीएस के बस यात्रियों को सड़क पार कर के दूसरी तरफ़ बस पकड़ने जाना पड़ता था. इससे यात्रियों को गाड़ी से टक्कर लग जाने का डर सताता रहता था. इससे मुसाफ़िरों के सड़क पार करते वक़्त ट्रैफिक लाइट लगाने का प्रावधान किया गया. इसका नतीजा ये हुआ कि बीआरटीएस के बाहर की सड़क से गुज़रने वाले ट्रैफिक की रफ़्तार धीमी हो गई.

बीआरटीएस के लिए एक और बड़ी चुनौती वो गाड़ीवाले हैं, जो उद्दंड हैं और ट्रैफिक के नियम तोड़ते चलते हैं. ऐसे हठी कारवालों से सड़क ख़ाली रखना बहुत बड़ी चुनौती है. क्योंकि अक्सर ये सड़क के उस हिस्से में घुस जाते हैं, जो बीआरटीएस के लिए आरक्षित होती है. कई शहरों में तो कार और दोपहिया वाहनों को बीआरटीएस में न घुसने देने के लिए ट्रैफिक वार्डेन तैनात करने पड़े. और नियम तोड़ने वालों को रोकने के लिए भारी जुर्माने का प्रावधान किया गया. इससे बीआरटीएस चलाने का ख़र्च और भी बढ़ गया.

बीआरटीएस की एक और बेहद महत्वपूर्ण समस्या है कि ज़्यादातर शहरी स्थानीय निकाय, जो बीआरटीएस चलाते हैं, उनके पास पैसे की बेहद कमी है. पिछले कई वर्षों से स्थानीय निकायों की आमदनी लगातार घटती जा रही है. जो अपनी बस सेवाएं चलाते हैं, उन पर अपनी पुरानी बसों के बेड़े को बदलने का भारी दबाव है. लेकिन, पैसों की कमी की वजह से वो ऐसा नहीं कर पा रहे हैं. ऐसे में बसों की तादाद कम हो रही है. और बस सेवाएं लगातार घाटे में चलाई जा रही हैं. नतीजा ये कि बसों में सफ़र करने वाले मुसाफ़िरों की तादाद भी घटती जा रही है. इन सब की वजह से बसों के बेड़े छोटे होते जा रहे हैं, मुसाफ़िर कम हो रहे हैं और नगर निगमों के घाटे बढ़ रहे हैं.

बीआरटीएस जिन शहरों में भी लागू हुआ, वहां अपना मक़सद पूरा करने में नाकाम रहा. बल्कि इसकी वजह से उन शहरों में यातायात और दूभर हो गया.

पांच साल पहले बृहनमुंबई इलेक्ट्रिक सप्लाई ऐंड ट्रांसपोर्ट अंडरटेकिंग यानी बीईएसटी के पास 4200 बसों का बेड़ा था. जो आज घट कर 3337 बसों का ही रह गया है. यानी हर साल बीएमसी के बसों के बेड़े में 150 से 200 बसों की कमी हो रही है. पुणे महानगर परिवहन महामंडल लिमिटेड यानी पीएमपीएमल के पास इस वक़्त 1370 बसें हैं, वो 584 बसों को निजी क्षेत्र से ठेके पर चलवा रही है. बसों के इस बेड़े के बावजूद पुणे में सरकारी बसों से सफ़र करने वाले लोगों की संख्या लगातार घट रही है और वर्ष 2018-19 के दौरान ये घटकर महज़ 55 हज़ार रह गई थी. इसकी बड़ी वजह ये है कि कई बार बसों की ट्रिप रद्द कर दी जाती है या रास्ते में बसें ख़राब हो जाती हैं. पुणे नगर निगम को बसों का बेड़ा चलाने से होने वाला घाटा लगातार बढ़ रहा है. वित्तीय वर्ष 2013-14 में ये 99.4 करोड़ रुपए था, जो वित्त वर्ष 2017-18 में बढ़कर 204.6 करोड़ हो गया था. आज पुणे महानगर परिवहन महामंडल लिमिटेड को कम से कम एक हज़ार बसों की सख़्त ज़रूरत है.

इन हालात में बीआरटीएस जिन शहरों में भी लागू हुआ, वहां अपना मक़सद पूरा करने में नाकाम रहा. बल्कि इसकी वजह से उन शहरों में यातायात और दूभर हो गया. भारत के ज़्यादातर शहरों की सड़कें ज़रूरत के हिसाब से बहुत कम चौड़ी हैं और उनकी तादाद भी कम है. दिल्ली के मास्टर प्लान 2021 के मुताबिक़ शहर की कुल ज़मीन का 18 फ़ीसदी हिस्सा मांग के मुताबिक़ सड़कों के लिए होना चाहिए. लेकिन, दिल्ली जैसे कुछ मुट्ठी भर शहरों को छोड़ दें तो शहरों में क्षेत्रफल का महज़ 8 से 10 प्रतिशत हिस्से में सड़कें बनी हुई हैं और इन्हीं से काम चलाना पड़ता है. इस जगह का एक हिस्सा फुटपाथ बनाने में काम आ जाता है और सड़क के एक तरफ़ या कई बार दोनों ही तरफ़ पार्किंग भी बना दी जाती है. इससे बड़े शहरों में भी सड़कों की दो लेन ही गाड़ियों की आवाजाही के लिए बच पाती है. ऐसे में इन बची हुई लेन का उपयोग ज़्यादा से ज़्यादा गाड़ियां और यात्री गुज़ारने की कोशिश होती है. बीआरटीएस लागू करते वक़्त ये तर्क दिया गया था कि इनके ज़रिये आवाजाही की रफ़्तार बढ़ेगी. समय की बचत होगी और ये लोगों को कम क़ीमत पर सुगम यातायात का विकल्प उपलब्ध कराएगा. साथ ही साथ, बीआरटीएस के माध्यम से एक समय में ज़्यादा लोग सड़क के एक हिस्से से गुज़र सकेंगे.

बीआरटीएस लागू करते वक़्त ये तर्क दिया गया था कि इनके ज़रिये आवाजाही की रफ़्तार बढ़ेगी. समय की बचत होगी और ये लोगों को कम क़ीमत पर सुगम यातायात का विकल्प उपलब्ध कराएगा. साथ ही साथ, बीआरटीएस के माध्यम से एक समय में ज़्यादा लोग सड़क के एक हिस्से से गुज़र सकेंगे.

लेकिन, ये तभी मुमकिन है, जब बढ़ती आबादी की ज़रूरतें पूरी करने के लिए बसों के बेड़े में भी लगातार इज़ाफा होता रहे. लेकिन, दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका है. हालांकि, जिन शहरों ने बीआरटीएस व्यवस्था लागू करने का फ़ैसला किया, वहां के प्रशासन को शुरुआत में तो नई बसें खरीदने के लिए वित्तीय मदद दी गई. लेकिन, केंद्र सरकार से नगर निगमों को मिली ये शुरुआती मदद अब बंद हो चुकी है. अब नगर निगमों को बसों का बेड़ा नया करने और उनकी संख्या बढ़ाने का काम ख़ुद ही करना पड़ रहा है और वित्ती रूप से कमज़ोर होने पर नगर निकाय इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. देश के पश्चिमी राज्यों में बीआरटीएस को स्थानीय नगर निकायों की स्वायत्त इकाइयां चला रही है. ये इकाइयां, स्थानीय निकायों से लगातार वित्तीय मदद यानी सब्सिडी की मांग कर रही हैं, ताकि बीआरटीएस की व्यवस्था चलती रहे. कई बार स्थानीय निकाय इन इकाइयों की मदद करने से मनाकर देते हैं. जिस तरह शहरों के प्रशासन पर वित्तीय संकट का दबाव बढ़ रहा है, वो जीएसटी की वजह से और भी गहरा गया है. क्योंकि जीएसटी की वजह से नगर निकायों की आमदनी के बहुत से स्रोत ख़त्म हो गए हैं. ऐसे में इस बात की संभावना बहुत ही कम है कि अब नगर निकाय, बीआरटीएस चलाने वाली अपनी ईकाईयों को आर्थिक मदद दे पाएंगे. ऐसे में नगर निकाय अपनी बसों के बेड़े का विस्तार करना तो दूर, उसकी पुरानी बसों की जगह नई बसें तक नहीं ख़रीद पा रहे हैं.

इन हालात में बीआरटीएस व्यवस्था दो पाटों के बीच फंस जाती है. एक तरफ़ तो बीआरटीएस, शहरों की कम सड़कों के बड़े हिस्से पर क़ाबिज़ हो जाती है. और बाक़ी की सड़क पर ट्रैफिक का दबाव बुरी तरह बढ़ा देती है. अगर हम ये मान लें कि हर कार में दो लोग सफ़र कर रहे हैं, तो कोई भी अच्छी सड़क कारों के माध्यम से हर घंटे एक हज़ार से ज़्यादा लोगों के गुज़रने का माध्यम बनती है. लेकिन, इसी समयावधि में बीआरटीएस के माध्यम से क़रीब दो हज़ार लोगों को सफ़र कर लेना चाहिए. इसका मतलब ये हुआ कि हर बस में अगर 40 लोग सफ़र कर रहे हों, तो उतनी दूर की सड़क पर उस समय में 50 बसें लगाई जानी चाहिए. ऐसा नहीं होता है, तो बीआरटीएस, किसी भी शहर की ट्रैफ़िक व्यवस्था को बेहतर बनाने के बजाय उसकी बेहतरी में बाधक बन जाते हैं. भारत के संदर्भ में कुल मिलाकर ये कहें कि बीआरटीएस, कम चौड़ी सड़कों पर और जाम लगाते हैं. सड़क के बाक़ी बचे हिस्से को भी प्रभावित करते हैं और ट्रैफ़िक व्यवस्था को पटरी से उतारने का काम करते हैं. ऐसा होने की वजह से बीआरटी के प्रयोग नाकाम साबित होते हैं. ऐसे में बेहतर ये होगा कि शहरों की सड़कों को बीआरटीएस के लिए बांटने के बजाय आम सड़कों की तरह ही इन पर बसों को भी दौड़ने देना चाहिए.

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