Author : Sunjoy Joshi

Published on Jun 17, 2020 Updated 0 Hours ago

आज़ादी के बाद से भारत में तीन बार मंदी आ चुकी है और यह मंदी कृषि की वजह से हुई है. यह पहली ऐसी मंदी है जो कृषि पर आधारित नहीं है. आज अगर कोई सेक्टर अर्थव्यवस्था का इंजन ऑफ ग्रोथ बन सकता है तो वह वास्तव में कृषि का क्षेत्र ही है. 

घिसे-पिटे कृषि सुधारों से लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को नहीं मिल सकती है स्थायी मज़बूती

लॉकडाउन के बाद भी कोरोना वायरस का दुष्प्रभाव सभी क्षेत्रों में बना हुआ है. लॉकडाउन  से तो हम बाहर निकल चुके हैं लेकिन बाजारों में डिमांड नहीं है. कारोबार, दुकानें और रेस्टोरेंट खुल-खुल कर बंद हो रहे हैं.  काम करने के लिए आदमी नहीं मिल रहे हैं. हालांकि, जो माइग्रेंट लेबर अपने गांव चले गए हैं उन्हें भी रोज़गार की समस्या है. जिस तरह की परिस्थितियों से वे जूझ चुके हैं उसे देखते हुए वो वापस आना नहीं चाहते. ऐसे में वह कौन से उपाय हो सकते हैं जिनसे लेबर्स यानी मज़दूरों को काम-धंधा भी मिल जाए और शहर के बड़े-बड़े क्षेत्रों में जहां पर इनकी भारी कमी है वो भी पूरा हो जाए.

इन सबके बीच पीएम मोदी ने 12 मई को राहत पैकेज ऐलान किया था. इसके बाद  वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा एक-एक करके इन क्षेत्रों के बारें में विस्तार से बताया गया. विशेषकर एग्रीकल्चर के क्षेत्र में, एमएसएमई में और जो हमारे अर्थव्यवस्था के इंजन बन सकते हैं उनमें सरकार कैसे मदद करने की सोच रही है. ऐसे में सवाल यह उठते हैं कि इस तरह की जो महामारी फैलती है तो सरकार की तरफ़ से हमारे गरीब से गरीब तबक़ों को इस तरह की क बदहाली से उबारने के लिए कौन से उपाय किए जाने चाहिए? इस समय कल्याणकारी योजनाओं में दो चीजें प्रमुख रूप से सामने आती है — पहला मनरेगा  और दूसरा खाद्य सुरक्षा. यदि मनरेगा की बात करें तो यह महज़ 100 दिन की रोज़गार की गारंटी देता हैं. पर यह बीमारी बहुत लंबी चलेगी. ऐसे में इस आपदा ने क्या कुछ दिखाया और सिखाया है?

भारत ने सदियों दर सदियों अकाल झेले हैं. उपनिवेश काल के समय बहुत से अकाल आए हैं जिसमें बंगाल का अकाल (1943) बहुत ही भयंकर था. इसलिए जितनी भी स्कीम चली है उनका फोकस यही रहा है कि किसी न किसी तरह से लोगों को रोज़गार दे करके उनका जीवनयापन शुरू किया जाए. इस प्रकार इस रिलिफ़ पैकेज का रोज़गा से सदियों पुराना संबंध रहा है. यही कारण है कि बड़े बड़े प्रसिद्ध स्मारक, ताजमहल और प्रसिद्ध किलों का निर्माण अकाल के दौरान ही हुआ है, जिससे कि लोगों को रोज़गार मिल सके. यूनिवर्सल बेसिक इनकम तो बहुत बाद की चीजें हैं.

आज़ादी से लेकर अबतक एग्रीकल्चर सेक्टर को हमारे नीति-निर्माता एक ही तरह से देखते चले आ रहे हैं. जब भी एग्रीकल्चर सेक्टर में रिलिफ़ की बात आती है तो मनरेगा, कर्ज़ माफी या फिर सब्सिडी का ही नाम आता है

आज़ादी के बाद से भारत में तीन बार मंदी आ चुकी है और यह मंदी कृषि की वजह से हुई है. पैदावार अच्छा नहीं हुआ इसलिए देश मंदी में चला गया. यह पहली ऐसी मंदी है जो कृषि पर आधारित नहीं है. आज अगर कोई सेक्टर अर्थव्यवस्था का इंजन ऑफ ग्रोथ बन सकता है तो वह वास्तव में कृषि का क्षेत्र ही है. उसपर असर नहीं पड़ा. और अगर हम अपनी सप्लाई चेन को व्यवस्थित रख सके तो इस पर असर बहुत कम पड़ेगा. इस साल का मॉनसून ठीक-ठाक बना रहा तो हमारा कृषि क्षेत्र इस साल भी ढाई प्रतिशत ग्रोथ देगा. कृषि ही ऐसा क्षेत्र है जो अपने पैरों पर खड़ा हुआ है बाकी सभी सेक्टर लड़खड़ा रहे हैं.

हमारी सरकार की यह समस्या रही है कि जो भी काम करते हैं उसे कोरोना वायरस राहत पैकेज का नाम दे दिया जाता है. अगर हम एग्रीकल्चर सेक्टर या फिर इकोनॉमिक सेक्टर में रिफ़ॉर्म की बात करें तो हमें इन सभी को अलग-अलग करके देखना होगा. इसका कोविड-19 रिलिफ़ पैकेज से तत्काल कोई संबंध नहीं है.

क्या कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था का इंजन बन सकता है?

भारत के लगभग 44% जनता कृषि पर आधारित है. हाल ही में आवश्यक वस्तु अधिनियम (Essential Commodities Act) में बदलाव की स्वीकृति मिली है. इससे किसानों को यह लाभ होगा कि वो अपनी फसल जिन्हें चाहे उन्हें बेच सकते हैं. इसका दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है. मगर अभी तत्काल राहत के लिए और भी उपाय करने चाहिए. सरकार ने बुलेट ट्रेन चलाने की तो आदेश दे दी- तीन ऑर्डिनेंस लाकर- लेकिन जब तक पटेरिया नहीं सही रहेंगे तब तक बुलेट ट्रेन नहीं दौड़ सकता है. कुछ ऐसी ही हालत हमारे कृषि क्षेत्र की भी है.

आज़ादी से लेकर अबतक एग्रीकल्चर सेक्टर को हमारे नीति-निर्माता एक ही तरह से देखते चले आ रहे हैं. जब भी एग्रीकल्चर सेक्टर में रिलिफ़ की बात आती है तो मनरेगा, कर्ज़ माफी या फिर सब्सिडी का ही नाम आता है. हालांकि, आजादी के बाद से हर 10-20  सालों के बाद भारत अकाल के कारण खाद्य सुरक्षा की गंभीर समस्याओं से जूझता था. इसीलिए सरकार का प्रमुख ध्यान फूड प्रोडक्शन को बढ़ाने को लेकर हुआ करता था. आज हम इस दिशा में काफी आगे पहुंच चुके हैं. आज देश में पास पर्याप्त अन्न भंडार मौजूद है. इस प्रकार हम कई मायनों में सर प्लस इकॉनमी की ओर चले गए हैं लेकिन अभी भी हमारा माइंड सेट फूड सिक्योरिटी  वाली सोच में ही आज भी फंसा हुआ है.

भारत का एग्रीकल्चर सबसे ज्य़ादा विविधता वाला क्षेत्र है. हमने चावल और गेहूं के क्षेत्र में तो काफी सफलता हासिल कर ली लेकिन इसके बाद अब हमें यह सोचना चाहिए कि वह कौन-कौन से क्षेत्र हैं जिन पर अभी हमें ध्यान देने की जरूरत है. और इसके लिए हमें राज्यों एवं जिलों से सहयोग लेकर ज़मीनी स्तर पर परिवर्तन लाने की ज़रूरत है.

अड़चनें कहां हैं?

सरकार की तरफ से कृषि क्षेत्र में अनेकों अनाउंसमेंट हुआ है जैसे कि तीस हजार करोड़ नाबार्ड पैसे देगी, कॉपरेटिव बैंक को पैसे मिलेंगे, किसान क्रेडिट कार्ड है, एमएसपी (Minimum Support Prices) सपोर्ट की बात हुई, पीएम किसान फंड और फसल बीमा योजना इतनी सारी फाइनेंस तो दे रहे हैं. पर इसके बावजूद भी अड़चनें आ रही है.

हम हर चीज का इलाज एक कानून बनाकर के कर लेते हैं. पर वास्तव में जब तक हम ज़मीन पर सुधार करने की बात करते हैं तो इसके लिए कानून ही पर्याप्त नहीं होता. कानून एक शर्त ज़रुर तैयार करता है लेकिन इसके लिए एक सही व्यवस्था और सही ढांचा खड़ा करना पड़ता है और इसके लिए समय लगते हैं

इसके अलावा एक लीगल फ्रेमवर्क बनाया जाएगा जो यह  सुविधा मुहैया कराएगा जिससे कि किसान सीधे तौर पर कॉरपोरेट और दूसरी तरह की एजेंसियों के साथ मिले और अपने फसल को बेचे. ऐसा करने में एक डर यह भी उभर कर सामने आता है कि क्या हम एग्रीकल्चर का निगमीकरण (corporatization) कर रहे हैं?

पार्लियामेंट में कानून पास करना आसान है और भारत इसका एक नमूना भी रहा है. हम हर चीज का इलाज एक कानून बनाकर के कर लेते हैं. पर वास्तव में जब तक हम ज़मीन पर सुधार करने की बात करते हैं तो इसके लिए कानून ही पर्याप्त नहीं होता. कानून एक शर्त ज़रुर तैयार करता है लेकिन इसके लिए एक सही व्यवस्था और सही ढांचा खड़ा करना पड़ता है और इसके लिए समय लगते हैं. एपीएमसी एक्ट के कई पक्ष हैं. यह व्यवस्था चरमरा रही थी. इसका एक पक्ष यह भी है कि किसानों का  इससे शोषण हो रहा था. इसका दूसरा  पक्ष  यह है कि जिन राज्यों ने एपीएमसी एक्ट को समाप्त (बिहार पहला राज्य है  जिसने 2006 में ही एपीएमसी एक्ट को समाप्त कर दिया) करने के बावजूद भी वहां कोई अंतर नहीं पड़ा. प्रश्न यह है कि किसान को एपीएमसी एक्ट समाप्त करने के बाद उससे वाजिब दाम मिलने लगे? उत्तर मिलेगा नहीं. अंततः एग्रीकल्चर में बदलाव इन्वेस्टमेंट और इंफ्रास्ट्रक्चर के ज़रिए ही आएगा. उसके लिए जो पर्याप्त स्टोरेज हाउसेस का इंतज़ाम किया जाए. यह पूरा एक श्रृंखला है. इसका गठन होना बहुत ज़रूरी हो जाता है. सिर्फ़ एक कानून पास करने से इसमें अंतर नहीं आ जाता. इसके परिणाम आने में समय लगता है. और वह भी वास्तव में आएंगे कि नहीं आएंगे, यह भी देखना अभी बाकी है. कई राज्यों ने  एपीएमसी एक्ट ख़त्म करके इस पर एक्सपेरिमेंट किया. पर क्या वास्तव में उसका कोई फायदा मिला, उत्तर बिल्कुल स्पष्ट है.

हमारे नीति-निर्माता जो मिनिमम सपोर्ट प्राइस घोषित कर रहे हैं उनके कैलकुलेशन ही गलत है. हमारे एग्रीकल्चर में इतना ज्य़ादा वेरिएशन है कि हर जगह फर्क़ पड़ता है. एक ही ढ़र्रे पर नहीं मापा जा सकता. इन सबके बावजूद भी अगर मिनिमम सपोर्ट प्राइस घोषित किया जाता है तो वह गारंटी प्राइस नहीं है

नई सोच विकसित करने की ज़रूरत

मिनिमम सपोर्ट प्राइस हमारे यहां खूब प्रचलित है. कि हमने किसानों के उत्पादों के दामों को बढ़ा दिया जिससे कि उन्हें कुछ चीज़ों में 80% तक फायदा होगा. यह सब आंकड़े हैं. और आंकड़ों का कोई बहुत अधिक मतलब नहीं होता. क्योंकि हमारे नीति-निर्माता जो मिनिमम सपोर्ट प्राइस घोषित कर रहे हैं उनके कैलकुलेशन ही गलत है. हमारे एग्रीकल्चर में इतना ज्य़ादा वेरिएशन है कि हर जगह फर्क़ पड़ता है. एक ही ढ़र्रे पर नहीं मापा जा सकता. इन सबके बावजूद भी अगर मिनिमम सपोर्ट प्राइस घोषित किया जाता है तो वह गारंटी प्राइस नहीं है.

सरकार की कुव्वत ही नहीं है कि वो दलहन और तिलहन की फसल ख़रीद पाए. इसलिए मिनिमम सपोर्ट प्राइस का कोई मतलब नहीं रह गया. आज भी दालें मिनिमम सपोर्ट प्राइस से बहुत नीचे बिकतीं हैं और किसान उसे बेचने को मजबूर भी हैं. मिनिमम सपोर्ट प्राइस केवल दो ही चीजों में काम करता है — पहला गेहूं में और दूसरा धान में. बाक़ी किसी भी चीजों में इसका बहुत ज्य़ादा प्रभाव नहीं हुआ है और ना ही इससे बहुत ज्य़ादा एग्रीकल्चर सेक्टर में परिवर्तन आए हैं. इस प्रकार हमको इन सारे रूपावलियों में एक नई सोच लाने की ज़रूरत है और जब तक यह नहीं होता तब तक वास्तव में एग्रीकल्चर रिफ़ॉर्म देश हित में नहीं हो पाएगा.

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