Author : Khalid Shah

Published on Mar 20, 2019 Updated 0 Hours ago

त्वरित कार्रवाई की मदद से कुछ किस्म के खतरों से निपटा जा सकता है लेकिन ये असल समस्या के हल में मददगार नहीं हैं, और ये समस्या है — बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित करने की जंग (battle of mind space)।

पुलवामा आत्मघाती हमला और बुद्धिजीवियों की जंग

एक आत्मघाती हमलावर इस किस्म की ट्रेनिंग और शारीरिक ताकत से लैस होकर पैदा नहीं होता। कोई शख्स अपने शरीर पर बम बांधे और बेतहाशा दहशत फैला दे, इसके लिए बहुत गहरे तक बैठ जाने वाले जज्बे और सपूंर्ण ब्रेनवॉश की जरूरत होती है।

पुलवामा में जो नरसंहार हुआ, वह देश के हर नागरिक के मनो-मस्तिष्क में गहरे तक बैठ गया है। ऐसे समय पर जबकि पाकिस्तान को कूटनीतिक तरीके से जवाब देने के लिए सुनियोजित प्रयास चल रहे हैं। घाटी से बाहर रहने वाले कश्मीरियों पर हमले की छिट-पुट घटनाएं हुई हैं और इन्होंने सामान्य कश्मीरी के मन में भय और उन्माद की भावना पैदा कर दी है। पुलवामा की घटना ने भारत की जनता के दिमाग पर मोटेतौर पर, और कुछ उन्मादियों के बीच विशेष रूप से ऐसा प्रभाव पैदा कर दिया है कि वे एक कश्मीरी और इस घटना के लिए जिम्मेदार लोगों के बीच का अंतर तक नहीं बता सकते। आतंक की यह प्रवृत्ति होती है कि वह अपने शिकार की तार्किक शक्ति नष्ट करके उसके अंतर्मन में जगह बना लेता है। अक्सर ऐसी स्थिति बहुत विध्वंसक होती है।

हकीकत ये है कि एक आत्मघाती हमलावर हमें बताता है कि बाहर ऐसी बहुत सी ताकतें और प्रभाव हैं, जो इन युवाओं के दिमाग को आत्मघाती हमले अंजाम देने के लिए विशेष किस्म का खाद-पानी देती हैं। सामरिक परिस्थितियों में त्वरित अभियानों की अपनी भूमिका होती है जो कि जरूरी भी है लेकिन ये समस्या से निपटने के लिए काफी नहीं हैं। यह उस मनोदशा तक नहीं पहुंचते, जो आतंकवाद को ऊर्जा दे रहे हैं। ये ऐसी परिस्थियों में मुकाबले के लिए बराबरी का अवसर देते हैं, जिसमें खतरे और उसे पैदा करने वाले से निपटा जा सके। जबकि दूसरा पहलू ये है कि सिर्फ सैन्य विकल्प टकराव का दुष्चक्र तैयार कर देते हैं।

कश्मीर की कहानी एक क्रूर दास्तान है। एक ओर कश्मीरियों का वो तबका है, जो कहता है कि “हम सब बुरहान वानी हैं” दूसरी ओर वे लोग हैं जो कहते हैं “ये सब लोग (कश्मीरी) आतंकवादी हैं।” दोनों पक्ष एक-दूसरे के दम पर जिंदा हैं। यह गठजोड़ किसी भी बीच के रास्ते या इस मसले की गहरी समझ की बहुत कम गुंजाइश छोड़ता है। आजादी की भावना के प्रतिनिधि और इसके वैचारिक तंत्र की आकांक्षा है कि दुनिया इस बात पर यकीन करे कि कश्मीर भारत के साथ जंग लड़ रहा है। दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग जिस समय हर कश्मीरी को भारत विरोधी के रूप में प्रस्तुत कर रहे होते हैं, तो वे इसी सोच को मजबूती प्रदान कर रहे होते हैं।

अलगाववादी और चरमपंथी हिंसा के इस निकृष्ट रूप को जायज ठहराने के लिए लड़ाकों को कश्मीर के चे ग्वेरा के रूप में देखते हैं।

पुलवामा हमले के बाद इस शैतानी विभाजनकारी सोच के नतीजों को महसूस किया गया। कश्मीर की समस्या एक ही हकीकत पर फोकस किया गया और बुरहान वानी जैसों को कश्मीरियों के नायक के रूप में पेश किया गया। इससे दुनिया में कश्मीर और कश्मीरियों की छवि को गहरा धक्का लगा है। उन्मादी भीड़ की नजर में हर कश्मीरी पुलवामा के आत्मघाती हमले का विस्तार भर है लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है। सच्चाई ये है कि कश्मीर की कई और हकीकत हैं।

शायद अब समय आ गया है कि हम जरा रुक कर पूछें कि घाटी में सक्रिय महज 300 के आस-पास स्थानीय कश्मीरी लड़ाकों को देश के राष्ट्रीय चर्चा में इतना स्थान क्यों मिल रहा है? क्यों इन 300 आतंकवादियों और इनके तीन हजार या तीस हजार समर्थकों को सत्तर लाख की आबादी पर तरजीह देते हुए सबके माथे पर एक ही ठप्पा लगाया जा रहा है? हमारे समाचार संस्थानों और राय बनाने वालों को कश्मीर की कहानी से इतना लगाव क्यों है और क्यों कश्मीर की कहानी दहशत के इन दुखदायी वाहकों तक सीमित है? यदि यही कश्मीर की वास्तविक कहानी है, तो यह कहानी एकतरफा क्यों है?

पुलवामा हमले के कुछ दिन बाद ही हाड़ कंपा देने वाली ठंड में सेना के एक भर्ती अभियान में 2,500 कश्मीरी कतार में लगे थे। दुखद है कि आम लोगों का या जनमत बनाने वालों का ध्यान बुरहान वानी की तरह इन पर क्यों नहीं गया। ये 2,500 नौजवान या फिर सुरक्षा बलों में कार्यरत हजारों कश्मीरियों को कश्मीर का प्रतीक बनने के लायक क्यों नहीं समझा जाता, जबकि ये लोग भी तो उसी भौगोलिक पृष्ठभूमि से आते हैं यहां से लड़ाके आते हैं।

हजारों कश्मीरी भी आतंकवादियों के क्रूर शिकंजे और गोलियों का शिकार हो चुके हैं लेकिन उनके हिस्से की कहानी को कोई मान्यता नहीं देता है। दूसरी ओर कश्मीर में संपूर्ण कथ्य इस प्रकार की कहानियों से भरा पड़ा है, जिनका एक ही निष्कर्ष है कि सुरक्षा बल यहां सभी कश्मीरियों को मार डालने के लिए आए हैं, लेकिन सच्चाई इससे इतर है। टाइम्स आफ इंडिया में 2011 में छपी एक खबर के मुताबिक सरकारी आंकड़ों में इस बात का खंडन किया गया है कि कश्मीर में एक लाख नागरिकों की जान जा चुकी है। इस समाचार में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक 1990 से अब तक सबसे अधिक तादाद में मरने वाले (21,323) लोगों में सीमा पार से आने वाले घुसपैठिए और आतंकवादी शामिल हैं। इसके बाद उन लोगों की तादाद है, जो आतंकवादियों के हाथों मारे गए (13,226) सुरक्षा बलों की कार्रवाई में 5,369 जवान शहीद हुए, जिसमें 1,500 जवान जम्मू-कश्मीर पुलिस के थे। सुरक्षा बलों की कार्रवाई में 3,642 नागरिकों की जान गई, जिसमें गवा का डल नरसंहार और 2008 व 2010 के विरोध प्रदर्शनों में मारे गए लोग भी शामिल हैं।

ये आंकड़े कश्मीर के बारे में भारत विरोधी कहानी की पोल खोल देते हैं, लेकिन दुखद बात यह है कि न तो सरकार ने, न तो सुरक्षा बलों ने और न ही कभी मीडिया ने इन तथ्यों को प्रकाशित और प्रचारित करने की जरूरत समझी। टीआरपी की चूहा-दौड़ के बीच उदारवादियों और कट्टरपंथियों ने कश्मीर की कहानी से अलग जाकर एक गड्ढा तैयार कर लिया है। कश्मीर विशेषज्ञों की अज्ञानता और पूर्वाग्रह यहां की जमीनी वास्तविकताओं पर आधारित विश्लेषण पर भारी पड़ रहे हैं।

आज भारत में कश्मीर की लोकप्रिय कहानी क्या है। एक कश्मीरी जिसका नाम बुरहान वानी है, कट्टरता, आतंकवाद, सीमा पार आतंकवाद, आत्मघाती हमले, देशद्रोही पैदा करने वाली धरती लेकिन कोई इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि 13,000 से ज्यादा कश्मीरी उसी आतंकवाद का शिकार हो चुके हैं, जिसके खिलाफ भारत में चारों ओर आक्रोश फैला हुआ है।

दूसरी ओर, हर कश्मीरी को ब्रेन वॉश के जरिये इस बात पर यकीन दिलाया जा रहा है कि, वे (सुरक्षा बल और भारत सरकार) हम सबको मार डालेंगे। कोई नेता, कोई कार्यकर्ता, या फिर कोई कर्तव्यनिष्ठ नागरिक इस मूर्खतापूर्ण हिंसा को समाप्त करने का आह्वान करने के लिए तैयार नहीं है, जो कश्मीरी अपनी जमीन पर बरपा कर रहे हैं। कोई उस 15 साल के फरदीन खांडे को आत्मघाती हमलावर बनने से रोकने को तैयार नहीं है। बंदूक के जरिये समाधान की मुखालफत करने वाला कोई नहीं है। कोई शख्स हिंसा के सनकपूर्ण महिमामंडन को रोकने वाला नहीं है।

बुरहान वानी और जाकिर मूसा जैसे प्रतीक कश्मीर की जनता पर थोपे गए हैं। इस राज्य में सैंकड़ों गायक, डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस-आईपीएस अफसर, सैनिक पैदा हुए हैं। तमाम बॉलीवुड अभिनेता, एंकर, रेडियो जॉकी, फैशन डिजाइनर और मॉडल कश्मीर की देन हैं लेकिन आज एक बंदूकधारी ही कश्मीर का प्रतीक क्यों है? हर कश्मीरी के दिल में एक ही अरमान है, ये आम राय क्यों है? कश्मीर की ये छवि किसने तैयार की है?

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