ग्लासगो में 31 अक्टूबर को होने जा रहे COP26 सम्मेलन से पहले दुनिया में जोश की कोई कमी नहीं है. ऐसा ही होना भी चाहिए. हम जिस धरती को जानते हैं, उसे बचाने के लिए CO2 इमिशंस में 34 गिगा टन (2018) सालाना की कमी लानी है. इसमें भी 37 प्रतिशत की कमी दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी को लानी है, जो अमीर देशों में रहते हैं.
वैसे आर्थिक असमानता हर जगह है. सशक्त एलीट (अभिजात्य वर्ग के लोग), ‘डुअल इकॉनमी’ का फ़ायदा उठाने वाले, ख़ासतौर पर विकासशील देशों के लोग ‘अमीर देशों’ की लाइफस्टाइल का लुत्फ़ ले रहे हैं और वे भी इस सिलसिले में अपनी ज़िम्मेदारियों से भाग नहीं सकते. आज दुनिया में जो व्यापक आर्थिक असमानता दिखती है, उसके मद्देनज़र यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए ‘साझी’ वैश्विक जवाबदेही होनी चाहिए. लेकिन इस सिलसिले में अमीर और गरीब देशों की अलग-अलग जवाबदेही तय करना भी दो वजहों से महत्वपूर्ण है. पहली, अमीर देशों के पास अधिक प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन की खपत घटाने की क्षमता है. उनके पास इसके लिए पैसा है. सांस्थानिक क्षमता है. इसके लिए उनके पास तकनीक भी है. यही बात विकासशील देशों के बारे में नहीं कही जा सकती, जिनके पास इसकी बहुत कम क्षमता है. दूसरी, यह एक तरह से जलवायु परिवर्तन के मामले में इंसाफ भी है. जिन देशों ने कार्बन एमिशन का अधिकतम लाभ उठाया है, इसमें उनसे इसे कम करने के लिए कहा जा रहा है ताकि उनके मुकाबले पिछड़े देशों की तरक्की की खातिर कार्बन एमिशन की गुंजाइश बनी रहे.
आज दुनिया में जो व्यापक आर्थिक असमानता दिखती है, उसके मद्देनज़र यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए ‘साझी’ वैश्विक जवाबदेही होनी चाहिए.
1997 में क्योटो में ‘अलग-अलग जवाबदेही’ वाली यह बात विशेष रूप से दिखी थी. लेकिन 2015 में पेरिस सम्मेलन तक यह स्थिति बदल गई. तब जलवायु परिवर्तन को लेकर सभी देशों के बीच अपनी-अपनी राह पर चलने को लेकर सहमति बनी. अलग-अलग देशों पर अपनी अर्थव्यवस्था में ग्रीन एनर्जी का इस्तेमाल बढ़ाने और ईमानदारी से उन्हें सार्वजनिक करने की जिम्मेदारी आ गई. यह कुछ वैसा ही था, जैसे तलाक लेने वाले जोड़े अपनी अतीत की जिम्मेदारियों को लेकर व्यवहार करते हैं. पिछले 6 वर्षों में संयुक्त राष्ट्र, ग्रीन एनर्जी कार्यकर्ता, जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित नागरिक और चुनिंदा औद्योगिक समूहों ने इस सिलसिले में कहीं बड़े कदम उठाने की ज़रूरत जताई है. छठे आईपीसीसी रिपोर्ट से उनकी यह बात सही साबित हुई है.
ग्लासगो की तैयारियों यानी संबंधित पक्षों के 26वें सम्मेलन के लिए संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि सभी देश वैश्विक उत्सर्जन को 2010 के स्तर से 2030 तक 45 प्रतिशत नीचे लाने का वादा करें, तभी धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ोतरी की शर्तें पूरी होंगी. वहीं, 2050 तक इन देशों को नेट जीरो इमिशन का लक्ष्य हासिल करना होगा. ग्लासगो में भारत के सामने भी मुख्य रूप से तीन चुनौतियां हैं. पहली, क्या हमें नेट जीरो इमिशन के लिए कोई तारीख तय करनी चाहिए. अगर इसका जवाब हां है तो यह तारीख क्या होनी चाहिए? दूसरी, क्या हमें नेट जीरो इमिशन तक पहुंचने के लिए एक तय रास्ते की पहचान करनी और उसे लेकर वादा करना चाहिए? तीसरी वजह दूसरी से जुड़ी है. क्या हमें इमिशन के पीक लेवल को लेकर किसी तारीख की घोषणा करनी चाहिए. इसके लिए हमें प्राथमिक रूप से ऊर्जा के स्रोत के रूप में कोयले का इस्तेमाल बंद करना होगा, जिसकी देश में काफी उपलब्धता है.
ग्लासगो की तैयारियों यानी संबंधित पक्षों के 26वें सम्मेलन के लिए संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि सभी देश वैश्विक उत्सर्जन को 2010 के स्तर से 2030 तक 45 प्रतिशत नीचे लाने का वादा करें, तभी धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ोतरी की शर्तें पूरी होंगी.
नेट जीरो की चुनौती
चीन और इंडोनेशिया ने नेट जीरो इमिशन को लेकर विकासशील देशों की खातिर एक रास्ता सुझाया है. इन दोनों देशों ने 2060 तक नेट जीरो इमिशन का वादा किया है. भारत इस तारीख को अपने वादे का आधार बना सकता है. 2019 में चीन की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन सिर्फ एक तिहाई था. इसलिए अगर भारत 2060 के बाद की कोई तारीख चुनता है तो उसमें कुछ भी गलत नहीं होगा. चीन की आर्थिक ग्रोथ और हमारे आर्थिक विकास के बीच 20 साल का फासला है. 2020 में
भारत में प्रति व्यक्ति जीडीपी 1,961 डॉलर (कॉन्सटेंट 2010 डॉलर) था, जिसे चीन ने 2001 में ही हासिल कर लिया था. चीन अगर लंबे वक्त तक दोहरे अंकों में विकास दर हासिल कर पाया तो उसकी अपनी वजहें थीं. असल में उसके लिए समानता, मानवाधिकारों और कानून पर अमल की तुलना में आर्थिक विकास दर अधिक महत्वपूर्ण थी. भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों के लिए ये मूल्य कहीं ज्यादा मायने रखते हैं. दो दशकों के दौरान हमारी सबसे अधिक सालाना विकास दर 6.5 प्रतिशत (कॉन्सटेंट टर्म्स में) 1993-2012 के बीच रही. यह तब हुआ, जब भारत ने मुक्त और खुली अर्थव्यवस्था को अपनाया. अगर भारत प्रति वर्ष 8 प्रतिशत की तेज विकास दर भी हासिल करे तो चीन के साल 2020 के 8,405 (कॉन्सटेंट 2010) डॉलर के प्रति व्यक्ति जीडीपी तक वह 2040 तक पहुंच पाएगा. इन आंकड़ों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगर चीन ने नेट जीरो तक पहुंचने के लिए चार दशक का वक्त चुना है तो भारत को इसके लिए 2080 की समयसीमा तय करनी चाहिए.
2019 में चीन की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन सिर्फ एक तिहाई था. इसलिए अगर भारत 2060 के बाद की कोई तारीख चुनता है तो उसमें कुछ भी गलत नहीं होगा. 2019 में चीन की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन सिर्फ एक तिहाई था. इसलिए अगर भारत 2060 के बाद की कोई तारीख चुनता है तो उसमें कुछ भी गलत नहीं होगा.
भारत क्यों है अपवाद
यहां यह सवाल पूछा जा सकता है कि इंडोनेशिया तुलनात्मक तौर पर बड़ी अर्थव्यवस्था है. उसकी आबादी 27.3 करोड़ है. वह एक मध्य आय वाला मुल्क है. 2018 में इंडोनेशिया का प्रति व्यक्ति CO2 इमिशन भारत से 19 प्रतिशत अधिक था. अब जब इंडोनेशिया ने नेट जीरो के लिए 2060 की समयसीमा तय की है तो भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता? बिजली उत्पादन के लिए इंडोनेशिया की निर्भरता कोयले पर 30 प्रतिशत है, जबकि भारत के लिए यह 28 प्रतिशत है. यानी दोनों देशों के बीच इस मामले में बहुत फर्क़ नहीं है. चीन के लिए यह 20 प्रतिशत है. फिर भारत क्यों नहीं इंडोनेशिया जैसी समयसीमा चुनता. दरअसल, तीन मामलों में इंडोनेशिया से भारत अलग है. पहली बात तो यह है कि इंडोनेशिया का प्रति व्यक्ति जीडीपी (2010 कॉन्सटेंट) में 4,312 डॉलर था, जो भारत के मुकाबले दोगुना और चीन की तुलना में आधा है. इसका मतलब यह है कि भारत को जिस तरह से विकास की जरूरत है, वैसी इंडोनेशिया के साथ नहीं है. दूसरी, ना ही चीन और न ही इंडोनेशिया घरेलू ऊर्जा स्रोत के रूप में कोयले पर मुख्य रूप से आश्रित हैं. भारत के उलट इंडोनेशिया और चीन के पास क्रमशः भारत की तुलना में 2.5 गुना और 5.6 गुना अधिक कच्चा तेल और 4.7 गुना और 6.1 गुना अधिक गैस है.
क्या नेट जीरो जैसे लंबी अवधि के लक्ष्य फायदेमंद हैं?
वक्त के साथ तकनीक पुरानी पड़ती जाती है. इसलिए लंबी अवधि की योजनाएं 20 साल से अधिक समय तक तकनीक के साथ तालमेल नहीं रख पातीं. नए अक्षय ऊर्जा में तो तकनीक पांच से 10 साल में ही पुरानी पड़ रही है क्योंकि पुराने कैपिटल एसेट्स लागत के लिहाज से मुकाबले में नहीं टिक पा रहे. भारत की दिग्गज पर्यावरण कार्यकर्ता और सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की सुनीता नारायण कहती हैं कि 10 साल से अधिक की योजनाएं नहीं बनाई जानी चाहिए. उनका सुझाव है कि ग्लासगो में उन चीजों पर ध्यान दिया जाए, जिन्हें अमल में लाकर मध्यम अवधि में उत्सर्जन में कमी लाई जा सके. इसके साथ वह कम अवधि में ग्रीन इन्वेस्टमेंट बढ़ाने की योजना पर काम करने की सलाह देती हैं. उनका यह भी कहना है कि ग्रीन इकॉनमी को अपनाने के लिए लंबी अवधि के सस्ते कर्ज दिए जाने चाहिए.
समानता वाला बदलाव
आईपीसीसी की छठी रिपोर्ट में 2030 तक 2010 के स्तर से कार्बन डायॉक्साइड में 45 प्रतिशत तक कमी लाने की जो बात कही गई है, वह हमारा साझा दायित्व है. इस लक्ष्य को पाने के लिए अलग-अलग देशों के बीच जवाबदेही किस तरह से बांटी जा सकती है? इसके लिए संबंधित देशों की आमदनी को उनका दायित्व तय करने का आधार बनाया जा सकता है, जो एक तरह से उनकी समृद्धि और तकनीकी क्षमता को भी जाहिर करता है. लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रति व्यक्ति कार्बन डॉयक्साइड के उत्सर्जन को पैमाना बनाया जा सकता है क्योंकि इंसानी गतिविधियों का इमिशन से करीबी रिश्ता रहा है. इसे समझने के लिए आप नीचे दिए गए टेबल 1 को देख सकते हैं.के योगदान और 821 डॉलर प्रति व्यक्ति आमदनी (एटलस मेथड) वाले देशों ने 2010-2018 के बीच अपने कार्बन डॉयक्साइड इमिशन में 25 प्रतिशत तक की कमी की, जबकि बड़े देश इस ग्रुप से बाहर निकल गए थे. 1998-2018 के बीच उनके यहां उत्सर्जन में 7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी.
उच्च आय वाले देशों- आबादी में 16 प्रतिशत के योगदान और 46,036 डॉलर की प्रति व्यक्ति आमदनी वाले देशों ने 2018-2018 के बीच कार्बन उत्सर्जन में 5 प्रतिशत की कटौती की, जबकि 1998-2018 के बीच उन्होंने इसे 2 प्रतिशत कम करने में कामयाबी पाई थी. हालांकि, उच्च और निम्म-मध्य आय वाले देशों में इन दोनों ही अवधियों में कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी हुई. वैसे, इस बढ़ोतरी की रफ्त़ार दोनों समूह के देशों में एक जैसी नहीं रही. उच्च-मध्य आय वर्ग वाले देशों में इसमें कम और निम्न-मध्य आय वर्ग वाले देशों में इसमें अधिक बढ़ोतरी हुई. इससे यह तर्क भी दिया जा सकता है कि आर्थिक विकास कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिहाज़ से अच्छा है और शायद उसकी वजह यह है कि विकास दर बढ़ने पर बेहतर तकनीक भी हासिल होती है और नागरिकों की उम्मीद भी अपने यहां की सरकारों से बढ़ जाती है.
जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के लिए विकासशील देशों को हर साल 100 अरब डॉलर देने का पेरिस में जो वादा पूरा न हो सका, उसके पीछे यही तर्क था. अगर शर्तों के साथ अधिक रकम इन देशों को दी जाती तो उससे उन्हें फायदा होता, लेकिन गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वित्तीय मदद देकर अमीर देश कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के बोझ से राहत पा गए. टेबल 1 से पता चलता है कि निम्न या निम्न-मध्यम आय वाले भारत जैसे देश क्यों उत्सर्जन घटाने में तुरंत अपना योगदान नहीं दे पा रहे. असल में, ऐसा करने से उनकी ग्रोथ पर बुरा असर पड़ेगा, भले ही ग्लोबल जीडीपी में उनके योगदान के हिसाब से उन्हें इसमें कमी लाने को क्यों न कहा जाए. अगर ऐसा किया जाए तो अमीर देशों के लिए उत्सर्जन में कमी लाने का लक्ष्य तय 45 प्रतिशत का दोगुना या उससे अधिक होगा. इसका एक विकल्प यह हो सकता है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की एक सीमा तय की जाए. इसे हासिल करने के लिए अलग-अलग समयसीमा हो. इस वैकल्पिक व्यवस्था में देशों को ग्रीन इकॉनमी को बढ़ावा देने को प्रोत्साहित किया जाए ताकि वे इसकी खातिर निवेश करें.
भारत की दिग्गज पर्यावरण कार्यकर्ता और सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की सुनीता नारायण कहती हैं कि 10 साल से अधिक की योजनाएं नहीं बनाई जानी चाहिए. उनका सुझाव है कि ग्लासगो में उन चीजों पर ध्यान दिया जाए, जिन्हें अमल में लाकर मध्यम अवधि में उत्सर्जन में कमी लाई जा सके.
भारतीय अर्थव्यवस्था में ऊर्जा की खपत 2005 के स्तर से 2030 तक 33 से 35 प्रतिशत कम करने का जो इरादा इंडियाज इंटेडेड नेशनली डिटर्मिंड कंट्रीब्यूशन (INDC) के तहत किया गया है, उसमें भविष्य में विकास दर और ग्रीन संबंधित सीमाओं का खयाल रखा गया है. इसे 2010 के नए बेस के आधार पर संशोधित किया जाना चाहिए.
कोयले का क्या करें
भारत में भविष्य में कार्बन डायॉक्साइड के उत्सर्जन में कमी मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करेगी कि बिजली की बढ़ती ही मांग को पूरा करने के लिए हम कोयले के बदले दूसरे स्रोतों का किस हद तक इस्तेमाल कर पाते हैं. 2040 तक जीडीपी में चार गुना की बढ़ोतरी होती है तो उसमें से ग्रॉस एमिशन को हटाकर यह तय करना होगा. 2040 तक हमारे पास नेचुरल गैस या न्यूक्लियर पावर के विकल्प हो सकते हैं. हालांकि, दोनों के ही सुरक्षा और लागत संबंधी आयाम हैं. हाइड्रोजन को नेचुरल गैस के साथ मिलाकर भी इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन यह भी 2040 के बाद ही एक विकल्प हो सकता है. यह भी तभी संभव होगा, जब ग्रीन हाइड्रोजन का इस्तेमाल व्यावसायिक रूप से फायदेमंद हो जाए. वैसे, कोयले को लेकर यह दुविधा सिर्फ भारत के साथ ही नहीं है. बिजली उत्पादन की खातिर कोयले के इस्तेमाल में अमेरिका और चीन के बाद भारत विश्व में तीसरे नंबर पर है. इस मामले में इंडोनेशिया 10वें नंबर पर है (नीचे टेबल 2 देखें). प्रति व्यक्ति के आधार पर चीन, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण कोरिया में कोयले से बिजली उत्पादन की क्षमता भारत की तुलना में क्रमशः 4 गुना, जर्मनी में तीन गुना, जापान में दोगुना और पोलैंड में 5 गुना अधिक है. इसका मतलब है कि बिजली उत्पादन की खातिर कोयले का व्यापक इस्तेमाल हो रहा है और ऐसा सिर्फ गरीब मुल्क ही नहीं कर रहे हैं.
आर्थिक विकास कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के लिहाज़ से अच्छा है और शायद उसकी वजह यह है कि विकास दर बढ़ने पर बेहतर तकनीक भी हासिल होती है और नागरिकों की उम्मीद भी अपने यहां की सरकारों से बढ़ जाती है.
भारत जिस तरह से कोयले से बिजली उत्पादन पर आश्रित है, उस वजह से यहां 2040-2050 तक कार्बन उत्सर्जन बढ़ता रहेगा. इसके बाद इसमें गिरावट का लंबी अवधि का सिलसिला शुरू होगा. तब तीन दशकों में यानी 2080 तक भारत नेट जीरो का लक्ष्य हासिल कर सकता है.
ग्लासगो में
आज जो हालात हैं, उसे देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि कार्बन एमिशन घटाने के लिए अलग-अलग देशों की खातिर अलग-अलग समय-सीमा तय हो. इसके लिए देशों की प्रति व्यक्ति आय को पैमाना बनाया जाना चाहिए. आय के आधार पर इन देशों के अलग-अलग वर्ग बनें और फिर उन्हें उत्सर्जन में कमी लाने के उस लक्ष्य पर चलने को कहा जाए. अभी पवन और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में कई बाधाएं हैं. इन्हें दूर करने में ग्रीन हाइड्रोजन जैसी हालिया तकनीक, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज, गिगावॉट स्केल बैटरी स्टोरेज जैसी क्षमताओं से मदद मिलेगी. इसके साथ ग्रिड को सप्लाई एंसिलरी सेवाओं और प्रोडक्शन में बेहतरी भी लानी होगी. यह भी खयाल रखना होगा कि व्यावसायिक ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाए. इसके लिए ओपन सोर्स व्यवस्था अपनानी होगी. देश भर में स्थित स्टोरेज हाउसों में रिसर्च और डिवेलपमेंट, तालमेल के साथ कर्जदाताओं, खरीदारों और विक्रेताओं के बीच सहयोग को बढ़ावा देना होगा. पर्यावरण के क्षेत्र में भारत के लिए क्वॉड के ज़रिये नए रास्ते खुले हैं. इससे उसे बेहतर तकनीक मिल सकती है. वहीं, ग्लासगो में दुनिया का ध्यान कार्बन डायॉक्साइड को कम करने के लिए एक बराबरी की व्यवस्था बनाने पर होना चाहिए. कार्बन उत्सर्जन में जो कमी देश ला रहे हों, उसे मापने की व्यवस्था पर सहमति बने. आय के आधार पर अलग-अलग वर्ग के देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की समयसीमा तय हो. साथ ही, कम आय वर्ग वाले देशों की तेज आर्थिक ग्रोथ भी सुनिश्चित करने पर ध्यान होना चाहिए. तकनीक और ग्लोबल सप्लाई चेन बाकी का काम तो पहले से ही कर रहे हैं.
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