Author : Aparna Roy

Published on Jul 14, 2020 Updated 0 Hours ago

आत्मनिर्भर भारत अभियान ने निश्चित रूप से भारत की सौर ऊर्जा की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अवसरों के नए द्वार खोले हैं. हालांकि, अब समय आ गया है कि सरकार ज़मीनी स्तर पर बेहद आवश्यक सुधारों की प्रक्रिया भी शुरू करे.

आत्मनिर्भर अभियान से भारत के सौर ऊर्जा की बदलती तस्वीर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को बहुत आक्रामक तरीक़े से बढ़ावा दे रहे हैं. इसका लक्ष्य भारत के घरेलू निर्माण क्षेत्र को मज़बूत बनाकर देश की अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाना है. सरकार की ये नीति, भारत के सौर ऊर्जा क्षेत्र के लिए एक स्वागत योग्य अवसर है. कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण चीन से आपूर्ति श्रृंखलाओं में आई बाधा और उसके बाद सौर ऊर्जा के उपकरणों और मॉड्यूल की किल्लत ने वर्ष 2022 तक सौर ऊर्जा से 100 गीगावाट बिजली उत्पादन के बेहद महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने की राह में विपरीत प्रभाव डाला है.

वर्ष 2014 से सौर ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में काफ़ी तरक़्क़ी करने के चलते भारत आज दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा सौर ऊर्जा बाज़ार बन चुका है. फिर भी, भारत की सौर ऊर्जा उपकरण बनाने का घरेलू उद्योग इस अवसर का लाभ उठा पाने में असफल रहा है. भारत, सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए ज़रूरी मशीनरी का 80 फ़ीसद आयात चीन से करता है. इससे एक बड़ा सवाल खड़ा होता है: क्या भारत के पास वो क्षमता, पूंजी और क़ाबिलियत है कि वो अपने विशाल आयात की जगह ज़रूरत के सौर ऊर्जा उपकरण स्वदेश में ही बना सके?

भारत में ऊर्जा की भारी कमी है. विश्व बैंक के अनुसार देश में अब भी 20 करोड़ लोगों के पास बिजली की सुविधा का अभाव है. वर्ष 2035 तक भारत में ऊर्जा की मांग में 4.2 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से वृद्धि होगी. जो दुनिया की सभी प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में सबसे अधिक है. विश्व के ऊर्जा बाज़ार में भारत की मांग 2016 में पांच प्रतिशत थी. जो 2040 तक बढ़कर 11 प्रतिशत हो जाएगी. चूंकि, भारत की जीवाश्म ईंधन जैसे कि कोयले और तेल पर निर्भरता वर्ष 2030 तक काफ़ी कम होने की उम्मीद जताई जा रही है. ऐसे में कम कार्बन उत्सर्जन वाले ऊर्जा के स्रोत जैसे कि सौर ऊर्जा के माध्यम से भारत की आधी से अधिक ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा किया जाएगा. इसके अलावा भारत ने जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ अपनी प्रतिबद्धता के अंतर्गत वर्ष 2030 तक अपनी कुल ऊर्जा की मांग का 40 फ़ीसद हिस्सा ग़ैर जीवाश्म ईंधन वाले स्रोतों से पूरी करने का वादा किया है. फिर भी, भले ही भारत में सौर ऊर्जा के निर्माण की मांग 20 गीगावाट प्रति वर्ष हो. लेकिन, इसके संसाधनों की निर्माण क्षमता केवल 3 गीगावाट की ज़रूरतों को पूरा कर पाने में सक्षम है. ऐसे में घरेलू सौर ऊर्जा निर्माण क्षेत्र के विकास में और देरी होने से, देश की ऊर्जा सुरक्षा और अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर डालेगी.

भारत को तुरंत ही एक ऐसा नीतिगत ढांचा बनाने की ज़रूरत है, जिससे वो सौर ऊर्जा के उपकरणों जैसे सोलर मॉड्यूल के घरेलू निर्माण उद्योग और इनसे जुड़े अन्य उत्पादों के निर्माण को बढ़ाए. और इनके आयात पर अपनी निर्भरता कम करके आत्मनिर्भर बने

इसीलिए भारत को तुरंत ही एक ऐसा नीतिगत ढांचा बनाने की ज़रूरत है, जिससे वो सौर ऊर्जा के उपकरणों जैसे सोलर मॉड्यूल के घरेलू निर्माण उद्योग और इनसे जुड़े अन्य उत्पादों के निर्माण को बढ़ाए. और इनके आयात पर अपनी निर्भरता कम करके आत्मनिर्भर बने. ताकि देश को स्थायी और कम लागत वाले ऊर्जा संसाधन मिल सकें. और इनके माध्यम से रोज़गार के भी अधिक अवसर पैदा हों.

वर्ष 2011 तक सौर ऊर्जा के मॉड्यूल बनाने और इनके निर्यात में भारत अव्वल हुआ करता था. भेल, टाटा पावर, मोज़र बियर, इंडोसोलर और लैंको जैसे निर्माताओं ने देश में इस उद्योग की शुरुआत की थी. लेकिन, सरकार की नीतियों में उलट फेर और वित्तीय मदद की कमी के कारण इस क्षेत्र का औद्योगिक विकास आगे नहीं बढ़ सका. घरेलू उत्पादन के मुक़ाबले सस्ते चीनी आयात ने भारत के घरेलू सौर ऊर्जा उद्योग की तकनीक और निर्माण क्षेत्र के विकास को रोक दिया. आज देश को राष्ट्रीय सोलर मिशन से मेल खाती हुई एक ऐसी आक्रामक रणनीति की ज़रूरत है, जिससे सौर ऊर्जा उद्योग का लंबी अवधि के लिए विकास किया जा सके. और इसके माध्यम से मुनाफ़ा बरक़रार रखते हुए सस्ते आयात का मुक़ाबला करने लायक़ निर्माण किया जा सके. इसके लिए उचित दर पर वित्तीय संसाधन मुहैया कराए जाने चाहिए. ताकि घरेलू निर्माण क्षमता की कमी को जल्द से जल्द दूर किया जा सके. अगर भारत ऐसा कर पाता है, तो घरेलू सौर ऊर्जा निर्माण उद्योग का विकास होने से भारत वर्ष 2030 तक लगभग 42 अरब डॉलर के सौर ऊर्जा उपकरणों के आयात की बचत कर सकेगा. साथ ही साथ वो सौर ऊर्जा क्षेत्र को आपूर्ति की सुरक्षा दे सकेगा. इससे देश में, अगले पांच वर्षों में 50 हज़ार नौकरियों का प्रत्यक्ष रूप से तो सवा लाख रोज़गार का अप्रत्यक्ष रूप से सृजन हो सकेगा.

सोलर सेल का निर्माण करना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें उच्च तकनीक भी लगती है और काफ़ी पूंजी भी लगानी पड़ती है. सौर ऊर्जा के उपकरणों की आपूर्ति श्रृंखला में पॉली सिलिकॉन, वेफर, सेल और मॉड्यूल की असेंबली होती है. सौर ऊर्जा से संबंधित भारत की अधिकतर कंपनियां अभी केवल मॉड्यूल असेंबली का काम करती हैं. भारत के पास ज़्यादा लागत और तकनीकी सक्षमता वाले सिलिकॉन और इन्गॉट के उत्पादन का तकनीकी अनुभव नहीं है. भारतीय कंपनियों ने सौर ऊर्जा के क्षेत्र में अब तक केवल 246 पेटेंट कराए हैं. साफ़ है कि सौर ऊर्जा तकनीक के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियां बेहद कम हैं. जबकि भारत के मुक़ाबले दुनिया के सबसे बड़े सौर ऊर्जा उपकरण निर्माता चीन की कंपनियों ने 39 हज़ार 784 पेटेंट करा रखे हैं. सौर ऊर्जा के संसाधनों के निर्माण की तकनीक के क्षेत्र में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं. इसमें पूंजी की भी ज़रूरत होती है और जानकारी की भी. जहां तक नई तकनीक हासिल करने में आने वाली लागत की बात है, तो भारत को अपने रिसर्च और विकास को बढ़ावा देना चाहिए. ताकि स्वदेशी निर्माता कम लागत वाले स्वदेशी और अगली पीढ़ी के सोलर पैनल बनाने वाली तकनीक विकसित कर सकें.

एनएसआईई और अन्य बड़े तकनीकी संस्थानों जैसे कि आईआईटी, आइटीआई, सीएसआईआर और नेशनल स्किल डेवेलपमेंट काउंसिल मिल कर कौशल विकास के कार्यक्रम बना सकते हैं. जिनके माध्यम से भारत सौर ऊर्जा के निर्माण क्षेत्र का विकास कर सकता है

अब चूंकि निर्माण की प्रक्रिया में तीन स्तर के कामगारों की ज़रूरत होती है. जिनके पास अलग अलग तरह के हुनर हों. जैसे कि डिज़ाइन और मैन्युफैक्चरिंग के इंजीनियर, बिल्डिंग सिस्टम के विशेषज्ञ, मॉडल बनाने वाले और असेंबली लाइन के श्रमिक. ऐसे में वैल्यू चेन के हर स्तर पर कौशल की कमी का विश्लेषण करके, क्षमताओं के विकास की नीतियां बनाना एक सही दिशा में उठाया जाने वाला क़दम होगा. हालांकि नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोलर एनर्जी (NISE) सौर ऊर्जा के क्षेत्र में रिसर्च और अनुसंधान, परीक्षण, स्किल डेवेलपमेंट और सर्टिफ़िकेट देने का काम कर रहा है. लेकिन, इस संस्थान का पूरा ध्यान सौर ऊर्जा के उत्पादन पर है. एनएसआईई और अन्य बड़े तकनीकी संस्थानों जैसे कि आईआईटी, आइटीआई, सीएसआईआर और नेशनल स्किल डेवेलपमेंट काउंसिल मिल कर कौशल विकास के कार्यक्रम बना सकते हैं. जिनके माध्यम से भारत सौर ऊर्जा के निर्माण क्षेत्र का विकास कर सकता है.

लेकिन, ध्यान रखना होगा कि सौर ऊर्जा के निर्माण की इकाइयां लगाने में काफ़ी पूंजी लगेगी. भारत में ऐसे उद्योग लगाने में सबसे बड़ी दिक़्क़त ये आती है कि यहां क़र्ज़ पर ब्याज की दर बहुत अधिक है. भारत में क़र्ज़ की लागत लगभग 11 प्रतिशत है, जो पूरे एशिया प्रशांत क्षेत्र में सबसे अधिक है. भारत के मुक़ाबले चीन में केवल पांच प्रतिशत की दर पर क़र्ज़ मिल जाता है. ऐसे में सौर ऊर्जा के निर्माण क्षेत्र के विकास के लिए अलग से IREDA जैसे अन्य वित्तीय संस्थानों की स्थापना की जानी चाहिए. ऐसे संस्थान शेयर बाज़ार या क़र्ज़ के माध्यम से सौर ऊर्जा के घरेलू निर्माण क्षेत्र के विकास में मदद कर सकते हैं. इनके ज़रिए, अन्य वित्तीय संस्थानों से सौर ऊर्जा क्षेत्र के लिए गए क़र्ज़ की गारंटी भी दी जा सकती है. इससे निर्माण क्षेत्र के लिए पूंजी उपलब्ध कराने का नया रास्ता भी खुलेगा.

आत्मनिर्भर भारत अभियान ने निश्चित रूप से भारत की सौर ऊर्जा की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अवसरों के नए द्वार खोले हैं. हालांकि, अब समय आ गया है कि सरकार ज़मीनी स्तर पर बेहद आवश्यक सुधारों की प्रक्रिया भी शुरू करे.

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