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यहां सवाल उठता है कि आख़िर देश के भविष्य से असल सरोकार रखने वाले वर्ग के दिमाग़ में विदेश नीति से जुड़े कौन-कौन से अहम मसले अपनी मौजूदगी बनाए हुए हैं?
‘पूरी राजनीति ही स्थानीय है.’ अमेरिकी हाउस ऑफ़ रिप्रेजेंटेटिव के मशहूर स्पीकर टिप ओ’निल के इस कथन की मिसाल 1990 के दशक के मध्य में मुझे अक्सर दी जाती थी. उस वक़्त मैं वॉशिंगटन डीसी में एक जूनियर डिप्लोमेट की हैसियत से अमेरिकी कांग्रेस में भारत की विदेश नीति से जुड़े हितों को आगे बढ़ाने की जद्दोजहद कर रहा था. व्यावहारिक रूप से इस कथन का मतलब ये था कि हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव का कोई सदस्य आपके मसलों में तभी कोई ख़ास दिलचस्पी लेगा जब उस मसले से उसके संसदीय क्षेत्र का कोई संबंध सामने आए. ये इस कहावत की ताक़त के प्रति जागरूकता का ही नतीजा था कि आगे चलकर इंडिया कॉकस जैसी संस्था का गठन संभव हो सका. ये संस्था करीब 25 सालों से भारत-अमेरिका संबंधों को बढ़ावा देने का काम करती आ रही है. मसलों की जानकारी और समझ रखने वाले, जागरूक और सक्रिय भारतीय-अमेरिकी समुदाय ने इस प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाई है.
ये सर्वे विदेश नीति से जुड़े अहम मसलों पर इन युवाओं के रुझानों को समझने की दिशा में महत्वाकांक्षी प्रयास है. 18-35 साल के बीच की आयु वाले युवाओं की आबादी भारत की शहरी आबादी का 27 प्रतिशत है. इस सर्वेक्षण को नुमाइंदगी के हिसाब से बेहतर बनाने के लिए 8 अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले 2037 युवाओं को इसमें शामिल किया गया.
विदेश नीति पर घरेलू मसलों के प्रभाव के मामले में भारत भी दूसरे देशों से जुदा नहीं है. तर्क-वितर्क में माहिर भारतीय ज़्यादातर मसलों पर मज़बूती से अपनी राय बनाते हैं. अगर राजनीतिक स्वार्थ न हो और जनमत को किसी ख़ास दिशा की ओर मोड़ने का इरादा न हो तो मसलों की जानकारी और समझ रखने वाली जनता विदेश नीति से जुड़े मुद्दों पर ज़्यादा से ज़्यादा तर्कपूर्ण विमर्श में अपना योगदान दे सकती है. विदेश मंत्रालय ने इस तत्व की पहचान की. इसी कड़ी में हमने ‘विदेश नीति पर एमईए विशिष्ट व्याख्यान’ के नाम से सार्वजनिक कूटनीतिक पहल की शुरुआत की. 2010 में शुरू की गई ये परिकल्पना बेहद सरल थी. जाने-माने विश्वविद्यालयों, आईआईटी और आईआईएम के कुलपतियों और निदेशकों को हमने ई-मेल भेजने की प्रक्रिया शुरू की. ई-मेल के ज़रिए हम उनसे पूछते थे कि क्या वो विदेश नीति से जुड़े अपनी पसंद के किसी मसले पर किसी पूर्व-राजदूत को व्याख्यान देने का मौका देकर उनकी मेज़बानी करना चाहेंगे. हमारी समझ थी कि इस क़वायद से विदेश नीति से जुड़े मसलों में युवाओं को और ज़्यादा जागरूक किया जा सकेगा. इससे वो इन मुद्दों से और ज़्यादा सक्रियता से जुड़ सकेंगे. शिक्षा जगत ने इस पहल को हाथों-हाथ लिया. उनकी ओर से इससे जुड़ने को लेकर काफ़ी उत्साह दिखाया गया. नतीजतन अगले एक दशक में तक़रीबन 300 व्याख्यान आयोजित किए गए. इन लेक्चर्स में पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों से लेकर बहुपक्षीय कूटनीति से जुड़ी बारीकियों और जलवायु परिवर्तन से संबंधित वार्ता प्रक्रियाओं तक से जुड़े मसले शामिल किए गए. बहरहाल यहां सवाल उठता है कि क्या इन तमाम क़वायदों ने अपना मकसद हासिल किया?
अगर राजनीतिक स्वार्थ न हो और जनमत को किसी ख़ास दिशा की ओर मोड़ने का इरादा न हो तो मसलों की जानकारी और समझ रखने वाली जनता विदेश नीति से जुड़े मुद्दों पर ज़्यादा से ज़्यादा तर्कपूर्ण विमर्श में अपना योगदान दे सकती है.
इस सवाल के जवाब का एक हिस्सा ‘द ओआरएफ़ फ़ॉरेन पॉलिसी सर्वे: यंग इंडिया एंड द वर्ल्ड’ के नाम से किए गए बेहतरीन सर्वेक्षण में छिपा हो सकता है. ये सर्वेक्षण ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन की ओर से कराया गया. भारत के 14 मेट्रो और ग़ैर-मेट्रो शहरों में रहने वाले 18-35 साल की आयु वर्ग के शहरी युवाओं को इस सर्वे में शामिल किया गया. ये सर्वे विदेश नीति से जुड़े अहम मसलों पर इन युवाओं के रुझानों को समझने की दिशा में महत्वाकांक्षी प्रयास है. 18-35 साल के बीच की आयु वाले युवाओं की आबादी भारत की शहरी आबादी का 27 प्रतिशत है. इस सर्वेक्षण को नुमाइंदगी के हिसाब से बेहतर बनाने के लिए 8 अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले 2037 युवाओं को इसमें शामिल किया गया. यहां सवाल उठता है कि आख़िर देश के भविष्य से असल सरोकार रखने वाले वर्ग के दिमाग़ में विदेश नीति से जुड़े कौन-कौन से अहम मसले अपनी मौजूदगी बनाए हुए हैं?
इनमें से कुछ जवाब तो पहले से ही सोची-समझी दिशा में हैं- अमेरिका की ओर बढ़ता भरोसा, पाकिस्तान के प्रति घृणा और उससे भी ज़्यादा चीन को लेकर चिढ़. हालांकि कुछ दूसरे खुलासे बेहद दिलचस्प हैं. उनमें से कुछ मिसाल नीचे हैं:
- सर्वे में हिस्सा लेने वाले तीन चौथाई से ज़्यादा लोगों (76 प्रतिशत) का कहना था कि वैश्विक सहयोग के प्रयासों को बहुपक्षीय संस्थाओं के ज़रिए आगे बढ़ाया जाना चाहिए. जबकि सिर्फ़ 24 फ़ीसदी लोग ही इस सिलसिले में द्विपक्षीय व्यवस्था की वक़ालत करते पाए गए.
- भारतीय विदेश नीति की सबसे बड़ी प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? उल्लेखनीय तौर पर 89 प्रतिशत लोगों का ये मानना है कि विदेश नीति का सबसे बड़ा ज़ोर अर्थव्यवस्था पर होना चाहिए. जबकि 80 प्रतिशत लोगों का विचार है कि आतंकवाद से मुक़ाबला करना सबसे अहम लक्ष्य होना चाहिए. इससे भी कम प्रतिशत में युवाओं ने अमेरिका के साथ रिश्ते सुधारने या चीन और पाकिस्तान को छोड़कर दूसरे पड़ोसियों के साथ संबंधों को प्रगाढ़ बनाने को भारतीय विदेश नीति की सबसे बड़ी प्राथमिकता बताया है.\
भारतीय युवा को विदेश नीति से जुड़े मसलों की बारीकी से समझ है. वो अर्थव्यवस्था, महामारी और जलवायु परिवर्तन के रूप में बड़ी तस्वीर पर नज़रें गड़ाए हैं. हक़ीक़त ये है कि सर्वे से मिली कुछ जानकारियां आम समझ से बिल्कुल विपरीत हैं
ज़ाहिर है कि भारतीय युवा को विदेश नीति से जुड़े मसलों की बारीकी से समझ है. वो अर्थव्यवस्था, महामारी और जलवायु परिवर्तन के रूप में बड़ी तस्वीर पर नज़रें गड़ाए हैं. हक़ीक़त ये है कि सर्वे से मिली कुछ जानकारियां आम समझ से बिल्कुल विपरीत हैं. ये खुलासे न सिर्फ़ विदेश नीति का संचालन करने वालों, बल्कि उस राजनीतिक तबके के लिए भी महत्वपूर्ण दिशानिर्देशक हैं जिनमें चुनावों के क़रीब आते ही पाकिस्तान से जुड़े मसलों को उसके लपेटे में लेने की ललक दिखने लगती है. अगर ‘सारी राजनीति स्थानीय कारकों पर निर्भर होती है’ और चुनावों में युवाओं की आवाज़ वाकई अहमियत रखती है तो विदेश नीति के क्षेत्र में युवाओं की ओर से आई इन आवाज़ों पर ध्यान देने की शुरुआत करने का यही सही वक़्त है.
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