Author : Satish Misra

Published on May 05, 2017 Updated 0 Hours ago

सरकार ने तय कर लिया है कि जिन विधेयकों के राज्य सभा में अटकने की आशंका होगी, उसे वह धन विधेयक घोषित कर देगी।

राज्य सभा पर सवालिया निशान

ऊपरी सदन यानी राज्य सभा को ले कर एक गंभीर प्रश्न चिह्न खड़ा हो रहा है। भाजपा नेतृत्व वाली राजग सरकार पिछले दो साल से राज्य सभा की उपेक्षा कर रही है।

यह स्थिति तब पैदा हुई जब सरकार को अपने कई विधेयकों को पारित करवाने में ऊपरी सदन में समस्या आई। यहां विपक्ष के सदस्यों की साझा संख्या सत्ता पक्ष के मुकाबले ज्यादा है। उधर, प्रत्यक्ष निर्वाचन वाले सदन लोकसभा में सरकार को प्रचंड बहुमत हासिल है। ऐसे में सरकार ऊपरी सदन के बिना ही काम चलाने के फार्मूले पर काम कर रही है। भारतीय संसद के ऊपरी सदन के सदस्यों का चयन राज्यों के विधायकों की ओर से होता है।

सरकार ने तय किया है जिन विधेयकों को ले कर इसे राज्य सभा में समस्या आने की आशंका होगी, उसे यह धन विधेयक घोषित कर देगी। अगर किसी विधेयक को लोकसभा में धन विधेयक के तौर पर पेश किया जाता है, तो उसे ऊपरी सदन की मंजूरी की जरूरत नहीं होती। इस तरह राज्य सभा को दरकिनार किया जा सकता है।

संविधान की धारा 110 (1) के मुताबिक कोई विधेयक तभी धन विधेयक माना जा सकता है जबकि उसमें निम्न में से सभी या कोई भी प्रावधान मौजूद हों:

  • किसी भी कर को लगाया जाना, खत्म किया जाना, बदलना या नियमन में बदलाव करना,
  • भारत सरकार की ओर से धन उधार लेना या किसी को गारंटी देना, या किसी वित्तीय जवाबदेही से संबंधित कानून में संशोधन करना, इस संबंध में भारत सरकार की ओर से कोई कदम उठाया जाना या उठाए जाने की तैयारी,
  • भारत के समेकित कोष या आकस्मिक निधि की संरक्षा या ऐसे किसी कोष से धन की निकासी या भुगतान,
  • भारत के समेकित कोष से धन का विनियोग,
  • किसी खर्च को भारत के समेकित कोष के नाम होने वाले खर्च के रूप में दर्ज किया जाना, या ऐसे किसी खर्च की रकम को बढ़ाना,
  • भारत के समेकित कोष के खाते में या भारत के लोक खाते में धन हासिल करना या संरक्षा हासिल करना या ऐसे धन को जारी करना या केंद्र अथवा राज्यों के खातों की लेखा परीक्षा, या,
  • ऊपर के उपबंधों में बताए गए किसी भी मामले से संबंधित किसी विषय पर।

किसी विधेयक को धन विधेयक सिर्फ इसलिए नहीं घोषित किया जा सकता क्योंकि उसमें जुर्माने या किसी आर्थिक दंड का प्रावधान किया गया हो, या उसमें किसी सेवा के लिए लाइसेंस फीस या किसी तरह के शुल्क का प्रावधान किया गया हो। ना ही किसी स्थानीय निकाय या स्थानीय उद्देश्य से लगाए गए किसी कर को लगाए जाने, हटाए जाने, बदले जाने या नियमित किए जाने की स्थिति में इसे धन विधेयक माना जाएगा।

अगर किसी विधेयक को ले कर यह प्रश्न उठता है कि वह धन विधेयक है या नहीं तो ऐसे में संविधान कहता है कि लोकसभा के अध्यक्ष का फैसला ही अंतिम होगा।

अपने विधेयकों को आगे बढ़ाने के लिए ऊपरी सदन को दरकिनार कर देने या उपेक्षित कर देने की सरकार की तैयारी काफी समय से चल रही थी। 2015 के बजट सत्र में यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया था कि सरकार भले ही कितना भी जोर लगा रही हो, लेकिन भूमि अधिग्रहण कानून को पास करने की उसकी इच्छा पूरी नहीं होने वाली है। यह विधेयक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने ही पेश किया था और तब भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष में रह कर इसका समर्थन किया था। लेकिन अब कांग्रेस और अन्य दल के साथ ही खास तौर पर वाम दल इसका विरोध कर रहे थे। उस समय सत्तारुढ़ दल, इसके सहयोगी और प्रवक्ताओं ने यह धमकी देनी शुरू कर दी कि वे विवादित विधेयकों के मामले में ‘साझा सत्र’ का रास्ता अपनाएंगे।

वित्त मंत्री अरुण जेटली सरकार के काम के सबसे प्रख्यात प्रवक्ता और भाजपा के विचारों का बचाव करने वाले सबसे प्रबल वक्ता हैं। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि सरकार को अपने चुनावी वादे पूरा करने और अपनी जिम्मेदारियां निभाने का एकमात्र रास्ता यही बचा है, क्योंकि “लोकतंत्र को गैर-निर्वाचित नेताओं और उनकी पार्टियों की तानाशाही की वजह से दरकिनार किया जा रहा है।”

यहां यह ध्यान दिलाना भी जरूरी है कि जेटली को लोगों ने 2014 के आम चुनावों में ठुकरा दिया था। संप्रग के दूसरे शासनकाल में भी वे राज्य सभा में ही विपक्ष के नेता थे। उन्होंने आज तक कभी कोई चुनाव नहीं जीता है और संसद में वे हमेशा से उच्च सदन का ही प्रतिनिधित्व करते रहे हैं।

विवादित विधेयकों को पारित करने के लिए साझा सत्र बुलाने की धमकी को वास्तव में लागू कर के दिखाने की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि यह रास्ता सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में ही अपनाया जा सकता था। वह भी तब जब बाकी सारे तरीके नाकाम हो गए हों। संविधान में यह बिल्कुल स्पष्ट तौर पर लिखा गया है।

सरकार ने यह रास्ता त्याग दिया और इसकी बजाय इसने लोक सभा में अपने प्रचंड बहुमत का लाभ उठाने का फैसला किया। सरकार के कुछ वैधानिक लक्ष्यों को पूरा करने के लिए लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को मिले असीमित अधिकारों का इस्तेमाल करने का फैसला किया गया।

2016 के बसंत में बजट सत्र के अंत में, वित्त मंत्री ने “अन्य कानूनों को बजट में शामिल” कर लिया और उच्च सदन में काला धन कानून को असामान्य तरीके से ले कर आए। विपक्ष ने यह कह कर सरकार का विरोध किया कि वह “मुश्किल विधेयकों” को धन विधेयक के तौर पर पेश कर रही है।

यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि इस श्रेणी के विधेयकों को राज्य सभा में बदला नहीं जा सकता, सरकार ने यही रास्ता अख्तियार कर लिया। उच्च सदन धन विधेयकों के मामले में सिर्फ लोक सभा को अपने सुझाव दे सकता है, वह भी इसे प्राप्त करने के 14 दिनों के अंदर। यह लोक सभा पर निर्भर करता है कि वह राज्य सभा के सभी या किसी सुझाव को माने या ठुकराए। इस तरह सरकार को जिन विधेयकों को पास होने में समस्या होने वाली थी, उनके लिए यह रास्ता खुल गया।

सरकार ने आधार विधेयक को भी धन विधेयक घोषित कर दिया। इसे निम्न सदन में पेश किया गया और वहीं पास भी कर लिया गया। राज्य सभा में इस पर चर्चा हुई, लेकिन यहां हुई चर्चा या संशोधन का कोई महत्व ही नहीं रहा, क्योंकि इसे धन विधेयक घोषित किया जा चुका था। संविधान की धारा 110 (1) में कई प्रावधान हैं जिनके तहत आने वाले विधेयकों को धन विधेयक का दर्जा दिया जा सकता है। आधार विधेयक इनमें से किसी भी शर्त को पूरा नहीं करता था। लेकिन चूंकि लोकसभा अध्यक्ष ने इसे धन विधेयक के तौर पर मंजूरी दे दी और उनका फैसला अंतिम और मान्य होता है, इसलिए विपक्ष कुछ नहीं कर सकता।

लोक सभा के पूर्व महासचिव पी. डी. टी. आचार्य जैसे संवैधानिक विशेषज्ञों ने सरकार के इस कदम का जोरदार तरीके से विरोध किया है। आचार्य ने कहा, “किसी ऐसे विधेयक को धन विधेयक घोषित कर राज्य सभा को विधायी कार्य के अपने अधिकार से दूर नहीं किया जाना चाहिए।” यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट के पास है।

यहां संविधान सभा की चर्चाओं की याद दिलाए जाने की जरूरत है जिसमें यह तय किया गया था कि भारत में दो सदन वाली संसदीय व्यवस्था की जाएगी। इसके पीछे तर्क यह दिया गया था कि “किसी मौके पर उठे आवेग में विधेयक को पारित करने से अच्छा होगा कि उसमें देर हो और उस पर शांति से विचार किया जाए।”

यह पूरी तरह साफ है कि उच्च सदन को दरकिनार कर सरकार तार्किक बहस से बचना चाहती है। संविधान निर्माताओं ने जो व्यवस्था तैयार की है, उसको ले कर ये पूरी तरह अनादर दिखा रहे हैं।

यहां तक कि अभी-अभी समाप्त हुए संसद के बजट सत्र में भी, सरकार ने कुछ महत्वपूर्ण विधेयकों को धन विधेयक का दर्जा दे कर पारित करवा लिया। ऐसा किया जाना सरकार की मंशा को साफ तौर पर जाहिर करता है।

इस साल 31 मार्च को राज्य सभा में सदन की परंपरा को ले कर एक बहस छिड़ गई। उच्च सदन में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद की ओर से यह आरोप लगाया गया था कि सरकार सांसदों की अनुपस्थिति में सदन से विधेयक पारित करवा रही है। इसके बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच वाकयुद्ध छिड़ गया था।

संसदीय कार्य राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने सरकार का बचाव करते हुए कहा कि सत्ता पक्ष के सदस्य सदन में मौजूद हैं और विपक्षी सदस्यों के अनुपस्थित होने को ले कर सरकार को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। तकनीकी तौर पर उनका यह बयान ठीक था। लेकिन दशकों से चली आ रही परंपरा को ले कर सरकार का अनादर पूरी तरह स्पष्ट था।

शुक्रवार के भोजनावकाश के बाद का समय सदस्यों के निजी विधेयकों के लिए रखा जाता है और निजी विधेयकों के बाद कभी सरकारी काम-काज नहीं किया जाता है। इसलिए हमेशा से शुक्रवार की दोपहर के बाद उपस्थिति बहुत कम रहती है।

तीन सप्ताह पहले, मोदी सरकार ने अब तक की स्थापित परंपरा को भी समाप्त कर दिया। सरकार उच्च सदन में अल्पमत में है। ऐसे में उसने विपक्षी सदस्यों की सीट खाली होने का फायदा उठाया और शत्रु संपत्ति कानून को शुक्रवार को भोजनावकाश के बाद निजी विधेयकों के पेश किए जाने के बाद सदन में रख दिया।

सरकार ने कार्य संचालन सलाहकार समिति (बीएसी) की बैठक में तय किया था कि यह विधेयक तभी पेश किया जाएगा, जब इस पर सभी राजनीतिक दलों में व्यापक सहमति बन जाएगी।

सरकार ने संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था के तहत विपक्ष को समझाने का मुश्किल रास्ता अपनाने की बजाय ना सिर्फ अपना दिया गया वादा तोड़ दिया, बल्कि एक प्रचलित परंपरा को भी समाप्त कर दिया। इसने पहले यह सुनिश्चित किया कि इसके सांसद सदन में मौजूद रहें और फिर इस आसान रास्ते से कानून पारित करवा लिया।

उस दिन विपक्ष की लापरवाही का फायदा उठा लिया गया इसलिए 31 मार्च को यह पूरी शक्ति के साथ मौजूद था ताकि सरकार फैक्ट्री (संशोधन) विधेयक 2016 पारित नहीं करवा पाए।

संवैधानिक व्यवस्था को किनारे करना मौजूदा सरकार के लिए अल्पकालिक तौर पर तो जरूर फायदेमंद हो सकता है, लेकिन यह तरीका लोकतंत्र को लंबे समय में बहुत गहरे घाव दे सकता है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.