Author : Sukrit Kumar

Published on Nov 08, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत को चाहिए कि वह अपने उद्योगों को इस तरह से तैयार करें कि आज के वैश्वीकरण के युग में वह दुनिया के विकसित देशों से मुक़ाबला कर सके.

आरसीईपी और भारत: विकसित देशों के सामने कहाँ टिकते हैं हम

4 नवंबर को, हिंद-प्रशांत के 16 देशों के बीच एक एकीकृत बाज़ार बनाए जाने के मक़सद से मुक्त व्यापार समझौता पर सहमति होने वाली थी, जिसको लेकर सहमति नहीं बन पाई. इस समझौते के माध्यम से क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) के सभी सदस्य देशों के उत्पादों को व्यापार में होने वाली बाधाओं को ख़त्म करने की बात कही गई थी. इस सम्मेलन में भारत ने अपने तमाम पक्षों को रखा जिसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह स्पष्ट किया कि इस समझौते में भारत की चिंताओं को शामिल नहीं किया जा रहा है. इसलिए भारत अभी इस समझौते में शामिल नहीं हो रहा है. यदि यह समझौता हो जाता है तो भारत में बड़े पैमाने पर सस्ते चीनी सामान आने शुरू हो जाते जिसका नकारात्मक असर भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ छोटे व्यवसायियों को भी उठाना पड़ता.

इस समझौते को लेकर साल 2012 से ही बातचीत शुरू हो गई थी और अब तक कई बार अलग-अलग देशों से कई स्तर पर वार्ताएं भी हो चुकी हैं. आरसीईपी की कुल आर्थिक विकास दर दुनिया के विकास दर का एक तिहाई प्रतिशत है, यानी ये लगभग 49.5 ट्रिलियन डॉलर की है. अगर हम इस बात आबादी के लिहाज़ से समझाना चाहें तो ये कह सकते हैं कि यह आंकड़ा दुनिया की तकरीबन 45 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करती है. और दुनियाभर में होने वाले निर्यात का एक चौथाई प्रतिशत आरसीईपी के सदस्य देशों से ही होता है.

इस तरह से यह एक बहुत बड़ा ट्रेडिंग ग्रुप है. इसी वजह से चीन का इस बात पर ज़्यादा ज़ोर है कि मुक्त व्यापार समझौता किया जाए. वह ये भी चाहता है कि अमेरिका के साथ जो उसकी व्यापारिक लड़ाई है उसकी भरपाई भी इससे की जा सके.

भारत की चिंताएं क्या हैं?

भारत की चिंताएं भी फ़िलहाल ग़ौर करने वाली है. इन सभी देशों से भारत को व्यापार असंतुलन और व्यापारिक घाटा है जो लगभग 165 बिलियन डॉलर का है. इसमें से सबसे ज्य़ादा व्यापारिक घाटा चीन से है. प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात का ज़िक्र भी किया है कि अनसस्टेनेबल डेफिसिट नहीं होनी चाहिए, अगर यह एक-दो साल की बात है तो चल सकता है लेकिन यह इसी तरह जारी रहा तो भारत इस पर दस्तख़त नहीं कर सकता. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा कि भारत के मूल हित के महत्वपूर्ण मुद्दे थे जिनका समाधान नहीं निकला और अगर इसके बावजूद भारत संधि पर हस्ताक्षर कर देता तो हर भारतीय नागरिक के जीवन पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता.

प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात का ज़िक्र भी किया है कि अनसस्टेनेबल डेफिसिट नहीं होनी चाहिए, अगर यह एक-दो साल की बात है तो चल सकता है लेकिन यह इसी तरह जारी रहा तो भारत इस पर दस्तख़त नहीं कर सकता.

भारत में आरसीईपी को लेकर घरेलू विरोध भी हुआ है, जिसमें कांग्रेस और आरएसएस दोनों शामिल थे. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक ट्वीट में तंज़ कसा कि “मेक इन इंडिया” चीन से ख़रीदा गया है. “आरसीईपी सस्ते सामानों के साथ भारत में बेरोज़गारी की बाढ़ लाएगा, जिसके परिणाम स्वरूप लाखों लोगों की नौकरियां छूट जाएंगी और भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी.” यहां तक ​​कि आरएसएस ने भी इस सौदे के खिलाफ़ एक राष्ट्रव्यापी अभियान का आह्वान किया था. आरसीईपी विनिर्माण और कृषि को मज़बूत करने के लिए आवश्यक नीतिगत उपाय करने के लिए सरकार के हाथों को बांधे रखता है.

भारत को पहले से ही चीन के साथ बड़ा व्यापारिक घाटे का सामना करना पड़ रहा है और उसे यह डर है कि बिना सुरक्षा उपायों के सौदेबाज़ी से हालात और भी बिगड़ सकते हैं. भारत अभी आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहा है. राजनीतिक मोर्चे पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी हरियाणा में अभी ख़त्म हुए राज्य चुनाव में बहुमत हासिल करने में असफल रही है, जबकि जनमत सर्वेक्षणों में बीजेपी की आसान जीत की भविष्यवाणी की गई थी. अर्थव्यवस्था को लेकर मतदाताओं के मन में भी काफी असंतोष था.

क्या हमने अभी तक कृषि क्षेत्र में अपना एग्रीकल्चर अपग्रेडेशन किया है जिससे कि आने वाले समय में हम किसी भी तरह की चुनौतियों से निपटने में सक्षम हो सकें?

भारत ने देश हित में फैसला लेते हुये अपना व्यापार सुरक्षित रखा. भारत ने इससे पहले भी कई सारे मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं जिसमें कई सारे दिक्कतें आनी शुरू हो गई थी. जैसे कि श्रीलंका के साथ हमारा मुक्त व्यापार समझौता होने से रबड़ और मसाले श्रीलंका से सस्ते दामों में आने शुरू हो गए. इसका असर यह हुआ कि हमारे किसानों के सामान बिक नहीं रहे थे जिसकी वजह से उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ा था. इसी तरह हम आसियान से भी मुक्त व्यापार समझौता किए थे जिसका नतीज़ा यह हुआ कि बहुत सारे चीनी वस्तुएं आसियान देशों से होकर भारत आने शुरू हो गए जिसका हमें फिर से नुक़सान हुआ. इस तरह से हमारे कई सारे अनुभव हैं जो हमें अभी इस समझौते पर हस्ताक्षर न करने की सलाह देते है.

भारत को क्या करने की ज़रूरत

ये ठीक है कि भारत ने अपने हितों की सुरक्षा करते हुए इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किया पर क्या हमने अभी तक कृषि क्षेत्र में अपना एग्रीकल्चर अपग्रेडेशन किया है जिससे कि आने वाले समय में हम किसी भी तरह की चुनौतियों से निपटने में सक्षम हो सकें? यदि हम इसका संतोषजनक जवाब नहीं दे पाते हैं तो इसपर गंभीरता से हमारे इंडस्ट्रीज़ और सरकार दोनों को ध्यान देनी की ज़रूरत है नहीं तो हम दुनिया के विकसित देशों से लगातार पिछड़ते ही चले जाएंगे.

इसलिए भारत को चाहिए कि वह अपने उद्योगों को इस तरह से तैयार करें कि आज के वैश्वीकरण के युग में वह दुनिया के अग्रणी देशों से मुक़ाबला कर सके. भारत सरकार को चाहिए कि वो अपनी नीतियों के बारे में विचार-विमर्श करें क्योंकि जिन चुनौतियों का समाधान भारत को 80 और 90 के दशक में कर लेनी चाहिए थी उससे हम आख़िर अभी तक क्यों जूझ रहें हैं?

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.