Author : Dhaval Desai

Published on Dec 26, 2019 Updated 0 Hours ago

जब केंद्र सरकार महाराष्ट्र में एनआरसी लागू करेगी, तो उद्धव ठाकरे को महा विकास अगाड़ी के साझीदारों को एक साथ रखने के लिए ज़्यादा समझदारी और राजनीतिक कौशल से काम लेना होगा.

सीएए एक्ट बन रही है महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार की पहली अग्निपरीक्षा

नागरिकता (संशोधन) क़ानून, या सीएए के ख़िलाफ़ देश के कई हलकों में बेहद उग्र, यहां तक कि हिंसक प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं. इस क़ानून से पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में सताए गए धार्मिक अल्पसंख्यकों यानी ‘हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैन, पारसी और ईसाई’ अप्रवासियों को राहत देने और उन्हें आसानी से भारत की नागरिकता दी जाएगी. ये वो लोग हैं, जो 2014 से पहले से भारत में बिना वैध नागरिकता के रह रहे हैं. इन देशों से अवैध रूप से आए मुसलमानों की शिनाख़्त राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के ज़रिए की जाएगी. फिर उन्हें देश से बाहर निकाला जाएगा.

बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार का ये राजनीतिक क़दम, महाराष्ट्र की राजनीति के लिए बहुत अहमियत रखता है. क्योंकि हाल ही में बीजेपी ने महाराष्ट्र की सत्ता महा विकास अगाड़ी के हाथों गंवाई है. महा विकास अघाड़ी या गठबंधन में बीजेपी की सब से पुराने समय से सहयोगी रही शिवसेना है, जो इस समय महाराष्ट्र की सरकार का नेतृत्व कर रही है. महा विकास अघाड़ी सरकार में राष्ट्रवादी कांग्रेस या एनसीपी और कांग्रेस भी शामिल हैं. बीजेपी के लिए ये नागरिकता संशोधन क़ानून, एक ऐसा राजनीतिक हथियार साबित हो सकता है, जो महाराष्ट्र की महा विकास अगाड़ी सरकार चलाने की राह में सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियां खड़ी करेगा. शिवसेना प्रमुख और राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के लिए ये एक बड़ा सियासी चैलेंज होगा. अगर केंद्र सरकार, महाराष्ट्र में और ख़ास तौर से मुंबई में एनआरसी लागू करने का दबाव बनाती है, तो ये महा विकास अगाड़ी के अस्तित्व के लिए पहली बड़ी चुनौती बनेगा. क्योंकि महा विकास अगाड़ी एक ऐसा गठबंधन है, जिसमें वैचारिक रूप से विपरीत ध्रुवों पर खड़े राजनीतिक दलों ने साथ आ कर सरकार बनाई है. ये दल एक साझा विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि राज्य की सत्ता को अपने हाथ में रखने के लिए ही साथ आए हैं.

बीजेपी के लिए ये नागरिकता संशोधन क़ानून, एक ऐसा राजनीतिक हथियार साबित हो सकता है, जो महाराष्ट्र की महा विकास अगाड़ी सरकार चलाने की राह में सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियां खड़ी करेगा.

मुंबई में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों को बाहर निकालने का अभियान समय समय पर महाराष्ट्र की अलग अलग सरकारों ने चलाया है. और ये अभियान 1995 में शिवसेना-बीजेपी की साझा सरकार के सत्ता में आने से बहुत पहले से चलते रहे हैं. मुंबई पुलिस की स्पेशल ब्रांच से हासिल आंकड़ों के आधार पर, इंडिया टुडे ने इस बारे में जानकारी दी थी. इंडिया टुडे के मुताबिक़, साल 1982 से 1994 के बीच मुंबई में रह रहे 5434 अवैध बांग्लादेशी नागरिकों और 1756 अवैध पाकिस्तानी नागरिकों की पहचान कर के उन्हें वापस भेजा गया था. मज़े की बात ये है कि अवैध रूप से रह रहे इन में से ज़्यादातर लोगों को मराठा क्षत्रप शरद पवार के राज में वापस भेजा गया. उस समय शरद पवार कांग्रेस के नेता हुआ करते थे. शरद पवार को ही महा विकास अगाड़ी बनाने का श्रेय दिया जाता है.

मुंबई से निकाले गए अवैध मुसलमानों के आंकड़े
साल बांग्लादेशी पाकिस्तानी
1982 83 5
1983 225 104
1984 178 196
1985 143 114
1986 280 170
1987 259 216
1988 497 215
1989 580 146
1990 736 196
1991 750 157
1992 596 131
1993 490 70
1994 617 36

स्रोत: इंडिया टुडे

1995 में शिवसेवा-बीजेपी की साझा सरकार सत्ता में आई. इस ने ‘बाहरी’ मुसलमानों के ख़िलाफ़ बड़े ज़ोर शोर से अभियान चलाना शुरू किया. 1996 में मुख्यमंत्री मनोहर जोशी के कार्यकाल के पहले साल में 771 ‘अवैध’ बांग्लादेशियों की मुंबई में शिनाख़्त कर के उन्हें बाहर निकाला गया 1997 में मुंबई में अवैध रूप से रह रहे 806 बांग्लादेशियों को बाहर निकाला गया. घुसपैठियों के ख़िलाफ़ शिवसेना-बीजेपी का अभियान तेज़ हुआ, तो, 1998 के सात महीनों में ही 582 अवैध बांग्लादेशियों को मुंबई से बाहर भेजा गया था. 20 से 22 जुलाई के बीच, महज़ तीन दिनों में ही 96 लोगों को बाहर निकाला गया था. इस अभियान का मुख्य निशाना अस्थायी रिहायशी इलाक़े, जैसे दक्षिण मुंबई के डॉकयार्ड रोड, रियाये रोड और चेंबूर देवनार के पास की बस्तियां और पूर्वी तट के वडाला इलाक़े में बंगालीपुरा मुहल्ले थे. इन इलाक़ों को आज भी अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों का प्रमुख ठिकाना माना जाता है.

मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के यहां क़ानूनी प्रक्रिया पूरी करने के बाद जिन घुसपैठियों को पकड़ा जाता था, उन्हें पश्चिम बंगाल जा रही ट्रेनों में बैठा दिया जाता था. उन के साथ जाने वाले मुंबई के पुलिस अधिकारी, उन्हें पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश की सीमा तक ले जाते थे और वहां बीएसएफ़ के हवाले कर देते थे. ताकि, बीएसएफ़ इन बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रत्यर्पण की प्रक्रिया पूरी कर सके. हालांकि जिस वक़्त ये अभियान तेज़ी पकड़ रहा था, उस समय पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दलों के विरोध के कारण इसे रोकना पड़ा. क्योंकि पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दलों ने महाराष्ट्र सरकार की इस एकतरफ़ा कार्रवाई का विरोध करना शुरू कर दिया था. जुलाई 1998 में लगातार दो दिनों तक, मुंबई से अवैध घुसपैठियों को ले जा रही ट्रेनों को पश्चिम बंगाल के उलुबेरिया और खड़गपुर में रोक लिया गया. यहां नाराज़ भीड़ ने ट्रेन पर हमला बोल कर इन घुसपैठियों को छुड़ा लिया. उस समय ममता बनर्जी की पार्टी तृण मूल कांग्रेस अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार की एक घटक दल थी. तब ममता बनर्जी ने घुसपैठियों को इस तरह निकालने के ख़िलाफ़ नाराज़गी जताते हुए, वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस ले लेने की धमकी दी थी. इस के बाद ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी के तीन सदस्यों को हक़ीक़त का पता लगाने के लिए मुंबई भी भेजा था.

अवैध रूप से रह रहे लोगों पर कार्रवाई करने पर शिवसेना-बीजेपी की सरकार को विपक्ष और वामपंथी झुकाव वाले स्वयंसेवी संगठनो के विरोध का भी सामना करना पड़ा था. मुंबई स्थित एनजीओ-कमिटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स (CPDR), एकता और वोमेन्स रिसर्च ऐंड एक्शन ग्रुप (WRAG) ने इस बारे में जून से लेकर अगस्त 1988 के बीच एक अध्ययन किया था. इस स्टडी के मुताबिक़, घुसपैठियों को निकालने के नाम पर चलाए गए ये अभियान राजनीति से प्रेरित थे. इस स्टडी के मुताबिक़, घुसपैठियों के ख़िलाफ़ इस अभियान से किसी भी राष्ट्रीय हित की पूर्ति नहीं हो रही थी. बल्कि, इस अभियान की वजह से भारतीय समाज में सांप्रदायिक तनाव ज़रूर बढ़ रहा था. और इस का फ़ायदा देश के फ़ासीवादी और सांप्रदायिक विचारधारा वाले लोगों को मिल रहा था. इन एनजीओ ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि, ‘मुंबई के बांग्ला बोलने वाले मुसलमान केवल सामाजिक और आर्थिक नुक़सान और समाज के हाशिए पर धकेले जाने का दर्द ही नहीं झेल रहे थे. बल्कि, ये दक्षिणपंथी सांप्रदायिक साज़िश के भी शिकार हैं, जिन्हें, एक बड़े मगर ख़ुफ़िया षडयंत्र के तहत पृथकतावादी राजनीति का शिकार बनाया जा रहा है. केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारें इसी नीति पर अमल कर रही हैं.’

अब इस के 25 साल बाद जब केंद्र की नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार इस मुद्दे पर निंदा झेल रही है. लेकिन, अब महाराष्ट्र के राजनीतिक आयाम में नाटकीय बदलाव आया है. 1990 के दशक में सत्ता में रहने के दौरान, बांग्लादेशी घुसपैठियों के ख़िलाफ़ राजनीतिक अभियान की अगुवाई करने वाली शिवसेना ने रंग बदल लिया है. अब वो एनसीपी और कांग्रेस के साथ है. सरकार चलाने के लिए शिवसेना ने इन दलों के साथ मिल कर न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया है. इस के तमाम बिंदुओं में से एक ये भी है कि शिवसेना संविधान की धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों का पालन और संरक्षण करेगी.

शिवसेना वो पार्टी है, जो 1990 के दशक से ही भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई से अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों को बाहर निकालने की मांग ज़ोर-शोर से कर रही है.

ध्यान देने वाली बात ये है कि मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद उद्धव ठाकरे ने बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़े कई प्रोजेक्ट को रोक दिया है. इन तमाम प्रोजेक्ट में आरे कॉलोनी में बन रहा विवादित मेट्रो कार शेड भी शामिल है. साथ ही, उद्धव ठाकरे की सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पसंदीदा प्रोजेक्ट मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन योजना पर भी रोक लगा दी है. इस प्रोजेक्ट की शुरुआत पिछली सरकार ने की थी. जबकि पिछली सरकार में शिवसेना, बीजेपी की जूनियर साझीदार थी. हालांकि, उद्धव ठाकरे ने नवी मुंबई के नेरुल में बन रहे ‘नज़रबंदी शिविर’ के बारे में एक भी शब्द नहीं बोला है. ऐसी उम्मीद की जा रही है कि महाराष्ट्र सरकार का गृह विभाग जल्द ही नवी मुंबई में सिडको (CIDCO) से नज़रबंदी शिविर के लिए ज़मीन लेने की प्रक्रिया को आख़िरी मुकाम तक पहुंचाएगा. सिडको ही नवी मुंबई की प्लानिंग एजेंसी है. नवी मुंबई में ये नज़रबंदी शिविर बनाने का फ़ैसला देवेंद्र फड़णवीस सरकार ने असम में एनआरसी की प्रक्रिया पूरी होने के बाद मचे हंगामे के बीच लिया था. इस नज़रबंदी शिविर के निर्माण का फ़ैसला लेकर फड़णवीस सरकार ने महाराष्ट्र में जल्द से जल्द एनआरसी लागू करने के संकेत दिए थे.

एनआरसी और उस के बाद लाया गया नागरिकता संशोधन क़ानून लागू करना, शिवसेना के लिए बेहद मुश्किल रास्ते पर चलने जैसा होगा. शिवसेना वो पार्टी है, जो 1990 के दशक से ही भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई से अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों को बाहर निकालने की मांग ज़ोर-शोर से कर रही है. बांग्लादेशी घुसपैठियों के ख़िलाफ़ सियासी हंगामा खड़ा करने की अगुवाई ख़ुद शिवसेना के संस्थापक स्वर्गीय बाल ठाकरे कर रहे थे. जो ख़ुद को गर्व से हिंदू हृदय सम्राट कहलाना पसंद करते थे. बाल ठाकरे बड़े फख़्र से कहा करते थे कि 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाने की अगुवाई शिवसैनिकों ने की थी.

जब उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री बनने के लिए बीजेपी का साथ छोड़ कर अपने पिता के कट्टर सियासी दुश्मनों एनसीपी और कांग्रेस का दामन पकड़ा था, तब उन्होंने कहा था कि, ‘मैं बाला साहब का सपना पूरा करना चाहता हूं.’ अब शायद उद्धव ठाकरे को इस बात को मानने में मुश्किल होगी कि उन के पिता बाल ठाकरे धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वालों को बुरा-भला कहा करते थे. और, बाल ठाकरे ज़ोर दे कर ये भी कहा करते थे कि संविधान भले ही कुछ भी कहे, मगर भारत हिंदू राष्ट्र है. उद्धव ठाकरे के लिए अपने उस एलान से भी दूरी बनाना आसान नहीं होगा जब उन्होंने कहा था कि, ‘अब केवल एक ही विकल्प बचा है कि भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाए.’ उद्धव ने ये बात पार्टी के मुखपत्र की सालगिरह के मौक़े पर दिए जाने वाले सालाना इंटरव्यू में दो साल पहले 27 जुलाई को ये बात कही थी. असम में एनआरसी की प्रक्रिया पूरी होने के तुरंत बाद शिवसेना के सांसद और केंद्र सरकार में पूर्व भारी उद्योग मंत्री अरविंद सावंत ने मांग की थी कि मुंबई से अवैध बांग्लादेशियों को निकालने के लिए वहां भी एनआरसी को लागू करना चाहिए.

राष्ट्रपति के नागरिकता संशोधन क़ानून को मंज़ूरी देने के 24 घंटे के भीतर ही बेहद नाज़ुक महा विकास अघाड़ी में खींच तान शुरू हो गई थी. कांग्रेस ने पूरी ताक़त से नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध का फ़ैसला किया था. वहीं शरद पवार ने अपनी राजनीतिक कुशलता का एक बार फिर परिचय देते हुए मांग की थी कि इस मुद्दे पर अपनी नीति तय करने के लिए महा विकास अघाड़ी एक पैनल बनाए. वहीं, शिवसेना इस मसले पर दोराहे पर खड़ी है. पार्टी ने इस मुद्दे पर आगे की रणनीति तय करने का फ़ैसला मुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे पर छोड़ दिया है. इस से इस बात का संकेत मिलता है कि सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर शिवसेना के शीर्ष नेतृत्व के बीच मतभेद हैं. वहीं, उद्धव ठाकरे ने फिलहाल संभल कर आगे बढ़ने का फ़ैसला किया है. अपनी ही विचारधारा को सिर के बल खड़ा करते हुए उन्होंने नागरिकता संशोधन क़ानून को देश के लिए ग़लत संदेश देने वाला बताया है. वहीं, उन्होंने ये तय किया है कि वो सुप्रीम कोर्ट के इस क़ानून की संवैधानिकता तय करने का इंतज़ार करेंगे. उद्धव ठाकरे को सरकार के मामले संभालने का अनुभव नहीं है. ऐसे में उन्हें महा विकास अघाड़ी के साझीदारों को साथ रखने के लिए बहुत समझदारी का परिचय देना होगा. ख़ास तौर से तब, जब केंद्र सरकार महाराष्ट्र में एनआरसी लागू करने का फ़ैसला करेगी.

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