Author : Samir Saran

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jul 10, 2023 Updated 0 Hours ago

जिसे कभी असंभव रिश्ता कहा जाता था, उस सोच को ग़लत ठहराते हुए भारत ने अमेरिका के साथ एक महत्वपूर्ण साझीदारी की शुरुआत की है.

साझेदारियां मायने रखती हैं: पहाड़ी पर बसा वो शहर: डांवाडोल जहाज़: और तूफ़ान के बीच रौशनी की मशाल

प्रधानमंत्री मोदी की पहली राजकीय अमेरिका यात्रा विश्व राजनीति के बेहद महत्वपूर्ण दौर में हुई है. ये दौरा ऐसे समय में हुआ है, जब तमाम महाद्वीपों में बसे समुदाय भयंकर आर्थिक उथल-पुथल से जूझ रहे हैं. जनता ध्रुवों में बंटी हुई है, और कई बार हिंसक भी हो रही है. वहीं, एक वक़्त में जिस भूमंडलीकरण और वैश्विक एकीकरण को लेकर दुनिया में एक अलिखित मगर प्रभावी आम सहमति हुआ करती थी कि ये उपयोगी और फ़ायदेमंद है, वो आम सहमति भी टूट रही है.

आज का अमेरिका 2024 के आगे के भविष्य को लेकर अनिश्चितताओं का शिकार है. दुनिया भर में जिन चुनावों को अनेकता का जश्न माना जाता है, वो चुनाव अमेरिका में एक डरावना ख़्वाब बन चुके हैं.

जब प्रधानमंत्री मोदी अपने अमेरिका दौरे के पहले चरण में न्यूयॉर्क पहुंचे, तो यूक्रेन में रूस का विशेष सैन्य अभियान (हमला), ख़ून-ख़राबे के एक नए दौर में प्रवेश कर रहा था. यूरोपीय संघ (EU) और अधिक अफ़रा-तफ़री से बस एक घटना की दूरी पर था. ख़ुद अमेरिका हाल के दौर के अपने सबसे ज़हरीले संघर्ष यानी बैटल ऑफ़ प्रोनाउन्स (Battle of Pronouns) का शिकार बन रहा था. पिछले सात दशकों से जिस उदारवादी व्यवस्था को अमेरिका और यूरोप ने मिलकर बड़ी मेहनत से खड़ा किया था, वो न तो उदारवादी नज़र आ रही थी और न ही कोई व्यवस्था; वो तो बस दिशाहीन थी.

पैक्स अमेरिकाना अब बस सुनहरी यादों का शगल रह गया था. विदेश मंत्रालय के दिग्गजों ने जिस देश की पहचान इस सदी के सबसे महत्वपूर्ण साझीदार के तौर पर की थी, वो तो पहचाना ही नहीं जा रहा था. एक वक़्त ऐसा भी था जब अमेरिका को ख़ुद पर बड़ा ग़ुरूर हुआ करता था. उसके यहां की हर सनक दुनिया भर के लिए अपनाया जाने वाला फ़ैशन बन जाती थी, वो अब पहचान और घटिया राजनीति के बीच बंटा हुआ था. आज का अमेरिका 2024 के आगे के भविष्य को लेकर अनिश्चितताओं का शिकार है. दुनिया भर में जिन चुनावों को अनेकता का जश्न माना जाता है, वो चुनाव अमेरिका में एक डरावना ख़्वाब बन चुके हैं.

हो सकता है कि अपने आख़िरी दशकों में रोमन साम्राज्य की शक्ल-ओ-सूरत ऐसी ही दिखती रही हो. ख़ुद के बेहतर और विशेष अधिकार वाला होने का ग़ुरूर, लैंगिकता और कामुकता को लेकर जुनून और अपने से अलग लोगों पर एहसान जताने वाला भाव, दोनों के बीच कुछ ऐसे ही समान गुण रहे होंगे. इसमें हम अमेरिकी समाज में हमेशा से मौजूद एक स्याह पहलू यानी नस्लवाद को भी जोड़ लें. अब ये बातें पूरे सियासी मंज़र पर चारों ओर छाई हुई हैं, फिर चाहे राष्ट्रवाद का ज्वार हो या ‘वोक’ होने का दंभ.

मोदी का प्रस्ताव

और, अमेरिकी मीडिया की ताक़त के कारण ये ख़राबियां औद्योगिक और वैश्विक स्तर पर हावी हो गईं. ओरिएंटलिज़्म को अभिव्यक्ति की आज़ादी और दैवीय अधिकार बताकर जायज़ ठहराया गया, जो अपनी अपनी पसंद के समूहों को ताक़तवर समझकर बढ़ावा देता रहा. ख़ारिज किए जाने का चलन एक लोकप्रिय रिवाज बन गया. अख़बार एक बार फिर से प्रचार के पत्र बन गए, और बंदूक संस्कृति एक ऐसे समाज की अभिव्यक्ति बन गई, जो ख़ुद को ज़ख़्मी करने पर आमादा हो. जनता की अदालत में अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट पर संगीन इल्ज़ाम लगे, और उसे देश की आधी आबादी के हक़ छीन लेने का दोषी पाया गया. फिर सुप्रीम कोर्ट भी अमेरिका के सियासी सर्कस का हिस्सा बन गया.

मोदी का प्रस्ताव ये था कि सत्ता को आम जनता के आगे आत्मसमर्पण करने के बजाय उसकी सेवा करनी चाहिए.

शायद यही वो वक़्त था कि एक और लोकतंत्र और बहुलतावादी समाज आगे बढ़कर दख़ल देता. ये बिल्कुल सही समय था जब अमेरिका, प्रधानमंत्री मोदी के इस दावे को सुने कि, ‘भारत ने साबित किया है कि लोकतंत्र, वर्ग, जाति, धर्म और लिंग का भेद किए बग़ैर अपने मक़सद में सफल हो सकते हैं (...) ’ और, ‘भेदभाव के लिए बिल्कुल भी जगह नहीं है.’ इस दावे में दम है. क्योंकि ये दावा वो व्यक्ति कर रहा है, जो इस धरती के किसी भी अन्य देश से ज़्यादा विविधता वाले समुदायों, संस्कृतियों और रिवाजों वाले देश का नेतृत्व कर रहा है. उसे इस बात का एहसास है कि आज जब दुनिया में अराजकता ही एक पसंदीदा व्यवस्था बन गई है, तब अनेकता की रक्षा करने की चुनौती कितनी बड़ी है. मोदी का प्रस्ताव ये था कि सत्ता को आम जनता के आगे आत्मसमर्पण करने के बजाय उसकी सेवा करनी चाहिए.

हाल की घटनाओं के बावजूद भारत के लिए, अमेरिका अभी भी सबसे अच्छा दांव है. कमज़ोर होती एक महाशक्ति से बातचीत करके अपने लिए अधिक से अधिक रियायतें हासिल करना ज़्यादा आसान था. अपने से काफ़ी हद तक मेल खाने वाले लोगों से असहमत होते हुए भी सहयोग करना और मोटे तौर पर एक जैसा भविष्य बनाने का आधार तैयार करना अधिक सरल था, जिसे आगे चलकर दोनों ही देश आपस में साझा करेंगे.

निश्चित रूप से जब भारत ऐसा कर रहा था, तो उसे अपनी चमड़ी मोटी करते हुए, अमेरिका के तमाम विचारकों की आलोचनाओं की अनदेखी करनी पड़ी. भारत को कैलिफोर्निया के उन तक़नीकी मंचों को चुनौती देनी पड़ी, जो नफ़रत, अभिव्यक्ति को ख़ारिज करने, विरोध को दबाने या अपनी सियासत के हिसाब से अतार्किक बातों को बढ़ावा देते हैं. भारत के लिए चुनौती ये थी कि जब वो टीम बाइडेन के साथ सामरिक संबंध का दायरा बढ़ा रहा था, तो ये दोनों काम भी करे. और, आज की दुनिया में जहां किसी का पक्ष लेने का जुनून है, तो भारत को अपने भू-राजनीतिक स्थान का बचाव करते हुए, ऐसा भी करना पड़ा.

दोनों देशों का साझा मिशन

जब प्रधानमंत्री मोदी एयर इंडिया वन की सीढ़ियों से उतर रहे थे, तो उनकी बॉडी लैंग्वेज आत्मविश्वास और दृढ़ता से भरपूर शख़्सियत वाली थी. एक दिन पहले ही उन्होंने रूस को लेकर भारत की स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा था: ‘हम निरपेक्ष नहीं हैं. हम शांति के पाले में हैं.’ ये संदेश रूस और अमेरिका दोनों ही देशों में, ‘हमेशा युद्ध करते रहने’ की समर्थक लॉबी के लिए था. प्रधानमंत्री ने भरोसा जताया था कि G20, क्वॉड और इंडो-पैसिफिक इकॉनमिक फ्रेमवर्क फॉर प्रॉस्पैरिटी जैसे मंचों पर भी भारत और अमेरिका के बीच सहयोग बढ़ेगा. अमेरिका की धरती पर मोदी पूरी तरह एक वैश्विक नेता नज़र आए, जिन्होंने लड़खड़ाते चल रहे दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के साथ सामरिक तालमेल के विचार को सामने रखा. वो यही प्रतिबद्धता लेकर व्हाइट हाउस पहुंचे और राष्ट्रपति बाइडेन के साथ मिलकर उन्होंने दोनों देशों की साझेदारी को पांच पायदान ऊपर पहुंचा दिया. अपने घरेलू शोर-शराबे के बावजूद बाइडेन भी इस मुद्दे पर अपनी मज़बूत इच्छाशक्ति दिखाई.

अमेरिका की धरती पर मोदी पूरी तरह एक वैश्विक नेता नज़र आए, जिन्होंने लड़खड़ाते चल रहे दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के साथ सामरिक तालमेल के विचार को सामने रखा. वो यही प्रतिबद्धता लेकर व्हाइट हाउस पहुंचे और राष्ट्रपति बाइडेन के साथ मिलकर उन्होंने दोनों देशों की साझेदारी को पांच पायदान ऊपर पहुंचा दिया.

पहला, भारत और अमेरिका ने अपनी तक़नीकी साझेदारी को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है. दोनों ही नेताओं ने जनवरी 2023 में इनिशिएटिव ऑन क्रिटिकल ऐंड इमर्जिं टेक्नोलॉजीस (iCET) की शुरुआत का स्वागत किया था, और एक खुले, सबको आसानी से उपलब्ध और सुरक्षित तक़नीकी इकोसिस्टम के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को दोहराया था. भारत में लड़ाकू विमानों के निर्माण के ऐतिहासिक समझौते के साथ रक्षा सहयोग को भी एक बड़ा प्रोत्साहन मिला. असैन्य अंतरिक्ष खोज के क्षेत्र में NASA और ISRO 2024 में अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) के लिए एक साझा मिशनभेजेंगे. इसके साथ साथ दोनों देशों के बीच सेमीकंडक्टर सप्लाई चेन ऐंड इनोवेशन पार्टनरशिप की शुरुआत भी की गई है, जिससे दोनों देशों के सेमीकंडक्टर कार्यक्रम को बढ़ावा दिया जा सके. इन सभी मामलों में भारत ने अमेरिका के साथ साझेदारी की नई शुरुआत की है, जिसे कभी एक असंभव सी बात माना जाता था.

दूसरा, बड़े पैमाने पर रक्षा सौदे हुए. इनमे डिफेंस इंडस्ट्रियल को-ऑपरेशन रोडमैप को मिलकर अपनाना और अमेरिका-भारत डिफेंस एक्सेलेरेशन इकोसिस्टम की शुरुआत शामिल है. ये महज़ कारोबारी लेन-देन नहीं हैं, बल्कि ये एक निश्चित सामरिक दिशा दिखाने वाले हैं. लड़ाकू विमानों के इंजन का मिलकर निर्माण; आपसी सहयोग से रिसर्च, परीक्षण और प्रोटोटाइप बनाना; और मिलकर रक्षा तक़नीक के आविष्कार के लिए काम करना, इन सब बातों का असर सौदों से आगे भी देखने को मिलेगा. इनसे अंतरराष्ट्रीय स्थिरता में मदद मिलती है और, एक मज़बूत एवं प्रगतिशील देश के तौर पर भारत की स्थिति मज़बूत होती है. अमेरिका के लिए, ये सहयोग हिंद प्रशांत के ढांचे और एक ऐसे देश में निवेश है, जो अब भू-राजनीतिक तौर पर एक ताक़तवर खिलाड़ी है.

जनरल इलेक्ट्रिक के F414 जेट इंजन की तक़नीक भारत को देना और दोनों देशों की सरकारों के बीच जनरल एटॉमिक के प्रीडेटर ड्रोन का सौदा एक तरह से तानाशाही के ख़िलाफ़ उभरते भू-राजनीतिक संघर्ष मोर्चे पर खड़े लोकतंत्र को मज़बूत करने की कोशिशों का हिस्सा है. इन तक़नीकों को उन्हीं मोर्चों पर तैनात किया जाएगा, जहां इनकी सबसे ज़्यादा अहमियत है; इसकी तुलना में AUKUS जैसे ढांचे आकस्मिक स्थिति से निपटने की योजना का हिस्सा हैं.

तीसरा, अमेरिकी कांग्रेस में जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का शानदार अभिनंदन हुआ- और प्रधानमंत्री की लोकतंत्र के मूल्यों, संस्कृतियों की एकता, महिला सशक्तिकरण, टिकाऊ विकास और तक़नीकी तरक़्क़ी जैसी बातों पर अमेरिकी सांसदों ने 15 बार खड़े होकर तालियां बजाईं- इस जोशीले अभिनंदन के शोर में उन छह अमेरिकी सांसदों की अक्ष धुरी की बकवास डूब कर रह गईं, जिन्होंने मोदी के भाषण का बहिष्कार करने का फ़ैसला किया था. अपने वोट बैंक को लुभाने के लिए उनकी ये कोशिशें, भारत के प्रधानमंत्री के कद को नीचा नहीं दिखा सकती हैं. अमेरिकी संसद में तालियों और तारीफ़ों का वो शोर भारत की वैश्विक हैसियत को सलामी था, और ये अभिनंदन प्रधानमंत्री के उस विश्वास पर भी मुहर था कि, ‘(अमेरिका और भारत) के रिश्ते एक ज़बरदस्त भविष्य के लिए तैयार हैं और वो भविष्य आज का वक़्त है.’

चौथा, भारतीय मूल के लोगों का वो विशाल जनसमूह जो व्हाइट हाउस के बाहर प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए इकट्ठा हुआ था, वो दोनों देशों के बीच मानवीय सेतु के विकास की नुमाइंदगी कर रहा था. जब भारतीय मूल के लोग, जगह पाने की कश्मकश के बीच भारत और अमेरिका के झंडे लहरा रहे थे, तो वो एक ऐसे समुदाय की नुमाइंदगी कर रहे थे, जो भारत और अमेरिका दोनों को अपना मानता है. ये लोग इस साझेदारी को पोषित करने के लिए उत्प्रेरक का काम करेंगे. हमारी घरेलू परिचर्चाएं और वाद-विवाद इस द्विपक्षीय संबध में नए रंग और परतें जोड़ेंगे, और हमारी मज़बूत घरेलू इच्छाशक्ति इस साझेदारी को और ताक़तवर बनाएगी.

अब इस बात को स्वीकार करना ज़रूरी हो गया है कि ये साझेदारी, वैश्विक मामलों के लिहाज़ से भी बहुत महत्वपूर्ण है. समावेशी विकास और तरक़्क़ी और अंतत: शांति और समृद्धि पर इसका वैश्विक प्रभाव पड़ेगा.

पांचवीं और आख़िरी ‘पायदान’ का संबंध सिलसिला जारी रखने से है. दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्र के बीच संबंध स्थायी हैं. एक तरफ़ राष्ट्रपति बुश से लेकर बाइडेन, और इस बीच ओबामा और ट्रंप के शासनकाल में और दूसरी ओर प्रधानमंत्री वाजपेयी से मोदी के दौर के बीच में और मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान, हमने देखा है कि दोनों ही देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने इस संबंध को लेकर मज़बूत प्रतिबद्धता दिखाई है. अलग-अलग दलों के होने के बावजूद, नेताओं की इस प्रतिबद्धता का नतीजा एक आम सहमति वाले साझा भविष्य के नज़रिए के तौर पर उभरा है.

लेकिन, अब इस बात को स्वीकार करना ज़रूरी हो गया है कि ये साझेदारी, वैश्विक मामलों के लिहाज़ से भी बहुत महत्वपूर्ण है. समावेशी विकास और तरक़्क़ी और अंतत: शांति और समृद्धि पर इसका वैश्विक प्रभाव पड़ेगा. जैसा कि भारत और अमेरिका के साझा बयान में कहा गया है कि, ‘इन दो महान देशों के बीच साझेदारी से मानवीय प्रयासों का कोई भी कोना अछूता नहीं रहा है. इसका विस्तार समंदर से सितारों तक है.’ अब वक़्त आ गया है कि इस तालमेल की वैश्विक रूप-रेखा में निवेश किया जाए. वर्तमान धुंधला है, भविष्य साझा है और संभावनाएं असीमित हैं. 

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Samir Saran

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Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...

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