Author : Bhavini Saraf

Published on Dec 27, 2021 Updated 0 Hours ago

मैला ढोने के बेहद बुरे असर को स्वीकार करने के बावजूद, पिछले कई वर्षों से ऐसा करने वालों के हालात सुधारने की कोई ठोस कोशिश नहीं की गई है.

हाथ से मैला साफ़ करने की समस्या: इनकार को परिचर्चा में बदलने की कोशिश

नवंबर महीने में आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा दिए जाने वाले स्वच्छ सर्वेक्षण पुरस्कार बांटते हुए, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने हाथ से शौच साफ़ करने की प्रथा को एक शर्मनाक परंपरा बताया था. उन्होंने कहा था कि इस प्रथा को ख़त्म करने की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ सरकार की नहीं, पूरे समाज की है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि हाथ से शौच की सफ़ाई की समस्या, भारत की ऐतिहासिक वर्ण व्यवस्था और एक ख़ास समुदाय को अलग थलग रखने से जुड़ी हुई है. सरकार के ताज़ा आंकड़े के मुताबिक़, देश में हाथ से शौच की सफ़ाई करने वाले कुल 43 हज़ार 797 लोगों में से 42 हज़ार लोग, अनुसूचित जातियों या दलित वर्ग से ताल्लुक़ रखते हैं.

सरकार के ताज़ा आंकड़े के मुताबिक़, देश में हाथ से शौच की सफ़ाई करने वाले कुल 43 हज़ार 797 लोगों में से 42 हज़ार लोग, अनुसूचित जातियों या दलित वर्ग से ताल्लुक़ रखते हैं.

मौज़ूदा हालात

भारत में संयुक्त राष्ट्र  (UN India) के आंकड़े के मुताबिक़, हाथ से मैला साफ़ करने या मैन्युअल स्कैवैंजिंग का मतलब, मानव मल को हाथ से साफ़ करने, ठिकाने लगाने या फेंकने का काम है. फिर चाहे वो सूखे शौचालयों से हो या सीवर से. भारत में गहरी जड़ें जमाए बैठी जाति प्रथा के चलते, ऐसे नुक़सानदेह काम अक्सर उन लोगों को करने पड़ते हैं, जो जाति व्यवस्था की सबसे निचली पायदान पर हैं. अन्य ख़तरनाक कामों की तरह मैला साफ़ करने वालों को हैजा, हेपेटाइटिस, टीबी, टायफाइड और इसी तरह की अन्य बीमारियों का शिकार होने का ख़तरा बना रहता है. वाटर ऐड इंडिया द्वारा साल 2018 में किए गए एक अध्ययन के मताबिक़, केवल चार राज्यों की 36 बस्तियों में ही 1136 महिलाएं सूखे शौचालयों से मानव मल की हाथ से सफ़ाई का काम कर रही थीं. टेरी (TERI) द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, ये तमाम जोखिम उठाने के बावजूद, हाथ से मैला साफ़ करने वालों को आम तौर पर बहुत कम पैसे मिलते हैं. आम तौर पर उन्हें 50 शौचालय साफ़ करने के एवज़ में 40 से सौ रुपए ही मिलते हैं. वहीं, सीवर साफ करने वालों को चार सीवर लाइनों की सफ़ाई के बदले में अधिकतम पांच सौ से हज़ार रुपए मिलते हैं, वो भी उनसे काम लेने वालों पर ही निर्भर करता है.

भारत में गहरी जड़ें जमाए बैठी जाति प्रथा के चलते, ऐसे नुक़सानदेह काम अक्सर उन लोगों को करने पड़ते हैं, जो जाति व्यवस्था की सबसे निचली पायदान पर हैं. अन्य ख़तरनाक कामों की तरह मैला साफ़ करने वालों को हैजा, हेपेटाइटिस, टीबी, टायफाइड और इसी तरह की अन्य बीमारियों का शिकार होने का ख़तरा बना रहता है. 

भारत में कोविड-19 की दोनों लहरों के दौरान, सबसे ज़्यादा प्रभावित लोगों में डॉक्टर, पुलिसकर्मी और सफ़ाई कर्मचारी शामिल थे. ये कोविड योद्धा अपनी ज़िंदगी दांव पर लगाकर काम कर रहे थे. सरकार ने इन सबके बहुमूल्य योगदान को स्वीकार करते हुए उन पर गुलाब की पंखुड़ियां बरसाईं थीं और ख़ुद प्रधानमंत्री ने उनका शुक्रिया अदा किया था. साल 2021 में कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान, सुरक्षा के पहनावे न होने के चलते 25 सफाई कर्मियों की जान चली गई थी. लेकिन, किसी भी संस्थान ने सफ़ाई कर्मियों की स्थिति सुधारने के लिए कोई वास्तविक प्रयास नहीं किया. सफ़ाई कर्मचारियों की गंदगी साफ़ करने वालों के तौर पर बनी पहचान के चलते उन्हें सामाजिक तौर पर अलगाव झेलना पड़ता है. कोविड-19 के दौरान तो उन्हें और भी मुश्किलें उठानी पड़ीं, क्योंकि महामारी के दौरान काम करने वालों के बारे में यही धारणा थी कि वो वायरस से संक्रमित हैं.

सुधारों की धीमी रफ़्तार

हाथ से मैला साफ़ करने की प्रथा संविधान द्वारा सभी नागरिकों को दिए गए समानता के उस अधिकार पर सवाल खड़े करते हैं, जिसकी गारंटी भारत की न्यायिक व्यवस्था देती है. ऐसे काम करने वालों को उनका वाजिब हक़ देने के लिए कई क़ानून बनाए गए हैं. इनमें 1993 का सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय निर्माण (निषेध) क़ानून, और मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास क़ानून, 2013 (PEMSR) शामिल हैं. इन क़ानूनों के ज़रिए सफ़ाई कर्मचारियों को एक सम्मानजनक जीवन जीने लायक़ अधिकार देने की कोशिश की गई, लेकिन, सुधारों की धीमी रफ़्तार के चलते, उम्मीद के मुताबिक़ बदलाव नहीं हुए हैं.

ये क़ानून लागू होने के बावजूद, हाथ से शौच की सफ़ाई करने वालों की हालत में कोई ख़ास सुधार नहीं देखा गया है. ये बात संसद में सरकार द्वारा हाल ही में की गई घोषणा से भी साबित होती है. जिसके मुताबिक़, देश में हाथ से मैला ढोने से एक भी मौत न होने की बात की गई थी; हालांकि, सीवर या सेप्टिक टैंक की सफ़ाई के दौरान 941 लोगों की मौत की ख़बर ज़रूर आई थी.

सरकार द्वारा हाथ से मैला साफ़ करने की प्रथा के अस्तित्व से ही इनकार करने की बात को हम हाल ही के स्वच्छ भारत मिशन (SBM) से भी जोड़कर देख सकते हैं. स्वच्छ भारत मिशन की इस बात के लिए आलोचना की जाती है कि इस मिशन के तहत ऐसे शौचालय बनाए गए हैं, जिनकी सफ़ाई हाथ से करनी पड़ती है. इस तरह से ये मिशन हाथ से शौच की सफ़ाई की कुप्रथा को बढ़ाने का ही काम कर रहा है. स्वच्छ भारत मिशन के तहत साल 2017 तक बनाए गए शौचालयों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि इनमें से 13 फ़ीसद में ही गड्ढे बनाए गए हैं. 38 प्रतिशत सेप्टिक टैंक पर आधारित हैं, और 20 फ़ीसद शौचालय एक गड्ढे वाले हैं. ये सभी, सूखे शौचालयों की श्रेणी में आते हैं, जिनकी साफ़ सफ़ाई हाथ से करने की ज़रूरत पड़ती है. देश में सबसे ज़्यादा शुष्क शौचालयों का इस्तेमाल भारतीय रेलवे में होता है. रेलवे में 296,012 शुष्क शौचालय हैं, जिन्हें हाथ से साफ़ करने की ज़रूरत पड़ती है. जिसका मतलब है कि मैला ढोने की प्रथा पर रोक का सबसे ज़्यादा उल्लंघन भारतीय रेलवे करती है. रेलवे ने लंबी दूरी की सभी ट्रेनों में 258,906 बायो वैक्यूम शौचालय लगाए हैं. इससे रख-रखाव में रेलवे के 400 करोड़ रुपए बच रहे हैं. अगर यही क़दम सभी तरह की ट्रेनों के बारे में उठाए जाएं, तो इस सरकारी संगठन में हाथ से मल साथ करने की समस्या भी हल होगी और इससे उन अन्य क्षेत्रों को भी एक अच्छा संदेश जाएगा, जो हाथ से मैला साफ़ करने की प्रथा पर निर्भर हैं.

इको फ्रेंडली मॉडल

रेलवे में ज़रूरी बदलाव लाने के साथ-साथ सरकार को और भी इको-फ्रेंडली शौचालयों का निर्माण करना चाहिए. तमिलनाडु नगर निगम द्वारा बनाए जाने वाले नम्मा शौचालयों और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों द्वारा विकसित किए गए अन्य इको फ्रेंडली मॉडल का सूचना के आदान-प्रदान के ज़रिए प्रचार किया जाना चाहिए और स्वच्छ भारत मिशन के तहत ऐसे शौचालय बनाए जाने चाहिए. एक तरह के डिज़ाइन और पानी की कुशल तकनीक का इस्तेमाल करने वाले शौचालयों के ये मॉडल बड़े पैमाने पर बनाए जाने का विकल्प भी मुहैया कराते हैं. ऐसे में शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में इन्हें आसानी से अपनाया जा सकता है.

क़ानूनों के ज़रिए सफ़ाई कर्मचारियों को एक सम्मानजनक जीवन जीने लायक़ अधिकार देने की कोशिश की गई, लेकिन, सुधारों की धीमी रफ़्तार के चलते, उम्मीद के मुताबिक़ बदलाव नहीं हुए हैं.

मैला ढोने की कुप्रथा के बारे में जो जानकारियां उपलब्ध हैं, उनके मुताबिक़ ये काम करने वालों को पहचान की समस्या, वैकल्पिक आर्थिक अवसरों के न होने और देश में हाथ से मैला ढोने के चलते समाज द्वारा बहिष्कृत होने जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है. स्वच्छ भारत मिशन की आलोचना इस बात के लिए ज़रूर की जाती है कि इस मिशन से मैला साफ़ ककरने वालों की परेशानी और बढ़ गई है. लेकिन, अगर हम इन योजनाओं को दूसरे नज़रिए से देखें, तो स्वच्छ भारत मिशन और स्वच्छ सर्वेक्षण के ज़रिए इनमें से कुछ समस्याओं का समाधान हासिल किया जा सकता है.

देश भर में हाथ से शौच की सफ़ाई करने वालों की पहचान करने की ज़िम्मेदारी राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग (NCSK) को दी गई है. आयोग इस काम के लिए वास्तविक आंकड़े हासिल करने के लिए राज्यों के भरोसे रहता है. आंकड़ों की कमी के चलते भी उन सफाई कर्मचारियों के परिजनों को भी मुआवज़ा नहीं मिल पाता, जिनकी मौत सीवर या शौच की सफाई के दौरान हो जाती है. इसके लिए दस लाख रुपए का मुआवज़ा दिया जाता है. अब तक इस योजना के तहत 123 में से केवल 50 फ़ीसद को ही मुआवज़ा मिल सका है.

2013 के स्कैवेंजिंग एक्ट से जोड़ा जा सकता है. 2013 के स्कैवेंजिंग एक्ट को मनरेगा से जुड़े सामाजिक सुरक्षा के क़ानूनों के साथ जोड़ने के लिए वैसा ही एक संशोधन लाया जा सकता है, जैसा 2008 का असंगठित क्षेत्र के कामगारों की सामाजिक सुरक्षा का क़ानून है. ऐसा करके ग्रामीण क्षेत्रों में हाथ से शौच साफ़ करने की समस्या पर काफ़ी हद तक क़ाबू पाया जा सकता है.

इस समय भारत के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़, पचास लाख कर्मचारी साफ़-सफ़ाई के अलग अलग काम करते हैं. वर्ष 2021 तक स्वच्छ सर्वेक्षण द्वारा किए गए सर्वे के दायरे में देश के 4,242 शहर और 17,475 गांव आए थे. ये साफ़ सफ़ाई के लिए दुनिया भर में किया गया सबसे बड़ा सर्वेक्षण है. इन सर्वेक्षणों के ज़रिए हाथ से मैला साफ़ करने वालों की पहचान करने से न केवल इस सर्वेक्षण का दायरा व्यापक होता है, बल्कि, अलग अलग राज्यों से द्वारा एक जैसे तरीक़े यानी संगठित तरीक़े से आंकड़े जुटाए जाते हैं. जैसे कि सेवा के स्तर में प्रगति (स्थानीय निकायों द्वारा जुटाए गए आंकड़े), नागरिकों का फीडबैक और प्रमाणित करने की प्रक्रिया.

वास्तविक बदलाव के लिए कौन से क़दम उठाने की ज़रूरत है?

हाथ से शौच की सफ़ाई करने वालों को वैकल्पिक रोज़गार के अवसर मिल सकें, इसके लिए सफ़ाई कर्मचारियों की मुक्ति और पुनर्वास की स्व-रोज़गार योजना (SRMS) लाई गई थी; हालांकि, वर्ष 2019 तक इस योजना का लाभ केवल छह प्रतिशत लोगों को मिल सका था. लाभार्थियों के बारे में आंकड़े की कमी, स्व-रोज़गार से जुड़े बड़े जोखिमों और कौशल विकास के बाद, रोज़गार हासिल करने में लगने वाले लंबे समय के चलते ये योजना कोई वास्तविक बदलाव ला पाने में नाकाम रही है. ऐसे में सभी सफ़ाई कर्मचारियों की पहचान करने के तुरंत बाद उन्हें स्वच्छ भारत मिशन से जोड़ने पर उनके जीवन में ज़्यादा तेज़ी से बदलाव आ सकेगा. हाथ से मैला ढोने वालों को शौचालयों के निर्माण, कचरा प्रबंधन और स्वच्छ भारत मिशन के तहत चलाए जाने वाले सफ़ाई अभियानों से जोड़ा जा सकता है. 2019 तक हुई प्रगति के मुताबिक़, स्वच्छ भारत मिशन के ग्रामीण हिस्से द्वारा 90 करोड़ व्यक्ति दिनों के बराबर रोज़गार पैदा किया गया था. चूंकि स्वच्छ सर्वेक्षण के तहत शहरों और गांवों को उनके प्रदर्शन के मुताबिक़ रैंकिंग दी जाती है. ऐसे में हाथ से शौचालय साफ़ करने के मशीनीकरण को भी मूल्यांकन का आधार बनाने से स्थानीय निकायों को अपने इलाक़ों में हाथ से मैला साफ़ करने की प्रथा समाप्त करने के लिए और भी प्रोत्साहन दिया जा सकता है. इसके अलावा मनरेगा और सामाजिक सुरक्षा की अन्य योजनाओं को 2013 के स्कैवेंजिंग एक्ट से जोड़ा जा सकता है. 2013 के स्कैवेंजिंग एक्ट को मनरेगा से जुड़े सामाजिक सुरक्षा के क़ानूनों के साथ जोड़ने के लिए वैसा ही एक संशोधन लाया जा सकता है, जैसा 2008 का असंगठित क्षेत्र के कामगारों की सामाजिक सुरक्षा का क़ानून है. ऐसा करके ग्रामीण क्षेत्रों में हाथ से शौच साफ़ करने की समस्या पर काफ़ी हद तक क़ाबू पाया जा सकता है.

रेलवे में ज़रूरी बदलाव लाने के साथ-साथ सरकार को और भी इको-फ्रेंडली शौचालयों का निर्माण करना चाहिए. तमिलनाडु नगर निगम द्वारा बनाए जाने वाले नम्मा शौचालयों और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों द्वारा विकसित किए गए अन्य इको फ्रेंडली मॉडल का सूचना के आदान-प्रदान के ज़रिए प्रचार किया जाना चाहिए और स्वच्छ भारत मिशन के तहत ऐसे शौचालय बनाए जाने चाहिए.

राष्ट्रीय सफ़ाई कर्मचारी आयोग की हाल में आई वार्षिक रिपोर्ट में आयोग के अध्यक्ष ने माना है कि इस संगठन के पास संसाधनों की कमी है और पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस समस्या से मुक्ति पाने की कोशिशों के नतीजे उम्मीद के मुताबिक़ नहीं रहे हैं. इससे, सुधारों को लेकर सरकार की दूरदृष्टि और उन्हें वास्तविक तौर पर लागू करने की योजनाओं के बीच का अंतर भी साफ़ दिखता है. अब चूंकि कोविड-19 के चलते आर्थिक सुस्ती और गहरी जड़ें जमा रही है और इसके चलते बेरोज़गारी भी बढ़ रही है. ऐसे में हाथ से मैला साफ़ करने वाले मानसिक परेशानी देने वाला जो काम कई दशकों से करते आ रहे हैं, उन्हें आगे भी वही करते रहने को मजबूर होना पड़ेगा. ये काम पहले से ही उनकी पहचान पर एक धब्बे की तरह लगा हुआ है. अगर, हालात सुधारने के लिए तुरंत ही ज़रूरी क़दम नहीं उठाए जाते, तो इससे पहले की कोशिशों से हासिल नतीजे बेकार हो जाएंगे.

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