Author : Anushka Shah

Published on Feb 15, 2019 Updated 0 Hours ago

योजना की बारीकी से पड़ताल करने पर एक स्पष्ट सवाल सामने आता है: यह योजना गवर्नेंस का उपाय थी या कोई राजनीतिक तिकड़म?

प्रधानमंत्री किसान योजना: गलत दिशा में अग्रसर

वर्ष 2019 के बजट की प्रस्तुति से ऐन पहले के हफ्तों में राजनीतिक पर्यवेक्षकों का ध्यान इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर केंद्रित हो गया था कि — भारत के कृषि क्षेत्र में बढ़ते संकट से निपटने के लिए मौजूदा सरकार क्या कदम उठाने जा रही है? भारतीय किसानों द्वारा तेजी से चलाए गए मुखर सामूहिक आंदोलनों के परिणामस्वरूप बढ़ती सार्वजनिक जांच ने, विशेषकर आगामी चुनावों के मद्देनजर इस प्रश्न का उचित उत्तर देने के लिए सरकार पर काफी दबाव बना दिया। 1 फरवरी 2019 को अंतरिम बजट की प्रस्तुति के दौरान कार्यवाहक वित्त मंत्री पीयूष गोयल द्वारा उपलब्ध कराया गया उत्तर, काफी हद तक उत्साहहीन था।

कृषि क्षेत्र के लिए इस तथाकथित समर्थन के तहत, केंद्र सरकार ने लगभग 12 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से एक नयी योजना — प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम—किसान) की शुरूआत की। इस योजना के तहत, किसानों को आमदनी में सहायता के तौर पर ​पूर्व दिनांकित या बैक डेट 1 दिसम्बर 2018 से सालाना 6,000 रुपये की राशि प्रदान की जाएगी। यह रकम 2,000 रुपये की तीन किश्तों में किसानों के खाते में सीधे जमा कराई जाएगी, जिसकी पहली किश्त 31 मार्च 2019 को जमा करानी हैं।

इस नई योजना के तहत, केंद्र सरकार ने छोटे और सीमांत किसानों के लिए 75,000 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की है- जिसमें पिछले वर्ष के बजट से लगभग चार गुना वृद्धि की गई है। इसके अलावा, किसानों के कल्याण और उनकी आय को दोगुना करने के वादे को पूरा करने के प्रयास के तहत सरकार ने खाद्य सब्सिडी पर वित्तीय वर्ष 2017-2018 से लगभग दोगुना खर्च करते हुए 22 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (फसल की कीमतों में उतार-चढ़ाव से किसानों की रक्षा करने के लिए ऐहतियात के तौर पर) में पर्याप्त वृद्धि करने का वादा किया है।

हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये योजनाएं कुछ हद तक किसानों के लिए मददगार होंगी, लेकिन इन नीतियों ने उस प्रमुख प्रश्न का उत्तर नहीं दिया है, जो इस चुनावी वर्ष में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को परेशान कर सकता है। क्या राजग सरकार अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में किसानों की तकलीफ को सही मायनों में कम कर पाई है? कृषि मंत्रालय के अनुसार, 2014 और 2016 के बीच, 36,370 किसानों ने आत्महत्या की। 2018 में, देश भर में किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर 13 विरोध प्रदर्शन किए गए। अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू बाजारों में कृषि वस्तुओं की कीमतों में गिरावट और पिछले दो वर्षों के दौरान न्यूनतम समर्थन मूल्य के माध्यम से सहायता की कमी के कारण ये मुद्दे और भी विकराल रूप धारण कर चुके हैं।

हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये योजनाएं कुछ हद तक किसानों के लिए मददगार होंगीलेकिन इन नीतियों ने उस प्रमुख प्रश्न का उत्तर नहीं दिया हैजो इस चुनावी वर्ष में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को परेशान कर सकता है। क्या राजग सरकार अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में किसानों की तकलीफ को सही मायनों में कम कर पाई है?

हालांकि आय में सहायता यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि किसान आवश्यक इनपुट की खरीद कर सकें — लेकिन क्या 6,000 रुपये प्रति वर्ष, यानी एक दिन में 17 रुपये की रकम से क्या हालात में कुछ परिवर्तन हो सकता है? पैदावार के दाम में लगातार गिरावट और अनियमित वर्षा की संभावनाओं के चलते भविष्य में हानि के पूर्वाभासों के साथ क्या यह मामूली रकम सही मायनों में किसी भी तरह के बफर के रूप में कार्य कर सकती है?

केंद्र सरकार की नीतियों की तुलना राज्य स्तर पर कार्यान्वित की जा रही नीतियों से किया जाना लाजिमी है – और इनमें अनिवार्य रूप से कमियां पाई जाएंगी। सरकार द्वारा प्रस्तावित आय सहायता, राज्य सरकारों की ओर से अपने किसानों के लिए की गई पेशकश से काफी कम है। तेलंगाना की ऋतु बंधु योजना के तहत, राज्य सरकार प्रति किसान प्रति एकड़ 8000 रुपये की राशि का अनुदान दो किश्तों में प्रदान करती है, जबकि ओडिशा का कालिया मॉडल प्रति परिवार 10,000 रुपये का अनुदान देता है।

ऐसा लगता है कि केंद्रीय नीति निर्माताओं ने तेलंगाना के ऋतु बंधु मॉडल के कुछ हिस्सों को शामिल किया है। यह मॉडल कृषि संवितरण निर्धारित करने में मदद करने के लिए जोतों पर ध्यान केंद्रित करता है। नीति निर्माताओं ने ज्यादा व्यापक कालिया योजना की जांच करके संभवत: बेहतर सेवाएं दी होतीं। ओडिशा कमजोर कृषि परिवारों की मदद और ब्याज मुक्त फसल ऋण का वादा करने के लक्ष्य के साथ आय के स्तरों के आधार पर भूमिहीन खेतीहर मजदूरों के लिए प्रावधान करता है। ऐसा लगता है कि पीएम-किसान में भूमिहीन, काश्तकार किसानों और मौसम के अनुसार प्रवास करने वालों की पूरी तरह अनदेखी की गई है।

शायद सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रस्तावित योजना नौकरशाही द्वारा भूमि रिकॉर्ड के खराब प्रबंधन पर गौर करने में विफल रही है। ऐतिहासिक रूप से, भारत के कानूनी ढांचे की खामियों ने भूमि के स्वामित्व पर विवादों को जन्म दिया है – यह एक ऐसी समस्या है, जो विशेष रूप से कृषि क्षेत्र को परेशानी में डालती प्रतीत होती है। वैसे तो पीएम-किसान के प्रमुख काश्तकारों में से एक, दो हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों की पहचान करना राज्य सरकार के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण साबित होने वाला है।

प्रस्तावित योजना नौकरशाही द्वारा भूमि रिकॉर्ड के खराब प्रबंधन पर गौर करने में विफल रही है।

कृषि क्षेत्र का गवर्नेंस केंद्र और राज्य तथा समवर्ती सूची दोनों के दायरे में आता है, इसलिए राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय नीतियों के बीच तुलना करना शायद अनुचित है। यदि केंद्र, राज्य के पूरक के रूप में कार्य करना चाहता है, तो चुनौतियों का प्रभावी समाधान करने के लिए मौजूदा राज्य नीतियों पर गौर किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, जहां एक ओर पंजाब के सामने पानी की कमी से जुड़े मसले हैं, तो बिहार के सामने खराब आपूर्ति श्रृंखला और बुनियादी सुविधाओं की कमी से जुड़ी चुनौती है। ऐसे में नीति निर्माताओं द्वारा सभी को एक ही लाठी से हांकने पर बल देने की जगह तालमेल और गठबंधन क्षेत्रों को खोजना संभवत: अधिक विवेकपूर्ण रहा होता।

पीएम-किसान योजना की बारीकी से पड़ताल करने पर एक स्पष्ट सवाल सामने आता है : यह योजना गवर्नेंस का उपाय थी या कोई राजनीतिक तिकड़म? विपक्ष द्वारा मुख्य रूप से किसानों को ऋण माफी की पेशकश किए जाने के कारण मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनावों में केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को पहले ही हार का सामना करना पड़ा है। तो क्या यह प्रशासन के लिए महज दृष्टिकोण की लड़ाई लड़ने का एक आवश्यक कदम भर था? तो फिर राजनीतिक नीति निर्धारण के परिणाम क्या हैं?

बजट पेश करते समय, पीयूष गोयल ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि किसानों को आय सहायता प्रदान करने से 2018-2019 के साथ-साथ 2019-2020, दोनों वर्षों में वित्तीय घाटा बढ़ेगा। और भी चिंता की बात यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) संभवत: निकट भविष्य में दरों में कटौती न करे, ऐसे में यह उपाय वित्तीय वर्ष के लिए जीडीपी की वृद्धि दर को प्रभावित कर सकता है।

राजनीतिक पैंतरेबाज़ी के बावजूद, यह स्पष्ट है कि सरकार महज देश के प्रत्येक किसान को बुनियादी आय प्रदान करके ही कृषि क्षेत्र को प्रभावित करने वाली गहरी समस्याओं को अस्थायी तौर पर सुधारने का प्रयास जारी नहीं रख सकती। इसकी बजाय उसको बारीकी के साथ, लक्षित दृष्टिकोण का विकल्प चुनने की आवश्यकता है। किसी भी अच्छे समाधान के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को आवश्यक तौर पर मिलकर काम करना चाहिए। कृषि क्षेत्र में ढांचागत सुधार महत्वपूर्ण हैं। भारत की लगभग 50 प्रतिशत आबादी कृषि क्षेत्र में काम कर रही है,ऐसे में सरकार को राजनीतिक थिएटर के बजाय गवर्नेंस पर जोर देना चाहिए।

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