Author : Sunjoy Joshi

Published on Aug 21, 2020 Updated 0 Hours ago

पश्चिम एशिया में यह तीसरा ध्रुव भी नज़र आता दिख रहा है. जहांपर चर्चा हो रही है कि ऑटोमन अंपायर के समय में जो पूरे एशिया और यूरोप में राजनीतिक वर्चस्व बना हुआ था उसे फिर से कैसे स्थापित किया जाए.

पश्चिम एशिया में शक्ति का संघर्ष

हाल ही में, इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के बीच में एक ऐतिहासिक शांति समझौता हुआ. इस समझौते के बाद यूएई अरब मुल्कों में ऐसा पहला देश बन गया है जिसने इजरायल के साथ अपने सामान्य रिश्ते कायम किया है. इस समझौते के विरोध में ईरान और तुर्की से बहुत ही सख्त प्रतिक्रियाएं आये हैं. ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि यूएई ने यह डील क्यों किया और इससे उसको क्या हासिल होगा? क्या इजरायल और अरब देशों के बीच जो वर्षों से चली आ रही दुश्मनी है वह अब कम होती जा रही है?

वास्तव में इस घटना से पश्चिम एशिया की राजनीति में एक तरह का उबाल सा आया हुआ है. इसमें ईरान, तुर्की और बाकी खाड़ी के देशों को मिलाकर एक तरह से ट्रायंगल बनता जा रहा है. और इस तरह से शनै शनै करके पश्चिम एशिया में यह तीसरा ध्रुव भी नज़र आता दिख रहा है. जहांपर चर्चा हो रही है कि ऑटोमन अंपायर के समय में जो पूरे एशिया और यूरोप में राजनीतिक वर्चस्व बना हुआ था उसे फिर से कैसे स्थापित किया जाए. और इसके लिए अर्दोगान निरंतर राजनीति में लगे हुए हैं. यही वजह है कि वह तुर्की को फिर से मुख्य भूमिका में लाना चाहते हैं.

अभी जो हाल ही में इजराइल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच समझौता हुआ है इसकी घोषणा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ख़ुद की है. इस समझौते से ट्रंप को भी एक बहुत बड़ी जीत हासिल हुई है क्योंकि वह लगातार कहते चले आ रहे थे कि मैं इस क्षेत्र में शांति लाऊंगा. वास्तव में यह समझौता ईरान को अलग-थलग करने के लिए किया गया है. इस प्रकार से ईरान के विरुद्ध इस क्षेत्र में एक संरचना बनती हुई दिख रही है.

ईरान के अखबार में कहा जा रहा है कि फिलिस्तीन के साथ गद्दारी है. यूएई ने ऐसा करके अपनेआप को एक वैध निशाना बनाया है. तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोगान अब संयुक्त अरब अमीरात के साथ राजनयिक संबंध ख़त्म करने की सोच रहे हैं.

क्या है इस समझौते का मक़सद

स्पष्ट रूप से यह गुटबंदी ईरान के ख़िलाफ़ हुई है. जब से अमेरिका न्यूक्लियर डील से पीछे हटा है तभी से इजरायल द्वारा लगातार अमेरिका पर प्रेशर बनाया जा रहा था कि वो ईरान को नियंत्रित करे. इस तरह से यह उन लोगों की जीत हुई है जो ईरान को घेरना चाहते हैं.

लीबिया में एक बहुत बड़ा शक्ति संघर्ष चल रहा है. यह पूरब और पश्चिम दो भागों में विभाजित हो चुका है. जहां संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र और सऊदी अरब हैं. रूस भी इनके साथ खड़ा है. लीबिया की पूरी राजनीति भूमध्य सागर को लेकर के नियंत्रित करने की लड़ाई है. अर्दोगान का लगातार प्रयास रहा है कि मध्यपूर्व पर उनका नियंत्रण हो. और इलेक्शन भी वह इसी बदौलत ही जीते हैं कि वह फिर से ऑटोमन साम्राज्य स्थापित करेंगे. और तुर्की फिर से एशिया और यूरोप पर राज करेगा. इस समय तुर्की का यूरोप और अमेरिका के साथ संबंध आपस में ख़राब चल रहे हैं; तुर्की और ईरान का संबंध आपस में सुधार के कगार पर हैं; कतर का बाक़ी खाड़ी के देशों ने बहिष्कार किया है. इस तरह से कतर ईरान और तुर्की को मिलाकर आपस में एक तिकड़ी बनती हुए दिख रही है जिनका रूस और चीन के साथ अच्छे संबंध बनते चले जा रहे हैं. इस शक्ति संघर्ष में रूस और अमेरिका दोनों शामिल है और चीन रूस के शह पर यह खेल खेल रहा है.\

लीबिया में एक बहुत बड़ा शक्ति संघर्ष चल रहा है. यह पूरब और पश्चिम दो भागों में विभाजित हो चुका है. जहां संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र और सऊदी अरब हैं और रूस भी इनके साथ खड़ा है. लीबिया की पूरी राजनीति भूमध्य सागर को लेकर के नियंत्रित करने की लड़ाई है.

ट्रंप की राजनीतिक दांवपेच

इस पूरे क्षेत्र में संयुक्त अरब अमीरात का वर्चस्व रहा है. और जैसा कि संयुक्त अरब अमीरात ने इजरायल का साथ दिया है तो इससे इजराइल का बहुत बड़ी जीत हुई है. अमेरिका की राजनीति में इजराइल का एक बहुत शक्तिशाली लॉबी है तो इससे सीधे-सीधे डोनाल्ड ट्रंप को इसका फ़ायदा मिलता है. विदेश नीति के मामले में डोनाल्ड ट्रंप पर यह इल्ज़ाम लगाए जा रहे थे कि यह हर जगह अपने सहयोगियों को निराश कर रहे हैं जिससे कि गठबंधन कमज़ोर होते जा रहे हैं. इससे अब ट्रंप को कहने का यह मौका मिल गया कि हमने जो वादा किया था कि पश्चिम एशिया में शांति कायम लाने का- उसको मैंने पूरा किया है. इससे एक तरह से नेतन्याहू को भी फ़ायदा मिला क्योंकि वह घरेलू राजनीति की वजह से बड़े कम ज़ोर पड़ रहे थे.

पिछले कुछ वर्षों से संयुक्त अरब अमीरात और इजरायल के संबंध तकनीकी और निवेश के मामले में बहुत अधिक नज़दीक आए हैं. एक तरह से देखा जाए तो इस क्षेत्र में जितने भी बड़ी- बड़ी शक्तियां हैं वो एक दूसरे से अपने-अपने संबंध बरक़रार रखते हुए आगे बढ़ना चाहते हैं. और इसमें रूस और चीन आपस में लगे हुए हैं कि कैसे इस क्षेत्र में अमेरिका के वर्चस्व कम किया जाए और अपने प्रभाव को और बढाया जाए.

बाकी शांति समझौतों से यह अलग क्यों?

इस समझौते को लेकर के जिस बात को ज़्यादा तूल दी जा रही है- वह है फिलिस्तीन का मुद्दा. इस समझौते में इजरायल ने फिलिस्तीन के बारे में सिर्फ़ इतना ही कहा है कि वह फिलिस्तीन में जो कब्ज़ा करने की उसकी प्रक्रिया है उस पर वह अभी रुक करके काम करेगा. इसका बहुत ज़्यादा मतलब नहीं है. और इसी बात को लेकर ईरान और तुर्की प्रश्न उठाते हैं. इस्लामिक जगत में यह प्रश्न उठ रहे हैं कि किन-किन देशों ने फिलिस्तीन के हित को दरकिनार कर सिर्फ अपने हित देखें हैं. ईरान और तुर्की आगे इस पर राजनीति करेंगे और अर्दोगान बड़े स्पष्ट रूप से कहा है कि हम यूएई से अपने संबंध तोडेंगे. क्योंकि इस पूरे समझौते के द्वारा आवाम के ख़िलाफ उनसे हाथ मजबूत किए गए हैं. इस तरह से यहां राजनीति अभी और आगे बढेगी. यह जो एक त्रिकोणीय बन रहा हैं – इराक, ईरान और बाकि खाड़ी के देशों द्वारा इसमें रूस, चीन, यूरोप और अमेरिका इसमें सभी अपने-अपने हाथ धोने को तैयार बैठे हुए हैं कि कैसे उन्हें फ़ायदा मिले. क्षेत्र के बारे में इन लोगों को चिंता कम रहेगी लेकिन इसमें इनको फ़ायदा कैसे पहुचे, कैसे वह एक दूसरे को काउंटर करे इसकी चिंता उनको ज़्यादा रहेगी.

इस समझौते को लेकर के जिस बात को ज़्यादा तूल दी जा रही है- वह है फिलिस्तीन का मुद्दा. इस समझौते में इजरायल ने फिलिस्तीन के बारे में सिर्फ़ इतना ही कहा है कि वह फिलिस्तीन में जो कब्ज़ा करने की उसकी प्रक्रिया है उस पर वह अभी रुक करके काम करेगा.

किस तरफ है पाकिस्तान?

पाकिस्तान सभी तरफ है. वह ईरान के साथ भी खेलेगा, सऊदी अरब के साथ खेलेगा और चीन के साथ भी खेलेगा. उसका मुख्य मुद्दा है कि किस तरह से तस्वीर कश्मीर को जीवित रखा जाए और इसे और इसका अंतरराष्ट्रीयकरण किया जाए. 5 अगस्त को पाकिस्तान के विदेश मंत्री कार्यालय से यह ऐलान आया था कि इमरान खान ने लाइन खींच कर कश्मीर को अपने मानचित्र का हिस्सा बना लिया है. बहुत अच्छा है कि नक़्शे पर लाईन खींचकर जिस हिस्से को चाहे अपने में मिला लीजिए पर पहले जिस हिस्से पर काबिज हैं उन्हें तो आप अच्छा शासन दे दीजिए. फिर आगे बात करिएगा. वास्तव में पाकिस्तान इस खेल में भी अपना हाथ धोना चाहेगा. एक तरफ जनरल बाजवा सऊदी अरब के पास चले गए वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान ने तुर्की को भी सिग्नल दे दिया कि हम आपके साथ हैं. तो इस तरह से पाकिस्तान वह जो तीसरा ग्रुप उभर रहा है उसके तरफ अपना हाथ बढ़ाया है क्योंकि तुर्की ने कश्मीर मुद्दे पर आवाज़ उठाई थी. वास्तव में पाकिस्तान आज तक अपनी आइडेंटिटी निश्चित नहीं कर पाया है कि वह सऊदी अरबिया आईडेंटिटी है, या भारतीय आईडेंटिटी है या जो ऑटोमन साम्राज्य वाली आईडेंटिटी हैं क्योंकि अब वह उनके साथ जुड़ना चाहते हैं. तो पहले वह दो नांव पर पांव रखना चाहते थे और अब वह तीन नाव पर पांव रख रहे हैं. यह बात तुर्की भी समझता है, सऊदी अरब भी समझता है और बाकी सभी लोग भी समझते हैं.

वास्तव में पाकिस्तान आज तक अपनी आइडेंटिटी निश्चित नहीं कर पाया है कि वह सऊदी अरबिया आईडेंटिटी है, या भारतीय आईडेंटिटी है या जो ऑटोमन साम्राज्य वाली आईडेंटिटी हैं क्योंकि अब वह उनके साथ जुड़ना चाहते हैं.

आर्म्स एंबार्गो पर यूएनएससी का रुख़

यह तो सभी को मालूम था कि अमेरिका का ईरान के ख़िलाफ जो यूनाइटेड नेशन सिक्योरिटी काउंसिल (यूएनएससी) में जो प्रस्ताव था -आर्म्स एंबार्गो का- वह सफल नहीं होगा. पर इतनी बुरी तरह से विफल होगा कि वीटो स्टेज तक भी नहीं पहुंचेगा और किसी भी देश इसका समर्थन नहीं हासिल होगा, यह किसी को भी नहीं मालूम था. जहाँ तक मेरा ख्याल है ईरान को घेरने की वो ट्रंप की अपनी राजनैतिक एजेंडा है और यह कभी कम ज़ोर नहीं होगा बल्कि इसे बल ही मिलेगा. अब ट्रंप इस बात पर  ज़ोर डालेंगे के ईरान परमाणु समझौते के तहत स्नैपबैक मैकेनिज्म की कि अगर ईरान इस समझौते का उल्लंघन करता है तो उस पर फिर से प्रतिबंध लागू किया जाएगा. तो अब यूनाइटेड नेशन सिक्योरिटी सिक्योरिटी काउंसिल में अगला द्वंद इसी बात को लेकर आने वाला है. जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप बाकी देश कहेंगे कि जब अमेरिका इस समझौते का हिस्सा ही नहीं है तो वह कैसे ईरान पर प्रतिबंध लगाने की बात कह सकता है? क्योंकि आपको अधिकार ही नहीं रहा यह सब बोलने का. यह सब झगड़ा चलेगा लेकिन फ़िरसे यह सब करके ट्रंप को अपने चुनावी अभियान के लिए एक और टॉकिंग प्वाइंट मिलेगा कि कैसे उन्होंने ईरान की कमर तोड़ी है. तो इस तरह से डोनाल्ड ट्रंप- चीन, ईरान और पश्चिम एशिया की राजनीति पर चुनाव से पहले अपनी राजनीतिक लाभ उठाने में लगे हुए हैं.

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