Author : Rouhin Deb

Published on Jan 09, 2021 Updated 0 Hours ago

पूर्वोत्तर के लोगों ने हमेशा से टिकाऊ सोच और योजना को प्राथमिकता दी है जिसमें सामुदायिक भागीदारी विकास आधारित किसी भी पहल के लिए सबसे अहम शर्त रही है.

वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट: पूर्वोत्तर अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक गेमचेंजर

भारत का पूर्वोत्तर भाग प्राकृतिक पर्यटन के क्षेत्र में काफी उन्नत माना जाता है. यहां मौजूद पहाड़ी, गांव, घाटियां, नदी, झरने-तालाब और यहां की संस्कृति बहुत हद तक सैलानियों को यहां आने पर मजबूर करती है. भारत का पूर्वोत्तर भाग 7 राज्यों से मिलकर बना है, जिन्हे सात बहनें कहकर भी बुलाया जाता है. ये सातों राज्य अपने प्राकृतिक ख़ज़ाने के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं.

उत्तर पूर्वोत्तर भारत जिसमें हिमालय के साथ लगने वाली आठ प्राचीन राज्य शामिल हैं… उसकी 98 फीसदी सरहद बांग्लादेश, म्यांमार, भूटान और चीन से लगती है और यही वजह है कि भारत के साथ भौगोलिक और आर्थिक एकीकरण को लेकर इन राज्यों ने कई चुनौतियों का सामना किया है. इस इलाके के लोगों के सशक्तीकरण में क्षेत्रीय और केंद्रीय नेतृत्व के अभाव का ही ये नतीजा है कि अक्सर आर्थिक और सामाजिक न्याय की मांग करने वाले लोग इस क्षेत्र में विरोध और प्रदर्शन का रास्ता अख्तियार कर लेते हैं.

इस क्षेत्र के लोगों ने हमेशा से दिल्ली की सत्ता में बैठी सरकारों की इस कमी को उजागर किया है कि उन्होंने उत्तर-पूर्वी राज्यों को मुख्यधारा से जोड़ने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया है.

उत्तर पूर्व भारत के नागरिक समय-समय पर सालों से चले आ रहे दिल्ली के सौतेले व्यवहार की शिकायत करते रहे हैं. इलाके में आर्थिक विकास की कमी हो या फिर भारत के दूसरे हिस्सों तक आसान पहुंच हो, इस क्षेत्र के लोगों ने हमेशा से दिल्ली की सत्ता में बैठी सरकारों की इस कमी को उजागर किया है कि उन्होंने उत्तर-पूर्वी राज्यों को मुख्यधारा से जोड़ने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया है.

मौजूदा सरकार का क्षेत्र को लेकर योजना

मौजूदा सरकार ने हालांकि, इन राज्य के लोगों की इस चिंता को दूर करने के लिए कई कदम उठाए हैं ताकि ये राज्य देश के बाकी राज्यों की तरह ही विकास की सीढ़ियां चढ़ सकें. इनमें एक्ट ईस्ट पॉलिसी और नॉर्थ ईस्ट स्पेशल इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट स्कीम भी शामिल हैं. हालांकि, इन योजनाओं ने क्षेत्र में अर्थव्यवस्था को गति देने में मदद तो की है, लेकिन यहां आर्थिक विकास को लेकर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. उत्तर-पूर्वी राज्यों की मुख्य रूप से आदिवासी आबादी ने हमेशा से टिकाऊ विकास की अवधारणा पर भरोसा किया है और अतीत में सरकारों द्वारा अपनी जमीन और संसाधनों के आर्थिक दोहन के खिलाफ हमेशा से आवाज बुलंद की है. वैसे लोग जो इस क्षेत्र के आंतरिक इलाके में रहते हैं उन्होंने आर्थिक विकास और समृद्धि जैसे शब्दजाल में खुद को फंसने से रोका है और ऐसी हेराफेरी के विरूद्ध मज़बूती से खड़े रहे.

यही वजह  है कि पूर्वोत्तर के लिए घोषित किए गए मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के खिलाफ लगातार होने वाला विरोध यहां कम होता नहीं दिखता क्योंकि इन योजनाओं की कीमत क्षेत्र के पारंपरिक कुदरती संसाधनों के दोहन और इलाके के मूल निवासियों के विस्थापन पर आधारित है. पूर्वोत्तर के लोगों ने हमेशा से टिकाऊ सोच और योजनाओं को प्राथमिकता दी है जिसमें विकास परख पहल के लिए सामुदायिक भागीदारी को पहली शर्त बनाया गया है.

पूर्वोत्तर के लिए घोषित किए गए मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के खिलाफ लगातार होने वाला विरोध यहां कम होता नहीं दिखता क्योंकि इन योजनाओं की कीमत क्षेत्र के पारंपरिक कुदरती संसाधनों के दोहन और इलाके के मूल निवासियों के विस्थापन पर आधारित है. 

एक जिला एक उत्पाद  (ओडीओपी)योजना के साथ सरकार ने आखिरकार पूर्वोत्तर राज्यों के साथ उनकी अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए एक सही कदम उठाने का प्रयास किया है जिसका लक्ष्य हर जिले में वहां की ख़ासियत के हिसाब से वहां के संसाधनों का इस्तेमाल कर आर्थिक उन्नति की राह पर चलने की है. इसमें दो राय नहीं है कि पूर्वोत्तर हमेशा से कृषि आधारित अर्थव्यवस्था रही है जिसमें खेती की अपार संभावनाएं निहित हैं. इसके साथ ही यहां के स्थानीय लोग, जिनमें कई तरह की जनजाति और उप-जनजातियां शामिल हैं, उनमें शिल्प कला की बेजोड़ परंपरा कायम है और यही वजह है कि करीब-करीब हर जनजाति किसी खास शिल्प कला को लेकर अपनी उत्कृष्ट पहचान रखती है लेकिन विडंबना यह है कि सालों से पूर्वोत्तर बेहतर गुणवत्ता वाले मसाले, जड़ी बूटियां, सब्जियां और फल का उत्पादन करता रहा है लेकिन स्थानीय स्तर पर सरकार की संस्थागत सहायता इन्हें नसीब नहीं है. कनेक्टिविटी से लेकर लॉजिस्टिक्स, स्टोरेज और दुनिया भर के खरीददारों से जुड़ नहीं पाना जैसे मुद्दों के चलते लंबे समय तक यहां आर्थिक विकास की गति तेज नहीं हो सकी है और ये चीजें यहां की आर्थिक प्रगति को कई तरह से बाधित कर रही हैं.

हालांकि, नया ओडीओपी कार्यक्रम इस इलाके के लोगों के लिए उम्मीद की नई रोशनी लेकर आया है क्योंकि इसका मकसद स्थानीय लोगों की सहायता और मेक इन इंडिया कार्यक्रम के जरिए उन्हें सशक्त बनाकर बीमार पड़ी यहां की परंपरागत कारोबार को फिर से ऊंचाई देने की है. इस कार्यक्रम का उद्देश्य स्थानीय स्वदेशी विशेष उत्पादों के साथ विकास की नई-नई योजनाओं के जरिए हर जिले के शिल्प उद्योग को बढ़ावा देने की है जिसके तहत स्थानीय उत्पादन केंद्रों समेत शिल्पकारों, किसानों को ऋण मुहैया कराना और सामान्य सुविधा केंद्र बनाना शामिल है. ऐसा कर सरकार की मंशा यहां के उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाना और यहां की परंपरागत शिल्प और कला को अतंरर्राष्ट्रीय बाजार उपलब्ध कराना है जिससे यहां की स्थानीय कला अगली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रह सके. जाहिर है सरकार की ऐसी पहल से निचले स्तर पर स्थानीय रोज़गार पैदा होंगे और लोगों की आय बढ़ेगी साथ ही शिल्पकार, कारीगर और किसान भी आर्थिक रूप से सशक्त होंगे जिससे वो अपने उत्पाद को और बेहतर करने के लिए नए-नए कौशल सीख सकेंगे.

ओडीओपी कार्यक्रम के तहत संभावनाएं

इस बात की पूरी संभावना है कि अगर पूर्वोत्तर में ओडीओपी मॉडल को बेहतर ढंग से लागू किया जाए तो यह इस क्षेत्र के लिए गेमचेंजर साबित हो सकता है. यहां चाहे बात असाधारण कालीन बनाने के उद्योग की हो या फिर बांस की लकड़ी के बर्तन बनाने की, बेंत से बनाया जानेवाला शिल्प हो या हथकरघा उद्योग जिसमें देश के बेहतरीन सिल्क उत्पादों को तैयार किया जाता है या फिर कृषि उत्पाद जिसमें दुनिया की सबसे बेहतरीन हल्दी हो या फिर सबसे तीखी मिर्च , ओडीओपी कार्यक्रम के तहत संभावनाएं अपार हैं. दो राय नहीं कि इसके जरिए पूर्वोत्तर और देश के बाकी हिस्सों के बीच जो दूरी बन गई है उसे कम किया जा सकेगा और इसके साथ ही विकास के टिकाऊ मॉडल को भी अमल में लाया जा सकेगा.

सरकार ने इस ओर पहले से ही कदम उठाने शुरू कर दिए हैं. इनवेस्ट इंडिया, सरकार की निवेश को प्रोत्साहन देने वाली और फैसिलिटेशन एजेंसी को इस बात का ज़िम्मा सौंपा गया है कि पूर्वोत्तर में जमीनी स्तर पर इस कार्यक्रम को लागू किया जा सके और इस एजेंसी ने भी क्षेत्र के कई स्वदेशी उद्योगों के स्टेक होल्डरों से जुड़ने की पहल शुरू कर दी है जिससे कि उनके उत्पादों को दुनिया में पहचान दिलाई जा सके और अगर यह योजना सटीक बैठती है तो यह पूर्वोत्तर भारत और यहां रहने वाले लोगों के लिए नई सुबह लेकर आएगा. हालांकि, इसके लिए शर्त बस इतनी है कि सरकार और उसकी एजेंसियां अति-व्यवसायीकरण और यहां की स्वदेशी भावनाओं के बीच संतुलन को महत्व देते हुए विकास के रास्ते पर चले.

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