Published on Aug 05, 2020 Updated 0 Hours ago

अब समय है कि क़ानून बनाने वाले और आम लोग पुलिस कमिश्नरी सिस्टम, उसकी कामयाबी और नाकामी पर गंभीरता से नज़र डालें और फिर से जांची-परखी दोहरी व्यवस्था की तरफ़ लौटें.

अब समय आ गया है पुलिस कमिश्नरी सिस्टम की समीक्षा की जाए

15 जनवरी 2020 को उत्तर प्रदेश कैबिनेट ने राज्य की राजधानी लखनऊ और नोएडा के लिए पुलिस कमिश्नरी सिस्टम को मंज़ूर किया. इस सिस्टम के तहत इंस्पेक्टर जनरल रैंक के IPS अधिकारी को कमिश्नर के तौर पर तैनात करके उसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी और मजिस्ट्रेट का अधिकार दिया गया है. अगर कमिश्नरी सिस्टम दोनों शहरों में कामयाब होता है तो उम्मीद जताई जा रही है कि पूरे उत्तर प्रदेश में इसे लागू किया जाएगा. 1983 में जारी राष्ट्रीय पुलिस आयोग की छठी रिपोर्ट में सिफ़ारिश की गई थी कि 10 लाख या उससे ज़्यादा जनसंख्या वाले शहरों के साथ-साथ विशेष परिस्थिति वाली जगहों में कमिश्नरी सिस्टम को लागू किया जाए.

ऐसा महसूस किया गया है कि ये सिस्टम पुलिस को ज़्यादा अधिकार और ज़िम्मेदारी देकर उसकी कार्यकुशलता में बढ़ोतरी करेगा. इस सिस्टम के तहत पुलिस सीधे अपने प्रमुख और संबंधित मंत्री के प्रति जवाबदेह होगी

2005 में गृह मंत्रालय द्वारा गठित एक कमेटी के बनाए मॉडल पुलिस एक्ट के मसौदे में भी 10 लाख से ज़्यादा आबादी वाले सभी शहरों और शहरी क्षेत्रों के लिए कमिश्नरी सिस्टम के तहत प्रशासनिक व्यवस्था लागू करने की सिफ़ारिश की गई थी. अभी तक ये सिस्टम 15 राज्यों के 63 शहरों में लागू किया गया है. ऐसा महसूस किया गया है कि ये सिस्टम पुलिस को ज़्यादा अधिकार और ज़िम्मेदारी देकर उसकी कार्यकुशलता में बढ़ोतरी करेगा. इस सिस्टम के तहत पुलिस सीधे अपने प्रमुख और संबंधित मंत्री के प्रति जवाबदेह होगी. 63 शहरों को छोड़कर बाक़ी देश में पुलिस दोहरी कमान संरचना के तहत काम करती है जहां पुलिस पर नियंत्रण और निर्देश SP (ज़िला पुलिस का प्रमुख) और ज़िलाधिकारी (कार्यकारी) के पास होती है. इसका ये भी मतलब है कि पुलिस के पास कम अधिकार होते हैं और ज़िले में DM को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है. आम तौर पर ज़िले में समस्या के बावजूद शांति होती है. राहत के लिए लोग हमेशा DM के पास जा सकते हैं. कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बिना वर्दी वाले अधिकारी के पास खुलकर अपनी बात बताते हैं क्योंकि उन्हें हमेशा गिरफ़्तारी और थाने ले जाए जाने का डर सताता रहता है. पुलिस कमिश्नरी वाले शहरों में लोगों के पास ये विकल्प नहीं होता और वो वर्दीधारी पुलिस वालों की दया पर रहते हैं.

ये गंभीर चिंता की बात है कि NRC बिल और CAA क़ानून को लेकर व्यापक और लगातार विरोध प्रदर्शनों के दौरान देश के कई शहरों में दंगे हुए, ख़ास तौर पर उन शहरों में जहां पुलिस कमिश्नरी सिस्टम है. इन दंगों की वजह से देश में क़ानून-व्यवस्था की नाकामी सामने आई. 14 दिसंबर 2019 से शुरू होकर 24 मार्च 2020 तक चले शाहीन बाग़ के विरोध प्रदर्शन ने साफ़ कर दिया कि जहां पुलिस कमिश्नरी सिस्टम की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी, वहां वो अपने मक़सद को पाने में नाकाम रहा. आख़िरकार ये विरोध प्रदर्शन मुख्य रूप से कोविड-19 महामारी की वजह से लागू देशव्यापी लॉकडाउन के कारण ख़त्म हुआ. उत्तर-पूर्वी दिल्ली में 10 दिन तक चले दंगे में क़रीब 53 लोगों की मौत हुई. ये शुरू से ही साफ़ था कि सरकार बिल और क़ानून- दोनों को लेकर अपना संदेश लोगों तक पहुंचाने में नाकाम रही. अल्पसंख्यक समूह इस बात को लेकर निश्चित थे कि क़ानून हर तरह से भेदभावपूर्ण है. अगर सरकार इन शहरों के DM का इस्तेमाल लोगों तक सही ढंग से अपनी बात पहुंचाने में करती तो ऐसी नौबत नहीं आती.

जिन नागरिकों की रक्षा की ज़िम्मेदारी पुलिस के पास है, महामारी शुरू होने के बाद से उनके ख़िलाफ़ पुलिस की ज़्यादती के अनगिनत मामले सामने आए हैं. हाल में तमिलनाडु के थूथुकुड़ी में एक छोटे से मामले को लेकर पुलिस हिरासत के दौरान ज़्यादती करते हुए पिता और पुत्र को इतना पीटा गया कि उनकी मौत हो गई

मार्च 2020 की शुरुआत में दिल्ली की निज़ामुद्दीन मस्जिद में हुई तब्लीग़ी जमात की धार्मिक सभा ने कोविड-19 को बड़े पैमाने पर फैलाया. इस मामले में दिल्ली पुलिस पूरी तरह नाकाम साबित हुई. वो एहतियातन इस आयोजन पर पाबंदी नहीं लगा पाई जिसकी वजह से हालात बेकाबू हुए. उस वक़्त 14,378 संक्रमण में से 4,291 मामलों को दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े में हुए आयोजन से जोड़ा गया था.

जिन नागरिकों की रक्षा की ज़िम्मेदारी पुलिस के पास है, महामारी शुरू होने के बाद से उनके ख़िलाफ़ पुलिस की ज़्यादती के अनगिनत मामले सामने आए हैं. हाल में तमिलनाडु के थूथुकुड़ी में एक छोटे से मामले को लेकर पुलिस हिरासत के दौरान ज़्यादती करते हुए पिता और पुत्र को इतना पीटा गया कि उनकी मौत हो गई. इस विवाद को बातचीत के ज़रिए आराम से हल किया जा सकता था. 1 अप्रैल 2017 से लेकर 28 फरवरी 2018 के बीच 1,674 लोगों की हिरासत में मौत के मामले सामने आए हैं जिनमें से 1,530 लोगों की मौत न्यायिक हिरासत में हुई है जबकि 144 की पुलिस हिरासत में.

क़रीब 5 लोगों की रोज़ाना हिरासत में मौत के साथ हालात डरावने हैं. पूरे देश में फेस मास्क नहीं पहनने और लॉकडाउन के दौरान उचित परमिट के बिना ड्राइविंग करने को लेकर पुलिस उत्पीड़न के कई उदाहरण हैं. इन घटनाओं ने पुलिस को लेकर लोगों के संदेह और डर को और पुख्ता किया है. ताज़ा मामले के तहत कानपुर में विकास दुबे नाम के एक कुख्यात गैंगस्टर ने आठ पुलिसवालों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया. आरोप है कि उसे हर स्तर पर राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था और उसकी होने वाली गिरफ़्तारी को लेकर पुलिसवालों ने ही उसे जानकारी दी थी. पुलिस ने विकास दुबे की गिरफ़्तारी के अगले ही दिन संदिग्ध हालात में मुठभेड़ के दौरान उसे ढेर कर दिया. हालांकि, कानपुर फिलहाल पुलिस कमिश्नरी सिस्टम के तहत नहीं है.

मुठभेड़ के दौरान हत्या, संपत्ति की तोड़फोड़ और दूसरे कामचलाऊ उपायों से अपराधी, पुलिस और राजनेता के गठजोड़ की वजह से मौजूद संस्थागत भ्रष्टाचार ख़त्म होने वाला नहीं है. इससे अगर कुछ होगा तो सिर्फ़ इतना कि ये भ्रष्टाचार और जटिल हो जाएगा जिसकी वजह से गठजोड़ का पर्दाफ़ाश और मुश्किल होगा. क्या पुलिस कमिश्नरी सिस्टम लागू करने को लेकर कभी लोगों की राय ली गई है? इससे भी महत्वपूर्ण कि क्या लोगों को कभी ये बताया गया कि पुलिस कमिश्नरी सिस्टम का असली मतलब क्या है? क़ानून और व्यवस्था रोज़ाना का मामला है और ये पूरी तरह से सरकार की ज़िम्मेदारी है कि लोगों को बताया जाए कि दोहरी व्यवस्था से कमिश्नरी व्यवस्था में बदलाव का क्या मतलब है.

इस संदर्भ में दिल्ली प्रशासन की तरफ़ से जारी हाल के एक आदेश को जानना दिलचस्प है. मुख्य सचिव विजय देव की तरफ़ से जारी इस आदेश में कहा गया है: “ज़िले में एकीकृत कमान और नियंत्रण होगा और इसलिए दिल्ली पुलिस के सभी DCP, नगर निगम के सभी उपायुक्त, दूसरे विभागों के सभी ज़िला प्रमुख और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के सभी सरकारी अस्पतालों के प्रमुख अपने-अपने ज़िले के ज़िलाधिकारी को रिपोर्ट करेंगे और कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए उनके कमान, नियंत्रण और देख-रेख के तहत काम करेंगे.” ये फ़ैसला कोविड-19 की भयावह स्थिति को लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से दिल्ली सरकार की बैठक के बाद कई प्रस्तावों पर हुई चर्चा का हिस्सा था. दिल्ली बुरी तरह महामारी की चपेट में है. संक्रमण के मामले बढ़कर 1 लाख से ज़्यादा हो गए हैं जबकि 3,000 लोगों की मौत हो चुकी है. लेकिन जुलाई में हालात नियंत्रण में दिखने लगे. ये नतीजा समय पर गृह मंत्री स्तर से केंद्र के दखल और दिल्ली के मुख्य सचिव की तरफ़ से जारी उस आदेश की वजह से हो पाया कि कोविड-19 से निपटने का ज़िम्मा मुख्य रूप से DM के पास है. अलग-अलग ज़िलों के DM ने कई क़दम उठाए जिनमें जागरुकता अभियान, होम आइसोलेशन, लोगों के डरों में कमी, अस्पतालों की क्षमता में तेज़ी से बढ़ोतरी और महत्वपूर्ण मेडिकल और नीतिगत सूचना लोगों तक पहुंचाना शामिल है.

अमेरिका में पुलिस की फंडिंग बंद करने और जिन शहरों में मौजूदा संरचना में सुधार लाना नामुमकिन है, वहां पूरे पुलिस बल को बर्ख़ास्त करने की मांग हो रही है. कुछ उसी तरह जैसे जॉर्जिया गणराज्य में हुआ था.

क्या हमें हर चीज़ में पश्चिमी देशों की नक़ल करने की ज़रूरत है जब भारत में कई सदियों से प्रशासनिक ढांचा कार्यकुशलता से काम कर रहा है? यहां ये जानना ज़रूरी है कि भारत में अशोक के समय में सूबा (ज़िला) व्यवस्था शुरू की गई थी. पश्चिमी देशों में पुलिस व्यवस्था भीतर से सड़ रही है और अफ्रीकी अमेरिकियों के ख़िलाफ़ बार-बार पुलिस की ज़्यादती से डरावना कुछ नहीं है. पूरे अमेरिका ने राष्ट्रीय टेलीविज़न पर जॉर्ज फ्लॉयड की मौत को देखा. अमेरिका में पुलिस की फंडिंग बंद करने और जिन शहरों में मौजूदा संरचना में सुधार लाना नामुमकिन है, वहां पूरे पुलिस बल को बर्ख़ास्त करने की मांग हो रही है. कुछ उसी तरह जैसे जॉर्जिया गणराज्य में हुआ था. जॉर्जिया में भ्रष्टाचार का स्तर इतना ज़्यादा बढ़ गया था कि ’10 किमी कार चलाने पर भी ट्रैफिक पुलिसवाले आपकी कार नहीं रोकें और कुछ डॉलर रिश्वत के तौर पर नहीं मांगे, ऐसा हो नहीं सकता था.’ 2004 में निर्वाचित राष्ट्रपति मिखेल साकाशविली ने पूरे सुरक्षा तंत्र को भंग करने का फ़ैसला ले लिया. इसमें देश की सुरक्षा का मंत्रालय (MSS) और आंतरिक मामलों का मंत्रालय (MIA) शामिल था. दोनों मंत्रालयों में शामिल सभी कर्मचारियों को बर्ख़ास्त कर दिया गया. इसकी जगह एक नया बल बनाया गया जो मौजूदा समय में न सिर्फ़ जॉर्जिया बल्कि पूरे विश्व के लिए आदर्श उदाहरण है. पुलिस ज़्यादती का ऐसा ही एक उदाहरण राजस्थान के जोधपुर में देखने को मिला जहां जॉर्ज फ्लॉयड की गिरफ़्तारी के जैसा ही एक मंज़र सामने आया. जोधपुर में मास्क न पहनने को लेकर एक व्यक्ति और पुलिस के बीच झगड़ा इस कदर बढ़ा कि पुलिसकर्मी ने उस व्यक्ति की गर्दन पर घुटने के सहारे उसे काबू में किया. जोधपुर भी पुलिस कमिश्नरी सिस्टम के तहत है. पुलिस ये कहकर अपने तरीक़े को सही ठहरा सकती है कि उस व्यक्ति का पुराना आपराधिक रिकॉर्ड है लेकिन ये ग़लत ढंग है और इसकी वजह से पुलिस के ख़िलाफ़ मौजूदा अविश्वास में और बढ़ोतरी होती है.

अब समय है कि क़ानून बनाने वाले और आम लोग पुलिस कमिश्नरी सिस्टम, उसकी कामयाबी और नाकामी पर गंभीरता से नज़र डालें और फिर से जांची-परखी दोहरी व्यवस्था की तरफ़ लौटें. ज़रूरी नियंत्रण और संतुलन के साथ ये व्यवस्था नागरिकों के फ़ायदे और उनकी सेवा के लिए काम करती है.

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