Author : Kanchan Gupta

Published on Jan 02, 2019 Updated 0 Hours ago

ताजा चुनाव परिणामों के बाद क्या ये माना जाए कि बांग्लादेश में एक दलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था का आगमन हो रहा है?

बांग्लादेश में अब एक दलीय लोकतंत्र

बांग्लादेश में सम्पन्न 11वें संसदीय चुनाव के नतीजे पिछले रविवार को पहला वोट पड़ने या उसी शाम मतगणना शुरू होने से पहले ही जगजाहिर थे। सवाल केवल इतना ही था कि शेख हसीना वाजिद की अवामी लीग यह साबित करने के लिए और कितने वोट बटोरने वाली है कि उसके सामने विपक्ष कहलाने लायक कोई नहीं बचा है।

इस स्थिति में, ऐसा लग रहा है कि मानो अवामी लीग ने समूचे विपक्ष को कुचलने और अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की हैसियत घटाकर दयनीय स्थिति में पहुंचाने का फैसला कर लिया है। ‘ढाका ट्रिब्यून’ के अनुसार, अवामी लीग और उसके (ग़ैरमामूली) सहयोगियों ने कम से कम 82 फीसदी वोट बटोरे हैं और बीएनपी के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन के हिस्से महज 16 फीसदी वोट ही आए हैं।

चुनाव के अंतिम नतीजे घोषित होते ही,बांग्लादेश की संसद में लगभग पूरी तरह अवामी लीग का ही कब्जा होगा, विपक्ष की मौजूदगी, अगर वह उसे दर्ज कराना चाहेगा, तो मुश्किल से ही काबिले गौर होगी। लगातार तीसरी बार जीत का सेहरा बांधने वाली शेख हसीना अविवादित और अपराजित रूप से सर्वोच्च नेता बनकर उभरी हैं।

तमाम व्यवहारिक आशयों से बांग्लादेश अब एक-दलीय राष्ट्र हैजिसमें महत्वहीन पार्टियां उसके बहुदलीय लोकतंत्र होने के संवैधानिक विवरण को जीवित रखे हुए हैं।

शेख हसीना वाजिद ने वह मुकाम हासिल कर लिया है, जिसकी उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान ने आरजू की थी। अपने पिता के विपरीत, शेख हसीना ने बड़ी चतुराई के साथ, सिलसिलेवार ढंग से और रणनीति बनाकर अवामी लीग के भीतर अपने लिए चुनौती बन सकने वालों को बाहर रास्ता दिखा दिया और विपक्षी दलों के भीतर मौजूद ऐसे विरोधियों की कमर तोड़ दी।

बेगम खालिदा जिया भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में बंद हैं और उनके पुत्र को लंदन में निर्वासित जीवन बिताने को मजबूर होना पड़ रहा है (यदि वह स्वदेश लौटेंगे, तो उन्हें उम्रकैद भुगतनी होगी), ऐसे में दशक भर से सत्ता से बाहर चल रही बीएनपी में अव्यवस्था का आलम है। उसकी सहयोगी, जमात-ए-इस्लामी के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और उसके शीर्ष नेताओं को 1971 के युद्ध अपराधों के लिए मृत्युदंड सुनाया गया। आवामी लीग का विपक्ष कहलाने का दावा करने वाले अन्य दल बेमानी हो चुके हैं।

वे लोग भी इतने ही बेमानी हो चुके हैं, जो अवामी लीग पर असंतुष्टों का मुंह बंद करने तथा ऐसे चुनावों का आयोजन कराने का आरोप लगा रहे हैं, जो न तो स्वतंत्र थे और न ही निष्पक्ष।

शेख हसीना ने सत्ता के प्रतिद्वंद्वियों के प्रति सहनशील दिखने की कोशिश करना तो दूर, कभी सहनशीलता का दिखावा तक नहीं किया, ठीक वैसे ही, जैसे खालिदा जिया सत्ता में रहते समय अवामी लीग और उसके नेतृत्व की बुनियाद और सहायकों को बरबाद कर देने पर आमादा थी।

शेख हसीना को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने बांग्लादेश को राजनीतिक स्थायित्व प्रदान किया और बेहतरी के लिए बदलाव लेकर आईं। उन्होंने एक ऐसे देश को फलती-फूलती अर्थव्यवस्था में तब्दील कर दिया, जिसका दुनिया भर में ‘बॉस्केट केस'(यानी भीषण आर्थिक संकट का सामना करने वाला देश) के रूप में मखौल उड़ाया जा रहा था। बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय में जबरदस्त वृद्धि हुई है और जिस देश में गरीबी महामारी का रूप ले चुकी थी, वहीं गरीबी वास्तविक रूप से घटकर आधी रह गई है।

इससे आगे उनके पक्ष में कहने को कुछ ज्यादा नहीं रह जाता। बीएनपी, जमात-ए-इस्लामी के पुराने लेकिन विकृत इस्लामवाद के बल पर आगे बढ़ी, तो आवामी लीग ने हिफाजतुल इस्लाम — जिसकी युद्धप्रियता हमारे दौर की कट्टर युद्धस्थिति के ज्यादा अनुरूप है, के साथ गठबंधन करके उस इस्लामवाद को दलदल में धकेल दिया। सच में, उसने जे​हादी हिंसा को बढ़ावा देना बंद किया है, लेकिन फिलहाल के लिए ही।

टार्गेट किलिंग्स और लोगों के गायब होने की कथित घटनाओं के जरिए आतंकवाद के खिलाफ शेख हसीना के युद्ध के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। इस बात के प्रमाण बहुत कम हैंजो दर्शाते हों कि हिंसक कट्टरवाद के प्रति बांग्लादेश का रुझान घट चुका है।

भयावह गुलशन हमला केवल एक उदाहरण भर है, वहां ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। शेख हसीना और उनकी सरकार ने इस्लामिस्टों को प्रश्रय देने और उन्हें दंडित देने के मिले-जुले संकेत दिए हैं। अगर देखा जाए, तो शेख हसीना पर यह बात बिल्कुल फिट बैठती है कि वह दोनों पक्षों का समर्थन करने का प्रयास कर रही हैं।

आलोचक इस ओर इशारा कर रहे हैं कि किस तरह हत्या जैसे हथकंडे अपना कर स्वतंत्र सोच रखने वाले अभिजीत रे सरीखे बुद्धिजीवियों को खामोश कर दिया गया है। ब्लॉगर्स के हत्यारों को दंडित नहीं किया गया है। एक नए कानून से मीडिया पर शिकंजा कस दिया गया है और आजादी पर अंकुश लगाने के लिए इंटरनेट से संबंधित कानूनों में संशोधन किया गया है। विख्यात पत्रकारों को प्रताड़ित किया गया है और झूठे आरोप लगाकर उनकी गिरफ्तारियां की गई हैं। अल्पसंख्यकों के अधिकारों का पालन करने से ज्यादा सम्मान उनका उल्लंघन करने में हो रहा है।

फिलहाल शेख हसीना की शानदार जीत इन सब पर हावी है। भले ही विपक्ष नए चुनाव कराने की मांग करता रहे, लेकिन ऐसा कभी नहीं होगा। अमेरिका या यूरोपीय संघ द्वारा रविवार के चुनावों के स्वरूप और विपक्षी दमन पर किसी तरह का कड़ा रुख अपनाए जाने के आसार नहीं हैं। ​2014 में बीएनपी की ओर से किए गए चुनावों के बहिष्कार के दौरान भी ऐसा ही हुआ था। पिछले पांच बरसों में लोकतंत्र में ‘मजबूत’ और दबंग नेताओं का उदय आम बात हो चुकी है। हाल के चुनावों के स्वरूप की आलोचना की धार कुंद करने के लिए बांग्लादेश के पास शेखी बघारने के लिए अब 11 संसदीय चुनाव हैं।

भारत के लिएचुनावों का पहले से ​तय नतीजा सुखद खबर है। भारत में चाहे किसी भी पार्टी की सरकार होशेख हसीन के सत्ता में रहने के दौरान बांग्लादेश भारतीय चिंताओं के प्रति हमेशा से संवेदनशील रहा है।

बीएनपी के सत्ता में रहने के दौरान भारत के अच्छे अनुभव न होने के कारण, इस सिलसिले में बाधा आना भारत के लिए चिंता की बात हो सकती थी। एक तरह से देखा जाए, तो नेपाल की ओर से अच्छी खबर न मिलने के बाद, मालदीव और बांग्लादेश के चुनावों ने भारत का हौसला बढ़ाया है।

हालांकि, केवल इतने से ही चीन की मंडराती छाया ​जैसे चिंता के दूसरे कारण धूमिल नहीं पड़ेंगे। एक अनुमान के अनुसार, बांग्लादेश में चीनी निवेश 42 बिलियन डॉलर तक पहुंच चुका है। इसमें चीनी कम्पनियों द्वारा किया गया निवेश भी शामिल है। आने वाले महीनों में इसमें बढ़ोत्तरी हो सकती है, क्योंकि 71 बरस की एक महत्वाकांक्षी नेता, प्रभावशाली बुनियादी ढांचे के जरिए अपनी स्थायी विरासत छोड़ना चाहती हैं, जो उनके इस दावे का प्रमाण होगा कि बांग्लादेशियों ने विकास और तरक्की के लिए वोट दिया है। ऐसे में चीन सहायता देने के लिए उत्साहित रहेगा।

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