Published on Sep 04, 2017 Updated 0 Hours ago

तमाम रिपोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के साफ निर्देशों, सिविल सोसाइटी, मीडिया एवं जन आलोचनाओं के बाद भी भारतीय पुलिस तंत्र ने सुधार नहीं दिखाई है।

अब रिहाई मिली तो…: किस्सा ‘बाबा’, ‘बराला’ और ‘तोते’ का

वैसे तो पाठकगण शीर्षक का मतलब समझ ही गए होंगे किन्‍तु ऐसे पाठकगण जिनकी अखबार में चल रही खबरों में दिलचस्‍पी नहीं है, उनके लिए शीर्षक का अनुवाद जरूरी है। ‘बाबा’ से अभिप्राय रामरहीम से है जिनका टीवी चैनलों की ओबीवैन जलते ही नामकरण ‘बलात्‍कारी बाबा’ हो चुका है।

‘बराला’ से संकेत विकास बराला से जो वर्तमान में चंडीगढ़ की जेल में आराम फरमां है। कथानक का तीसरा पात्र ‘तोता’ है जो इस लेख में मुख्‍य भूमिका में है। अभी थोड़े ही वर्षों पहले ‘कोयला घोटाले’ की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस आर.एम. लोढा ने सीबीआई के दुरूपयोग के संदर्भ में एजेंसी को ‘पिंजड़े में बंद तोते’ की संज्ञा दी थी जो बजाय निष्‍पक्ष विवचेना करने के अपने राजनीतिक आकाओं एवं हुक्‍मरानों के मनमुताबिक ही तराने सुनाता है।

सीबीआई की निष्‍पक्षता पर भले ही समय-समय पर सवालिया निशान लगते रहे हों किन्‍तु एक इन्‍वेस्‍टीगेशन एजेंसी के तौर पर इसकी काबिलियत पर शायद ही कोई शक करता हो। किन्‍तु राज्‍य स्‍तर पर पुलिस तंत्र की निष्‍पक्षता एवं कार्यकुशलता पर गहरा संदेह व्‍यक्‍त किया जाता रहा है। यह दीगर बात है कि चाहे सीबीआई हो या राज्‍य पुलिस तंत्र, नेतृत्‍व एलीट आईपीएस अधिकारियों के हाथ में ही है। तमाम पुलिस कमीशनों की रिपोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के साफ निर्देशों, सिविल सोसाइटी, मीडिया एवं जन आलोचनाओं के बाद भी भारतीय पुलिस तंत्र ने सुधार की कोई इच्‍छा नहीं दिखाई है।

लगभग एक माह पूर्व चंडीगढ़ जैसे शहर की सड़क पर मनबढ़ शोहदों के दु:स्‍साहसपूर्ण कामों ने सभ्‍य समाज को झकझोर दिया था। यह घटना लम्‍बे समय तक जहां वर्णिका कुंडू के साहस एवं नारी सम्‍मान के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई के लिए याद की जायेगी, वहीं पुलिस के ढुलमुल रवैये एवं ‘दासभाव’ के लिए भी। बिडम्‍बना ही कही जायेगी कि फिर भी वर्णिका एवं उनके पिता के मन में चंडीगढ़ पुलिस की तत्‍परता के प्रति प्रशंसा के ही भाव थे। एक कृतज्ञ पिता शायद पुत्री के सकुशल लौटने से गदगद थे। शायद उनके लिए एफआईआर लिखवा ले जाना ही एक बड़ी कामयाबी थी। किन्‍तु सिविल सोसाइटी एवं मीडिया से ‘तोते’ की निष्‍ठा नहीं छुप सकी।

विकास बराला की रिहाई सवालों के घेरे में

एक आपराधिक घटना जिसे यदि वे अपराधी अंजाम देने में सफल हो जाते, तो उसके खतरनाक परिणाम की सहज ही कल्‍पना की जा सकती है। ‘संवदेन शून्‍य’ पुलिस के लिए ‘निर्भया’ केवल एक कोर्ट की रूलिंग है, भारतीय दंड संहिता में महज कुछ संशोधन मात्र। ‘पिंजड़े में बंद तोते’ की निष्‍ठा अपने आकाओं के प्रति है। विकास बराला हल्‍की धाराओं एवं कानूनी दांवपेंच की मदद से थाने से रिहा कर दिए जाते हैं।

‘बाबा’ के मामले में तो हरियाणा पुलिस की भूमिका की कोई मिसाल ही नहीं है। ‘बाबा’ की कोर्ट में पेशी का हौव्‍वा खड़ा किया जाता है। ‘बाबा’ के कथित 5 करोड़ भक्‍त एवं ‘बाबा’ को सजा मिलने की स्थिति में वे जुनूनी ‘भक्‍त’ क्‍या कर गुजरेगें का ऐसा समा बांधा गया कि पंजाब एवं हरियाणा राज्‍य में एक सप्‍ताह तक पूरा प्रशासन ही लकवाग्रस्‍त रहा। राजनीतिक हुक्‍मरानों के कथित मंशा को समझते हुए, पुलिस और प्रशासन ने न केवल डेरा अनुयायियों को धारा 144 लगे होने के बावजूद भारी संख्‍या में पंचकूला आने दिया, बल्कि बलात्‍कार के आरोपी ‘बाबा’ रामरहीम को गाडि़यों के काफिले में सवार होकर सिरसा से पंचकूला तक शाही अंदाज में आने का मौका भी दिया।

और तो और दोषी ठहराए जाने पर भी ‘बाबा’ को अपने साथ हेलीकाप्‍टर में अपनी कथित दत्‍तक पुत्री को ले जाने की अनुमति दी। ‘पिंजड़े में बंद तोते’ की हुक्‍मरानों के प्रति इसी निष्‍ठा के चलते 34 व्‍यक्ति मारे गए। हरियाणा पुलिस ने इसे अपनी सफलता मानी कि मरने वाले पंचकूला के रहने वाले नहीं, बल्कि बाहरी थे।

कर्नाटक में शशिकला को मिलने वाली अवैध सुविधाएं एवं जेल से बाहर जाने के सीसीटीवी फुटेज, पुलिस की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं। पुलिस की लीपापोती और मिलीभगत के ऐसे सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। अब प्रश्‍न उठता है कि क्‍या पुलिस वाकई अपने दिन प्रतिदिन के कार्यों में दबाव मुक्‍त होना चाहती हैॽ क्‍या होता यदि विकास बराला के प्रकरण में पुलिस नियमानुसार अपना दायित्‍व निभातीॽ

आखिर सिविल सोसाइटी, मीडिया एवं जन भावनाओं के दबाव में चंडीगढ़ पुलिस को अपेक्षा से अधिक कहीं बढ़कर कार्यवाही करनी एवं दिखानी पड़ी जो एक मिलते-जुलते सामान्‍य केस में ना करनी पड़ती। पुलिस के इस ‘दासभाव’ से जहां उसके राजनीतिक आकाओं का अहित हुआ सो हुआ, पुलिस की छवि को भारी चोट भी पहुंची है। रामरहीम के प्रकरण में तो पुलिस को अपनी निष्‍पक्षता, पेशेवर अंदाज एवं कार्यकुशलता दिखाने का सुनहरा अवसर था। यहां तक कि हाईकोर्ट से भी डेरा समर्थकों से सख्‍ती से निपटने के निर्देश थे। हरियाणा पुलिस तंत्र की निष्‍ठा किधर रही, यह बताने की आवश्‍यकता नहीं है।

पुलिस तंत्र आज ‘स्‍टॉकहोम सिन्‍ड्रोम’ से ग्रस्‍त है। पुलिस पिंजड़े से आज़ाद होना ही नहीं चाहती है। संविधान एवं कानून प्रदत्‍त अधिकार, सुप्रीम कोर्ट की उलाहना, तमाम पुलिस कमीशनों की संस्‍तुतियां एवं जन आलोचनाओं से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। पुलिस तंत्र की स्थिति पर बरबस यही शेर याद आता है:

‘इतने मानूस सैय्याद से हो गए,

अब रिहाई मिलेगी तो मर जाएंगे।’


ये लेख मूल रूप से फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित हुआ था।

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