व्हेन क्राइम पेज़” नामक पुस्तक में लेखक मिलान वैष्णव ने यह दलील दी है कि अपराध और बाहुबल की बदौलत आज भारतीय राजनीति में लोग सियासत के शीर्ष पर चढ़ने लगे हैं। वैष्णव का कहना है कि अपराध का स्तर सियासी उम्मीदवारों के आय स्तरों में वृद्धि के साथ ही आनुपातिक रूप से बढ़ता चला जाता है। इसका एक सटीक उदाहरण आपके सामने है। जहां एक ओर सबसे कम आय वाले सियासी प्रत्याशियों में से दो प्रतिशत से भी कम प्रत्याशियों को आपराधिक अभियोगों का सामना करना पड़ा, वहीं दूसरी ओर सबसे अमीर सियासी उम्मीदवारों में से नौ प्रतिशत से भी अधिक उम्मीदवारों को आपराधिक अभियोगों का सामना करना पड़ा। जैसे-जैसे लोकतंत्र परिपक्व होता चला जाता है, वैसे-वैसे भ्रष्टाचार और अपराध समय के साथ विरल होने लगते हैं। हालांकि, वह अपेक्षित स्थिति आने तक प्रत्येक मतदाता को उसके प्रयासों के अच्छे प्रतिफल देने की आवश्यकता है। मतलब यह है कि मतदान के बदले मिलने वाले इनामों को प्रभावशाली तरीके से बढ़ाने की जरूरत है।
हम एक ऐसे देश में रहते हैं जहां अंतिम छोर तक सेवाएं मुहैया कराना एक चुनौती है और ज्यादातर लोगों को हर रोज काफी संघर्ष करना पड़ता है। यदि निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधि अपने-अपने आधिकारिक कार्यों में कहीं अधिक मशगूल और उत्तरदायी या संवेदनशील हो जाएं, तो आम जनता के जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार संभव हो सकता है। वैसे तो इस संदर्भ में यह दलील दी जा सकती है कि चुनाव में फिर से निर्वाचित होने या जीतने की प्रेरणा और कर्तव्य की भावना अपने-आप में पर्याप्त प्रोत्साहन हैं, लेकिन इसके साथ ही इसमें वित्तीय प्रोत्साहन की एक परत जोड़ने के आइडिया में काफी दम है।
नेताओं को वित्तीय प्रोत्साहन देने पर चर्चा करना राजनीतिक दृष्टि से सही नहीं है। हमारे देश के लोग एक ओर तो नेताओं को स्वार्थी मानते हैं, वहीं दूसरी ओर उनसे उम्मीद करते हैं कि वे नि:स्वार्थ परोपकारी होंगे और इसके साथ ही उन्हें उच्च मानक का प्रतीक मानने लगते हैं (जैसा कि उन्हें वास्तव में होना चाहिए)।
जैसा कि प्रख्यात अर्थशास्त्री टिम हार्फोर्ड का कहना है कि भ्रष्ट समाज में यहां तक कि ‘सर्वाधिक नेक उद्देश्य’ को पूरा कर पाना भी बेहद चुनौतीपूर्ण होता है, जो नि:संदेह कामकाज में उदासीनता को जन्म देता है। ऐसे में रणनीतिक तौर पर वित्तीय प्रोत्साहन देने से समूची प्रक्रिया में एकदम से सक्रियता बढ़ जाने के आसार हैं और फिर इससे विकास प्रक्रिया में काफी सहायता मिलेगी। चाहे जो भी स्थितियां हैं (यह नहीं कि स्थितियां कैसी होनी चाहिए) उसे ध्यान में रखकर व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने से आगे चलकर अपेक्षित परिणाम हासिल करने में मदद मिलेगी और इस तरह के ‘असहज आइडिया’ के लिए भी गुंजाइश निकल आएगी।
यदि हम राजनीतिक क्षेत्र से अलग हटकर गौर करें तो हम पाते हैं कि ‘प्रदर्शन आधारित वित्तीय प्रोत्साहनों’ को लंबे अर्से से व्यापक तौर पर इस्तेमाल में लाया जाता रहा है। उदाहरण के लिए, वित्तीय निवेश के क्षेत्र में ‘प्रोत्साहन शुल्क संरचना’ की उत्पत्ति को अल्फ्रेड विंसलो जोन्स और वॉरेन बफेट से जोड़ा जा सकता है, जिन्होंने चालीस के दशक के उत्तरार्द्ध/पचास के दशक के शुरुआती वर्षों में ‘2/20’ मॉडल को अपनाया था। यह मॉडल फोनिशिया के व्यापारियों से प्रेरित था, जो किसी भी सफल यात्रा से होने वाले लाभ का पांचवां हिस्सा अपनी जेब में रख लेते थे। इसी तरह फंड मैनेजर निवेशकों से धनराशि जुटाते हैं। कुल राशि के दो प्रतिशत का उपयोग प्रबंधन शुल्क के रूप में किया जाता है और 20 प्रतिशत लाभ को प्रबंधकों के बीच वितरित किया जाता है। इसी तरह की व्यवस्था निजी क्षेत्र में भी है। यहां तक कि स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में भी इसी तरह की व्यवस्था है। अध्ययनों से पता चला है कि वित्तीय प्रोत्साहन मिलने की बदौलत शल्य चिकित्सा के दौरान संबंधित व्यक्तियों, विशेषकर अक्सर निम्नस्तरीय प्रदर्शन करने वाले लोग एकदम से पूरे जोश एवं समर्पण के साथ काम करने लगते हैं।
गवर्नेंस से जुड़े मामलों में प्रदर्शन को मापने का काम बड़ा ही पेचीदा है। उदाहरण के लिए, विश्व बैंक गवर्नेंस से जुड़ी गतिविधियों को विभिन्न कार्यक्रमों में विभाजित करता है, जिसमें वृहद (मैक्रो) स्तर के ‘लक्ष्य’ होते हैं। इन कार्यक्रमों को आगे चलकर सूक्ष्म स्तर के समयबद्ध लक्ष्यों में विभाजित किया जाता है, जिनमें से प्रत्येक को एक ऐसे एजेंट के रूप में जोड़ा जाता है जो उत्तरदायी होता है, जिससे निगरानी और आकलन की प्रक्रिया आसान हो जाती है। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने विशिष्ट संकेतकों की एक सूची प्रदान की है। उदाहरण के लिए, सड़क निर्माण कार्यक्रम के मामले में संकेतकों को इनपुट (पैसा, कर्मियों, उपकरण), आउटपुट (कितनी मील लंबी सड़कों का निर्माण), उत्पादकता (इस्तेमाल में लाए गए कामगारों की संख्या), लागत (प्रति मील औसत लागत) और लोगों की संतुष्टि (सड़कों की गुणवत्ता पर सर्वेक्षण) में विभाजित किया जा सकता है। प्रत्येक संकेतक के अंतर्गत अपेक्षित स्तरों को निर्धारित करना और समय पर उन स्तरों को प्राप्त करने पर कोई वित्तीय प्रोत्साहन देने की पेशकश करना संभव हो जाएगा।
भारत में विभिन्न प्रकार के निर्वाचित प्रतिनिधियों को आवंटित विकास फंड एक दिलचस्प पॉयलट/परीक्षण विषय या क्षेत्र साबित हो सकता है।
उदाहरण के लिए, सांसद स्थानीय क्षेत्र विकास योजना (एमपीएलएडीएस) वर्ष 1993 में शुरू की गई एक योजना है, जिसके तहत हर सांसद जिला प्रमुख को प्रति वर्ष 5 करोड़ रुपये तक की लागत वाली वे परियोजनाएं सुझा सकता/सकती है, जो उनके निर्वाचन क्षेत्र में क्रियान्वित की जाएंगी। इस योजना का उद्देश्य सांसदों को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी ‘टिकाऊ सामुदायिक परिसंपत्तियों’ के सृजन के लिए विकास कार्य की सिफारिश करने में सक्षम बनाना है। बजट के अपेक्षाकृत प्रबंधनीय आकार और कार्यक्रमों के मापन योग्य स्वरूप को ध्यान में रखते हुए एमपीएलएडीएस महत्वपूर्ण प्रदर्शन संकेतकों (केपीआई) पर आधारित वित्तीय प्रोत्साहन संरचनाओं के लिए एक दिलचस्प प्रयोग साबित होगी। यही नहीं, इसके तहत बेहतर प्रदर्शन करने वालों को मान्यता पुरस्कार (सार्वजनिक तौर पर प्रशंसा करने या सम्मान) देने जैसे गैर-वित्तीय प्रोत्साहन भी दिए जा सकते हैं।
विकासशील देशों के नीतिगत निष्कर्षों से यह पता चला है कि सार्वजनिक क्षेत्र में वित्तीय प्रोत्साहन कारगर साबित हो सकते हैं, बशर्ते कि वे मापने योग्य, सरल और स्पष्ट लक्ष्यों से जुड़े हुए हों। शिक्षा क्षेत्र में, वर्ष 2011 में आंध्र प्रदेश में कराए गए एक अध्ययन से पता चला कि शिक्षकों को उनके सालाना वेतन के 3 प्रतिशत के रूप में अपेक्षाकृत छोटा प्रोत्साहन बड़े पैमाने पर देने का नतीजा यह हुआ कि विद्यार्थियों का गणित और भाषा ज्ञान काफी सुधर गया। भारत में इस तरह के एक अन्य उदाहरण के तहत शिक्षकों को प्रोत्साहन देने से कक्षाओं में उनकी उपस्थिति काफी बढ़ गई और इसके परिणामस्वरूप विद्यार्थियों की पढ़ाई-लिखाई अथवा अध्ययन में उल्लेखनीय सुधार देखा गया। सार्वजनिक वित्त के क्षेत्र में आईजीसी के एक अध्ययन में पाया गया कि पाकिस्तान में कर संग्राहकों (टैक्स कलक्टर) को प्रोत्साहन देने की पेशकश से वहां कर राजस्व संग्रह में काफी वृद्धि दर्ज की गई (कुछ क्षेत्रों में तो कर संग्रह 13 प्रतिशत बढ़ गया)। रवांडा में स्वास्थ्य केंद्रों पर किए गए अनुसंधान से पता चला है कि स्वास्थ्य कर्मचारियों को प्रदर्शन-आधारित वेतन देने से प्रसव पूर्व और प्रसव उपरांत देखभाल में उल्लेखनीय सुधार हो सकता है। इसी तरह के अनुभव इंडोनेशिया में भी हुए हैं।
विश्व बैंक की उपर्युक्त कार्यक्रम-आधारित संरचना का उपयोग कर कोलंबिया अपने ‘सिनर्जिया’ उपकरण (टूल) के जरिए सरकारी कार्यक्रमों की निगरानी और आकलन करने में काफी सफल रहा है। वर्ष 1969 में मलेशिया ने कार्यक्रम निष्पादन बजट प्रणाली की शुरुआत की जिसमें परिणाम-आधारित बजट अनिवार्य रूप से शामिल है और जिसका उद्देश्य विकास के वैश्विक प्रतिस्पर्धी स्तरों को हासिल करना है। वर्ष 1990 में परिणामों (आउटकम) पर और भी अधिक जोर देने के उद्देश्य से इस प्रणाली में सुधार किया गया था। इसी तरह अफ्रीका में युगांडा और मिस्र दोनों ने ही निगरानी एवं आकलन प्रणालियों में सुधार के लिए अनेक कदम उठाए हैं।
अनुसंधान के निष्कर्षों में इस दलील या युक्ति को अब विशेष रूप से नेताओं के मामले में भी आजमाने की बात कही गई है और इससे जुड़े साक्ष्य भी अत्यंत उत्साहजनक हैं। विद्वानों ने यह पाया है कि जब वेतन बढ़ता है, तो अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व भी बढ़ जाता है। उधर, अन्य विशेषज्ञों ने वेतन और पारित विधेयकों या कानूनों की संख्या के बीच एक सकारात्मक पारस्परिक संबंध पाया है। इससे राजनीतिक वर्ग की गुणवत्ता और आचरण में बेहतरी सुनिश्चित होने को भी दर्शाया गया है। विद्वानों ने यह भी दलील दी है कि चुनाव में फिर से निर्वाचित होने का प्रोत्साहन राजनीतिज्ञों को कम प्रासंगिक मुद्दों से निपटने के लिए प्रेरित कर सकता है। इसी तरह राजनीतिज्ञों को वाणिज्यिक लाभ मिलने से वे कठिन समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। ब्राजील की नगरपालिका विधायिका कैमारा डे वेरेएडोर्स से प्राप्त साक्ष्य से पता चला है कि ज्यादा वेतन मिलने से शिक्षित उम्मीदवारों की संख्या बढ़ जाती है, कार्यालय में बैठने की अवधि बढ़ जाती है और इसके साथ ही महत्वपूर्ण विकास परियोजनाओं का शुभारंभ करना भी संभव हो जाता है।
विकसित विश्व या देशों में भी इसी तरह की चर्चाएं हुई हैं। सेंट लुईस पोस्ट-डिस्पैच में वर्ष 1991 में छपे एक संपादकीय में अमेरिकी संविधान में एक संशोधन प्रस्तावित कर राष्ट्रीय ऋण में कमी को सदन के सदस्यों के वार्षिक बोनस से जोड़ने की बात कही गई। इसी तरह वर्ष 1997 में ताम्पा ट्रिब्यून में छपे एक संपादकीय में नीति निर्माताओं के वेतन में वृद्धि और घरेलू आय की वृद्धि दर को आपस में जोड़ने की दलील दी गई। येल ह्यूमन राइट्स एंड डेवलपमेंट जर्नल (2014) में मार्टिन स्क्लाडानी ने भी राजनीतिज्ञों के लिए प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन बोनस की एक योजना बनाने की दलील दी। अमेरिका से प्राप्त साक्ष्यों से भी यह पता चलता है कि वेतन अधिक होने से नागरिकों और गवर्नरों के बीच बेहतर सामंजस्य स्थापित हो सकता है। उधर, यूरोप में राजनीतिक दलों ने महिला-पुरुष संतुलन सुनिश्चित करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन को इस्तेमाल में लाया है। यहां तक कि कनाडा के कुछ हिस्सों ने भी इस तरीके को आजमाया है। राजनीति से परे हटकर बुश प्रशासन ने पब्लिक स्कूलों में प्रदर्शन को बेहतर करने हेतु उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन का इस्तेमाल किया।
इस तरह के आइडिया ‘दक्षता वेतन सिद्धांत’ पर आधारित हैं जिसकी वकालत एकरलॉफ, स्टिग्लिज और जैनेट येलन ने की है और जिन्होंने यह दर्शाया है कि वेतन काफी मायने रखता है। अन्य विशेषज्ञों ने भी ‘प्रोत्साहन आधारित अनुबंधों’ के बैनर तले इस पर अध्ययन किया है। इसके अलावा, प्रोत्साहनों के मनोविज्ञान पर भी अनुसंधान किया गया है।
हालांकि, इस तरह के आइडिया की अपनी सीमाएं हैं। सबसे पहले, आम तौर पर जो चीजें निजी क्षेत्र में कारगर साबित होती हैं वे हमेशा सार्वजनिक क्षेत्र में प्रभावकारी साबित नहीं होंगी। दूसरा, चिंता का विषय यह है कि इस तरह के प्रोत्साहन किसी कार्य को पूरा करने की अंतर्निहित अथवा आंतरिक प्रेरणा को समाप्त कर सकते हैं। हालांकि, इस बात को सही साबित करने के लिए पर्याप्त अनुभवजन्य साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं। इसके ठीक विपरीत, जाम्बिया और नाइजीरिया के बारे में किए गए नए अनुसंधान से पता चला है कि इस तरह के प्रोत्साहन पाने वाले व्यक्ति आंतरिक प्रेरणा से लाभ उठाकर अपने कार्य को पूरा करने में और भी ज्यादा जोर-शोर से जुट जाते हैं। तीसरा, जब परिणाम अस्पष्ट होते हैं या उन्हें मापना मुश्किल होता है तो वैसी स्थिति में प्रदर्शन संबंधी प्रोत्साहन देने का दांव उल्टा भी पड़ सकता है। ये मुश्किल सबक केन्या के शिक्षकों और अमेरिका के पुलिस अधिकारियों के साथ परीक्षण के दौरान मिले हैं। चौथा, भारत के अस्पतालों में नर्सों की हाजिरी या उपस्थिति को वित्तीय पुरस्कारों से जोड़ने के बारे में कराए गए एक अध्ययन से यह पता चला है कि इससे बनी-बनाई प्रणाली के बिगड़ जाने का अंदेशा भी है।
संदर्भ को ध्यान में रखते हुए संबंधित प्रोत्साहनों को या तो इनपुट अथवा आउटपुट पर आधारित होना चाहिए। इसके साथ ही यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि किसे मापना आसान है और कुशलतापूर्वक उपयोग में लाना कठिन है। एक बहुत बड़ा सबक यह है कि विशिष्ट माहौल को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक प्रोत्साहन का परीक्षण सैंडबॉक्स वातावरण में प्रायोगिक आधार पर किया जाना चाहिए। यही नहीं, कुछ अध्ययन गैर-वित्तीय प्रोत्साहनों के बारे में भी किए गए हैं। जाम्बिया के एक सार्वजनिक स्वास्थ्य उदाहरण से पता चला है कि अपनी बिक्री पर सामाजिक रूप से प्रशंसा बटोरने वाले एजेंटों ने उन एजेंटों की तुलना में दोगुनी बिक्री की, जो कंडोम बिक्री पर 90% तक कमीशन कमाते थे। एक अन्य उदाहरण पाकिस्तान के टैक्स कलक्टरों के बीच पाया गया था। पाकिस्तान में प्रदर्शन-आधारित उस पोस्टिंग स्कीम में आशाजनक परिणाम मिले जिसके तहत अधिकारियों को राजस्व संग्रह संबंधी प्रदर्शन के आधार पर और भी अधिक मनचाहे स्थानों पर स्थानांतरित करने का अवसर दिया गया था। दरअसल, सबसे अलग सोच वाले गैर-वित्तीय प्रोत्साहन सरकारी खजाने पर कोई भी अनावश्यक बोझ डाले बगैर ही संबंधित लोगों के प्रदर्शन को बेहतर कर सकते हैं।
इसके अलावा, भारतीय राजनीतिज्ञों के मामले में संबंधित प्रस्ताव में कुछ विशिष्ट वर्जन संबंधी सीमाएं हैं। सबसे पहले, सांसदों के संदर्भ में निर्वाचित माननीय व्यक्ति के पास केवल सलाहकार संबंधी अधिकार होता है, जबकि वास्तविक कार्य-निष्पादन राज्य और जिला अधिकारियों के हाथों में होता है। दूसरा, संबंधित प्रस्ताव के वित्तपोषण का खुला सवाल अब भी है क्योंकि मौजूदा विकास कोष (फंड) में कमी करना उचित नहीं है। तीसरा, सार्वजनिक तौर पर बड़े भुगतान के साथ-साथ प्रत्येक सांसद के ‘प्रदर्शन’ की घोषणा करना संभवत: राजनीतिक दृष्टि से व्यावहारिक नहीं है। वहीं, निजी तौर पर लिया गया इस तरह का निर्णय अन्य कारणों से अपुष्ट साबित हो सकता है। चौथा, सामाजिक अंकेक्षण (ऑडिट) में ‘केपीआई’ को मापना हमेशा एक आदर्श विज्ञान नहीं है और इसमें त्रुटियां एवं हेर-फेर अथवा गड़बड़ी होने की गुंजाइश रहती है।
हर भारतीय सांसद को 2,00,000 रुपये की कुल समावेशी मासिक राशि मिलती है (सरकार प्रति सांसद प्रति माह औसतन 2.7 लाख रुपये खर्च करती है)। संसद में वेतन को लेकर बहस होती रही है। वर्तमान लोकसभा भारतीय इतिहास में सबसे अमीर है। दरअसल, 82 प्रतिशत सांसदों ने 1 करोड़ रुपये या उससे अधिक की परिसंपत्तियां अपने पास होने की जानकारी दी है। ऐसे में यह दलील दी जा सकती है कि सांसदों के पास इतनी अधिक परिसंपत्तियां होने के कारण वित्तीय प्रोत्साहन उपर्युक्त उद्देश्य पूर्ति में प्रभावकारी साबित नहीं होंगे। हालांकि, स्पष्ट रूप से परिभाषित मापन योग्य योजना के साथ प्रयोग करने में कोई नुकसान नहीं है।
राजनीति में नए सुझाव विवादास्पद साबित हो सकते हैं, जैसा कि भारत के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु को तब आभास हुआ था जब उन्होंने कुछ प्रकार की रिश्वतों को वैध बनाने का प्रस्ताव किया था। उपर्युक्त विश्लेषण नि:संदेह विशुद्ध रूप से काल्पनिक है और भारतीय संदर्भ में इसके कार्यान्वयन की अपनी सीमाएं हैं।
हालांकि, इसके बावजूद इस तरह की कल्पनाओं को प्रोत्साहित करना और विशेषकर उन मुद्दों पर बहस को बढ़ावा देना आवश्यक है जो भारत के विकास के समक्ष इतनी बड़ी चुनौती प्रस्तुत कर रहे हैं। नागरिकों के रूप में हमारे स्वभाव में एक निश्चित तरह का दोहरापन है। हम अपने नेताओं को एक तरह से सबसे खराब मान कर चलते हैं, लेकिन फिर भी हम उनसे सबसे अच्छे की उम्मीद करते हैं। यह अंतर्निहित निरंतर टकराव उन विचारों (आइडिया) को पनपने से रोकता है जो वास्तविकता से मेल खाते हैं। यह प्रस्ताव कुछ लोगों के लिए अप्रिय हो सकता है क्योंकि यह हमारे नेताओं अथवा राजनीतिज्ञों को सबसे खराब मान कर चलता है। हालांकि, जैसा कि वैष्णव ने स्पष्ट किया है, नेताओं के स्वार्थी स्वभाव और देश के व्यापक हितों में सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए।
उपर्युक्त परिकल्पना को परखने की दिशा में पहला कदम एक बहु हितधारक परामर्श होगा। अगला कदम एक सीमित क्षेत्राधिकार (उदाहरण के लिए, सीमित निर्वाचन क्षेत्र) में एकल मुद्दे (जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य) की पहचान करना और इसका विस्तार करने से पहले सैंडबॉक्स-जैसा एक ‘पॉयलट‘ दृष्टिकोण अपनाना होगा।
इनमें से कुछ सीमाएं दूसरों की तुलना में कहीं अधिक गंभीर हैं। हालांकि, नए विचार पेश करने के पीछे मुख्य उद्देश्य संबंधित बहस को तेज करना और एक व्यापक रूपरेखा का प्रस्ताव करना है। इसके अलावा, कुछ नेताओं के व्यवहार में वास्तव में बदलाव होने का सार्थक असर होगा। इस तरह के आइडिया को मूर्त रूप देने से पहले विभिन्न आवश्यक कदम उठाने होंगे। उदाहरण के लिए, यह तय करना होगा कि किस प्रकार के वित्तीय एवं गैर-वित्तीय प्रोत्साहन देने होंगे और किस हद तक वित्तीय प्रोत्साहन देने चाहिए। इसी तरह मापन योग्य ‘केपीआई’ को परिभाषित करने की आवश्यकता होगी और सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अंतर्गत एक ऑडिट बोर्ड की स्थापना करनी होगी। इतना ही नहीं, यह परियोजनाओं की मंजूरी प्रक्रिया में परम सुधार के लिए विवश कर सकता है।
किसी स्तर (परिणामों को समझना, किफायती, अनपेक्षित नतीजे और अन्य तरह का ज्ञान होना) पर कोई भी नीति लागू करने से पहले पुख्ता साक्ष्य की आवश्यकता है। पर्याप्त ज्ञान हो जाने पर समान रूपरेखा (फ्रेमवर्क) का राज्य, नगरपालिका और पंचायत में विस्तार करना संभव है। संक्षेप में, वैसे तो कई चीजें पैसे से परे हैं जो सरकारी कामकाज में नैतिक मूल्यों का समावेश करती हैं, फिर भी यह एक ऐसा कारक (फैक्टर) है जिस पर विचार किया जाना चाहिए। वर्ष 1995 से ही ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के ‘भ्रष्टाचार सूचकांक’ में भारत की औसत रैंकिंग 75वीं (175 देशों में) रही है। इस तरह के आंकड़ों में बेहतरी सुनिश्चित करने के साथ-साथ हमारे देश की वैश्विक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए नए आइडिया पर विचार करना बिल्कुल उचित है, चाहे वे कितने भी अनूठे और सामान्य व्यावहारिक अपेक्षाओं के विपरीत प्रतीत होते हों।
यह सच है कि राजनीतिज्ञों को नेक कार्य से प्रेरित होना चाहिए और उनमें से कई ठीक ऐसे ही हैं। इसके बावजूद, सही तरह के मापन योग्य लक्ष्य आधारित प्रोत्साहन (वित्तीय एवं गैर-वित्तीय) उनकी लगन को और भी ज्यादा बढ़ा सकते हैं। अंत में, लोग नेताओं की ओर से अच्छे कामकाज या प्रदर्शन की उम्मीद में उन्हें वोट देते हैं। क्या हम राजनीतिज्ञों को इस तरह के प्रोत्साहन दे सकते हैं जिनकी बदौलत भ्रष्टाचार के कारण बेहतर प्रदर्शन से कोई समझौता नहीं किया जाता है और कम से कम हाशिए पर कुछ बेहतर लोगों का प्रवेश तो हो ही जाता है?
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