Published on Aug 31, 2020 Updated 0 Hours ago

अगर हम जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवास के संबंध में बनाए गए नए क़ानूनों के वैधानिक पहलुओं की नए सिरे से समीक्षा करें, और ये समझने की कोशिश करें कि जम्मू-कश्मीर की जनता के लिए इनके क्या मायने हैं, तो ये साफ तौर पर समझ में आता है कि इस डोमिसाइल क़ानून से कश्मीर घाटी में भारत विरोधी सोच को और बढ़ावा भी मिलेगा, न कि उसमें कमी आएगी.

जम्मू-कश्मीर: नए डोमिसाइल कानून से घाटी में भारत विरोधी सोच को बढ़ावा

जम्मू कश्मीर में स्थायी निवास के संबंध में केंद्र सरकार ने जो नए नियम जारी किए हैं, उसका इस क्षेत्र में ही नहीं बल्कि कश्मीर से बाहर भी कड़ा विरोध हो रहा है. हाल की ख़बरें बताती हैं कि नए स्थायी निवासी के क़ानून के तहत बिहार के एक IAS अफसर समेत कम से कम 25 हज़ार अन्य लोगों को कश्मीर का स्थायी निवासी होने के प्रमाणपत्र दिए गए हैं. इन प्रमाणपत्रों की मदद से ये लोग कश्मीर में स्थायी तौर पर बसने के अधिकारी हो गए हैं. जबकि, इससे पहले भंग कर दी गई धारा 35A के अनुसार, ये कश्मीर के अप्रवासी माने जाते. लेकिन, अब नए क़ानून के तहत इन सभी लोगों को कश्मीर में ज़मीन ख़रीदने और सरकारी नौकरियों में जगह पाने का अधिकार होगा. जबकि ये अधिकार इससे पहले जम्मू-कश्मीर के स्थानीय निवासियों के लिए ही था.

केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवास के संबंध में नया क़ानून उस वक़्त जारी किया, जब पूरे देश में कोरोना वायरस का प्रकोप फैला हुआ है. फिर भी सरकार ने समाप्त की गई धारा 35A की जगह इस नए क़ानून की अधिसूचना जारी कर दी. इस क़दम की बीजेपी को छोड़ कर सभी राजनीतिक दलों ने कड़ी आलोचना की. इसके अलावा, बड़ी तादाद में जम्मू-कश्मीर के स्थानीय लोगों ने भी इसका विरोध किया. जिसके चलते सरकार को इस अधिसूचना को जारी करने के फ़ौरन बाद ही संशोधित करना पड़ा. क्योंकि इसमें केवल चौथे दर्जे की सरकारी नौकरियां ही जम्मू-कश्मीर के स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित की गई थीं. ये फौरी संशोधन ही ये बताने के लिए पर्याप्त है कि शुरुआती फ़रमान कितनी हड़बड़ी में जारी किया गया था. और इसे जारी करने से पहले केंद्र सरकार के राजनीतिक नेतृत्व ने न तो सलाह-मशविरा किया और न ही इसके प्रभावों या दुष्प्रभावों को लेकर गंभीरता से विचार किया. इसके अलावा, स्थायी निवासियों के संबंध में बने नियमों में बदलाव करने से ये चर्चा भी नए सिरे से चल पड़ी कि केंद्र सरकार इस क़ानून के ज़रिए जम्मू-कश्मीर की आबादी में बदलाव की कोशिश में जुटी है. सरकार के इरादे भले ही कुछ रहे हों, मगर कश्मीर घाटी और जम्मू के एक हिस्से के लोगों को ये लगता है कि केंद्र सरकार ने राज्य की आबादी में बदलाव की प्रक्रिया शुरू कर दी है.

ये फौरी संशोधन ही ये बताने के लिए पर्याप्त है कि शुरुआती फ़रमान कितनी हड़बड़ी में जारी किया गया था. और इसे जारी करने से पहले केंद्र सरकार के राजनीतिक नेतृत्व ने न तो सलाह-मशविरा किया और न ही इसके प्रभावों या दुष्प्रभावों को लेकर गंभीरता से विचार किया.

सरकार की बदनीयती के लिए इस स्थायी निवास क़ानून की आलोचना से परे, ये क़ानून अपने आप में संवैधानिक प्रक्रियाओं का अपमान मालूम होता है. जब आप पूर्वोत्तर के राज्यों में लागू इसी तरह के क़ानून को देखें, तो ये बात और साफ़ हो जाती है. पुराने स्थायी निवासी क़ानून से तुलना करें, तो नए क़ानून को कोई संवैधानिक मान्यता नहीं प्राप्त है. और इस क़ानून को बस एक सरकारी आदेश से हटाया जा सकता है. दूसरी बात ये है कि जब जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव में होंगे, तो ये क़ानून आगे लागू रह पाएगा इसकी संभावना बेहद कम है. क्योंकि, जम्मू-कश्मीर के तमाम राजनीतिक दल स्थायी निवास संबंधी नए नियमों का कड़ा विरोध कर रहे हैं.

राज्य में नए स्थायी निवास क़ानून की ज़रूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि पिछले साल केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर की विशेष संवैधानिक व्यवस्था ख़त्म करने के साथ-साथ धारा 35A को भी ख़त्म कर दिया था. इसके अलावा जम्मू के लोग, बीजेपी के स्थानीय नेता और कुछ अन्य क्षेत्रीय दल जम्मू-कश्मीर के लिए नए डोमिसाइल क़ानून की मांग कर रहे थे. वो इस मामले में केंद्र सरकार के इशारे पर चलने को तैयार थे. जबकि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और विधानसभा के पूर्व सदस्य नज़दरबंद थे, तो केंद्र सरकार ने इस मौक़े का फ़ायदा उठा कर नए नियमों की अधिसूचना जारी कर दी.

कश्मीर में स्थायी निवास के पुराने क़ानून में परिवर्तन करके नए नियम लागू करने से उन लोगों के भी कश्मीर में बसने का रास्ता साफ़ हो गया है, जो यहां के मूल निवासी नहीं हैं. इससे इलाक़े की स्थानीय आबादी के बीच तनाव और बढ़ने की आशंका है. सरकार ने डोमिसाइल संबंधी जो नया आदेश जारी किया है, उसके अनुसार- कोई भी व्यक्ति अगर राज्य में कम से कम पंद्रह वर्षों से लगातार रह रहा है, या जम्मू-कश्मीर की सरकार में दस साल काम कर चुका है, या फिर उसने राज्य में कम से कम सात साल पढ़ाई की हो और राज्य के बोर्ड इम्तिहान में बैठा हो, उसे स्थायी निवासी का प्रमाण पत्र हासिल करने का अधिकार होगा. नए नियमों के अनुसार जो लोग जम्मू-कश्मीर में रहने की उपरोक्त शर्तें पूरी करते हों, उनके बच्चे भी स्थायी निवासी माने जाएंगे. भले ही, वो कभी जम्मू-कश्मीर न आए हों या यहां पर न रहे हों.

कश्मीर में स्थायी निवास के पुराने क़ानून में परिवर्तन करके नए नियम लागू करने से उन लोगों के भी कश्मीर में बसने का रास्ता साफ़ हो गया है, जो यहां के मूल निवासी नहीं हैं. इससे इलाक़े की स्थानीय आबादी के बीच तनाव और बढ़ने की आशंका है.

इसके अतिरिक्त, केंद्र सरकार ने स्थायी निवासी का प्रमाण पत्र देने की प्रक्रिया को तेज़ी से पूरी करने के लिए कड़े दंडों का प्रावधान भी रखा है. वो भी उस वक़्त जब देश कोरोना वायरस की महामारी से जूझ रहा है, तो भी सरकार डोमिसाइल सर्टिफिकेट देने वालों के ढिलाई करने को लेकर बेहद सख़्त है. इससे भी केंद्र सरकार द्वारा इस मामले में दिखायी गई फ़ुर्ती के पीछे की नीयत पर सवाल खड़े होते हैं. नए नियमों के अनुसार अगर कोई तहसीलदार, सभी प्रक्रियाएं सही तरीक़े से पूरी करके अर्ज़ी देने वाले किसी व्यक्ति को स्थायी निवासी का प्रमाणपत्र देने के लिए तय पंद्रह दिनों से ज़्यादा समय लगाता या लगाती है, तो उसे पचास हज़ार रुपयों तक का जुर्माना देना पड़ सकता है.

केंद्र सरकार ने नए नियमों के तहत केवल जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी होने का प्रमाणपत्र हासिल करने की प्रक्रिया को ही सरल नहीं बनाया. बल्कि, इससे कश्मीर के बाहर के जो लोग स्थायी निवासी का सर्टिफिकेट ले लेंगे, उन्हें कुछ विशेषाधिकार भी दिए गए हैं. इससे पहले से ही अधिकार विहीन महसूस कर रही स्थानीय जनता की चिंताएं और बढ़ने का डर है. जिन लोगों को स्थायी निवासी होने का प्रमाणपत्र मिल जाएगा, वो जम्मू-कश्मीर में संपत्ति ख़रीद सकेंगे और सरकारी नौकरी भी हासिल कर सकेंगे. जबकि, पहले ये रोज़गार स्थानीय लोगों के लिए ही आरक्षित थे. जम्मू-कश्मीर में इस समय बेरोज़गारी की दर 15.89 प्रतिशत है. जबकि देश में बेरोज़गारी का औसत 6.87 फ़ीसद ही है. और जम्मू-कश्मीर के कुल बेरोज़गार लोगों में से 25.2 प्रतिशत ग्रेजुएट हैं. जबकि राज्य की 59.5 प्रतिशत महिलाएं बेरोज़गार हैं. ऐसे में जम्मू-कश्मीर के लिए बनाए गए स्थायी निवास के नए क़ानून से बेरोज़गारी की समस्या इतनी बढ़ जाएगी, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.

इस क़ानून के चलते स्थानीय लोगों के बीच सरकारी नौकरियों में आरक्षण गंवाने को लेकर तो डर है ही. इसके अलावा राज्य में लगातार बनी रहने वाली संघर्ष की स्थिति के कारण जम्मू-कश्मीर के स्कूलों में पढ़ाई की स्थिति भी बहुत ख़राब है. जिसके कारण राज्य के युवाओं का चहुंमुखी विकास नहीं हो पाता है. अब ऐसे में जब सरकारी नौकरियों के दरवाज़े जम्मू-कश्मीर से बाहर के लोगों के लिए भी खुल गए हैं, तो इन्हें हासिल करने के लिए बाहरी लोगों से मुक़ाबला कर पाने की कश्मीरी युवाओं की क्षमता बेहद कमज़ोर है. आज जम्मू-कश्मीर के युवाओं के बीच सबसे अधिक भय इस बात को लेकर है कि जब उनके राज्य की नौकरियों के लिए पूरे भारत के युवा उनसे मुक़ाबला करेंगे, तो वो उनसे प्रतिद्वंदिता कर ही नहीं पाएंगे. क्योंकि, पिछले तीन दशकों से लगातार चल रहे हिंसक संघर्ष के चलते जम्मू-कश्मीर की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से चरमराई हुई है. क्योंकि कभी हड़ताल, तो कभी प्रदर्शन, हिंसा और आतंकवाद के चलते शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से पटरी से उतरी हुई है. हिंसक संघर्ष के कारण कश्मीर में निजी क्षेत्र का विकास तो नाम-मात्र को भी नहीं हो सका है. इसीलिए, जम्मू-कश्मीर की सरकारी नौकरियों में स्थानीय निवासियों को मिलने वाला आरक्षण, युवाओं के लिए बहुत बड़ा सहारा था. लेकिन, स्थायी निवास के नए नियमों के चलते, स्थानीय निवासियों को मिलने वाला ये आरक्षण भी ख़त्म हो गया है. अब कश्मीर घाटी के युवाओं को लग रहा है कि उनके राज्य की सरकारी नौकरियां भी भारत के अन्य राज्यों के ज़्यादा क़ाबिल लोगों को मिल जाएंगी. और चूंकि हिंसक संघर्ष के कारण इन युवाओं की पढ़ाई इतनी अच्छी नहीं हो सकी है, तो वो ये नौकरियां हासिल करने से भी वंचित हो जाएंगे.

स्थानीय निवासी अब भारत से एकीकृत नहीं बल्कि ख़ुद को और उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. लोगों के दिलों को भारत से जोड़ने के बजाय राजनीतिक बयानबाज़ी और ज़बरदस्ती नया क़ानून थोपने से उन्हें देश से और दूर धकेल दिया गया है.

जब पिछले साल केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 का ख़ात्मा किया था. तब ये दावा किया गया था कि जम्मू-कश्मीर को बाक़ी देश से और मज़बूती से जोड़ा जा सकेगा. और जम्मू-कश्मीर के भारत के बाक़ी राज्यों से होने वाले इस वास्तविक एकीकरण से इस केंद्र शासित प्रदेश का आर्थिक विकास तेज़ी से होगा. हालांकि, जिस तरह से सुरक्षा के नाम पर कड़ी पाबंदियां लगाई गई हैं और जिस तरह से लगभग एक साल से राज्य में इंटरनेट सेवाएं ठप हैं, उससे लग रहा है कि पूरे जम्मू-कश्मीर के लोगों को कोई सज़ा दी जा रही है. इसके अतिरिक्त बेहद भड़काऊ और ध्रुवीकरण वाले राजनीतिक शोर के चलते, जम्मू-कश्मीर में टकराव के पहले से मौजूद कारण और बढ़ गए हैं. स्थानीय निवासी अब भारत से एकीकृत नहीं बल्कि ख़ुद को और उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. लोगों के दिलों को भारत से जोड़ने के बजाय राजनीतिक बयानबाज़ी और ज़बरदस्ती नया क़ानून थोपने से उन्हें देश से और दूर धकेल दिया गया है.

जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने से स्थानीय लोगों पहले से ही नाराज़ थे. अब स्थायी निवास के संबंध में बनाए गए नए क़ानून के कारण, जम्मू-कश्मीर और ख़ास तौर से कश्मीर घाटी के लोगों का वो डर और बढ़ गया है कि उनके राज्य की आबादी की संरचना बदलने की कोशिश हो रही है. इसके अलावा, जिस समय पूरी दुनिया एक महामारी की गिरफ़्त में है, उस समय नए क़ानून लाने से सरकार की नीयत को लेकर भी सवाल खड़े हो गए हैं. लोग ये पूछ रहे हैं कि क्या सरकार लंबे समय से संघर्ष के शिकार एक क्षेत्र को लेकर कुछ अधिक संवेदनशील नहीं हो सकती थी. अगर हम जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवास के संबंध में बनाए गए नए क़ानूनों के वैधानिक पहलुओं की नए सिरे से समीक्षा करें, और ये समझने की कोशिश करें कि जम्मू-कश्मीर की जनता के लिए इनके क्या मायने हैं, तो ये साफ तौर पर समझ में आता है कि इस डोमिसाइल क़ानून से कश्मीर घाटी में भारत विरोधी सोच को और बढ़ावा भी मिलेगा, न कि उसमें कमी आएगी.

भले ही स्थायी निवास के नए क़ानून को लेकर जम्मू-कश्मीर की जनता का एक बड़ा तबका नाराज़ हो. मगर, ये बात तो बिल्कुल साफ़ नज़र आती है कि सरकार ने नए डोमिसाइल क़ानून को इसलिए बनाया है, ताकि पश्चिमी पाकिस्तान से आकर बसे शरणार्थियों को मानवता के नाम पर दी जा रही इस मदद से रिझाया जा सके. इसके अलावा, नए क़ानून वाल्मीकि समुदाय के लोगों और महिलाओं को भी ख़ुश किए जाने की कोशिश की गई है, जिन्होंने बाहरी लोगों से ब्याह के चलते कश्मीर के स्थायी निवासी होने का दर्ज़ा खो दिया था. क्योंकि, पुराने अनुवांशिक स्थायी निवासी के क़ानून के चलते ये लोग जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी नहीं माने जाते थे. लेकिन, पिछली सरकारों के द्वारा राजनीतिक कुप्रबंधन और धारा 35A के सख़्त नियमों के चलते ऐसे लोग तमाम अधिकारों से वंचित थे और कई दशकों से कष्ट सहते आ रहे थे. दुर्भाग्य से जो नीति पुरानी ग़लतियों को सुधारने और सब लोगों को समान अधिकार देने के लिए बनायी गई है, वो कश्मीर की मौजूदा बहुमत वाली आबादी की इच्छाओं के विपरीत है. क्योंकि, नए नियमों से कश्मीर की जनता को ये लग रहा है कि उनके इलाक़े की आबादी की संरचना बदल जाएगी. अब बाहरी लोग आकर उनके पास पड़ोस में बस जाएंगे. इसलिए, भले ही स्थायी निवास के इन नियमों के बारे में ये तर्क दिया जाए कि ये ऐतिहासिक ग़लतियों को सुधारने और लोगों को न्याय देने के लिए बना गए हैं. लेकिन, इसे लागू करने के लिए जो तरीक़े अपनाए गए हैं. और राज्य का जो सामाजिक-राजनीतिक माहौल है, उससे इस क्षेत्र में तनाव और बढ़ेगा. लोगों के बीच अलगाववाद की भावना और मज़बूत होगी. इससे कश्मीर को बाक़ी देश से एकीकृत करके स्थायी शांति स्थापित करने का ख़्वाब भी अधूरा ही रहेगा.

ये बात तो बिल्कुल साफ़ नज़र आती है कि सरकार ने नए डोमिसाइल क़ानून को इसलिए बनाया है, ताकि पश्चिमी पाकिस्तान से आकर बसे शरणार्थियों को मानवता के नाम पर दी जा रही इस मदद से रिझाया जा सके.

जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवास संबंधी नए क़ानून के पीछे के असल मक़सद को लेकर जताई जा रही चिंताओं और आशंकाओं के बीच, बिहार के अधिकारी नवीन चौधरी को कश्मीर का स्थायी निवासी होने का प्रमाणपत्र दिया गया. जबकि नवीन चौधरी, बिहार के दरभंगा में पैदा हुए और वहीं पले बढ़े. लेकिन, उन्हें कश्मीर का स्थायी निवासी होने का सर्टिफिकेट देने की ख़बर सोशल मीडिया पर वायरल हो गई. इससे, नए क़ानून को लेकर जताई जा रही आशंकाएं सच साबित हुईं. इससे ये बात भी साफ़ हो गई है कि बीजेपी कश्मीर के ख़तरनाक हालात का हर क़ीमत पर इस्तेमाल करके, देश के अन्य हिस्सों में चुनावी लाभ लेने की पुरज़ोर कोशिश कर रही है. जिससे कि वो अपनी घरेलू महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर सके. जिस तरह से राज्य के 25 हज़ार लोगों को जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी होने का प्रमाणपत्र दिया गया. और उसमें से भी बिहार के एक IAS अधिकारी को कश्मीर का निवासी होने का सर्टिफिकेट देने की ख़बर मीडिया में लीक की गई और राष्ट्रीय मीडिया में उसका जश्न मनाया गया, उसका राजनीतिक लाभ उठाने के अलावा भला और क्या मक़सद हो सकता है?

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.