Published on Mar 03, 2017 Updated 0 Hours ago

निवेश को बढ़ावा देने के लिए ब्याज दरों को नीचे लाने के बजाय भारतीय रिजर्व बैंक एक 'तटस्थ' नीतिगत रुख पर ही अडिग रहा।

आर्थिक विकास पर भारी महंगाई

पिछले कुछ वर्षों से निजी निवेश में दर्ज की जा रही निरंतर गिरावट भारतीय अर्थव्यवस्था की एक गंभीर समस्या है। निवेश की दर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 26.5 प्रतिशत आंकी गई है जो वर्ष 2004-05 के बाद सबसे कम है। इसके बावजूद रिजर्व बैंक ने अपनी हालिया मौद्रिक नीति समीक्षा (8 फरवरी 2017) में रेपो रेट को 6.25 प्रतिशत पर अपरिवर्तित रखा। यहां तक कि डब्ल्यूपीआई एवं सीपीआई के रिकॉर्ड निचले स्तर पर विराजमान रहने और खुदरा मूल्य आधारित महंगाई दर के दिसंबर में गिरकर 3.2 प्रतिशत के स्‍तर पर आ जाने के बावजूद रेपो रेट को यथावत रखा गया।

निवेश को बढ़ावा देने के लिए ब्याज दरों को नीचे लाने के बजाय भारतीय रिजर्व बैंक एक ‘तटस्थ’ नीतिगत रुख पर ही अडिग रहा। इसके बजाय, यह उधारी अथवा कर्ज दरों को कम करने के लिए बैंकों पर परोक्ष रूप से दबाव डालता रहा है। कई बैंक जैसे कि भारतीय स्टेट बैंक पहले ही ऐसा कदम उठा चुके हैं, जिसके तहत सीमांत (मार्जिनल) लागत आधारित उधारी दर (एमसीएलआर) को घटाकर 8 प्रतिशत के स्‍तर पर ला दिया गया है। हालांकि, विमुद्रीकरण के बाद जमाराशि में हुई व्‍यापक वृद्धि को ध्‍यान में रखते हुए बैंकों के लिए उधारी दरों में और कमी करना शायद संभव नहीं है।

कर्ज को सस्‍ता कर देने से अचल संपत्ति क्षेत्र (रियल एस्‍टेट सेक्‍टर) में नई जान आने के साथ-साथ घर के खरीदारों के लिए उधार लेने की लागत भी घट जाती। मुख्‍यत: विमुद्रीकरण यानी नोटबंदी के बाद अनिश्चितता की वजह से समस्‍त प्रमुख शहरों में आवास की मांग में पहले ही 3 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है, जिसके परिणामस्‍वरूप अक्टूबर से लेकर दिसंबर 2016 तक की अवधि के दौरान प्राथमिक एवं द्वितीयक दोनों ही बाजारों में बेहद कम लेन-देन या सौदे हो पाए।

आरबीआई ने यह सतर्क कदम विश्व अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति को ध्‍यान में रखते हुए उठाया है, जिसमें कच्चे तेल की कीमतों में यथासमय वृद्धि होने की प्रबल संभावना है।

यही नहीं, कच्चे तेल की कीमतों में तो पहले से ही काफी तेजी से बढ़ोतरी होने का सिलसिला जारी है। इसका असर भारतीय अर्थव्यवस्था में ईंधन की लागत पर पड़ेगा जो कच्‍चे तेल (कुल आवश्‍यकता का 80 प्रतिशत) के आयात पर निर्भर है। उच्च ईंधन लागत की वजह से थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित महंगाई दर तो हाल ही में थोड़ी बढ़त को दर्शाते हुए जनवरी, 2017 में 5.25 प्रतिशत के स्‍तर पर पहुंच गई।

हालांकि, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में बेहतरी लगभग तय है और ऐसे में वहां ब्याज दरों में एक फि‍र बढ़ोतरी होना भी स्वाभाविक ही है। जाहिर है, जब भी इस तरह का कदम उठाया जाएगा तो उभरते बाजारों से अस्थिर विदेशी पूंजी (एफआईआई) को वापस अपने यहां आकर्षित करने में अमेरिका कामयाब हो जाएगा। वर्ष 2016 के आखिरी महीनों में तो विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) ने बाकायदा यहां से अपना पैसा वापस निकालने का सिलसिला शुरू भी कर दिया। अत: भारत में ब्याज दर को और कम कर देने पर भी उन्हें वापस आकर्षित करने में मदद नहीं मिल पाएगी क्योंकि दोनों देशों के बीच ब्‍याज दर में अपेक्षाकृत ज्‍यादा अंतर होगा। आरबीआई के सतर्क रहने का एक और कारण यह है कि राष्ट्रपति ट्रम्प द्वारा कर या शुल्‍क छूट संबंधी व्‍यापक प्रोत्साहन देने के साथ-साथ ढांचागत खर्च में भी वृद्धि की घोषणा करने के परिणामस्‍वरूप धातु की कीमतों में वृद्धि होना तय है जिससे महंगाई सिर उठाने लगेगी और वैसी स्थिति में धातु के मूल्‍यों में फि‍र से बढ़ोतरी का सिलसिला शुरू होने का अंदेशा है।

वर्ष 2016 के आखिरी महीनों में तो विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) ने बाकायदा यहां से अपना पैसा वापस निकालने का सिलसिला शुरू भी कर दिया।

वहीं, दूसरी ओर भारत में औद्योगिक उत्पादन को तत्काल नई गति प्रदान करने की जरूरत है। वर्ष 2015-16 में अप्रैल और नवंबर के बीच आईआईपी धराशायी होकर 0.4 प्रतिशत के स्‍तर पर आ गया। हालांकि, कम बेस यानी पिछले आंकड़े के बेहद कम रहने के परिणामस्‍वरूप आईआईपी नवंबर 2016 में बढ़कर 5.6 प्रतिशत के स्‍तर पर पहुंच गया जो इससे पिछले तीन महीनों में दर्ज की गई नकारात्‍मक या ऋणात्‍मक वृद्धि को देखते हुए एक सकारात्‍मक संकेत था। दिसंबर 2016 में आईआईपी ने फि‍र से 0.4 फीसदी की नकारात्‍मक या ऋणात्‍मक वृद्धि दर्शाई। इससे कारखानों में उत्पादन घटने के साथ-साथ विनिर्माण क्षेत्र में भी 2 प्रतिशत की गिरावट होने की निराशाजनक बात सामने आई। कुल मिलाकर, उपभोक्ता सामान खंड में 3 फीसदी की गिरावट आंकी गई और विनिर्माण क्षेत्र के 22 औद्योगिक समूहों में से 17 ने नकारात्‍मक या ऋणात्‍मक वृद्धि दर्शाई। कॉरपोरेट सेक्टर वर्ष 2015-16 में 0.1 प्रतिशत की वृद्धि दर पर कमोबेश स्थिर या निष्‍क्रि‍य पड़ा हुआ था।

इससे साफ जाहिर है कि विमुद्रीकरण या नोटबंदी ने औद्योगिक विकास को बुरी तरह प्रभावित किया है और यह कदम ऐसे गलत समय में उठाया गया जब पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में तेज गिरावट आंकी गई थी। ऋणों की वृद्धि दर वर्ष 2014-15 के 13.2 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2015-16 में गिरकर 10 प्रतिशत के स्‍तर पर आ गई थी। बिगड़ती बैलेंस शीट की समस्याओं के चलते ही ऐसी स्थिति देखने को मिली। दरअसल, इस वजह से कॉरपोरेट सेक्टर ने अपेक्षाकृत कम उधार लिया और इसके साथ ही निवेश के फैसलों को भी टाल दिया।

विमुद्रीकरण या नोटबंदी ने औद्योगिक विकास को बुरी तरह प्रभावित किया है और यह कदम ऐसे गलत समय में उठाया गया जब पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में तेज गिरावट आंकी गई थी।

वर्ष 2015-16 के दौरान विनिर्माण क्षेत्र में ऋण प्रवाह की वृद्धि दर 2.5 प्रतिशत के निचले स्तर पर थम गई। विनिर्माण क्षेत्र में विकास की रफ्तार यदि तेज नहीं हुई तो भारत में बहुप्रतीक्षित रोजगार सृजन ठप पड़ जाएगा और यह आगे चलकर व्यापक असंतोष का कारण बनेगा। ऋणों की मांग निकट भविष्य में भी सुस्‍त ही रहेगी क्‍योंकि पुनर्मुद्रीकरण का अपेक्षित असर दिखने और खुदरा (रिटेल) क्षेत्र में गतिविधियां तेज होने में समय लगेगा। विशेष रूप से पूंजीगत सामान क्षेत्र को तेज रफ्तार पकड़ने की जरूरत है जिसे केवल निजी निवेश बढ़ाकर ही नई गति प्रदान की जा सकती है। हालांकि, कटु सच्‍चाई यही है कि निजी निवेश आकर्षित करने में कामयाबी हाथ नहीं लग पा रही है। इस उद्योग में जरूरत से ज्‍यादा एवं अप्रयुक्त क्षमता रहने के कारण ही फि‍लहाल ‘इंतजार करो और देखो’ की निराशाजनक स्थिति नजर आ रही है।

निजी क्षेत्र को अपने विकास के लिए ऋण प्रवाह की सख्‍त जरूरत है, लेकिन दुर्भाग्यवश पीएसबी (सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक) फंसे कर्जों (एनपीए) के भारी बोझ के तले दबे हुए हैं। इन बैंकों की वित्‍तीय सेहत को फि‍र से दुरुस्‍त करना एक दुष्‍कर कार्य है और बजट 2017 में आवंटित की गई 10,000 करोड़ रुपये की राशि इन बैंकों को अगले एक साल में नई पूंजी मुहैया कराने के लिहाज से पर्याप्त नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से कहा गया है कि वे ऋण संबंधी नुकसान के प्रावधान में कमी करने के लिए उदय (उज्‍ज्‍वल डिस्‍कॉम आश्वासन योजना) का उपयोग करें। इससे 200 अरब रुपये की पूंजी उन्मुक्‍त (अनलॉक) हो जाएगी। ‘उदय’ के तहत राज्य बांड जारी करके विद्युत वितरण कंपनियों के 75 प्रतिशत ऋण का अधिग्रहण कर सकते हैं। इन बांडों को बैंकों, म्युचुअल फंडों एवं बीमा कंपनियों द्वारा खरीदा जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा ‘उदय’ के तहत दिसंबर 2015 से लेकर सितम्बर 2016 तक की अवधि के दौरान वितरित किए गए कुछ ऋणों को फंसे कर्जों (एनपीए) के रूप में वर्गीकृत किया गया। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने पहले ही ‘उदय’ के तहत 15 प्रतिशत का प्रावधान कर दिया था, लेकिन अब से इन बैंकों को इस योजना के तहत जारी किए गए बांडों के लिए कोई भी प्रावधान करने की आवश्यक नहीं है। इससे वह पूंजी मुक्‍त हो जाएगी जिसे डूबत ऋणों के संबंध में आरबीआई के प्रोविजनिंग मानकों के कारण गंवाना पड़ गया था। इसके बावजूद नए ऋण देने पर तत्काल कोई खास असर पड़ने की संभावना नहीं है।

यदि बुनियादी ढांचागत क्षेत्र पर खर्च को छोड़ दें तो यही तथ्‍य सामने आता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की ओर से भी कोई भारी-भरकम निवेश नहीं किया जा रहा है। इसी तरह बजट में निजी क्षेत्र के निवेश को प्रोत्साहन नहीं दिया गया है क्योंकि जिस कर राहत की उम्मीद की जा रही थी वह पूरी नहीं हो पाई।

कुल मिलाकर, आरबीआई ने ब्‍याज दरों को यथावत रखने का जो निर्णय लिया है उसका स्‍वागत उद्योग जगत ने नहीं किया है। यह वितर्क दिया गया है कि यदि ब्‍याज दरों यानी रेपो रेट में कमी की जाती तो वैसी स्थिति में पारिश्रमिक में वृद्धि के कारण महंगाई, विशेष रूप से लागत आधारित महंगाई को हवा मिल सकती थी। बढि़या मानसून से भी मांग अच्‍छी-खासी बढ़ सकती है। वहीं, सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अमल का भी असर साफ नजर आने लगा है।

महंगाई और सुस्‍त आर्थिक विकास का आपस में मेल खतरे से खाली नहीं है क्‍योंकि ऐसी स्थिति में नौकरियों पर बन आती है। फिर भी बिल्‍कुल सटीक तरीके से वास्तविक उपभोक्ता मांग निकलने में अभी लंबा वक्‍त लगेगा क्योंकि उपभोक्ताओं का विश्वास डगमगा गया है और बड़ी संख्‍या में उपभोक्ता अपनी बचत को तरजीह देते हुए खर्चों को टाल सकते हैं। अत: ऐसे में दुविधा की बात यह है कि क्‍या भारतीय रिजर्व बैंक को विमुद्रीकरण या नोटबंदी के प्रतिकूल असर को कम करने के लिए रेपो रेट में कमी करके निवेश को बढ़ावा देना चाहिए था अथवा महंगाई को काबू में रखने के लिए उसे बहुत ज्‍यादा मशक्‍कत करनी चाहिए थी? आरबीआई के गवर्नर के अनुसार, भारतीय रिजर्व बैंक का यह निर्णय महंगाई को नियंत्रण में रखने और फि‍र उसके परिणामस्‍वरूप विकास की गति तेज करने पर आधारित था।

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