Author : Kriti M. Shah

Published on Aug 27, 2020 Updated 0 Hours ago

जहां अफ़ग़ान सरकार ने तालिबानी क़ैदियों की रिहाई शुरू की है और अमेरिका सैनिकों की संख्या में कमी की तैयारी कर रहा है, वहीं हक़्क़ानी नेटवर्क और अल-क़ायदा के साथ तालिबान के रिश्ते पहले से ज़्यादा मज़बूत बने हुए हैं.

हक़्क़ानी नेटवर्क और अमेरिका-तालिबान समझौते की नाकामी

क़रीब चार महीने पहले अमेरिका और तालिबान ने ‘अफ़ग़ानिस्तान में शांति लाने के लिए समझौता’ पर दस्तख़त किए थे और तब से अब तक इस बात पर कोई आम राय नहीं बन पाई है कि वो शांति कैसे लाई जाए. एक तरफ़ अफ़ग़ान सरकार का वार्ता दल आने वाले हफ़्तों में पहली बार तालिबान के साथ बातचीत की तैयारी कर रहा है, दूसरी तरफ़ देश में हिंसा जारी है. रोज़ अफ़ग़ानी आम नागरिकों और सुरक्षा बलों पर निशाना साधकर हमले हो रहे हैं, बम फोड़े जा रहे हैं. लगातार संहार और ख़ून-खराबे के बावजूद सतह के नीचे उससे भी ख़तरनाक चीज़ तैयार हो रही है. तालिबान, हक़्क़ानी नेटवर्क, अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट अपने संगठनों के बीच क्षेत्रीय सीमा को मिटा रहे हैं. कुछ हद तक वैचारिक मतभेदों के बावजूद ये आतंकी संगठन कुछ फ़ायदे उठा रहे हैं जैसे परस्पर मौजूद वफ़ादारी, साझा सैन्य कमांडर, पाकिस्तानी हुकूमत की सरपरस्ती और अमेरिका के साथ एक समझौता जो उन्हें हत्या के बावजूद माफ़ी देता है.

लगातार संहार और ख़ून-खराबे के बावजूद सतह के नीचे उससे भी ख़तरनाक चीज़ तैयार हो रही है. तालिबान, हक़्क़ानी नेटवर्क, अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट अपने संगठनों के बीच क्षेत्रीय सीमा को मिटा रहे हैं.

अमेरिका के साथ समझौते के तहत तालिबान इस बात के लिए तैयार हुआ कि वो अब अमेरिकी सेना पर हमला नहीं करेगा और अल-क़ायदा और दूसरे संगठन जो अमेरिकी सुरक्षा के लिए ख़तरा है, उनसे संबध तोड़ लेगा. इसके बदले अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से स्थायी तौर पर अपने सैनिकों को वापस बुला लेगा और अफ़ग़ानिस्तान की जेलों से एक हज़ार तालिबानी क़ैदियों को छोड़ा जाएगा. जहां अफ़ग़ान सरकार ने तालिबानी क़ैदियों की रिहाई शुरू की है और अमेरिका सैनिकों की संख्या में कमी की तैयारी कर रहा है, वहीं हक़्क़ानी नेटवर्क और अल-क़ायदा के साथ तालिबान के रिश्ते पहले से ज़्यादा मज़बूत बने हुए हैं.

हक़्क़ानी, तालिबान और अल-क़ायदा के सहयोगी होने का लंबा इतिहास रहा है. इसकी जड़ में पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (ISI) के साथ क़रीबी संबंध और आतंकी-आपराधिक गतिविधियां हैं.

पिछले कई दशकों के दौरान हक़्क़ानी नेटवर्क ने कई तरह के जिहादी गुटों के साथ संबंध बनाए हैं. यहां तक कि उन गुटों के साथ भी जो वैचारिक या राजनीतिक तौर पर एक-दूसरे से अलग हैं. उसने तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP), इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज़्बेकिस्तान (IMU) और लश्कर-ए-तैयबा (LeT) जैसे गुटों का समर्थन किया है, उन्हें ज़रूरत के वक़्त सामरिक मदद, लड़ाके और दूसरे संसाधन मुहैया कराए हैं. पाकिस्तानी सेना हक़्क़ानी नेटवर्क को सहयोगी की तरह समझती है जिसके साथ साझेदारी करके वो अफ़ग़ानिस्तान और भारत को लेकर अपने रणनीतिक मक़सद को पूरा करने की कोशिश कर सकती है. पाकिस्तानी सेना ने लगातार हक़्क़ानी नेटवर्क को मदद और पनाह दी है और दूसरे गुटों के ख़िलाफ़ सैन्य आक्रमण के दौरान उसकी हिफ़ाज़त की है.

अमेरिका ने तालिबान को वैध राजनीतिक संस्था के तौर पर ख़ुद को पेश करने की इजाज़त दी है जो एक तरफ़ अफ़ग़ानियों को मार सकता है और दूसरी तरफ़ अमेरिका के सामने अपने महत्व और वैधता को सही साबित कर सकता है.

तालिबान को हक़्क़ानी नेटवर्क से अलग करने में अमेरिका की नाकामी अफ़ग़ानिस्तान से उसकी वापसी और शांति को जटिल बनाती है. अमेरिका ने तालिबान को वैध राजनीतिक संस्था के तौर पर ख़ुद को पेश करने की इजाज़त दी है जो एक तरफ़ अफ़ग़ानियों को मार सकता है और दूसरी तरफ़ अमेरिका के सामने अपने महत्व और वैधता को सही साबित कर सकता है. अमेरिका-तालिबान समझौते के बाद ये पिछले कई महीनों से दिख रहा है. मार्च में काबुल के एक गुरुद्वारे पर हमले में 27 लोगों की हत्या कर दी गई. अफ़ग़ान इंटेलिजेंस ने हमले के लिए एक पाकिस्तानी नागरिक इस्लाम फ़ारूक़ी को गिरफ़्तार किया जिसका LeT और TTP से संबंध सबको मालूम है. मई में नांगरहार में एक जनाज़े के दौरान आत्मघाती हमले में 24 लोगों की हत्या कर दी गई जिसकी ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली. उसी दिन काबुल में आतंकियों ने एक अस्पताल पर हमला करके गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों समेत 16 लोगों की जान ले ली. ये भयानक हमले जहां उसकी निर्दयता के मुताबिक़ हैं वहीं दूसरी हिंसक घटनाएं भी तीव्रता के साथ क़रीब-क़रीब रोज़ हो रही हैं. पूरे देश में बम धमाके, चेक पोस्ट पर हमले और अफ़ग़ानी सैनिकों की हत्या हो रही है.

ये मायने नहीं रखता कि तालिबान सार्वजनिक तौर पर इन हमलों की ज़िम्मेदारी लेता है या नहीं. आख़िर में सभी हमलों का संबंध तालिबान से मिलता है. 2015 से सिराजुद्दीन हक़्क़ानी तालिबान का उप नेता है. वो तालिबान की सैन्य और चरमपंथी गतिविधियों में मदद करता है. तालिबान के क़रीब 20 प्रतिशत लड़ाके हक़्क़ानी नेटवर्क से आते हैं. वो इन लड़ाकों की भर्ती करता है और पाकिस्तान में उनको ट्रेनिंग देता है. राजनीतिक मोर्चे पर हक़्क़ानी नेटवर्क ने इस बात के लिए कड़ी मेहनत की कि अमेरिका के साथ समझौते में तालिबान को सबसे बेहतर सलूक मिले. सिराज हक़्क़ानी ने तो न्यूयॉर्क टाइम्स में ‘हम, तालिबान क्या चाहते हैं’ के शीर्षक से एक लेख के ज़रिए तालिबान की मांगों को भी रखा. हक़्क़ानी नेटवर्क को उम्मीद है कि अफ़ग़ान सरकार के साथ जब तालिबान की बातचीत होगी तो तालिबान सौदेबाज़ी की हालत में होगा. इसकी वजह से अफ़ग़ानिस्तान की शांतिवार्ता के नतीजों को लेकर हक़्क़ानी नेटवर्क और ISI सबसे बेहतरीन हालत में होगी.

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि तालिबान के सैन्य कट्टरपंथियों ने गैर-तालिबान गुटों के साथ सामरिक गठबंधन किया है जो उन्हें इजाज़त देता है कि वो अफ़ग़ानिस्तान की शांति में बाधा बने रहें. हक़्क़ानी नेटवर्क ने इस्लामिक स्टेट खोरासन के साथ साझेदारी की प्रक्रिया शुरू की है. हक़्क़ानी नेटवर्क उन्हें मार्च में काबुल के गुरुद्वारे पर हमले जैसी गतिविधियों के लिए तकनीकी मदद मुहैया करा रहा है. इस्लामिक स्टेट का तालिबान के साथ मतभेद है लेकिन हक़्क़ानी नेटवर्क के साथ उसकी बढ़ती साझेदारी का उसे फ़ायदा मिल रहा है. इस साझेदारी की वजह से वो ऐसे हमलों को अंजाम दे रहा है जिसकी क्षमता उसके पास नहीं है. अगर हक़्क़ानी नेटवर्क द्वारा अंजाम दिए गए किसी हमले के दौरान नागरिकों की मौत हो जाती है तो तालिबान ज़िम्मेदारी से इनकार कर सकता है जबकि इस्लामिक स्टेट ज़िम्मेदारी ले सकता है. ऐसा करके वो ख़ुद की क्षमता और महत्व के बारे में बताता है.

इस्लामिक स्टेट का तालिबान के साथ मतभेद है लेकिन हक़्क़ानी नेटवर्क के साथ उसकी बढ़ती साझेदारी का उसे फ़ायदा मिल रहा है. इस साझेदारी की वजह से वो ऐसे हमलों को अंजाम दे रहा है जिसकी क्षमता उसके पास नहीं है.

अमेरिका के साथ तालिबान के समझौते में साफ़ तौर पर कहा गया है कि वो अल-क़ायदा के साथ अपने संबंधों को ख़त्म करेगा लेकिन तालिबान ने इसका कोई संकेत नहीं दिया है. अप्रैल 2020 में मुल्ला उमर की मौत की सातवीं बरसी पर तालिबान की आधिकारिक वेबसाइट ने एक बयान जारी कर 2001 में अमेरिकी आक्रमण के ख़िलाफ़ अल-क़ायदा के समर्थन को लेकर उसकी भूमिका की तारीफ़ की. तालिबान और अल-क़ायदा के बीच नज़दीकी संबंध बरकरार हैं. तालिबान नेतृत्व ने तो अमेरिका के साथ बातचीत के दौरान भी 2019 और 2020 की शुरुआत में अल-क़ायदा से मशविरा किया. ख़बरों के मुताबिक़ अल-क़ायदा के हथियारबंद आतंकी तालिबान और हक़्क़ानी नेटवर्क के साथ लगातार जुड़े हुए हैं. तालिबान और हक़्क़ानी नेटवर्क के साथ अल-क़ायदा ने अफ़ग़ानिस्तान में अपने सदस्यों के लिए योजना, प्रशिक्षण और सुरक्षित ठिकानों पर मदद के लिए बातचीत की. ताज़ा UN रिपोर्ट कहती है कि हक़्क़ानी नेटवर्क के वरिष्ठ सदस्यों के बीच हुई बातचीत का नतीजा 2,000 लड़ाकों के नये गुट के रूप में निकला. इसके लिए वित्तीय मदद अल-क़ायदा करेगा और ये देश में दो ज़ोन में बंटा रहेगा. तालिबान सार्वजनिक रूप से अल-क़ायदा के साथ अपने संबंधों से इनकार कर सकता है और इसे छुपाकर रखने की कोशिश कर सकता है लेकिन दोनों गुटों के बीच जटिल संबंध हमेशा असलियत और पहचान की शर्तों पर आधारित रही है. दोनों में से कोई भी गुट कट्टरपंथी इस्लाम पर आधारित ख़ुद की पहचान को ख़तरे में डाले बिना दूसरे को नहीं छोड़ सकता है.

जब तक अमेरिका हक़्क़ानी नेटवर्क को सैन्य ताक़त और आपराधिक गैंग के तौर पर देखता रहेगा और उसकी राजनीतिक चाल पर गंभीरता से विचार नहीं करेगा, वो अफ़ग़ानिस्तान में और भी नाकाम रहेगा. ये गुट अब अफ़ग़ानिस्तान में अभूतपूर्व ताक़त और असर रखता है और जिस तरह से ये वैचारिक आधार पर लगातार गठबंधन बना रहा है, वैसे में अमेरिका और तालिबान के बीच कोई भी समझौता सिर्फ़ काग़ज़ी बना रहेगा जिससे शांति नहीं आएगी.

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