शिक्षा जगत से जड़े लोगों, पेशेवरों और कुछ नीति-निर्माताओं का मानना है कि वैश्विक परमाणु व्यवस्था निरंतर परिवर्तनकारी दौर में है या शायद उसमें आमूलचूल बदलाव आ रहा है. इन परिवर्तनों के पीछे की वजहें ढेरों अलग-अलग मिसाइल तकनीकों का विकास और तैनाती हैं. सामरिक नज़रिए से इनके सामरिक प्रभाव संभावित हैं. साथ ही मौजूदा वक़्त के संदर्भ भी बदल गए हैं. दरअसल वो पूरा माहौल ही बदल गया है जिसमें परमाणु हथियारों से जुड़े मुद्दों के बारे में सोचा जाता है और परमाणु शांति बरकरार रखी जाती है.
अमेरिका, रूस, भारत और चीन के बीच पहले से भी ज़्यादा प्रतिस्पर्धी भूराजनीतिक परिदृश्य में ये चुनौतियां उभरकर सामने आ रही हैं. इस तरह के घालमेल समूची वैश्विक परमाणु व्यवस्था के लिए नई दिक़्क़तें पैदा करते हैं.
हालांकि कुछ मुट्ठी भर अपवादों को छोड़कर इस मसले पर होने वाली चर्चाओं का ज़ोर मुख्य रूप से अमेरिका-रूस और अमेरिका-चीन के रिश्तों पर ही रहा है. निश्चित रूप से परमाणु क्षमता से लैस इन तीन बड़ी ताक़तों के बीच का सामरिक संतुलन काफ़ी अहम है. हालांकि इस कड़ी में दक्षिण एशिया पर इन घटनाक्रमों के प्रभावों (प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष) पर काफ़ी कम ध्यान दिया गया है. हो सकता है कि विध्वंसक, अक्सर ग़ैर-परमाणु हथियार टेक्नोलॉजी और उनसे जुड़े सिस्टम दक्षिण एशिया में अभी शुरुआती दौर में हों. हालांकि अब ये दिखने लगा है कि इन घटनाक्रमों से कितनी तरह के परमाणु ख़तरे पैदा हो सकते हैं. इससे स्थिरता और स्थायित्व को चोट पहुंच सकती है और परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की संभावना में भी बढ़ोतरी हो सकती है.
महाशक्तियों के बीच की प्रतिस्पर्धा
सतह पर उभर कर आ रही वैश्विक चुनौती प्रमुख रूप से तकनीक से जुड़ी है इनमें निरंतर अत्याधुनिक होती जा रही मिसाइल रक्षा प्रणालियों के विकास और तैनाती, ग़ैर-परमाणु लंबी दूरी तक सटीक मार करने की क्षमता का उभार (हाइपरसोनिक हथियारों समेत) और न्यूक्लियर डिलिवरी के असाधारण तौर-तरीक़ों में बढ़ती दिलचस्पी शामिल हैं. इनके अलावा अंतरिक्ष में टकराव, पनडुब्बी के ख़िलाफ़ मारक क्षमता और साइबर जंग के नए और ज़्यादा ख़ास ज़रिए भी इसी कड़ी में आते हैं. ये तमाम बदलाव वास्तविक समय और परमाणु सूचनाओं के पारदर्शी माहौल में घटित हो रहे हैं. दुनिया में महाशक्तियों के बीच की प्रतिस्पर्धा और रस्साकशी दोबारा शुरू हो चुकी है. अमेरिका, रूस, भारत और चीन के बीच पहले से भी ज़्यादा प्रतिस्पर्धी भूराजनीतिक परिदृश्य में ये चुनौतियां उभरकर सामने आ रही हैं. इस तरह के घालमेल समूची वैश्विक परमाणु व्यवस्था के लिए नई दिक़्क़तें पैदा करते हैं. परेशानियों भरे ये हालात दक्षिण एशिया में ही शायद सबसे ज़्यादा गंभीर हैं. इसमें कोई शक़ नहीं है कि ये घटनाक्रम परमाणु अवरोधों से जुड़े क्षेत्रीय समीकरणों को पलटने की क्षमता रखते हैं. इससे भारत और पाकिस्तान के बीच पहले से चली आ रही हथियारों की प्रतिस्पर्धा और तेज़ हो सकती है. ज़ाहिर है इससे अनचाहे टकरावों का ख़तरा काफ़ी बढ़ सकता है.
पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका अपने परमाणु और फ़ौजी व्यवस्था के आधुनिकीकरण की जुगत में लगा है. साथ ही सामरिक प्रभावों वाले ग़ैर-परमाणु तकनीक पर अमेरिकी निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है. इन अमेरिकी क़वायदों ने चीन को भी अपने बूते अत्याधुनिक तकनीक का विकास करने को प्रेरित किया है.
भारत और पाकिस्तान दोनों ही नए-नए प्रकार के सामरिक हथियारों के प्रति दिलचस्पी दिखाते रहे हैं. भले ही हमेशा सार्वजनिक तौर पर इस तरह का प्रदर्शन न किया जाता हो लेकिन दोनों ही देश अवरोध और सुरक्षा के लिहाज़ से इन नई तरह की क्षमताओं के संभावित प्रभावों को ध्यान में रखने लगे हैं. एक लेखक तो पहले ही “भारत की जवाबी ताक़त” से जुड़े सिद्धांत की ओर संभावित रूप से आगे बढ़ने को लेकर चेतावनी दे चुके हैं. इसमें परमाणु हथियारों की बजाए या उनके बावजूद सामरिक रूप से ग़ैर-परमाणु क्षमता के इस्तमाल की भी संभावना हो सकती है. इसके अलावा बहुस्तरीय भारतीय बैलेस्टिक मिसाइल रक्षा (और पाकिस्तान की परमाणु डिलीवरी सिस्टम के साथ उसका संपर्क) पिछले क़रीब एक दशक से भी ज़्यादा के कालखंड में इस बहस का हिस्सा रहे हैं. बेशक़ इस सिलसिले में चिंता की कुछ ख़ास वजहें हैं. दरअसल दक्षिण एशिया में निरंतर अत्याधुनिक और विध्वंसक तकनीक के सामने आने से भारत और पाकिस्तान के लिए सुरक्षा मसलों पर असमंजस पैदा करने वाले हालातों में फंसने की आशंकाएं पैदा हो गई हैं. इससे एक ऐसा दुष्चक्र पैदा हो सकता है जिसे तोड़ना आगे चलकर और मुश्किल होता जाएगा.
फ़ौजी क्षमताओं में तकनीकी बदलावों से जुड़े मौजूदा शैक्षणिक साहित्य में इन तकनीकों की क्षमताओं और उनके इस्तेमाल से जुड़े भीतरी जोख़िमों पर ज़ोर दिया गया है. ख़ासतौर से सामरिक ग़ैर-परमाणु हथियारों (SNNW) के उभार और दक्षिण एशिया के मसलों पर ये रुझान साफ़ दिखाई देते हैं. बहरहाल भारत और पाकिस्तान द्वारा भविष्य में इन तकनीकों के इस्तेमाल के इरादों से जुड़े राजनीतिक विमर्शों और धारणाओं पर काफ़ी कम तवज्जो दिया गया है. इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया गया है कि इनका दोनों देशों के व्यापक सिद्धांतों पर किस तरह का प्रभाव पड़ेगा. हालांकि ये बात सही है कि सामरिक ग़ैर-परमाणु हथियारों से जुड़ी क्षमताओं और सिद्धांतों के विकास में दक्षिण एशिया फ़िलहाल अमेरिका, चीन और रूस से पीछे चल रहा है. इलाक़े में इन तकनीकों की भूमिका काफ़ी हद तक यहां की भूसामरिक स्थितियों, राजनीतिक हितों और सामरिक समीकरणों के उभार पर निर्भर करेंगे. हालांकि इन बातों के परे इतना तय है कि दक्षिण एशिया में इन तकनीकों के बेहद गंभीर प्रभाव होने वाले हैं. इस इलाक़े का इतिहास टकरावों से भरा है. यहां का सामरिक संतुलन अब भी अनसुलझा है. यहां का सियासी परिदृश्य भड़काऊ है. यहां के भूगोल और आपस में जुड़ती सरहदों की वजह से फ़ैसले लेने के लिए काफ़ी कम वक़्त उपलब्ध होता है. ख़ासकर SNNW के दक्षिण एशिया पर संभावित प्रभावों को समझने के लिए हमें व्यापक तस्वीर पर नज़र डालनी होगी. मौजूदा दौर में अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तरों पर पारस्परिक निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है. इन तमाम हालातों ने अमेरिका, चीन, भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में दूरगामी प्रभाव डाला है. इन गतिशील हालातों से न सिर्फ़ महाशक्तियों के बीच के सुरक्षा रिश्तों को आकार मिलेगा बल्कि दक्षिण एशिया और दूसरे इलाक़ों तक भी इसके ख़तरनाक प्रभावों का प्रसार हो सकता है. पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका अपने परमाणु और फ़ौजी व्यवस्था के आधुनिकीकरण की जुगत में लगा है. साथ ही सामरिक प्रभावों वाले ग़ैर-परमाणु तकनीक पर अमेरिकी निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है. इन अमेरिकी क़वायदों ने चीन को भी अपने बूते अत्याधुनिक तकनीक का विकास करने को प्रेरित किया है. बहरहाल, चीन के इरादों और क्षमताओं ने दुनिया को चिंता में डाल रखा है. ख़ासतौर से परमाणु हथियारों और उनके इस्तेमाल में मददगार वाहकों में तेज़ी से बढ़ोतरी का डर निरंतर बढ़ता जा रहा है. ये चिंताएं अपना परिवर्तनशील प्रभाव छोड़ती हैं. नतीजतन भारत भी अपने परमाणु कार्यक्रम का विस्तार करने और सामरिक ग़ैर-परमाणु हथियारों का विकास करने को मजबूर हो जाएगा. दूसरी ओर पाकिस्तान भी भारत की बराबरी करने के लिए ऐसी ही क़वायदों में लग जाएगा. कुल मिलाकर हथियारों के विकास का एक अंतहीन दुष्चक्र शुरू हो जाने का ख़तरा रहेगा.
अमेरिका लगातार भारत के साथ अपने रिश्तों को और मज़बूत बनाने की कोशिशों में लगा है. दूसरी ओर चीन भी पाकिस्तान के साथ नज़दीकी बनाने की क़वायदों में लगा है. इससे दक्षिण एशिया के सामरिक परिदृश्य में आमूलचूल बदलाव आ रहे हैं
दक्षिण एशिया के सामरिक परिदृश्य में बदलाव
अमेरिका और चीन के बीच की रस्साकशी दिनोंदिन और तीखी होती जा रही है. इस बीच अमेरिका लगातार भारत के साथ अपने रिश्तों को और मज़बूत बनाने की कोशिशों में लगा है. दूसरी ओर चीन भी पाकिस्तान के साथ नज़दीकी बनाने की क़वायदों में लगा है. इससे दक्षिण एशिया के सामरिक परिदृश्य में आमूलचूल बदलाव आ रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका और भारत के बीच असैनिक परमाणु समझौते की बदौलत एक गहरी सामरिक भागीदारी पनपी है. इससे अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्तों में ज़ाहिर तौर पर गिरावट आई है. नतीजतन पाकिस्तान और चीन के रिश्तों में गर्मजोशी आ गई है. दोनों देशों के बीच चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे और बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत सहयोग काफ़ी बढ़ गया है. लिहाज़ा पहली नज़र में ऐसा लग सकता है कि दक्षिण एशिया में दो निश्चित गुट (अमेरिका-भारत बनाम चीन-पाकिस्तान) बन गए हैं. हालांकि हक़ीक़त इससे कहीं ज़्यादा नाज़ुक, बारीक और पेचीदा है.
पाकिस्तान की परमाणु क्षमताओं की निगरानी
फ़िलहाल अमेरिका और पाकिस्तान के बीच के रिश्ते काफ़ी निचले स्तर पर हैं. हालांकि बाइडेन प्रशासन पाकिस्तान के साथ सहयोग जारी रखना चाहता है. दरअसल अमेरिका की आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों का पाकिस्तान समर्थन करता रहा है. इतना ही नहीं अमेरिकी सरकार पाकिस्तान की परमाणु क्षमताओं की निगरानी करना चाहती है और पाकिस्तानी फ़ौज के साथ अपने संपर्क सूत्र खुले रखना चाहती है. दूसरी ओर पाकिस्तान की बात करें तो वो अमेरिका और चीन, दोनों के साथ अपने रिश्तों को स्थिर और स्थायी बनाए रखना चाहता है. इसकी वजह ये है कि पाकिस्तान का अमेरिका के साथ तालमेल का लंबा इतिहास रहा है. शीतयुद्ध के ज़माने से दोनों देशों के बीच सहयोग का माहौल रहा है. अमेरिका से मदद हासिल करने वाले प्रमुख देशों में पाकिस्तान का नाम शुमार है. दूसरी ओर पाकिस्तान के लिए चीन एक बेहद अहम आर्थिक और फ़ौजी साझीदार है. दूसरी ओर चीन को लेकर अमेरिका की चिंताओं के साथ भारत भी जुड़ा हुआ है. दोनों ही देश हिंद-प्रशांत में चीन के उभार पर लगाम लगाने के हिमायती हैं. इसके बावजूद भारत सरकार अमेरिका के साथ किसी औपचारिक गठजोड़ के पचड़े में नहीं पड़ना चाहती. इसकी वजह ये है कि भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्ता की हिफ़ाज़त करना चाहता है. वो ऐसे किसी संघर्ष में नहीं फंसना चाहता जिससे उसकी आर्थिक वृद्धि में किसी तरह की रुकावट या उलझन आए.
भारत सरकार अमेरिका के साथ किसी औपचारिक गठजोड़ के पचड़े में नहीं पड़ना चाहती. इसकी वजह ये है कि भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्ता की हिफ़ाज़त करना चाहता है. वो ऐसे किसी संघर्ष में नहीं फंसना चाहता जिससे उसकी आर्थिक वृद्धि में किसी तरह की रुकावट या उलझन आए.
क्या दक्षिण एशिया के एक “तीसरे परमाणु युग” में दाखिल होने को लेकर राय क़ायम करना मुनासिब है, क्या ये इलाक़ा उसी रास्ते पर है जिसपर परमाणु क्षमता से संपन्न दुनिया के तमाम दूसरे किरदार हैं- इन तमाम मसलों पर बहस हो सकती है. हरेक इलाक़ा और हर राज्यसत्ता वैश्विक परमाणु व्यवस्था में इन बदलावों को अलग-अलग तरीक़े से महसूस कर सकती है. दरअसल भारत और पाकिस्तान के भीतर और उनकी वजह से परमाणु से जुड़े मोर्चे पर होने वाले घटनाक्रम कभी भी पश्चिम की सोच से मेल नहीं खाते हैं. पश्चिम की प्रचलित धारणा परमाणु इतिहास को दोनों ओर से शीत युद्ध के अंत के लिहाज़ से निश्चित “युगों” में बांटती रही है. बहरहाल इस शब्दावली (थर्ड न्यूक्लियर एज) को परे रखें तो इससे जुड़े गतिशील हालात और समीकरण इस इलाक़े के भविष्य को प्रभावित करेंगे. इनमें रुकावटी, सामरिक प्रभावों वाले अक्सर ग़ैर-परमाणु तकनीक, भूराजनीतिक प्रतिस्पर्धा और जटिल और परिवर्तनशील परमाणु सूचना वातावरण शामिल हैं. ख़ासतौर से परमाणु जोख़िमों के मिज़ाज और स्वरूप पर इनका प्रभाव पड़ना तय है. बहरहाल अब भी वक़्त है कि इस पूरे इलाक़े में इसके कुप्रभावों को सामने आने से रोकने के उपाय किए जाएं. इससे प्रभावी तौर पर इन घटनाक्रमों से आगे निकलने और शायद संभावित रूप से इनके बेहद नुकसानदेह प्रभावों की रोकथाम की जा सकती है. हालांकि इसके लिए वार्ताओं, जोख़िम कम करने के उपायों और संयमित बर्तावों में सच्ची दिलचस्पी लेने की ज़रूरत पड़ेगी. हालांकि हाल के वक़्त में वैश्विक व्यवस्था में ज़ाहिर तौर पर ये तमाम चीज़ें ग़ैर-हाज़िर रही हैं.
ये लेख यूरोपीय शोध परिषद द्वारा दिए गए अनुदान की मदद से किए गए शोध पर आधारित है. इस परियोजना के बारे में ज़्यादा जानकारी यहां उपलब्ध है.
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