Author : Sunjoy Joshi

Published on Mar 02, 2020 Updated 0 Hours ago

महात्मा गांधी ने भी संपूर्ण राष्ट्र को एक आईडेंटिटी के ज़रिए ही जोड़ा था. उन्होंने कभी भी इस बात से इंकार नहीं किया कि वो हिंदू नहीं है या हिंदूवादी नेता नहीं थे. पर उनके हिंदुवाद की जो परिभाषा था- 'वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे' 

आईडेंटिटी पॉलिटिक्स से दंगों तक: अपनी पहचान ढूंढता ‘दिल्ली’ शहर!

हाल ही में ख़त्म हुए दिल्ली में  चुनाव के नतीजे अभी हमारे ज़हन में ही हैं. इस चुनावी अभियान में यह देखा गया कि भाषा का स्तर कितना निम्न स्तर का था, हर दिन नए-नए नारे निकल कर सामने आते आते रहें, नकारात्मक प्रचार-प्रसार देखने को मिले, तमाम बड़े-बड़े नेता धर्म की बात किए, भारत-पाकिस्तान की बात किए और बिरयानी की भी बात देखने को मिली. वहीं दूसरी तरफ काम और विकास पर लड़े जाने वाले मुद्दों को भी जनता के सामने  पेश किया गया. इस लेख में हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि पहचान की राजनीति किस तरह से सिर्फ़ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में अपना प्रभाव बना रही है? क्या पहचान की राजनीति में तेज़ी आई है, यह कैसे फल-फूल रहा है, इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है  और क्या यह एक आक्रामक नेतृत्व को बढ़ावा देता है? 

आज के समय में आईडेंटिटी पॉलिटिक्स एक ऐसा वाक़या बनकर उभर रहा है जिसने  अपने  वास्तविक अर्थ को खो दिया है. एक अर्थों में सारी राजनीति का मतलब ही आईडेंटिटी पॉलिटिक्स ही होती है. अर्थात पॉलिटिक्स का मतलब ही होता है पहचान बनाना. फिर चाहे वो वु मेंस सफ्रेज़ मूवमेंट (women’s suffrage movement) रहा हो, जहां औरतें अपने वोट के अधिकारों के लिए सामने आईं थी, या फिर चाहे दलित मूवमेंट हो, यह सब आईडेंटिटी पॉलिटिक्स के ही उदाहरण रहे हैं. आईडेंटिटी पॉलिटिक्स हमेशा से ही राजनीति के एक हिस्से के रूप में रहा है.

हर आदमी की पहचान अलग-अलग होती हैं, चाहे वो महिला के रूप में हो, पुरुष के रूप में हों या फिर देश-जाति-व धर्म के रूप में हो. इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पहचान एक प्याज़ की तरह होती है, परत दर परत निकालने के बाद नई-नई पहचान बनती जाती है और कुछ नहीं बचता. राजनीति किस तरह की पहचान को लेकर अपने कबीले के भविष्य का निर्माण करती है, वह महत्वपूर्ण होता है, न कि विभाजन की राजनीति. यह बहुत ही संकीर्ण मानसिकता वाली सोच है. इसलिए इसका कोई भविष्य नहीं है.

अगर हर आदमी अपने प्रतिद्वंदी को आतंकवादी कहने लगे, तो आतंकवाद शब्द का मतलब ही ख़त्म हो जाता है, अगर हर व्यक्ति जो आपका विरोध करे, वो एंटी नेशनल हो जाता हैं, तो एंटी नेशनल शब्द का मतलब ही ख़त्म हो जाता है.

लोकतंत्र में नेता हमेशा से ही इसका इसतेमाल  अपने फ़ायदे के लिए करते रहे हैं. अगर हर आदमी अपने प्रतिद्वंदी को आतंकवादी कहने लगे, तो आतंकवाद शब्द का मतलब ही ख़त्म हो जाता है, अगर हर व्यक्ति जो आपका विरोध करे, वो एंटी नेशनल हो जाता हैं, तो एंटी नेशनल शब्द का मतलब ही ख़त्म हो जाता है. इस तरह की राजनीति की भी एक सीमा होती है और वो एक सीमा के बाद उससे आगे नही चल सकती. दिल्ली के चुनावों में लोगों ने जिस तरह से  वोटिंग किया है  वो बहुत ही ध्रुवीकरण वाली वोटिंग थी. कांग्रेस की हार, भारतीय जनता पार्टी के लिए एक बुरी ख़बर है. क्योंकि जो वो उम्मीद कर रहें थे कि वोटों का विभाजन यहां होगा, वो नहीं हुआ और जो पराजय उन्हें देखनी पड़ी, वो पोलराइज़्ड  कॅम्पेन (ध्रुवीकृत अभियान) की वजह से देखनी पड़ी. दरअसल, लोग बीते हुए दिनों में नहीं जीते हैं. वह या तो वर्तमान में जीते हैं या भविष्य में. चुकी वर्तमान अभी ख़राब है, इसलिए उन्हें भविष्य क्या होने वाला है, जीवन कैसा होगा और रोज़गार के कितने अवसर पैदा होंगे ये बताने की ज़रूरत हैं.

अमेरिकी राष्ट्रवाद सबसे पुराना राष्ट्रवाद है और यहां सबसे ज्य़ादा राष्ट्रवाद रहा है. अमेरिका एक आर्टिफीशियल (कृत्रिम) राष्ट्र है, वह कभी राष्ट्र रहा ही नहीं है. वहां छोटे-छोटे और भिन्न-भिन्न स्टेट को इकट्ठा करके एक राष्ट्र बनाया गया और इस राष्ट्र को साथ रखने के लिए बहुत ज़रूरी था कि राष्ट्रवाद का नारा दिया जाए. अमेरिका के फाउंडिंग फादर जॉर्ज वाशिंगटन और उनके बाद जितने भी नेता आए  उन्होंने तरह-तरह के नारे दिये,  कि अमेरिका बाकी सभी राष्ट्रों से सर्वोपरी  है, यहां रूल ऑफ लॉ है, संविधान है और यह हमने बनाया है. यह मानवता की जीत है. इस नरेटीव को ले करके अमेरिकी राष्ट्र का निर्माण हुआ था. यह अवधारणा लगभग दो-ढाई सौ सालों तक चली. अमेरिका माइग्रेशन का देश है, वह कभी देश था ही नहीं, वहां के मूल निवासियों (अमेरिकन इंडियंस) को वहां से जबरन भगाया गया है. इस प्रकार से अमेरिका की जो आईडेंटिटी या पहचान बनाई गई थी, उस पर हमला हुआ है, जिसका नतीजा ये हुआ कि  अमेरिका में आज पोलराइजेशन देखने को मिल रहा है.

अमेरिका माइग्रेशन का देश है, वह कभी देश था ही नहीं, वहां के मूल निवासियों (अमेरिकन इंडियंस) को वहां से जबरन भगाया गया है. इस प्रकार से अमेरिका की जो आईडेंटिटी या पहचान बनाई गई थी, उस पर हमला हुआ है, जिसका नतीजा ये हुआ कि  अमेरिका में आज पोलराइजेशन देखने को मिल रहा है

पहचान के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं – जैसे कि  अमेरिका में राष्ट्रवाद का निर्माण करके एक पहचान बनाई गई थी उससे उनके देश को एक सकारात्मक बल मिला था. और अमेरिका में इतने सारे जो लोग जुड़े, जो वहां देश प्रेम आया, वो इसी आइडेंटिटी का नतीजा था. उसी में आज दरार आ रही है. महात्मा गांधी ने भी संपूर्ण राष्ट्र को एक आईडेंटिटी के ज़रिए ही जोड़ा था. उन्होंने कभी भी इस बात से इंकार नहीं किया कि वो हिंदू नहीं है या हिंदूवादी नेता नहीं थे. पर उनके हिंदुवाद की जो परिभाषा था- ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे‘ अर्थात जो दूसरों के दर्द को समझें वही वैष्णव जन यानि कि हिंदू है, और इस तरह से चलते-चलते उन्होंने  ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की परिभाषा से संपूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ा. आज वसुधैव कुटुम्बकम मूल रूप से भारत की एक पहचान है.

प्रजातंत्र में ‘विरोध’ लोगों का उनका हक है. विरोध को सुनना और उसके प्रति प्रतिक्रिया देना यह शासक वर्ग का कर्तव्य बन जाता है. यदि वाकई में हमें आईडेंटिटी पॉलिटिक्स के दुष्परिणाम देखने हैं, तो एक देश है रवांडा. यदि वहां 100 सालों के इतिहास पर नज़र डाले, तो यह समझ में आ जाएगा कि कैसे लोगों को आईडेंटिटी पॉलिटिक्स के ज़रिये विभाजित कर दिया गया था और उसके कितने भयंकर परिणाम देखने को मिले थे. वहां दो वर्ग थे- एक हुतु और और दूसरा तुत्सी. हुतु समुदाय खेती-बाड़ी किया करते थे और तुत्सी वर्ग गाय-भैंस पालते थे. हुतु के मुक़ाबले में तुत्सी वर्ग ज़्यादा संपन्न थे. चुकी रवांडा बेल्जियम का उपनिवेश था. इसलिए बेल्जियम के लोगों ने सस्ते से सस्ते  राज्य पर कब्ज़ा किया. इस फेर में वो सारे के सारे पोस्ट तुत्सी को देने शुरू कर दिये. यहाँ से दरार पड़ने शुरू हुए. अंततः यह दरार बढ़ता ही गया और जब1962 में रवांडा आज़ाद हुआ तबसे ले करके 1994 तक आते-आते जब हुतु बहुसंख्यक में आए और उनका प्रशासन पर कब्ज़ा हुआ तो उन्होने सारी ग़लतियों का जड़ तुत्सी पर मढ़ना शुरू कर दिया. जिससे दोनों समुदायों के बीच संघर्ष बढ़ने लगे और जब स्थिति अनियंत्रित होने लगी तो सौ दिन के अंदर आठ लाख लोगों का नरसंहार कर दिया गया. यहां तक कि जिन परिवारों में हुतु और तुत्सी समुदाय के लोगों की आपस में शादियां भी हुई थी वहां हुतु मर्दों ने अपनी तुत्सी बीवियों तक को मार डाला था. इस स्तर तक का नरसंहार हुआ है. इस तरह से विभाजन की राजनीति के दुष्परिणाम किसी भी देश को किसी भी स्तर तक ले जा सकता हैं. पर इसके बाद जब वहां नई सरकार बनी तो वो इन सबसे सीख लेते हुए वहां की सरकार को यह कहना पड़ा कि कोई आइडेंटिटी नहीं होता, कोई तुत्सी नही होते, कोई हुतु नहीं होते. इस तरह से पुरानी आइडेंटिटी को मिटाकर एक नई आइडेंटिटी बनाने कि कोशिश की गई. इस प्रकार आईडेंटिटी किसी न किसी रूपों में जारी रहता है. महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि कोई राष्ट्र इसका उपयोग किस प्रकार से करता हैं. और उसके नेता और जनता दोनों ही पहचान को लेकर कितनी तार्किक सोच रखते हैं.

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