Author : Vinay Kaura

Published on Apr 17, 2017 Updated 0 Hours ago
कश्मीर में अलगाववाद से मुकाबले में इंटरनेट की भूमिका

श्रीनगर में सुरक्षा गश्ती

Source: La Priz/Flickr

आतंकवादी गुटों द्वारा नयी सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किए जाने के कारण कश्मीर में अलगाववाद से मुकाबला करना बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया है। मैदान-ए-जंग अब भौगोलिक स्थान और साइबरस्पेस को समाहित करते हुए बहु आयामी बन चुका है। साइबरस्पेस के किफायती, बेहद अत्याधुनिक, तेजी से प्रसार करने वाले और इस्तेमाल में आसान उपकरणों के जरिए आतंकवादियों की समग्र क्षमताओं में बढ़ोत्तरी हो चुकी है। आतंकवादी अब नैतिक समर्थन जुटाने, रंगरूटों की भर्ती करने और दुष्प्रचार करने तथा कश्मीरी नौजवानों को हथियार थमाने के लिए व्यवस्थित रूप से इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह पेपर कश्मीर में पहले से ही मजबूती से जड़े जमाए बैठे अलगाववाद द्वारा साइबरस्पेस के इस्तेमाल की वजह से होने वाले विनाशकारी परिणामों की परख करता है। इसका उद्देश्य कश्मीर में अलगाववाद के साइबर आयामों से निपटने के सर्वाधिक प्रभावी साधनों को समझना है।

परिचय

व्यक्ति, सामाजिक संगठन और सरकारें साइबरस्पेस में अत्याधिक ऊर्जा और धन का निवेश कर लोगों के रोजमर्रा के जीवन के बेशुमार पहलुओं में बदलाव ला रहे हैं। साइबरस्पेस का समस्त प्रकार के संघर्षों के विकास पर भी परिवर्तनकारी प्रभाव रहा है। जिस प्रकार फ्रांस की क्रांति (1789-1799) ने “सूचनाओं का लोकतंत्रीकरण, जनता की पहुंच में वृद्धि, लागत में बहुत कमी, फ्रीक्वेंसी में वृद्धि और कहानी तैयार करने के लिए छवियों के इस्तेमाल की साक्षी बनी।”[1] उसी तरह आज इंटरनेट से संचालित होने वाली तकनीकी क्रांति ने व्यक्तियों और छोटे समूहों को असमान ताकत देते हुए सम्पर्क में बेहिसाब वृद्धि कर दी है। ऑड्रे कर्थ क्रोनिन की दलील है कि “ब्लॉग्स आज के क्रांतिकारी पर्चे हैं, वेबसाइटें नए दैनिक हैं और लिस्ट सर्व मौखिक आलोचना के नए हथियार हैं।” [2]

कम्युनिकेशन और इंफॉर्मेशन सोसाइटी (संचार और सूचना समाज) के विख्यात चिंतक मैनुअल कॉसल्स ने तेजी से विकसित होने वाली ‘नेटवर्क सोसायटी’ की विशेषताओं का जिक्र करते हुए दलील दी है “हमारे दौर में संघर्ष सघन रूप से जुड़े व समाज में खासे सक्रिय (नेटवर्क्‍ड सोशल एक्टर्स) लोगों द्वारा लड़े जा रहे हैं, जिनका उद्देश्य मल्टीमीडिया कम्युनिकेशन नेटवर्क्‍स का निर्णायक रुख करते हुए अपने क्षेत्रों और लक्षित श्रोताओं तक पहुंच कायम करना है।” [3] जॉन मैकिनल की दलील है कि जनसंचार में बदलाव ने अलगाववाद की प्रकृति को व्यापक रूप से प्रभावित किया है, जिसमें भौगोलिक स्थान अब ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं रह गया है।’डिटेरिटोराइज्ड’ (मूल स्थान और आबादी से सामाजिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक पद्धतियों का अलग होना) राष्ट्र के उदय के साथ ही अलगाववादी दूरदराज के इलाकों से दुष्प्रचार और प्रसार करने में सक्षम हो चुके हैं। मैकिनल लिखते हैं कि “अलगाववाद की तकनीकें उन्हीं समाजों के साथ विकसित होती हैं, जहां से उनका उदय होता है…..अगर संचार क्रांति ने वैश्विक समुदायों और वैश्विक आंदोलनों को जन्म दिया है, तो वह भी अलगाववादी ऊर्जा के ऐसे स्वरूप का मार्ग प्रशस्त कर सकती है, जो डिटेरिटोराइज्ड और वैश्विक तौर पर जुड़ा हो” [4]। यह स्पष्ट है कि अलगाववाद को साइबरस्पेस द्वारा आकार दिया जा रहा है, भौतिक जगत से ज्यादा वर्चुअलया साइबरस्पेस महत्वपूर्ण बनता जा रहा है। जाने-माने विशेषज्ञ बिल गर्ट्ज ने अपनी नवीनतम पुस्तक आई वॉ : सूचना युग में युद्ध और शांति में इसी से मिलती-जुलती दलील दी है कि “21वीं में युद्ध पर इंफॉर्मेशन ऑपरेशन्स का वर्चस्व रहेगा: डिजिटल क्षेत्र में गतिविहीन संघर्ष लड़ा जा रहा है।” [5]

‘संचार रणनीतियों’, ‘नेटवर्क सोसायटी’, ‘इंफॉर्मेशन ऑपरेशन्स’ और दुष्प्रचार से संबंधित अन्य भिन्नताओं पर चिंता कॉसल्स के दृष्टिकोण को प्रतिबिम्बित करती है। राजनीतिक वैज्ञानिक जोसेफ नाये के अनुसार, “सूचना युग में संचार संबंधी रणनीतियां ज्यादा महत्वपूर्ण हैं और निष्कर्ष इस आधार पर आकार नहीं लेते कि किसकी सेना ने विजय प्राप्त की, बल्कि इस आधार पर भी आकार लेते हैं कि किसकी कहानी की जीत हुई। मिसाल के तौर पर, आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में, ऐसी कहानी का होना अनिवार्य है, जो आम जनता को आकर्षित कर सके और कट्टरपंथियों द्वारा भर्ती पर रोक लगा सके। अलगाववाद के खिलाफ संघर्ष में, गतिशील सैन्य बल के साथ-साथ सॉफ्ट पॉवर के उपकरण भी होने चाहिए, जो बहुसंख्य आबादी के दिलोदिमाग (आकार और प्राथमिकताएं) जीतने में मदद कर सकें।” [6] नाये के शब्द दोहराते हुए ब्रिटेन के पूर्व चीफ ऑफ डिफेन्स स्टॉफ, जनरल डेविड रिचर्ड्स की दलील है, “आज के दौर में संघर्ष, क्योंकि ज्यादातर संचार क्रांति के माध्यम से लड़े जा रहे हैं, सैद्धांतिक रूप से बड़े पैमाने पर जनता के — दिलोदिमाग के लिए हैं।” [7] साइबरस्पेस के माध्यम से संघर्ष छेड़ना किफायती और विनाशकारी प्रभाव की क्षमता वाला हो सकता है, दुनिया भर के अलगाववादी और आतंकवादी साइबर मोबलाइजे़शन पर बहुत ज्यादा निर्भर करने लगे हैं, जो मनोवैज्ञानिक युद्ध करने, अलगाववादियों की जीत का दुष्प्रचार करने और सरकारी एजेंसियों के दावों का विरोध करने, किसी मकसद के लिए और ज्यादा लड़ाकों को भर्ती करने, उन्हें वित्तीय मदद देने और प्रशिक्षित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। [8] ये कारक आतंकवाद का मुकाबला करने वालों को अपना ध्यान साइबर वातावरण की ओर लगाने के लिए विवश कर रहे हैं। हालांकि इस बात पर बहस अभी तक बाकी है कि साइबरस्पेस से अलगाववाद कैसे फैलाया जा सकता है। अलगाववाद विरोधी विशेषज्ञ पूछ सकते हैं कि क्या यह महज ‘नई बोतल’ में ‘पुरानी शराब’ है या फिर बिल्कुल नए आयाम है, जिसका पहले कोई अस्तित्व नहीं था।

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए, ‘वर्चुअल उम्मा’, ‘डिजिटल उम्मा’ और ‘दर अल-साइबर इस्लाम’ जैसे शब्दों का अर्थ समझना महत्वपूर्ण है, जो इस बात को हाइलाइट करते हैं कि किस तरह मुसलमानों ने भौगोलिक रूप से सीमित संस्थाओं की हदों से पार जाते हुए साइबरस्पेस में ट्रांसनेशनल इंटरनेट कम्युनिटीज़ बनाई हैं। इतना ही नहीं, व्यक्तिगत ब्लॉग्स और अन्य सोशल-मीडिया साधन भी मुसलमानों को अपने आपको नए सिरे में प्रस्तुत करने की इजाजत दे रहे हैं। ये कट्टरपंथी विचारों का प्रसार करने वाली जेहाद संबंधी व्याख्याओं का प्रचार करने के माध्यम से अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट (आईएस) जैसे आतंकवादी गुटों की परम्परागत धार्मिक प्रतिष्ठानों को ध्वस्त करने में मदद करते हैं। अल-कायदा पहला ऐसा आतंकवादी संगठन है, जिसने इंटरनेट का इस्तेमाल कर अपनी कारगुजारियों को क्रांतिकारी रूप दिया। साइबर जेहादियों द्वारा प्राप्त की गई उच्च स्तरीय विशेषज्ञता अल-कायदा के माउथपीस ग्लोबल इस्लामिक मीडिया फ्रंट द्वारा जारी मैनुअल से परिलक्षित हुई, जिसमें पहचान गुप्त बनाए रखने के लिए इंटरनेट पर प्रॉक्सी बनाने के बारे में विस्तार से मार्गदर्शन किया गया है। [9] यह भी अनुमान लगाया गया है कि ‘डिजिजेहाद’ ने “संभावित जेहादियों के लिए अपना घर-द्वार छोड़े बगैर अपने दर्शन का समर्थन करना और आखिरकार उग्रवादी विचारधारा से अवगत होना सुगम बना दिया है।” [10]

अमेरिका के निर्वतमान राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक बार कहा था, “सोशल मीडिया और इंटरनेट वह प्रमुख तरीका है, जिसमें ये आतंकवादी संगठन संवाद कर रहे हैं। अब वे औरों से अलग नहीं हैं, लेकिन वे इसमें बहुत माहिर है।” [11] ओबामा दरअसल अमेरिकी रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स की 2007 के आंरभ में कही गई बात को ही दोहरा रहे थे: “यह बहुत शर्मनाक है कि अल-कायदा अमेरिका की तुलना में ज्यादा बेहतर ढंग से इंटरनेट पर अपना संदेश भेज रहा है।” [12] आईएस के जन्म के साथ ही, जेहाद ही नहीं बदला है, बल्कि जेहादियों ने भी अपने मकसद के लिए समर्थन जुटाने के वास्ते अनूठे अंदाज में इंटरनेट का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।

आईएस कन्टेंट तैयार करने से लेकर उसके प्रसार तक सोशल मीडिया कम्युनिकेशन में महारत हासिल कर चुका है। वह नियमित रूप से ऐसे कन्टेंट के साथ वीडियो अपलोड करता है, जो समझने में आसान और व्यावहारिक हो, जिसके वायरल होने की संभावना अधिक हो। जहां अल-कायदा इंटरनेट पर ज्यादा निर्भर करता है, वहीं आईएस ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया है, जिसकी वजह से अमेरिका के निवर्तमान रक्षा मंत्री एश्टन कर्टर न उसे ‘सोशल मीडिया द्वारा सामर्थ्‍यप्राप्त प्रथम आतंकवादी गुट’ करार दिया। [13] प्रधानमंत्री कार्यालय में राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा समन्वयक गुलशन राय के अनुसार, दुनिया भर में 70 प्रतिशत से ज्यादा आतंकवादी और आतंकी गुट अपने विज़न और उद्देश्यों का प्रसार करने के लिए वॉयस ओवर इंटरनेट टेलीकॉम, सोशल मीडिया और एंक्रीप्शन जैसे विविध प्रकार के साइबर साधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। [14]

कश्मीर संघर्ष

कश्मीर संघर्ष 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप के त्रासद बंटवारे के बाद से नाटकीय और पीड़ादायक रूप से पनपा। लम्बे अर्से से चले आ रहे इस संघर्ष के लिए मुख्य रूप से तीन कारक उत्तरदायी हैं: कश्मीर के बारे में पाकिस्तान का जुनून, भारत द्वारा जम्मू कश्मीर का बहुत ज्यादा राजनीतिक कुप्रबंधन और राज्य में कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा का उदय।

पाकिस्तान कश्मीर भूभाग पर भारत के अधिकार को लगातार चुनौती देता आया है। भारत को बांटने और कश्मीर पर कब्जा करने के उसके रणनीतिक मकसद ने भारत के खिलाफ आतंकवाद को समर्थन देने की उसकी नीति को जन्म दिया है। परम्परागत सैन्य साधनों से भारत को हराने में नाकाम पाकिस्तान का सुरक्षा प्रतिष्ठान 1980 के दशक के अंत से ही कश्मीर में अलगाववाद को समर्थन और उसे वित्तीय सहायता देता आया है। पाकिस्तान की ओर से सीमा-पार से होने वाली घुसपैठ ने स्थानीय तत्वों द्वारा भड़काए जा रहे अलगाववाद को समर्थन दिया। यह भारत के प्रति कश्मीरी जनता के असंतोष को और ज्यादा भड़काना चाहता है।

अलगाववाद से भारत के कुशलता से नहीं निपट पाने की वजह से कश्मीर में हालात और बिगड़ गए हैं। खोखली बयानबाजी कभी भी सफल कश्मीर नीति का विकल्प नहीं हो सकती। [15] भारत के रिसर्च एंड एनॉलिसिस विंग (रॉ) के पूर्व प्रमुख ए एस दुलत ने अपने संस्मरणों में स्पष्ट रूप से लिखा है, “हमने भारत में अनेक वर्ष कश्मीर अलगाववाद पर काबू पाने में जाया कर दिए और जब उस काबू पा लिया, तो मौके का फायदा उठाकर इस मामले का राजनीतिक हल ढूंढने की बजाए हम ढीले पड़ गए और यथा स्थिति से ही निश्चिंत बने रहे।” [16]

कश्मीर मामले की जड़े कट्टरपंथी इस्लाम में भी हैं। कश्मीर अलगाववाद के वैचारिक पहलु को नजरंदाज नहीं किया जा सकता और न ही इसे “आकस्मिक छापामार (एक्सीडेंटल गोरिल्ला)” लक्षण जितना मामूली समझा जा सकता है, जिसमें स्थानीय शिकायतों को दूर करने की जरूरत होती है। [17] दोबारा सिर उठाने वाले कश्मीरी अलगाववाद की जड़ें स्थानीय हैं, लेकिन दूसरे देशों के जेहादी गुटों के साथ संबंधों के कारण इसके अंतर्राष्ट्रीय रूप अख्तियार कर लेने की चिंताएं हैं। आतंकवाद से जुड़ रहे कश्मीर नौजवान ऐसे गुटों से प्रेरणा ले रहे हैं।

भारतीय सेना की नीति में 2006 में अलगाववाद को “आबादी के एक वर्ग द्वारा सामान्यतया विदेशी सहायता से राष्ट्र के विरुद्ध एक संगठित सशस्त्र संघर्ष के रूप में परिभाषित किया था। अलगाववाद के संभावित कारणों में वैचारिक, जातीय या भाषायी मतभेद, या राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक कारणों और/या रुढ़ीवाद और चरमपंथ शामिल हैं। विदेशी ताकतों का हस्तक्षेप इस आंदोलन को बल देने में उत्प्रेरक की भूमिका निभा सकता है।” [18] भारतीय कानून द्वारा अलगाववाद की तुलना में आतंकवाद को “भारत की एकता, अखंडता, सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा या संप्रभुता को खतरे में डालने की मंशा या खतरे में डालने की आशंका अथवा भारत के लोगों में या लोगों के वर्ग में या किसी भी बाहरी देश में दहशत पैदा करने की मंशा या दहशत पैदा करने वाली गतिविधि करार दिया है।” [19] दोनों में अंतर होने के बावजूद आमतौर पर अलगाववाद द्वारा आतंकवाद को साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जैसा कि कश्मीर में हुआ है।

आज के बंटे हुए राजनीतिक वातावरण में कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान दूर की कौड़ी महसूस होता है, लेकिन पहले से नाराज और अलग-थलग लोगों को ज्यादा दबाने से केवल और ज्यादा समस्याएं ही पैदा ही होंगी। बरसों से लगातार हो रही हिंसा, आपसी अविश्वास, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और पाकिस्तान की दखलंदाजी के बाद, अलगाववादी भावनाएं कश्मीरी समाज में अब गहरी जड़ जमा चुकी हैं। आतंकवादियों और अलगाववादियों द्वारा सोशल मीडिया के दुरूपयोग ने लोगों को ज्यादा उग्र बनाया है, जिससे भारत के समक्ष बड़ी चुनौतियां उत्पन्न हुई हैं।

कश्मीरी नौजवान सामाजिक अशांति के दौरान बार-बार भारतीय प्रशासन की मौजूदगी का विरोध करते हैं। 2010 के हिंसक प्रदर्शनों और उसके बाद उन्हें दबाने के लिए सरकार की ओर से की गई कार्रवाई से कश्मीर घाटी में और ज्यादा गुस्सा, असंतोष और व्यापक भारत-विरोधी भावनाएं फैल गईं। हाल के बरसों में, कश्मीरी नौजवानों के भारत सरकार के खिलाफ हथियार उठाने की घटनाओं में नया उफान आया है। 2016 में पनपा अशांति का नया दौर तीव्रता, पैमाने और लोगों को संगठित करने की दृष्टि से पिछले परिदृश्यों से काफी अलग था। इस नए दौर में कश्मीर घाटी में हिंसक घटनाओं और मौतों में बहुत ज्यादा वृद्धि हुई है।

कश्मीरी नौजवानों के बीच ‘आजादी‘ का नारा लोकप्रिय होकर उन्हें बड़ी संख्या में संगठित कर रहा है। इस प्रवृत्ति के लिए किसी एक कारक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। सभी भारतीयों की तरह, कश्मीरियों को भी शांतिपूर्ण और अहिंसक रूप से प्रदर्शन करने का अधिकार है। भारत जैसे लोकतांत्रिक समाज में, कश्मीरियों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे लगातार सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) और सार्वजनिक सुरक्षा कानून (पीएसए) जैसे कानूनों के भय तले जिंदगी बिताएं, जो सुरक्षा बलों को व्यापक अधिकार प्रदान करते हैं और जिनकी वजह से राज्य में मानवाधिकार हनन की अनेक घटनाएं हुई हैं। जब संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी की जाती है और सभी प्रकार के असंतोष को गैर कानूनी करार दिया जाता है, तो शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन और सशस्त्र विरोध के बीच का अंतर अक्सर धुंधला जाता है, और तो और संयत आवाजे भी उग्र हो जाती हैं। कश्मीरी अलगवादी नेताओं को हिरासत में लेने के लिए पीएसए का निरंतर इस्तेमाल किया जा रहा है। [20] ऐसे वातावरण में अलगवादी ताकतों द्वारा भड़काये गए ‘लोकप्रिय’ असंतोष और स्थानीय ‘विद्रोह’ का फायदा पाकिस्तान के स्टेट और नॉन स्टेट एक्टर्स द्वारा उठाया जा रहा है।

मौजूदा दौर में, कश्मीर में आतंकवाद से प्रेरित अलगाववाद के बहुत चैकाने वाले दो पहलु -स्थानीय आतंकवादियों की संख्या में वृद्धि और घाटी में सिविल सोसायटी और पढ़े-लिखे तबके के बीच आतंकवाद की बढ़ती वैधता हैं। कश्मीर की मौजूदा दुर्दशा का सारा दोष पाकिस्तान पर मढ़ना आत्मघाती होगा।

कश्मीर अलगाववाद के साइबर आयाम

रणनीतिक उद्देश्यों को सिद्ध करने के लिए आतंकवादियों द्वारा आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया जाना एक अन्य महत्वपूर्ण नई शुरूआत है। वास्तविक जीवन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर रोक-टोक ने कश्मीरी नौजवानों को अपने असंतोष और विरक्ति की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए ‘वर्चुअल (आभासी)’ जगत का रुख करने को प्रेरित किया है। मैदान-ए-जंग अब बहुआयामी बन चुका है, जिसमें भौतिक क्षेत्र और साइबरस्पेस दोनों समाहित हैं। उग्रवादी अब भर्ती करने, दुष्प्रचार करने और समर्थन जुटाने और साथ ही साथ सीमा-पार संबंधों को मजबूती प्रदान करने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं।

वास्तविक से वर्चुअल क्षेत्र का रुख करने के संकेत 2010 के प्रदर्शनों के दौरान ही जाहिर होने लगे थे। उस समय, कश्मीर के गुमराह और नाराज नौजवानों ने सोशल मीडिया के साधनों खासतौर पर मोबाइल फोन के जरिए टैक्स्ट मैसेजिस का इस्तेमाल करते हुए पथराव और भारी विरोध प्रदर्शनों की घटनाओं में शामिल होकर अपने असंतोष को प्रकट किया था। [21] सोशल मीडिया ने कश्मीर में उपलब्ध साधनों के संदर्भ में आमूल-चूल बदलाव ला दिया है। अब विरोध प्रदर्शन के लिए कोई गैर कानूनी तरीका अपनाने की कोई जरूरत नहीं रह गई है और इसकी बजाए सोशल मीडिया ने उन्हें पूरे पूरी तरह वैध साधनों के जरिए जागरूकता उत्पन्न करने, सूचना का प्रसार करने और प्रदर्शन रैलियों की योजना बनाने के साधन दे दिए हैं। [22] कश्मीर में सोशल मीडिया तक पहुंच रखने वाले लोगों की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। 2010 में लगभग 25 प्रतिशत लोगों की सोशल मीडिया तक पहुंच थी, जबकि 2015 के अंत तक यह संख्या बढ़कर लगभग 70 प्रतिशत हो गई। [23]

जुलाई, 2016 में हिजबुल मुजाहिदीन (एचयूएम) कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के भड़के हिंसक प्रदर्शनों ने भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को हैरत में डाल दिया, वे सन्न रह गए और उचित कार्रवाई कर पाने में अक्षम हो गए। मौत से पहले, पांच साल के अर्से के दौरान वानी एमयूएम का चेहरा बनकर सामने आया। उसने सुरक्षा बलों को संकट में डाला साथ ही और ज्यादा युवाओं को अलगाववाद के लिए उकसाया। कश्मीर घाटी में सबसे ज्यादा जेहादियों की भर्ती करने वाले के लिए मशहूर वानी का नाता ऐसे पढ़े-लिखे नौजवानों की पीढ़ी से था, जिन्होंने 2010 के विरोध प्रदर्शनों के बाद अलगाववाद का रुख किया। वानी से पहले ज्यादातर कश्मीरी अलगाववादी गुपचुप तरीके से अपनी गतिविधियों को अंजाम देते थे और तो और सार्वजनिक स्थानों पर वे अपने चेहरे ढक लिया करते थे। उनकी जानकारी लोगों को तब ही मिलती थी, जब उनके मरने के बाद सुरक्षा बल उनके नाम जारी किया करते थे। हालांकि- कश्मीर के किसी पहाड़ी क्षेत्र में, फौज की वर्दी पहने और राइफल थामे वानी की फोटो ने अलगाववाद को ‘ग्लैमरस’ बना दिया। उसने सोशल मीडिया पर अपनी फोटोग्राफ और वीडियो पोस्ट की और उन्हें बड़े पैमाने पर कश्मीर में, विशेषकर युवाओं के बीच प्रचारित किया गया, वह जल्द ही घर-घर में जाना-पहचाना नाम बन गया।

अगस्त, 2015 में, वानी ने अन्य जेहादी नेताओं द्वारा जारी संदेशों वाला एक वीडियो फेसबुक पर अपलोड किया, जिसमें क्षेत्र में ‘खिलाफत’ का आह्वान किया गया था। उसने युवाओं से साथ जुड़ने का अनुरोध किया और पुलिस से आतंकवादियों के खिलाफ अपनी लड़ाई बंद करने को कहा। यह वीडियो वानी के अलावा सेना की वर्दी पहने और क्लाशनीकोव थामे दो अन्य लोगों को साथ लेकर बनाया गया था और इसमें पवित्र कुरान को प्रमुखता दिखाया गया था। यह वीडियो कश्मीर में व्हाट्स अप पर बड़े पैमाने पर प्रचारित किया गया। [24] जून, 2016 के आरंभ में एक नया वीडियो सामने आया, यह यूट्यूब और फेसबुक दोनों पर अपलोड किया गया था। इसमें वानी ने अलग सैनिक कॉलोनियां और कश्मीरी पंडितों के लिए अलग शहर बनाने के खिलाफ हमले करने की चेतावनी दी थी। उसने चेतावनी दी थी कि हिजबुल मुजाहिदीन “वर्दी पहने हर उस व्यक्ति के खिलाफ काम करेगा, जो भारतीय संविधान का साथ देगा।” उसने नौजवानों से अपने इलाके के पुलिस कर्मियों का रिकॉर्ड रखने और उनकी गतिविधियों की जानकारी देने को कहा। [25]

हिजबुल मुजाहिदीन के नये कमांडर और बुरहान वानी के उत्तराधिकारी जाकिर रशीद भट, ने अगस्त 2016 में वीडियो संदेश जारी किया, जिसे व्हाट्स अप पर बड़े पैमाने पर प्रचारित किया गया। राशिद ने लोगों से प्रदर्शनों का समर्थन करने का आह्वान किया और कश्मीरी नौजवानों से विशेष पुलिस अधिकारियों के भर्ती अभियान का बहिष्कार करने को कहा। उसने चेतावनी दी कि उनका इस्तेमाल “दूसरे तरह के इखवान” तैयार करने में किया जा सकता है। [26] इखवान सरकार समर्थक अलगाववाद विरोधी गुट था जो 1990 के दशक में सुधरे हुए कश्मीरी आतंकवादियों को शामिल करके बनाया गया था। अक्टूबर, 2016 में उसने एक और वीडियो जारी कर दावा किया कि सिख आतंकवादियों ने भी एचयूएम में शामिल होने का अनुरोध किया है। उसने कश्मीरी नौजवानों से सुरक्षा बलों से हथियार छीनने को कहा। उसक वीडियो और संदेश कश्मीरी नौजवानों के बीच विविध सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बड़े पर पैमाने पर प्रचारित किये गए, जिसकी वजह से दक्षिणी कश्मीर में बंदूक छीनने की कई घटनाएं हुईं, जिससे सुरक्षा एजेंसियां हतोत्साहित हुई। जुलाई से लेकर अक्टूबर के मध्य तक, पुलिसकर्मियों से ए के 47, इन्सास, कार्बाइन, एसएलआर, थ्री नॉट थ्री राइफलों सहित 5 दर्जन से ज्यादा हथियार छीने गए। जहां एक ओर कश्मीर में सेना के कमांडर ने इन घटनाओं को ‘चिंताजनक’ माना गया, [27] वहीं कश्मीर के पुलिस महानिरीक्षक सैयद जावेद मुजतबा गिलानी ने दावा किया कि इन हथियारों के ऐसे लोगों के हाथ पड़ने की संभावना है, जो “उनका इस्तेमाल आतंकवाद के लिए” कर सकते हैं। [28]

अपेक्षाकृत किफायती और सुगम्य मीडिया के इस्तेमाल के जरिए एचयूएम अपने मकसद के लिए कश्मीरी नौजवानों की भर्ती करने की कोशिश कर रहा है। दरअसल, वानी के समर्थकों का बढ़ता आधार स्थानीय आतंकवादियों की संख्या में अचानक आई तेजी में परिवर्तित हुआ है। 2015 में कश्मीर पुलिस ने आतंकवाद से नाता जोड़ने वाले 111 नौजवानों के मामलों की पड़ताल की, उनमें से 58 आखिरकार घर लौट आए। उनमें से कम से कम 88 की आयु 15 और 30 के बीच थी और उनमें से आधे से ज्यादा इंटरनेट के माध्यम से उग्रवादी बने थे। [29] ज्यादा नौजवानों के आतंकवादियों से जुड़ने से दशक भर में पहली बार ऐसा हुआ है कि इस क्षेत्र में विदेशी आतंकवादियों की तादाद स्थानीय से घट गई है। गुप्तचर ब्यूरो के सूत्रों के अनुसार, वानी की मौत के बाद से 100 से ज्यादा कश्मीरी नौजवान अलगाववाद से जुड़ गए हैं।[xxx] संख्या को लेकर विवाद हो सकता है, लेकिन वास्तविकता यही है कि आज “स्थानीय स्तर से पनपने वाले” कश्मीरी अलगाववादी एकदम नयी प्रवृत्ति है, जो उससे पूरी तरह भिन्न है जिसका कश्मीर पिछले दो दशकों से आदी बन चुका है। भारत के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायणन ने स्वीकार किया है कि “कश्मीर में गड़बड़ी के पिछले चरणों से बिल्कुल विपरीत, मौजूदा आंदोलन पूरी तरह स्थानीय स्तर पर उपजा है।” [31]

 दक्षिण कश्मीर: अलगाववाद का केन्द्र

दक्षिण कश्मीर के चार जिले-पुलवामा, आतंकवाद, शोपियां, कुलगाम-तेजी से अलगाववाद के केन्द्र बनता जा रहे हैं। ये इलाके 1990 में अलगाववाद के चरम दौर में अपेक्षाकृत शांत रहे थे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से स्थिति बदल गई है। दक्षिण कश्मीर में इस्लामिक पंथ तबलीघी जमात का तेजी से प्रसार हुआ है और उसने इन चारों जिलों में प्रशिक्षण शिविरों को धन उपलब्ध कराया है। उसका मुख्यालय त्राल में है। [32] 2014 से हथियार उठाने वाले स्थानीय नौजवानों की संख्या में वृद्धि हुई है। कश्मीरी नौजवानों को प्रशिक्षण लेने और तो और उनके दिमाग में कुछ भरने के लिए पाकिस्तान भेजने की अब कोई जरूरत नहीं रह गई है, क्योंकि कंप्यूटर और मोबाइल फोन ने आतंकवादियों का काम आसान कर दिया है।

वानी के टैक-सेवी हथकंडों ने दक्षिण कश्मीर को अलगाववाद के गढ़ में तब्दील कर दिया। 2015 के पूर्वार्द्ध में, दक्षिण कश्मीर से दो दर्जन नए लोगों के आतंकवाद से जुड़ने का पता चला। [33] वानी की भर्ती की रणनीति दक्षिण कश्मीर के उन नौजवानों की मानसिकता में बदलाव लाने का कारण बनी, जो तेजी से जेहादी भर्तीकारों का हत्थे चढ़ते गए। अगस्त 2015 में, एक उर्दू पत्रकार ने कहा कि आतंकी गुट “नौजवानों को पाकिस्तान भेजने पर वक्त जाया नहीं करते। वे सबसे पहले उन्हें हथियार हासिल करने को कहते हैं।” उसके बाद उन्हें कोई लक्ष्य पूरा करने को कहते हैं। पहली दोनों अवस्थाएं पूरी करने वालों को भर्ती कर लिया जाता है। इससे एक परोक्ष उद्देश्य पूरा होता है: “जब कोई नौजवान किसी हमले को अंजाम दे देता है, वह वापस नहीं लौट सकता।” [34] दक्षिण कश्मीर में तैनात एक पुलिस अधिकारी ने दावा किया है कि बुरहान की लोकप्रियता के कारण कश्मीर में स्थानीय युवाओं की भर्ती और प्रशिक्षा में बढ़ोत्तरी हुई है। जुलाई, 2016 में दक्षिण कश्मीर में 60 से ज्यादा स्थानीय आतंकवादी सक्रिय थे, जिन्हें स्थानीय शिविरों में प्रशिक्षण मिला था। [35] अगस्त के मध्य में आई एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिण कश्मीर के चारों जिले अराजकता की ओर बढ़े हैं और प्रशासनिक प्रणाली के कार्यरत होने के संकेत नहीं, क्योंकि हजारों लोगों ने ‘आजादी’ रैलियां कीं, दक्षिण कश्मीर के 36 में से केवल तीन पुलिस स्टेशनों ने ही काम किया। [36]

इस्लामी कट्टरता

ऐसा वातावरण जहां पहले से ही हिंसा या राजनीतिक तनाव मौजूद हो, वह जेहादवाद के लिए अनुकूल परिस्थति है। जैसा कि हाल के एक अध्ययन से यह बात सामने आई है “जेहादवाद और हिंसा चाहे वह दमनकारी शासन, मिलिशिया रंजिशों, आतंकवादी गुटों, जातीय मतभेदों, जनजातीय तनावों, आपराधिक संगठनों या विदेशी हस्तक्षेपों द्वारा भड़काई जा रही हो, उनके बीच तालमेल होता है। जेहादवाद स्थानीय तनावों का फायदा उठाता है, उन्हें भड़काता है और बदले में इन्हीं तनावों से ऊर्जा प्राप्त करता है।” [37] संघर्ष वाला क्षेत्र जेहादी गुटों को दूसरा मत ग्रहण कराने के और भर्ती के अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराता है। दुर्भाग्यवश, कश्मीर ऐसा संघर्ष क्षेत्र बनने की कगार पर है, जहां जेहादी आंदोलनों में बढ़ोत्तरी होने की संभावना है, क्योंकि स्थानीय गुट अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए उनके अनुकूल बन रहे हैं।

कश्मीरी मुसलमानों के बीच वैश्विक इस्लामिक पहचान को प्रोत्साहन देने में साइबरस्पेस की महत्वपूर्ण भूमिका को महसूस करते हुए कट्टर और जेहादी संगठन कश्मीर में साइबर इस्लामिक वातावरण तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं, जो उन्हें निरंतर बढ़ रहे श्रोताओं के बीच दुष्प्रचार, विचार और भर्ती के लिए अपने संदेशों का प्रसारण करने के लिए मनोवैज्ञानिक मंच प्रदान करेगा। कश्मीर उग्रवाद के ‘वर्चुअल डाइमेंशन या आभासी आयाम’ के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक उसका वैश्विक इस्लामी उग्रवाद के प्रति उसका क्रमिक झुकाव है। एक कश्मीरी पुलिस अधिकारी ने इंटरनेट की तुलना “इस्लामी दुष्प्रचार करने वाले चैबीसों घंटे चलने वाले नल से की है, जिस पर पुलिस को कोई नियंत्रण नहीं है।” [38]

वर्षों से सैयद अली शाह गिलानी और उनके अनेक कट्टरपंथी समर्थकों ने ‘आजादी’ के लिए अपने संघर्ष को पूरी तरह इस्लामी शब्दों में रखना चाहा, लेकिन उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिली। [39] हालांकि कश्मीर के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में केवल हाल ही में एकाएक हुई इस्लामी शब्दावली और प्रतीक की वृद्धि के कारण ही पूर्व में प्रबल रहे अलगाववाद के एथनो-राष्ट्रवादी एजेंडे धीरे-धीरे अमान्य हो रहे हैं। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता और राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री मुजफ्फर हुसैन बेग की चेतावनी सही है “कश्मीर संघर्ष धार्मिक उग्रवाद बनने की कगार पर है, जो राजनीतिक लक्ष्य, नहीं बल्कि धार्मिक विज़न है.. जो नौजवानों के दिलोदिमाग को प्रभावित कर रहा है।” [40] जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि एचयूएम के कश्मीरी कैडर ने दुनिया भर में खिलाफत के बारे में हो रही बयानबाजी सहित आईएस द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले दुष्प्रचार के साधनों और चित्रों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। वानी की मौत के बाद कश्मीर के शुरूआती विरोध प्रदर्शनों के दौरान, पाकिस्तान के झंडों के साथ-साथ आईएस के झंडे भी देखे गए थे। [41]

जनवरी, 2016 में, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने शेख अजहर-उल-इस्लाम का प्रत्यर्पण किया, जो गांदेरबल के कंगन तहसील का रहने वाला है। वह आईएस के साथ कथित रिश्तों के कारण राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा गिरफ्तार किया जाने वाला पहला कश्मीरी युवक है। [42] यह संदेह है कि वह स्थानीय मस्जिद से उपदेश सुनने के बाद आईएस विचारधारा के प्रति आकर्षित हुआ था और बाद में समान मानसिकता वाले लोगों के साथ ऑनलाइन संबंधों से उसे यूएई जाने में सहायता मिली। कश्मीर में भारतीय सेना के जीओसी पहले ही आईएस को ऐसा “जीवंत खतरा करार दे चुके हैं, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।” [43]

राज्य पुलिस द्वारा कश्मीर में युवाओं की कट्टरता के बारे में किए गए सर्वेक्षण के तहत लोकप्रिय ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्‍स पर कुछ कीवर्डस के आधार पर संदेश, पोस्ट्स और बातचीत को इंटरसेप्ट किया गया। पुलिस महानिदेशक, सीआईडी, एस.एम. सहाय द्वारा कुछ खास कीवर्डस से संबंधित 500,000 बातचीत में से 100,000 बातचीत को “चिंताजनक मामलों” के रूप में चिंहित किया गया। [44] इंटरनेट की आसान उपलब्धता के अलावा, बढ़ते इस्लामी कट्टरवाद का एक अन्य प्रमुख कारक इस क्षेत्र के धार्मिक पद्धति के परम्परागत स्वरूप सूफी इस्लाम के व्यवहार में कमी आना और विविध अहल-ए-हादिथ गुटों के माध्यम से वहाबी विचारधारा को मानने वालों की संख्या बढ़ना है।

इस कट्टरपंथी रूझान ने कश्मीर में इस्लाम की बची-खुची समन्वयात्मक पद्धतियों की जगह ले ली है। हाल के व्यापक प्रदर्शनों की भाषा भी राजनीतिक से ज्यादा धार्मिक है। इत्तेहाद-ए-मिल्लत नामक एक संगठन अस्तित्व में आया है, जिसमें जमात-ए-इस्लामी और अहल-ए-हादिथ जैसे धार्मिक संगठनों के तत्व हैं। इसके नेताओं ने कथित तौर पर दक्षिण कश्मीर के लोगों से मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से दूर रहने की शपथ लेने को कहा है। [45] ये सब घाटी में आये व्यापक राजनीतिक बदलाव का संकेत है और भारत सरकार द्वारा इस बदलाव की खतरनाक क्षमता को पूरी तरह समझा जाना बाकी है।

साइबर के माध्यम से नुकसान

आईएस से संकेत लेते हुए, एचयूएम के साथ साथ लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) जैसे पाकिस्तान से गतिविधियां चलाने वाले आतंकवादी गुट साइबरस्पेस में दाखिल हो गए हैं। इस बात की जानकारी है कि एलईटी की धर्मार्थ इकाई जमात-उद-दावा (जेयूडी) ने दिसम्बर, 2015 में लाहौर में आयोजित अपने सम्मेलन के दौरान साइबर पहल शुरू की। दुष्प्रचार के प्रसार में में सोशल मीडिया के बढ़ते महत्व पर बल देते हुए जेयूडी के सरगना हाफिज सईद ने अपने समर्थकों से इस माध्यम का इस्तेमाल कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन को मजबूत बनाने में करने को कही। [46] एलईटी कश्मीर में अलगाववाद भड़काने के लिए साइबरस्पेस का इस्तेमाल कर रहा है। कुछ साल पहले, उसने वॉयस ओवर इंटरनेट प्रोटोकॉल (वीओआईपी) का इस्तेमाल किया था। एक ऐसी प्रौद्योगिकी है, जो आंकड़ों को ऐसा बनने मे सहायता करती है -जिससे संचार के उद्देश्यों के लिए डीकोड करना मुश्किल हो जाए। कहा जाता है कि पाकिस्तान और कश्मीर, दोनों स्थानों पर अपने कैडर से बात करने के लिए एलईटी का अपना वीओआईपी, आईबीओटीईएल है। [47]

यदि साइबर अलगाववादियों की पहचान आसानी से की जा सके, तो उनकी गतिविधियों का पता लगाना और उनकी निगरानी करना सुगम होगा। लेकिन साइबरस्पेस अलगाववादियों को गुमनाम बनाए रखता है, जिसे वे अपनी पहचान और गतिविधियों को परदे के पीछे रख पाते हैं। साइबरस्पेस “एक अनियंत्रित वातावरण है, जिसमें पहचान का छुपा रहना उग्र विचारों के प्रचार, जानबूझकर झूठी सूचना देने और कंटेन्ट तैयार करने वाले व्यक्ति या संगठन का नाम जाहिर किए बगैर अफवाहें फैलाने के कहीं ज्यादा अवसर प्रदान करता है।” [48] जम्मू कश्मीर पुलिस के 2014 के एक इंटरनल कम्युनिकेशन के अनुसार, आंतरिक सुरक्षा एजेंसियों के लगातार प्रयास करने के बावजूद, आतंकवादियों और अलगाववादियों ने वीओआईपी और स्काइप एवं व्हॉट्सएप्प जैसे सोशल मीडिया के अन्य मंचों के जरिए बेरोक-टोक संवाद किया था। इतना ही नहीं, 2014 के आरंभ में जो बेहद आक्रामक और विध्वंसकारी फेसबुक पेज़ पुलिस ने ब्लॉक कर दिये थे, वे फिर से चालू हो गए हैं। उदाहरण के तौर पर, पुलवामा से गतिविधियां चलाने वाले एक गुट ने पुलिस द्वारा दो बार ब्लॉक किया गया पेज दोबारा बहाल कर लिया है। [49]

पाकिस्तान के स्टेट और नॉन-स्टेट एक्टर्स रणनीतिक सूचना तक पहुंच बनाने के लिए कश्मीर में भारतीय सुरक्षा कर्मियों के खिलाफ आक्रामक ढंग से सूचनाएं एकत्र कर रहे हैं। यह बात मार्च 2016 में पता चली कि पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटैलिजेंस (आईएसआई) भारतीय सुरक्षाकर्मियों, विशेषकर भारत-पाकिस्तान सीमा के साथ तैनात सुरक्षाकर्मियों के स्मार्ट फोन और कंप्यूटरों को इंफैक्ट करने के लिए गूगल प्लेस्टोर पर आसानी से उपलब्ध ‘स्मैशएप्प’ सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर रही है। इस स्पाइवेयर का इस्तेमाल करके पाकिस्तानी हैंडलर्स भारतीय सेना, सीमा सुरक्षा बल और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कर्मियों को फेसबुक अकाउंट्स के जरिए फुसला रहे थे। एक बार इंस्टाल होते ही, एप्प डाटाबेस के रूप में कार्य करता है और मोबाइल फोन व फेसबुक अकाउंट की सभी गतिविधियों, फोन कॉल्स, संदेशों और फोटोग्राफ्स को ट्रैक कर सकता है। [50] महत्वपूर्ण सूचना के संबंध में किसी तरह की ढिलाई या मीडिया की मुख्यधारा को जारी होने से रोकने की तत्काल जरूरत को देखते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय को सभी केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफएस) के नए दिशानिर्देश जारी करने को बाध्य होना पड़ा। इसमें ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप्प, यूट्यूब, लिंक्डइन, इंस्टाग्राम आदि जैसे इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्‍स पर सीक्रेट ऑपरेशनल और सर्विस डाटा के भंडारण और साझा करने को नियंत्रित करने की मांग की गई। [51]

बुरहान वानी की मौत के बाद 8-14 जुलाई, 2016 के दौरान सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्‍स के विश्लेषण के अनुसार यह पाया गया कि 126,000 नमूनों में से 45 प्रतिशत उत्तरदाता अज्ञात इलाकों के थे, 40 प्रतिशत भारतीय क्षेत्रों से और लगभग आठ प्रतिशत पाकिस्तान से थे। इनमें से एक भी पूरी तरह हैरान करने वाला नहीं था। कश्मीर में साइबरस्पेस की निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए सोशल मीडिया पर आतंकवादियों और अलगाववादियों के ट्वीट और टिप्पणियों पर कोई नियंत्रण नहीं है, इसलिए वे गड़बड़ी फैला सकते हैं। [52] गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर 2016 में राज्य सभा में बताया, “पाकिस्तान की रणनीति निहित स्वार्थों और सोशल मीडिया के माध्यम से कट्टरपंथ को बढ़ावा देने की कोशिश करने की है, ताकि उसे नागरिक असंतोष का रूप दिया जा सके।” [53]

यह दलील दी जा सकती है कि हाल के वर्षों में कश्मीर में बढ़ते विरोध प्रदर्शनों और राजनीतिक हिंसा में साइबर आयाम प्रमुख हो गया है। इस रूझान की सबसे चरम और विनाशकारी अभिव्यक्ति वानी की मौत के बाद देखी गई। हमेशा की तरह सरकारी इमारतों को निशाना बनाया गया, लेकिन इस बार हिंसा केवल सरकारी प्रतीकों तक ही सीमित नहीं रहीं, बल्कि ‘सहयोगियों’ के रूप में देखे जाने वाले सुरक्षा बलों के परिवारों और नागरिकों पर हमले हुए। इन विरोध प्रदर्शनों को ऐसे प्लेटफॉर्म्‍स पर सूचना भेजने और प्राप्त करने की प्रदर्शनकारियों और आतंकवादियों की नई योग्यता से बड़े पैमाने पर लाभ पहुंचा, जो उस व्यवस्था के खिलाफ नहीं हैं, जिनके वे खिलाफ हैं। स्पष्ट तौर पर, सोशल मीडिया ने आतंकवादियों को तैयारियां करने के साथ ही साथ किसी हरकत को अंजाम देने के बाद उस पर विचार-विमर्श करने का अनूठा प्लेटफॉर्म उपलब्ध करा दिया है। वीडियो और तस्वीरों के बिना किसी रोक-टोक प्रसार से किसी खास तरह कथानक को जारी रहता है, जिससे और ज्यादा अशांति फैलती है।

सिफारिशें

साइबर दुष्प्रचार से निपटना

आतंक की आधुनिक अभिव्यक्ति के रूप में इलैक्ट्रॉनिक जेहाद और साइबर अलगाववाद के उदय ने स्थानीय लोगों के दिलोदिमाग को तो जीता ही है साथ ही अलगाववाद से निपटने संबंधी किसी भी रणनीति के लिए आतंकवादी दुष्प्रचार को अविश्वसनीय ठहराकर उससे निपटने की रणनीति को भी बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य बना दिया है। सेंसर लगाने, कंटेंट को हटाने और सरकार द्वारा प्रायोजित जवाबी ब्यौरा के प्रसार जैसी कोशिशें चरमपंथी विचारधारा को ऑनलाइन प्रसारित होने से रोक पाने में ज्यादातर नाकाफी रहे हैं। यदि इनसे ज्यादा ऊर्जा, योजना और संसाधनों से नहीं निपटा गया, तो आतंकवादी और अलगाववादी दुष्प्रचार प्रमुख कथानक के रूप में उभर सकता है।

अगर कश्मीरी नौजवानों को ई-जेहाद में शामिल होने से रोकना है, तो इस्लामी कट्टरपंथियों को मैदान-ए-जंग और साइबरस्पेस दोनों स्थानों पर अविश्वसनीय बनाने के लिए ज्यादा प्रभावी रणनीतियों को तलाशना बहुत आवश्यक होगा। भारत सरकार को अलगाववाद से निपटने की अपनी रणनीति में ‘सूचना संपर्क’ की समस्त संभावनाओं को समझना होगा। कश्मीर में पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों और सेना को अपनी सुगम्य, मददगार, पेशेवर, दक्ष और जवाबदेह छवि पेश करने के लिए सभी उपलब्ध सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्‍स और साथ ही साथ प्रचार के सभी परम्परागत साधनों का आवश्यक रूप से दृढ़तापूर्वक इस्तेमाल करना चाहिए। कश्मीर में, सुरक्षाबलों द्वारा किए गए कठिन कार्य के केंद्र में इसी तरह पर्सेप्शन मैनेजमेंट होना चाहिए।

जेहादियों को भर्ती करने वाले अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर वॉलन्टीयर्स को भर्ती करने के लिए बुनियादी तकलीफों का इस्तेमाल करते हैं। कश्मीर में आतंकवाद से प्रेरित अलगाववाद से निपटने के लिए भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान को ताकत का इस्तेमाल करने, बिना सोचे-समझे भावनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने पर कम जोर देना होगा और इस स्थिति से सुनियोजित ढंग से निपटना होगा। अलगाववाद के वर्चुअल आयाम के बढ़ते महत्व को देखते हुए, ‘रणनीतिक विवरण’ तैयार करना महत्वपूर्ण होगा, एक ऐसा दमदार कथानक, जो सरकार के पक्ष को विश्वसनीय ढंग से पेश कर सके। ऐसा नहीं होने का अर्थ यह होगा कि जवाबी कार्रवाई में महत्वपूर्ण वर्चुअल आयाम का अभाव होगा, जिससे अलगाववादियों को अपने मकसद के मुताबिक कहानी गढ़ने का मौका मिलेगा।

साइबर निगरानी

2016 के विरोध प्रदर्शनों के दौरान स्थानीय अलगाववादियों और पाकिस्तान में मौजूद साइबर नेटवर्क्‍स द्वारा फैलाए जा रहे साइबर अलगाववाद से असरदार ढंग से निपटने की बजाए इंटरनेट और मोबाइल कम्युनिकेशन पूरी तरह बंद करने के लिए भारत सरकार की कड़ी आलोचना हुई। सरकार के इस कदम ने सुरक्षा एजेंसियों को साइबरस्पेस से मिल सकने वाले महत्वपूर्ण सुराग, रूझान और सूचना से वंचित कर दिया। साइबरस्पेस अलगाववाद से निपटने में भी उपयोगी साबित हो सकता है। साइबरस्पेस नेटवर्किंग प्रभावों ने जहां अलगाववादियों को अभूतपूर्व ढंग से जोड़ दिया है, वहीं सुरक्षा एजेंसियों को भी सोशल मीडिया नेटवक्र्स के जरिए उनके नेतृत्व, ढांचों, ठिकानों का आकलन करने का मौका दिया है, जिसे वैसे हासिल करना नामुमकिन होता।

साइबर-इंटैलिजेंस द्वारा क्लासिक इंटैलिजेंस-साइकल का अनुकरण करने के आसार नहीं हैं। इसलिए कश्मीर में सभी स्तरों पर खुफिया तंत्र से जुड़ी संरचनाओं को मजबूत और सुरक्षित संचार व्यवस्था से जोड़ा जाना चाहिए। साइबरस्पेस से तेजी से उभरते खतरों को देखते हुए भारत सरकार को कश्मीर में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते हुए एक समर्पित साइबर वॉरफेयर/साइबर सिक्योरिटी टीम बनानी चाहिए। खुफिया एजेंसियों ने उभरते खतरों के प्रति सतर्क रहना चाहिए-ऐसे खतरे जिनका कोई आकार नहीं है और जिन्हें ठीक से समझा नहीं जा सका, लेकिन जो बहुत तेजी और अप्रत्याशित रूप से उभर सकता है।

नोटबंदी से निपटने की व्यवस्था

नोटबंदी के बाद से केंद्र सरकार का स्पष्ट उद्देश्य कैशलैस आर्थिक लेन-देन को बढ़ावा देना रहा है। यह उद्देश्य लगातार इंटरनेट कनैक्टिविटी के बिना पूरा नहीं हो सकता। कश्मीर में बड़े पैमाने पर हिंसा और अशांति के बाद अलगाववाद से निपटने के लिए इंटरनेट बंद करने के मौजूदा पद्धति के लिए इस पहलु पर गौर करना होगा। भारत सरकार बेमियादी समय तक इंटरनेट बंद करके, लोगों की आर्थिक गतिविधियों में अड़चन डालकर कश्मीरी आवाम की सद्भावना नहीं पा सकती।

साइबर विशेषज्ञता

भारत की सुरक्षा एजेंसियों और सशस्त्र बलों में स्पेशलिस्ट कल्चर का अभाव है। यहां साइबर सेप्शलिस्ट्स या इंफोर्मेशन वारफेयर स्पेशलिस्ट्स नहीं होते, जो अपने सीमित कार्यकाल के बाद भी विशेषज्ञता के क्षेत्र में कार्य करते रहें। अर्द्धसैनिक बलों और सेना की कमान लगातार जनरलिस्ट ऑफीसर्स द्वारा संभाले जाना जारी है। इतना ही नहीं, जब ये अधिकारी साइबर क्षेत्र में कुछ हद तक विशेषज्ञता प्राप्त कर लेते हैं, जब उनकी अगली नियुक्ति, इस क्षेत्र में विशेषज्ञता बनाए रखने से ज्यादा तरजीह पा लेती है। [54] भारत की साइबर क्षमताओं के मामले में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के लिहाज से काफी पीछे हैं और “भारतीय इंटरनेट यूजर्स द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले हार्डवेयर और सूचना पर ज्यादा नियंत्रण न होने की वजह से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा संरचना को साइबरस्पेस में काफी कठिन स्थिति का सामना करना पड़ता है।” [55] राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति (2013) और राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा समन्वयक होने के बावजूद भारत में साइबर सुरक्षा की समग्र व्यवस्था में ज्यादा सुधार नहीं हुआ है। [56] साइबरस्पेस में अलगाववादियों से निपटने की रणनीति को प्रभावी बनाने के लिए भारत को विश्व की बेहतरीन पद्धतियों को व्यवहार में लाना सुनिश्चित करने के लिए व्यवस्था तैयार करनी होगी।

निष्कर्ष

कश्मीर में सरकारी बलों को जिन स्थानीय अलगाववादियों से मुकाबला करना पड़ रहा है वे ज्यादातर छोटे हैं और आपस में संबद्ध भी नहीं हैं। हथकंडों और लक्ष्यों में अंतर होने के बावजूद उनका पाकिस्तान से गतिविधियां चलाने वाले चरमपंथी और आतंकवादी गुटों के साथ सुविधा का गठजोड़ है। इलाके पर कब्जा या सरकार का तख्ता पलट इन अलगाववादियों का दीर्घकालिक लक्ष्य हो सकता है, लेकिन उनका तात्कालिक उद्देश्य सरकार को विवश करना और उसे अनुचित कदम उठाने के लिए उकसाना है, ताकि स्थानीय आबादी को और भी ज्यादा अलग-थलग किया जा सके।

कश्मीर में, आज के तेजी से बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में केवल के सैन्य क्षेत्र में ही संगठनात्मक और सैद्धांतिक बदलावों पर ध्यान देना काफी नहीं होगा। आगे चलकर लोगों को बड़े पैमाने पर संगठित करना वास्तव में मायने रखेगा। साइबर-मोबिलाइजेशन सिर्फ लड़ाकों की संख्या बढ़ाने में नहीं, बल्कि उससे भी ज्यादा आवश्यक हिंसा और संघर्ष को भड़काने में-एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरा है। इसलिए, सरकार को अलगाववादियों के लोगों को जमा करने के हथकंडों का विश्लेषण करने, उन्हें प्रभावित करने और उनका ज्यादा ध्यान देते हुए कश्मीर में प्रभावी साइबर अलगाववाद-विरोधी रणनीति की जरूरत है।

कश्मीर घाटी में इंटरनेट क्रांति सिर्फ स्थानीय जनता की सोच में बदलाव लाना ही नहीं है, बल्कि सरकार के प्रति उनके विरोध प्रदर्शन के तरीके में बदलाव लाना भी है। हालांकि वर्चुअल मैदान-ए-जंग में सक्रिय साइबर अलगाववादी जेहादी छापामारों की जगह नहीं लेने वाले हैं, लेकिन कश्मीर में साइबर प्रभुत्व सफलता और विफलता के बीच बदलाव ला सकता है। भारत को अशांत कश्मीर से निपटना होगा, जो निरंतर ऑनलाइन उकसावों का सामना कर रहा है। कथानक पर नियंत्रण खोना भारत के लिए उपयुक्त नहीं होगा। कथानक की जंग जीतना, सामान्य स्थिति बहाल करने की तरह ही महत्वपूर्ण होगा।


लेखक के बारे में

विनय विनय कौड़ा, पीएचडी, सरदार पटेल यूनिवर्सिटी आॅफ पुलिस, सिक्योरिटी एंड क्रिमिनल जस्टिस, राजस्थान में इंटरनेशनल अफेयर्स एंड सिक्योरिटी स्टडीज में सहायक प्रोफेसर हैं। वे सेंटर फॉर पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज, जयपुर में समन्वयक भी हैं। उनके अनुसंधान के विषयों में पड़ोसी देशों के साथ, विशेषकर पश्चिमी सीमा पर स्थित देशों के साथ भारत की नीति, अफगानिस्तान-पाकिस्तान संबंध, आतंकवाद से निपटना और अलगाववाद से निपटना और कश्मीर में जारी संघर्ष का समाधान-शामिल हैं। वे भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति से संबंधित विषयों पर अकादमिक पत्रिकाओं, समाचार पत्रों और ब्लॉग्स में नियमित रूप से लिखते हैं। उनसे [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है।


एंड नोट्स

[1] Audrey Kurth Cronin, “Cyber-Mobilization: The New Levéeen Masse,” Parameters (2006): 77-87.

[2] Ibid.

[3] Manuel Castells, “A Sociology of Power: My Intellectual Journey”, The Annual Review of Sociology 42 (2016): 1-19, http://www.annualreviews.org/doi/pdf/10.1146/annurev-soc-081715-074158

[4] John Mackinlay, The Insurgent Archipelago (London: C Hurst, 2009).

[5] Bill Gertz, iWar: War and Peace in the Information Age (New Delhi: Threshold Editions 2017).

[6] Joseph S. Nye Jr., “Hard, Soft, and Smart Power,” in The Oxford Handbook of Modern Diplomacy, eds. Andrew F. Cooper, Jorge Heine, and Ramesh Thakur (Oxford: Oxford University Press, 2015).

[7] Richard Norton-Taylor, “UK military chiefs clash over future defence strategy,” The Guardian, January 18, 2010, https://www.theguardian.com/uk/2010/jan/18/military-defence-spending-army-navy.

[8]For more on cyber mobilisation, see Timothy L. Thomas, “Cyber Mobilization: The Neglected Aspect of Information Operations and Counterinsurgency Doctrine,” in Countering Terrorism and Insurgency in the 21st Century: International Perspectives, ed. James J. F. Forest (Westport, Connecticut: Praeger Security International, 2007).

[9] Angel Rabasa, et al, Beyond al-Qaeda: Part 1, The Global Jihadist Movement (Washington, DC: RAND Corporation, 2006), 17.

[10] Jeremy White, “Virtual Indoctrination and the Digihad: The Evolution of Al-Qaeda’s Media Strategy,” Small Wars Journal, November 19, 2012, http://smallwarsjournal.com/printpdf/13534.

[11] “Remarks by President Obama and Prime Minister Cameron of the United Kingdom in Joint Press Conference”, The White House, January 16, 2015, https://www.whitehouse.gov/the-press-office/2015/01/16/remarks-president-obama-and-prime-minister-cameron-united-kingdom-joint-.

[12] Cited in Thomas Rid and Marc Hecker, War 2.0: Irregular Warfare in the Information Age (London: Praeger Security International, 2009),  212.

[13] US Department of State, News Transcript, “Stennis Troop Talk”, April 15, 2016, https://www.defense.gov/News/Transcripts/Transcript-View/Article/722859/stennis-troop-talk

[14] IANS, “Over 70 per cent terrorists using cyber space: PMO cyber coordinator,” The Times of India,  September 30, 2016, http://timesofindia.indiatimes.com/city/delhi/Over-70-per-cent-terrorists-using-cyber-space-PMO-cyber-coordinator/articleshow/54604754.cms.

[15] Sushil Aaron, “The Kashmir manifesto: Delhi’s policy playbook in the Valley,” The Hindustan Times, July 11, 2016.

[16] A S Dulat, Kashmir: The Vajpayee Years (New Delhi: HarperCollins, 2015).

[17] David Kilcullen, The Accidental Guerrilla: Fighting Small Wars in the Midst of a Big One (Oxford: Oxford University Press, 2009).

[18] Indian Army, Doctrine on Sub-Conventional Operations, (Simla: Headquarters Army Training Command, 2006).

[19]The full text of the law, The Unlawful Activities (Prevention) Amendment Act, 2012, can be accessed at http://indiacode.nic.in/acts-in-pdf/032013.pdf; Also see, The Unlawful Activities (Prevention) Act, 1967, updated till December 2016, http://nyaaya.in/law/359/the-unlawful-activities-prevention-act-1967/#section-12

[20]Ikram Ullah, “India is Losing Kashmir,” Foreign Policy, May 5, 2016, http://foreignpolicy.com/2016/05/05/india-is-losing-kashmir/.

[21] Christopher Snedden, Understanding Kashmir and Kashmiris (London: Hurst & Company, 2015), 271.

[22] Mimi Wiggins Perreault, “Social Media Amplify Concerns in India’s Jammu and Kashmir State,” The United States Institute of Peace, October 21, 2010, http://www.usip.org/publications/social-media-amplify-concerns-in-india-s-jammu-and-kashmir-state.

[23] Justin Rowlatt, “How smartphones are shaping Kashmir’s insurgency,” BBC, July 12, 2016, http://www.bbc.com/news/world-asia-india-36771838.

[24]Toufiq Rashid, “In new video, J-K militant Burhan Wani asks youth to join him,” The Hindustan Times, August 26, 2015.

[25]Bashaarat Masood, “Burhan warns of attacks on Sainik colonies.” The Indian Express, June 8, 2016.

[26] Ashiq Hussain, “Ex-engineering student emerges as Wani’s successor in Hizbul video,” The Hindustan Times, August 17, 2016, http://www.hindustantimes.com/india-news/former-engineering-student-emerges-as-burhan-wani-s-successor-in-new-hizbul-video/story-qiH7PAEO0cmr1X9w9SvDTM.html.

[27] Anil Bhatt, “Concern over weapon-snatching spurt in Kashmir,” PTI, October 19, 2016, http://ptinews.com/news/7987620_Concern-over-weapon-snatching-spurt-in-Kashmir-.

[28] Sameer Yasir, “Kashmir unrest: Increase in weapon-snatching incidents raises insurgency worries,” Firstpost, October 25, 2016, http://www.firstpost.com/india/kashmir-unrest-increase-in-weapon-snatching-incidents-raises-insurgency-worries-3071054.html.

[29]Sandeep Unnithan, “Kashmir’s new militant tide,” India Today, July 30, 2015, http://indiatoday.intoday.in/story/kashmirs-new-militant-tide/1/455226.html.

[30] Poonam Agarwal, “Terrorists or Rebels? Here’s What Kashmiri Militants’ Families Say,” The Quint, December 17, 2016,  https://www.thequint.com/kashmir-after-burhan-wani/2016/12/17/terrorists-or-rebels-the-quint-meets-bereaved-kashmiri-families-hizbul-mujahideen-jammu-and-kashmir-burhan-wani.

[31] M.K. Narayanan, “Address the ‘new normal’ in Kashmir,” The Hindu, October 10, 2016.

[32] “Radicalisation of the Kashmiri Mind”, The Open Magazine, September 5, 2016,  28.

[33]Sandeep Unnithan, “Kashmir’s new militant tide,” India Today, July 30, 2015, http://indiatoday.intoday.in/story/kashmirs-new-militant-tide/1/455226.html.

[34]Sandipan Sharma, “Glamour, gadgets and social media: HizbulMujahideen hard sells militancy to J&K’s youth,” Firstpost, August 16, 2015, http://www.firstpost.com/india/glamour-gadgets-and-social-media-hizbul-mujahideen-hard-sells-militancy-to-jks-youth-2393728.html.

[35]Muzamil Jaleel, “The worry: What Burhan Wani’s death could give life to,” The Indian Express, July 9, 2016, http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/the-worry-what-burhan-wanis-death-could-give-life-to-hizbul-mujahideen-2902423/.

[36] M Saleem Pandit, “No cops in four South Kashmir districts as protests rage,” The Times of India, August 23, 2016, http://timesofindia.indiatimes.com/city/srinagar/No-cops-in-four-South-Kashmir-districts-as-protests-rage/articleshow/53818227.cms.

[37]The Jihadi Threat: ISIS, al-Qaeda, and Beyond, The United States Institute of Peace, December 2016/January 2017), 28, https://www.usip.org/sites/default/files/The-Jihadi-Threat-ISIS-Al-Qaeda-and-Beyond.pdf.

[38] Sandeep Unnithan, “Kashmir’s new militant tide,” India Today, July 30, 2015, http://indiatoday.intoday.in/story/kashmirs-new-militant-tide/1/455226.html.

[39]Yoginder Sikand, “Syed Ali Shah Geelani And The Movement For Political Self-Determination For Jammu And Kashmir ( Part IV),” Counter Currents, September 24, 2010, http://www.countercurrents.org/sikand240910.htm.

[40]Aarti Tikoo Singh, “Kashmir conflict on verge of merging with IS war: Baig,” The Times of India, August 25, 2016, http://timesofindia.indiatimes.com/india/Kashmir-conflict-on-verge-of-merging-with-IS-war-Baig/articleshow/53852302.cms.

[41] PTI, “ISIS flags raised in Kashmir,” The Hindu, June 12, 2015.

[42] Sheikh Nazir, “Shutdown in central Kashmir’s Preng to protest arrest of local youth over alleged IS link,” Greater Kashmir, February 1, 2016, http://www.greaterkashmir.com/news/kashmir/shutdown-in-central-kashmir-s-preng-to-protest-arrest-of-local-youth-over-alleged-is-link/208341.html.

[43] “Islamic State group a live threat, can’t be ignored in Valley: Army,” Greater Kashmir, November 28, 2015, http://www.greaterkashmir.com/news/kashmir/islamic-state-group-a-live-threat-can-t-be-ignored-in-valley-army/202802.html.

[44] Shweta Desai, “Log out to get ‘de-radicalised’: Kashmir to monitor social media and counsel radicalised youth,” Daily News and Analysis, June 3, 2016, http://www.dnaindia.com/india/report-log-out-to-get-de-radicalised-kashmir-to-monitor-social-media-and-counsel-radicalised-youth-2219196.

[45] Rahul Pandita, “Kashmir unrest: ‘Mahashay, marwa na dena’; how things came to pass in J&K,” September 22, 2016, http://www.firstpost.com/india/kashmir-unrest-mahashay-marwa-na-dena-how-things-came-to-pass-in-jk-3015236.html.

[46]Munish Sharma “Lashkar-e-Cyber of Hafiz Saeed”, Institute for Defence Studies and Analyses, March 21, 2016, http://www.idsa.in/idsacomments/lashkar-e-cyber-of-hafiz-saeed_msharma_310316.

[47]Aarti Tikoo Singh, “Lashkar’s own Skype frazzles Indian intelligence,” The Times of India, April 30, 2012, http://timesofindia.indiatimes.com/india/Lashkars-own-Skype-frazzles-Indian-intelligence/articleshow/12934037.cms.

[48] “Social Media as a Tool of Hybrid Warfare”, The NATO Strategic Communications Centre of Excellence, (May 2016),  8.

[49] Ahmed Ali Fayyaz,“Concern over radicalisation of educated J&K youth,” The Hindu, August 8, 2014.

[50]Pranay Upadhyay, “Honeytraps on Facebook, spyware: How Pakistan is snooping on Indian troops,” News 18, March 15, 2016, http://www.news18.com/news/india/honeytraps-on-facebook-spyware-how-pakistan-is-snooping-on-indian-troops-1216191.html.

[51] “Government issues fresh guidelines for social media use in CAPFs”, The Indian Express, December 18, 2016, http://indianexpress.com/article/india/home-ministry-fresh-guidelines-central-paramilitary-forces-social-media-4433694/.

[52]Himanshi Dhawan, “Pakistan may be waging proxy war in cyberspace too,” The Times of India, July 19, 2016, http://timesofindia.indiatimes.com/india/Pakistan-may-be-waging-proxy-war-in-cyberspace-too/articleshow/53273657.cms.

[53] “Pakistan promoting radicalisation among youth via social media: Government”, The Indian Express, July 20, 2016, http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/jammu-kashmir-radical-pakistan-youth-social-media-hansraj-ahir-india-government-2925774/.

[54]Vivek Chadha, Even If It Ain’t Broke Yet, Do Fix It: Enhancing Effectiveness Through Military Change (New Delhi: Pentagon Press, 2016),  129.

[55]Arun Mohan Sukumar, “Upgrading India’s cyber security architecture,” The Hindu, March 9, 2016.

[56]Subimal Bhattacharjee, “Too casual an approach to cyber security,” The Hindu Business Line, October 3, 2016.

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