Author : Rajiv Ranjan

Published on Oct 21, 2020 Updated 0 Hours ago

आने वाले समय में जो नई विश्व व्यवस्था बनेगी, उसमें सिर्फ़ एक सुपरपावर नहीं होगी. बल्कि दुनिया के सामने एक नई सुरक्षात्मक और राजनीतिक व्यवस्था होगी.

फ्रेनेमी से दुश्मनी तक: डोनाल्ड ट्रंप के शासन काल में लगतार बदलते अमेरिका और चीन के रिश्ते

वर्ष 2019 में अमेरिका और चीन ने अपने राजनयिक संबंधों की  40वीं वर्षगांठ मनाई थी. इसकी शुरुआत 1972 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के चीन के दौरे के समापन के साथ हुई थी. जिसके लगभग सात बरस बाद, एक जनवरी 1979 को अमेरिका ने कम्युनिस्ट चीन को मान्यता दी थी. दोनों देशों के रिश्तों में ये सुधार आने से पहले चीन के नेता देंग शाओपिंग ने दिसंबर 1978 में चीन की अर्थव्यवस्था में ‘खुलेपन और सुधार’ की शुरुआत की थी. सुपरपावर अमेरिका से टकराव टालते हुए अमीर होने की चीन की इस कोशिश में सीखना, सहयोग करना और अमेरिका की आर्थिक नीतियों का अनुसरण करना ही देंग शाओपिंग का मंत्र था.

उसके बाद से अमेरिका और चीन ने लगभग क्षेत्रों में सहयोग को व्यापक स्तर पर पहुंचाया. हालांकि, दोनों देशों के बीच सैन्य स्तर पर सहयोग नहीं हुआ. चीन के विश्वविद्यालयों ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों के साथ सघन सहयोग के समझौते किए. जिससे कि चीन के छात्र अमेरिका के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई कर सकें. चीन और अमेरिका के विद्वानों ने एक साथ मिलकर प्रयोगशालाओं में काम करना शुरू किया. साथ-साथ रिसर्च पेपर प्रकाशित किए. फिर चाहे वो विज्ञान का विषय हो, सामाजिक विज्ञान हो और कला का क्षेत्र हो. अमेरिका के उद्योगपतियों ने चीन के साथ कारोबार करना शुरू किया. उन्होंने चीन में भारी तादाद में निवेश किया. पूंजी के साथ-साथ अमेरिकी निवेशक अपने साथ तकनीकी ज्ञान भी चीन ले आए. और चीन के बढ़ते बाज़ार से अमेरिका ने काफ़ी मुनाफ़ा कमाया.

महाशक्तियों के बीच संबंध के एक नए मॉडल की तलाश

उसके बाद वर्ष 2013 में जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग अमेरिका के दौरे पर गए, तो उन्होंने सनीलैंड्स में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाक़ात की. इस मीटिंग में, शी जिनपिंग ने अमेरिका और चीन के संबंध को, ‘बड़ी शक्तियों के बीच एक नए तरह के रिश्ते’ के रूप में परिभाषित किया. शी जिनपिंग ने इस नई परिभाषा की व्याख्या करते हुए कहा कि कहा कि आज अमेरिका और चीन के संबंध, 1. बिना संघर्ष या टकराव वाले हों, जिसमें संवाद पर ज़ोर हो. एक दूसरे के सामरिक हितों को दोनों देश निष्पक्ष भाव से देखें. 2. दोनों देश एक दूसरे का सम्मान करते हुए अपने अपने मूल हितों और प्रमुख चिंताओं का ध्यान रखें. और 3. दोनों ही देश आपस में लाभकारी सहयोग करते रहें. और सिर्फ़ लेन-देन पर आधारित सहयोग के बजाय, हर संभव क्षेत्र में आपसी सहयोग को बढ़ावा दें. अमेरिका के साथ एक नए तरह के संबंध का प्रस्ताव रखने के पीछे चीन का असल मक़सद ये था कि अब अमेरिका उसे अपनी बराबरी का दर्जा दे. और चीन को अमेरिका भी सुपरपावर ही माने.

अमेरिकी विद्वानों के चीन को बराबरी का दर्जा देने से इनकार करने का नतीजा ये हुआ कि चीन अपने लिए जिस हैसियत की मांग कर रहा था, अमेरिका उसे बहुत व्यवस्थित तरीक़े से देने से इनकार करने लगा. फ्रांसिस फुकुयामा कहते हैं कि दुनिया के बहुत से देश अपनी शक्ति की सार्वभौम स्वीकार्यता चाहते हैं. 

लेकिन, अमेरिका के विद्वानों और यहां तक कि नीति नियंताओं ने भी चीन को सुपरपावर कहने से परहेज़ किया. कम से कम द्विपक्षीय संबंधों के मामले में तो अमेरिकी सामरिक विशेषज्ञ ऐसा नहीं करना चाह रहे थे. क्योंकि, इसका अर्थ ये होता कि अमेरिका ये मान ले कि उसकी शक्ति का पतन हो रहा है और अब चीन के साथ द्विपक्षीय संबंध में भी उसकी स्थिति दोयम दर्जे की हो गई है. अमेरिकी विद्वानों के चीन को बराबरी का दर्जा देने से इनकार करने का नतीजा ये हुआ कि चीन अपने लिए जिस हैसियत की मांग कर रहा था, अमेरिका उसे बहुत व्यवस्थित तरीक़े से देने से इनकार करने लगा. फ्रांसिस फुकुयामा कहते हैं कि दुनिया के बहुत से देश अपनी शक्ति की सार्वभौम स्वीकार्यता चाहते हैं. मतलब ये कि पूरी दुनिया उनका लोहा माने. और चूंकि चीन अपनी प्रगति में देरी के लिए पश्चिमी ताक़तों के हाथों ‘अपमान की शताब्दी’ को ज़िम्मेदार ठहराता रहा है. तो उसने बहुत जल्द ही अपने बारे में ये सोचना शुरू कर दिया कि विश्व राजनीति में उसके प्रभुत्व का समय आ गया है. ये बात तब और स्पष्ट हो गई, जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और देश के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पार्टी की 19वीं बैठक में एक रिपोर्ट पेश की. इसमें उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि चीन अब बहुत मज़बूत हो चुका है. जिनपिंग ने इशारा किया कि अब चीन किसी अन्य शक्तिशाली देश  (यहां मतलब अमेरिका से है) से बराबरी से कम के दर्जे को स्वीकार नहीं करेगा. इसके अलावा, चीन ने वर्ष 2013 में शुरू हुए अपने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के ज़रिए एक ऐसे विश्व का निर्माण करना शुरू किया, जो मौजूदा विश्व व्यवस्था से बिल्कुल अलग है. और जो सीधे तौर पर दुनिया में अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती देने वाला है. और इस तरह से चीन ने अमेरिका के साथ अपने संबंधों को उस दिशा में धकेल दिया, जहां दोनों देशों के बीच युद्ध लगभग सुनिश्चित दिख रहा है. क्योंकि, चीन ने अमेरिका के विश्व की इकलौती सुपरपावर के दावे को डायरेक्ट चैलेंज दे दिया है.

इसके बावजूद, बराक ओबामा के शासन काल में अमेरिका ने चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को तवज्जो नहीं दी. और इसके बजाय ओबामा प्रशासन ने एशिया प्रशांत क्षेत्र में नए सिरे से संतुलन स्थापित करने की नीति की शुरुआत की. जिससे कि मौजूदा विश्व व्यवस्था में विविधता लाकर उसे संरक्षित किया जा सके. और विश्व में सुरक्षा का माहौल बनाए रखा जा सके. ओबामा की ‘रिबैलेंस टू एशिया ऐंड पैसिफिक स्ट्रैटेजी’ का मक़सद ये था कि तमाम देश अपने अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रयास अंतरराष्ट्रीय नियम क़ायदों के दायरे में रहते हुए, साझा नियमों और सिद्धांतों का पालन करते हुए शांतिपूर्ण ढंग से करते रहें. इसमें विवादों के शांतिपूर्ण तरीक़े से समाधान, मुक्त विश्व व्यवस्था को बढ़ावा देना जिसमें एक मज़बूत टिकाऊ, समावेशी और संतुलित विकास होता रहे. जिसमें सभी देशों को आपसी मुक़ाबले के लिए बराबरी के अवसर मिलते रहें. साथ ही साथ एक उदार राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण होता रहे. जिससे मानवता का सम्मान और विश्व शांति के लक्ष्य प्राप्त किए जा सकें. जहां मानवाधिकारों का सम्मान हो. और क़ानून का राज हो.

अमेरिका और चीन के ख़राब होते रिश्तों में तब और तेज़ी आ गई, जब डोनाल्ड ट्रंप ने चीन के ख़िलाफ़ व्यापार युद्ध छेड़ दिया. इसके अलावा चीन से आ रही 5G तकनीक को लेकर भी दोनों देशों में संघर्ष बढ़ गया. एक तरफ़ कैप्टन अमेरिका वाली सोच थी, तो चीन वोल्फ वॉरियर की कूटनीति के रास्ते पर चलने लगा. 

दुश्मनदोस्त वाले मॉडल के बिगड़ते हालात

ओबामा प्रशासन के दौरान वैश्विक प्रशासन के साझा हितों वाले क्षेत्रों में सीमित सहयोग के बावजूद, अमेरिका और चीन ने अपनी दिखावे वाली दोस्ती के चोले को उतारने का सिलसिला शुरू कर दिया था. अब दोनों ही देशों के आपसी संबंध, प्रतिद्वंदी से अधिक दुश्मनी के नज़रिए से निर्धारित होने लगे थे. अमेरिका और चीन के आपसी संबंध में इस दुश्मनी वाले दृष्टिकोण के प्रभुत्व को डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में आने के बाद और रफ़्तार मिल गई. इसकी वजह ट्रंप की घरेलू राजनीति भी थी. जिसमें अत्यधिक भूमंडलीकरण की जगह अत्यधिक राष्ट्रवाद को अहमियत दी जाने लगी. इसके अलावा विश्व राजनीति में भी ट्रंप अमेरिका के प्रभुत्व को बनाए रखना चाह रहे थे.

अमेरिका और चीन के ख़राब होते रिश्तों में तब और तेज़ी आ गई, जब डोनाल्ड ट्रंप ने चीन के ख़िलाफ़ व्यापार युद्ध छेड़ दिया. इसके अलावा चीन से आ रही 5G तकनीक को लेकर भी दोनों देशों में संघर्ष बढ़ गया. एक तरफ़ कैप्टन अमेरिका वाली सोच थी, तो चीन वोल्फ वॉरियर की कूटनीति के रास्ते पर चलने लगा. आर्थिक और तकनीकी व सुरक्षा के मोर्चे पर चीन और अमेरिका के बीच मुक़ाबले से ये साफ हो गया कि अमेरिका की शक्ति का पतन शुरू हो चुका है. लेकिन, वो झुकने को तैयार नहीं है. इसीलिए वैंग वेन जैसे चीन के विद्वानों ने अमेरिका और चीन के रिश्तों में टकराव के लिए अमेरिका को ही ज़िम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया. वैंग वेन कहते हैं कि अमेरिकी ये सोचते हैं कि चीन, विश्व राजनीति में अमेरिका की जगह ले लेगा. और अमेरिकी नीति नियंताओं को ये भी लगता है कि विश्व राजनीति में अमेरिका की जगह चीन का आना, उनके लिए सोवियत संघ के प्रभुत्व से भी अधिक ख़तरनाक है. वैंग वेन कहते हैं कि अमेरिका की ये चिंता बेवजह की है. हालांकि, चीन की राष्ट्रीय शक्ति, तकनीक और विचारों का प्रभाव बढ़ा है. इसीलिए, वैंग वेन ये आशंका ज़ाहिर करते हैं कि आने वाले समय में अमेरिका और चीन के रिश्ते और भी तनावपूर्ण होंगे. दोनों देशों के बीच टकराव बार बार होगा. और आने वाले समय में यही बात सामान्य लगने लगेगी. एक और विद्वान जिन कैनरोंग भी अमेरिका और चीन के रिश्तों को लेकर लगभग यही विचार रखते हैं. लेकिन, कैनरोंग का मानना है कि दोनों देश एक और शीत युद्ध में भिड़ने से ख़ुद को और बाक़ी दुनिया को बचा सकते हैं.

ये समझना भी ज़रूरी है कि दोनों देशों के बीच तनाव सिर्फ़ एकतरफ़ा बर्ताव के चलते नहीं बढ़ा है. बल्कि, अमेरिका और चीन, दोनों ही धीरे धीरे इस हक़ीक़त का सामना कर रहे हैं कि वो एक दूसरे के अंतर्निहित मूल्यों को परिवर्तित नहीं कर सकते हैं. 

हालांकि, चीन की वोल्फ वॉरियर कूटनीति ये इशारा कर रही है कि आज चीन अधिक आत्मविश्वास के साथ दुनिया का सामना कर रहा है. लेकिन, वो कुछ ज़्यादा जल्दबाज़ी में भी दिख रहा है. मुख्य तौर पर देखें, तो अपनी नई छवि गढ़ने और चीन की कामयाबी की कहानी दुनिया को सुनाने का ये तरीक़ा नाकाम रहा है. चीन के विद्वानों और नीति नियंताओं ने अधिकारियों को सलाह दी है कि वो बेकाबू न हों और अपनी कहानी बयां करने वालों का दायरा और बढ़ाएं. मिसाल के तौर पर चीन के विदेशी मामलों के पूर्व उप मंत्री फू यिंग सुझाव देते हैं कि, चीन को चाहिए कि वो अपना पक्ष दुनिया को बताए और विश्व में अपने पक्ष में सकारात्मक माहौल बनाने की कोशिश करे. क्योंकि चीन के बारे में दुनिया की अच्छी राय तभी क़ायम की जा सकती है, जब लोग चीन के पक्ष को जानें और उसके व्यवहार को ठीक तरीक़े से समझ लें. लेकिन, फू यिंग ये चेतावनी भी देते हैं कि इस काम के लिए केवल चीन की सरकार के अधिकारी और कूटनीतिज्ञों द्वारा पेश की जाने वाली कहानी से ही काम नहीं चलेगा. दुनिया में बहुत विविधता वाले लोग हैं. और उनके हिसाब से चीन को अलग-अलग स्टोरीटेलर तलाशने होंगे. वहीं, चीन के एक और विद्वान शी यिनहोंग ने रेम्मिन यूनिवर्सिटी में हुई, ‘वर्ल्ड ऑर्डर ऐंड चाइनीज़ डिप्लोमैसी इन कॉटेक्स्ट ऑफ़ कोविड-19’ नाम के सम्मेलन में कहा था कि कोविड-19 को हराने में चीन वाले मॉडल की कामयाबी का एलान करना बहुत जल्दबाज़ी है और हमने कुछ ज़्यादा ही सफलता का शोर मचा दिया, जो वास्तविकता से परे है. इसीलिए, चीन के कुछ विद्वान ये सुझाव देते हैं कि चीन की जनता को अपने देश के बढ़ते प्रभाव को संयम के साथ देखना चाहिए न की अपनी कामयाबी का अहंकार भरा ढोल पीटना चाहिए.

कुछ विद्वान ये भी मानते हैं कि अमेरिका और चीन के बीच टकवा का मौजूदा दौर, अमेरिका के रिपब्लिकन पार्टी समर्थक मीडिया और आक्रामक नीति के समर्थकों की देन है. जिससे वो घरेलू स्तर पर राजनीतिक लाभ ले सकें. क्योंकि इस मामले में डेमोक्रेटिक पार्टी और उसके नेताओं ने अब तक संयम से ही काम लिया है. इसीलिए, चीन के कुछ मीडिया संस्थानों ने अमेरिका के बारे में सकारात्मक रिपोर्टिंग की है. दूसरे शब्दों में कहें तो चीन के विद्वान इस नीति पर चल रहे हैं कि चीन की ओर से एक सुर से अमेरिका का विरोध और आलोचना करने के बजाय अलग-अलग विचार सामने रखे जाने चाहिए.

इसके अतिरिक्त, यहां ये समझना भी ज़रूरी है कि दोनों देशों के बीच तनाव सिर्फ़ एकतरफ़ा बर्ताव के चलते नहीं बढ़ा है. बल्कि, अमेरिका और चीन, दोनों ही धीरे धीरे इस हक़ीक़त का सामना कर रहे हैं कि वो एक दूसरे के अंतर्निहित मूल्यों को परिवर्तित नहीं कर सकते हैं. अमेरिका इस बात से निराश है कि चीन ने अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था और क़ानून के राज वाले उस सिस्टम को नहीं अपनाया है, जो अमेरिका के नेतृत्व वाले उदारवादी विश्व व्यवस्था के अनुरूप हो. जबकि, अमेरिका ने चीन को लाभ पहुंचाने वाली नीतियां बनाकर, उसे मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का भाग बनाने में महत्वपूर्ण सहयोग किया है. वहीं दूसरी ओर, चीन ने ये उम्मीद लगाई थी कि मौजूदा विश्व व्यवस्था का हिस्सा बनने और अमेरिका का क़रीबी सहयोगी होने से उससे अपने बारे में विश्व बिरादरी की सोच को बदलने में सफलता मिलेगी. लोग चीन की समाजवादी प्रशासन व्यवस्था के बारे में अपनी राय बदलेंगे. और कुछ आवश्यक परिवर्तनों के साथ चीन के हितों का संरक्षण हो सकेगा.

नए शीत युद्ध की शुरुआत?

अब जबकि दुनिया एक नए संभावित शीत युद्ध की ओर बढ़ रही है. जिसका बहुत से विद्वानों को यक़ीन भी है. तो चीन और अमेरिका की ये प्रतिद्वंदिता का दुनिया पर और व्यापक रूप से असर पड़ने की आशंका है. दोनों देशों का ये टकराव सिर्फ़ द्विपक्षीय संबंधों तक ही सीमित नहीं रहने वाला है. भले ही आज विश्व में विचारधाराओं की लड़ाई का शोर उस हद तक न हो, जो पहले शीत युद्ध के दौरान हमने देखा था. लेकिन, कुछ अमेरिकी अधिकारियों ने चीन के साथ टकराव को ‘संस्कृतियों का संघर्ष’ करार दिया है. वो इसे पश्चिमी और चीन के नैतिक मूल्यों के टकराव के तौर पर देखते हैं. पर विडम्बना ये है कि चीन और अमेरिका की ये भिड़ंत न तो संस्कृतियों का संघर्ष है. और न ही दो अलग-अलग शासन व्यवस्थाओं के बीच का टकराव है. बल्कि, सच तो ये है कि ये दो बड़ी ताक़तों के बीच दुनिया पर अपना प्रभाव जमाने की प्रतिद्वंदिता है. जिसके लिए अमेरिका और हित आपस में टकरा रहे हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि यान चुइटोंग जैसे विद्वानों ने वर्ष 2019 को ऐतिहासिक साल करार दिया है. जहां से द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था की शुरुआत हुई है. जिसमें दो महाशक्तियां हैं-अमेरिका और चीन. ये मौजूदा द्विध्रुवीय व्यवस्था डिजिटल युग के दबावों का सामना कर रही है. इसकी ख़ूबियां भी अलग-अलग हैं. और इससे विश्व व्यवस्था में नए चरित्र का विकास हो रहा है. यैन चुइटोंग, दो बड़ी ताक़तों के संबंधों में आपसी सहयोग वाले चीन के दावे पर विश्वास नहीं करते. बल्कि, उनका मानना ये है कि दो महाशक्तियों के बीच मुक़ाबले वाला पुराना सिद्धांत, आज अमेरिका और चीन पर भी लागू होता है. जहां एक ताक़त दूसरे के पराभव में विश्वास करती है. और इससे एक ऐसे विश्व का निर्माण नहीं हो सकता, जहां दोनों ही ताक़तों के हित एक साथ साधे जा सकें.

शुरुआती दौर में जहां अमेरिका और चीन के रिश्ते भौगोलिक राजनीतिक समीकरणों पर आधारित थे. जहां दोनों के हित मिलते थे. लेकिन, अब दोनों देशों के बिल्कुल अलग-अलग सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों के चलते, ये तय था कि एक समय आएगा जब अमेरिका और चीन एक दूसरे से दूर होने लगेंगे. और यही कारण है कि आज उनके सामरिक सहयोग का चिंतन, विघटन की ओर बढ़ रहा है. 

अब चूंकि, अमेरिका और चीन के बीच छिड़े इस शीत युद्ध की विशेषताएं अभी स्पष्ट नहीं हैं. इसलिए, तमाम देश और विश्व राजनीतिक भी फिलहाल अधर में है. लेकिन, जैसे जैसे अमेरिका और चीन के बीच मुक़ाबला बढ़ने और आने वाले समय में किसी तीसरे ध्रुव के उभरने की संभावना न के बराबर होने के चलते, शीत युद्ध 2.0 के चलते, दुनिया के तमाम देशों को किसी एक खेमे में जाने का फ़ैसला करना पड़ेगा. पर, टकराव के इस दौर में ऐसा नहीं है कि अमेरिका और चीन के बीच तनाव ख़त्म होने की कोई संभावना ही नहीं है. चीन के विद्वान और नीति नियंता जैसे कि झेंग योंगनियान और योंगटू का विचार ये है कि अमेरिका और चीन के ख़राब होते संबंध के चलते कई अन्य देशों ने भी चीन के प्रति टकराव का रवैया अख़्तियार कर लिया है. जैसे कि ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, भारत और कुछ दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों ने अपने क्षेत्रीय समीकरणों और हितों के हिसाब से ये रुख़ अपनाया हुआ है. इसीलिए लॉन्ग का सुझाव है कि चीन को अमेरिका के साथ संबंध सामान्य करने और इसमें अधिक निवेश करने से चीन का ही लाभ होगा. बल्कि चीन के अधिकतर विद्वान और सामरिक विशेषज्ञ यही राय रखते हैं.

कुल मिलाकर कहें तो, शुरुआती दौर में जहां अमेरिका और चीन के रिश्ते भौगोलिक राजनीतिक समीकरणों पर आधारित थे. जहां दोनों के हित मिलते थे. लेकिन, अब दोनों देशों के बिल्कुल अलग-अलग सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों के चलते, ये तय था कि एक समय आएगा जब अमेरिका और चीन एक दूसरे से दूर होने लगेंगे. और यही कारण है कि आज उनके सामरिक सहयोग का चिंतन, विघटन की ओर बढ़ रहा है. अमेरिका और चीन के बीच ये घटता सहयोग निश्चित रूप से वैश्विक और क्षेत्रीय व्यवस्था पर असर डाल रहा है. आने वाले समय में जो नई विश्व व्यवस्था बनेगी, उसमें सिर्फ़ एक सुपरपावर नहीं होगी. बल्कि दुनिया के सामने एक नई सुरक्षात्मक और राजनीतिक व्यवस्था होगी. या ये भी हो सकता है कि मौजूदा विश्व व्यवस्था के ढांचे में क्रांतिकारी सुधार आए. इस नए वर्ल्ड ऑर्डर में से मध्यम दर्जे की ताक़तों का विश्व व्यवस्था में प्रभाव बढ़ना तय है.

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