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इस में कोई शुबहा नहीं कि भारत की नागरिकता देने का ये नया क़ानून बेहद गंभीर मसला है. इसे लागू करने के हमारे देश और संविधान पर दूरगामी परिणाम होंगे.
4 दिसंबर 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट की बैठक हुई थी. इस बैठक में कैबिनेट ने नागरिकता (संशोधन) बिल, 2019 को संसद में पेश करने का प्रस्ताव पास किया. इस बिल में 1955 के नागरिकता क़ानून में बदलाव का प्रावधान था, जिसमें किसी भी व्यक्ति को भारत की नागरिकता देने की प्रक्रिया और नियम तय किए गए हैं और, 10 दिसंबर 2019 को, आधी रात के बाद लोकसभा ने इस बिल को पास कर दिया. इस विधेयक को लोकसभा में 311 सांसदों का समर्थन मिला था. जब कि 80 सांसदों ने इसका विरोध किया था.
इस के दो दिन बाद राज्यसभा ने भी रात में हुई वोटिंग के बाद इस बिल पर मुहर लगा दी. राज्यसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक को 125 सांसदों का समर्थन मिला. जबकि, 99 सांसदों ने इस के विरोध में वोट दिया. 13 दिसंबर को राष्ट्रपति ने भी इस विधेयक को अपनी मंज़ूरी दे दी, जिस के बाद नागरिकता का संशोधित विधेयक क़ानून बन गया.
बीजेपी ने मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान भी इस बिल को पास कराने की कोशिश की थी. लेकिन, तब पार्टी ऐसा करने में नाकाम रही थी. अब इस बार, बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार को यक़ीन था कि वो इस बिल को संसद के दोनों सदनों से पास करा लेगी. जब से ये विधेयक लाया गया था, तब से ही इस पर काफ़ी विवाद था, और अब संसद से पास होने के बाद इस क़ानून को लेकर देश भर में विरोध प्रदर्शन और राजनीतिक हंगामा चल रहा है. उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में भी इस क़ानून का कड़ा विरोध हो रहा है.
इस में कोई शुबहा नहीं कि भारत की नागरिकता देने का ये नया क़ानून बेहद गंभीर मसला है. इसे लागू करने के हमारे देश और संविधान पर दूरगामी परिणाम होंगे. इसीलिए आज इस क़ानून की बारीक़ी से पड़ताल करने की ज़रूरत है. इस क़ानून का मक़सद, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में सताए हुए अल्पसंख्यकों को नागरिकता और शरण देना है. इन देशों से आए हुए हिंदू, सिख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाईयों को अवैध अप्रवासी नहीं माना जाएगा, भले ही वो भारत में अवैध तरीक़े से ही क्यों न घुसे हों.
इस का मतलब ये है कि नागरिकता का ये संशोधित क़ानून हमारे देश की नागरिकता हासिल करने की प्रक्रिया में एक बुनियादी बदलाव ला रहा है. इससे पहले नेचुरलाइज़ेश या देशीयकरण की प्रक्रिया से ही किसी को भारतीय नागरिकता मिल सकती थी. इस से पहले के नागरिकता क़ानून के मुताबिक़, भारत में अवैध रूप से आने वाले अप्रवासी, यहां की नागरिकता के लिए अर्ज़ी नहीं दे सकते थे. 1955 का नागरिकता क़ानून कहता था कि बांग्लादेश से आए हुए वो अप्रवासी जो बिना वैध दस्तावेज़ों के भारत आए हैं, उन्हें भारत की नागरिकता नहीं दी जा सकती है. 1955 का एक्ट ये भी कहता था कि अगर कोई व्यक्ति वैध दस्तावेज़ों के साथ भारत आया है, पर वो अपनी वीज़ा की अवधि से ज़्यादा समय भारत में रह चुका है, तो उसे भी देश की नागरिकता नहीं दी जा सकती है.
अब तक इस क़ानूनी संशोधन का जो मक़सद बताया गया है, वो तार्किक लगता है. लेकिन, जब आप इस क़ानून की बारीक़ बातें पढ़ते हैं, तो गहरा धक्का लगता है. इससे न केवल क़ानून में बदलाव के घोषित लक्ष्य पर प्रश्नचिह्न लगता है, बल्कि, ये संविधान के बुनियादी मिज़ाज के भी ख़िलाफ़ है.
लेकिन, नया नागरिकता क़ानून, देशीयकरण की समयावधि को भी कम करता है. जिन समुदायों का ज़िक्र है, वो अब केवल छह साल भारत में गुज़ारने के बाद यहां की नागरिकता हासिल कर सकते हैं. जब कि इससे पहले के क़ानून में इन लोगों को भारत की नागरिकता हासिल करने के लिए पिछले 14 साल में से 11 साल तक भारत में रहने की शर्त पूरी करनी होती थी. इस तरह नए नागरिकता क़ानून से नागरिकों के दो दर्जे बनेंगे. ये भारतीय नागरिकों को संविधान से मिलने वाले बुनियादी अधिकार का गंभीर रूप से उल्लंघन है.
अब तक इस क़ानूनी संशोधन का जो मक़सद बताया गया है, वो तार्किक लगता है. लेकिन, जब आप इस क़ानून की बारीक़ बातें पढ़ते हैं, तो गहरा धक्का लगता है. इससे न केवल क़ानून में बदलाव के घोषित लक्ष्य पर प्रश्नचिह्न लगता है, बल्कि, ये संविधान के बुनियादी मिज़ाज के भी ख़िलाफ़ है. ये भारतीय समाज के विविधता वाले स्वरूप के साथ भी छेड़छाड़ करने वाला क़ानून है. इस क़ानून में छह धर्मों-हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी का तो ज़िक्र है, मगर इस से मुस्लिम धर्म को जान बूझकर अलग रखा गया है. इस क़ानून की ये व्यवस्था भेदभाव पूर्ण है. ये क़ानून नागरिकता के अलग-अलग दर्जों की स्थापना करेगा. जिसमें एक दर्जे के नागरिक तो ऊंचे माने जाएंगे. लेकिन, नागरिता निर्धारित करने का दर्जा निम्न स्तर के नागरिक बनाएगा. क्योंकि इसमें नागरिकता देने का एक मात्र पैमाना धर्म होगा.
इस क़ानून को बारीक़ी से जांचें, तो पता चलता है कि असल सियासी इरादे छुपाने के लिए बहुत सारे मुखौटे लटकाए गए हैं. फिलहाल, नागरिकता के इस क़ानून को लाने की जो ज़रूरत बताई जा रही है, वो ये है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान मुस्लिम बहुल देश हैं. इन देशों में मुसलमानों से बुनियादी तौर पर कोई भेदभाव नहीं हो सकता. इसलिए, इन तीनों ही देशों में मुसलमानों के साथ कोई दुर्व्यवहार, उपेक्षा और ज़ुल्म संभव नहीं है. लेकिन, पाकिस्तान के अहमदिया और शिया समुदायों का क्या? पाकिस्तान में इन समुदायों के लोगों को नियमित रूप से भेदभाव और हिंसा का शिकार बनाया जाता रहा है.
नागरिकता क़ानून को लाने के कारण और मक़सद में ये भी दावा किया गया है कि चूंकि अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश का आधिकारिक धर्म इस्लाम है, इसीलिए मुस्लिमों को इस क़ानून से राहत देने का प्रावधान नहीं है. लेकिन, इस तर्क को देने वाले इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में बौद्ध धर्म देश का राजधर्म है.
इस क़ानून को लाने का मुख्य मक़सद और कारण जो स्टेटमेंट ऑफ़ ऑब्जेक्टिव्स ऐंड रीज़न्स में बयां किए गए हैं, उनके मुताबिक़ अविभाजित या देश के बंटवारे के पहले के भारत के नागरिकों के हितों की रक्षा ही इस क़ानून का मक़सद है. अगर ऐसा है, तो इसमें अफ़ग़ानिस्तान में ज़ुल्म के शिकार हुए लोगों को शामिल करना बेहद अजीब बात है. वहीं, दूसरी तरफ़ अगर नागरिकता का ये क़ानून पड़ोसी देशों में ज़ुल्म के शिकार लोगों को राहत देने के लिए लाया गया है. तो, सवाल ये उठता है कि बहुत से ऐसे देश भारत के पड़ोसी हैं, जहां पर अल्पसंख्यक भयंकर हिंसा और भेदभाव के शिकार हैं. म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमान, जातीय हिंसा और भेदभाव झेल रहे हैं. रोहिंग्या मुसलमानों पर ये सितम पिछले तीन दशकों से भी ज़्यादा समय से बेहद संगठित तरीक़े से हो रहा है. नागरिकता क़ानून को लाने के कारण और मक़सद में ये भी दावा किया गया है कि चूंकि अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश का आधिकारिक धर्म इस्लाम है, इसीलिए मुस्लिमों को इस क़ानून से राहत देने का प्रावधान नहीं है. लेकिन, इस तर्क को देने वाले इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में बौद्ध धर्म देश का राजधर्म है.
अगर हम निरपेक्ष भाव से देखें, तो ये बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि नागरिकता का ये क़ानून, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘हिंदू राष्ट्र’ के विचार को बढ़ाने और क्रियान्वित करने के लिए लाया गया है. यानी एक ऐसा हिंदू राष्ट्र जहां मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक होंगे. नागरिकता का ये क़ानून (CAA) बीजेपी की मुस्लिम विरोधी विचारधारा के सियासी एजेंडे पर भी मुफ़ीद बैठता है.
यहां ये बात याद करने वाली है कि मोदी सरकार ने 6 सितंबर 2015 को भारत के क़ानून में बदलाव किया था. ताकि, पाकिस्तान और बांग्लादेश से अवैध रूप से आए अप्रवासियों को भारत में अनंतकाल तक रहने की इजाज़त दी जा सके. अपने मुस्लिम विरोधी एजेंडा को आगे बढ़ाकर और अपने हिंदुत्ववादी वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए ही बीजेपी ने असम में नागरिकता के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) को लागू करने का समर्थन किया था. जबकि एनआरसी का घोषित लक्ष्य अवैध अप्रवासियों की पहचान करना ही था.
अब बीजेपी आक्रामक रूप से एनआरसी को देश भर में लागू करने को अपना मुख्य एजेंडा बनाने में जुटी है. इसका ये नतीजा हो सकता है कि बडी तादाद में मुसलमान वोटर लिस्ट के दायरे से बाहर हो जाएंगे. चुनाव के रणनीतिकार मानते हैं कि इससे आने वाले विधानसभा चुनाव और चार साल बाद होने वाले आम चुनाव में हिंदू वोट जुटाने में बीजेपी को आसानी होगी.
बीजेपी को इस बात का विश्वास है कि विपक्ष अपनी मौक़ापरस्त राजनीति की वजह से बंटा हुआ है. ऐसे में बीजेपी एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करने में जुटी है, जिसमें दो तरह के नागरिक होंगे. एक का दर्जा दूसरे से ऊपर होगा. इसका असल मतलब होगा मुसलमानों को देशनीति और राजनीति में बराबरी की भागीदारी का हक़ नहीं मिल सकेगा. इससे हमारे स्वाधीनता संग्राम के आदर्शों का हनन होगा और हम उन मूल्यों से दूर जाएंगे, जिनके लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपने प्राण न्यौछावर किए थे. इन क़दमों से भारत के संविधान को गंभीर चुनौती मिल रही है. ऐसे में ये देखने वाली बात होगी कि सुप्रीम कोर्ट इस नई चुनौती और हक़ीक़त पर किस तरह से प्रतिक्रिया देता है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ही हमारे संविधान की मूल संरचना का संरक्षक है.
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Satish Misra was Senior Fellow at ORF. He has been a journalist for many years. He has a PhD in International Affairs from Humboldt University ...
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