Published on Dec 04, 2021 Updated 0 Hours ago

पूर्वानुमान की नियत समयसीमा जितनी लंबी होगी, प्रमुख घटनाक्रमों द्वारा सभी मॉडलों में दोहराए जाने वाले आधारभूत आर्थिक और व्यवहार संबंधी संबंधों में बदलाव लाने के आसार भी उतने ही ज़्यादा होंगे. 

जलवायु परिवर्तन और कोयले का इस्तेमाल: “फ़ेज़ अप” से “फ़ेज़ डाउन” तक का सफ़र

ये लेख कॉम्प्रिहैंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड द वर्ल्ड सीरीज़ का हिस्सा है.


ग्लासगो (Glasgow) में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु शिखर सम्मेलन COP26 में आख़िरी वक़्त पर किए गए दख़ल के चलते भारत को चौतरफ़ा आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. भारत के हस्तक्षेप की वजह से ग्लासगो जलवायु समझौते के मसौदा पत्र में बदलाव हुआ. “कोयले से बेरोकटोक बिजली पैदा करने और जीवाश्म ईंधनों पर अकार्यकुशल तरीक़े से दी जा रही सब्सिडी को फेज़ आउट यानी चरणबद्ध रूप से ख़त्म करने” की बजाए “कोयले से निर्बाध रूप से बिजली पैदा करने और जीवाश्म ईंधनों पर अक्षम सब्सिडी को फेज़ डाउन यानी चरणबद्ध रूप से कम करने” पर सहमति हुई. हालांकि भारत के कई आलोचकों ने एक बात की अनदेखी कर दी. दरअसल “फ़ेज़ डाउन” की शब्दावली मूल रूप से भारत की ओर से नहीं आई थी. ग्लासगो में ही इससे पहले अमेरिका और चीन के बीच हुए समझौते के मज़मून में ये शब्दावली थी. भारत ने वहीं से ये शब्द निकालकर अंतिम दौर में यहां सबके सामने रखा था. भारत द्वारा हस्तक्षेप किए जाने के पहले भी मसौदा पत्र में शब्दावलियों को लेकर काफ़ी हद तक क़ानूनी अनिश्चितता बरकरार थी. कोयले और जीवाश्म ईंधनों पर सब्सिडी का प्रयोग निरंतर जारी रखने को लेकर “बेरोकटोक” और “अक्षम” जैसे शब्दों को लेकर पहले से ही भ्रम का माहौल था. इससे भी अहम बात ये थी कि मज़मून में कोयले और जीवाश्म ईंधनों पर सब्सिडी को चरणबद्ध रूप से ख़त्म करने को लेकर कोई निश्चित तारीख़ नहीं रखी गई थी. इसके मायने यही थे कि कोयले और जीवाश्म ईंधनों पर सब्सिडी दिए जाने की व्यवस्था अनिश्चितकाल तक जारी रह सकती थी. जलवायु के मोर्चे पर भावनाओं से संचालित होने वाले और ख़ुद को प्रासंगिक बनाए रखने की ज़रूरत वाले सक्रियतावादी अभियान में बड़ी आसानी से भारत एक खलनायक बन गया. हालांकि हक़ीक़त यही है कि अभी कुछ अर्सा पहले तक दुनिया के समृद्ध देशों ने विकासशील देशों के ऊर्जा मिश्रण में कोयले को “चरणबद्ध तरीक़े से बढ़ावा” दिया था.

साल 2000 तक विकासशील देशों से उतनी ही मात्रा में ऊर्जा के उपभोग की उम्मीद की गई थी जितना पश्चिमी यूरोप या अमेरिका 1980 के दशक में इस्तेमाल करते थे. विकासशील दुनिया की ऊर्जा ज़रूरतों में इज़ाफ़े से एक दुष्चक्र शुरू होने की आशंका व्यक्त की गई थी.

कोयले और परमाणु ऊर्जा से जुड़ी रणनीति

1980 के दशक की शुरुआत में ऊर्जा को लेकर आयोजित वैश्विक सम्मेलनों ने ख़ूब सुर्ख़ियां बटोरी थीं. इनमें वैकल्पिक ऊर्जा रणनीतियों पर कार्यशाला और इस्तांबुल का विश्व ऊर्जा सम्मेलन शामिल है. इसके अलावा इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फ़ॉर एप्लायड सिस्टम्स एनालिसिस (IIASA) द्वारा तैयार विस्तृत रिपोर्ट ‘Energy in a Finite World’ भी उन्हीं दिनों सामने आई थी. इस रिपोर्ट को तैयार करने में तक़रीबन 250 वैज्ञानिकों ने योगदान दिया था. इन तमाम क़वायदों का निचोड़ यही था कि विकासशील देशों (जिन्हें उस वक़्त तीसरी दुनिया का दर्जा दिया गया था) की ऊर्जा ज़रूरतों में होने वाली बेतहाशा बढ़ोतरी 21वीं सदी का सबसे अहम घटनाक्रम साबित होने वाला था.

साल 2000 तक विकासशील देशों से उतनी ही मात्रा में ऊर्जा के उपभोग की उम्मीद की गई थी जितना पश्चिमी यूरोप या अमेरिका 1980 के दशक में इस्तेमाल करते थे. विकासशील दुनिया की ऊर्जा ज़रूरतों में इज़ाफ़े से एक दुष्चक्र शुरू होने की आशंका व्यक्त की गई थी. ऊर्जा की बढ़ी हुई ज़रूरत से पेट्रोलियम बाज़ार में मांग में बेतहाशा बढ़ोतरी होने और तेल की क़ीमतों में उछाल आने की आशंका जताई गई थी. इससे समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं की हालत बिगड़ने और विकासशील देशों के आर्थिक विकास पर लगाम लगने की बात कही गई थी. साल 2000 तक विश्व में ऊर्जा की मांग और उपभोग में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई. इसने उद्योग-संपन्न राष्ट्रों और औद्योगीकरण के रास्ते पर चल रहे देशों में परमाणु कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने और कोयले का जमकर इस्तेमाल करने को लेकर एक प्रकार की साझी सहमति बना दी. इस कड़ी में उम्मीद जताई गई थी कि पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) समेत तमाम विकासशील देश ऊर्जा के शुद्ध आयातक बनकर उभरेंगे. दूसरी और आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) के सदस्य देशों के ऊर्जा के शुद्ध निर्यातक बनने की संभावना जताई गई थी. ऊर्जा प्रवाह में इस उलटफेर के पीछे निश्चित तौर पर समृद्ध देशों द्वारा कोयले और परमाणु तकनीक के इस्तेमाल से जुड़ी वजहें बताई गई थीं. उस समय आकलन किया गया था कि इन संसाधनों के इस्तेमाल से दुनिया के समृद्ध देश अपेक्षाकृत निर्धन देशों को ऊर्जा का निर्यात कर सकेंगे. कोयले के ज़्यादातर ज्ञात भंडार और कोयले और परमाणु शक्ति से बिजली पैदा करने की तकनीक पश्चिमी देशों के पास ही केंद्रित थी.

ऊर्जा से जुड़ी भविष्यवाणियां

बुनियादी बात ये थी कि ऊर्जा के विकास का भविष्य पहले ही पूरी तरह से तय हो चुका था. इस दिशा में इकलौता संभावित रास्ता कोयले और परमाणु ऊर्जा के मिलेजुले स्वरूप वाला था. उम्मीद की गई थी कि इसी रणनीति को बग़ैर किसी शक़-शुबहे के आगे बढ़ाया जाएगा. ऊर्जा से जुड़े इन प्रस्तावों में उद्योग-संपन्न देशों में अपनाए गए तौर-तरीक़ों को यांत्रिक रूप से आगे बढ़ाए जाने की ज़रूरत बताई गई थी. इनमें पारंपरिक ऊर्जा की मांग में कमी, वाणिज्यिक ऊर्जा को सामने रखने और बिजली के लिए बड़े और आपस में जुड़े ग्रिडों को प्राथमिकता दिए जाने की बात कही गई थी. बहरहाल इन तमाम संभावनाओं में विकासशील देशों के भावी आकलनों से जुड़े कई महत्वपूर्ण पहलुओं की साफ़ तौर पर अनदेखी की गई थी: (1) ऊर्जा सेवा ज़रूरतों के अहम पक्षों और औद्योगिकरण की ओर बढ़ते देशों के विकास से जुड़े विशिष्ट तौर-तरीक़ों और ऊर्जा के बीच के जुड़ाव (2) ऊर्जा को एक ही प्रकार के या सजातीय उत्पाद के तौर पर देखने की प्रासंगिकता, जिसकी ज़रूरतें एक तकनीकी लोच गुणांक के साथ जुड़ी हुई हों (3) ईंधन के तौर पर तेल का सदाबहार स्वरूप बना रहना और दूसरे ईंधनों के मुक़ाबले उसकी प्रतिस्पर्धी क्षमता बरकरार रहना.

मोटे तौर पर दीर्घकालिक पूर्वानुमान लगाने वाले मॉडलों में ये मान लिया गया कि अर्थव्यवस्था में आधारभूत ढांचागत संबंध मौजूद होते हैं जो चरणबद्ध रूप में बदलते रहते हैं. हालांकि वास्तविक दुनिया में कई तरह की रुकावटों और परिवर्तनकारी घटनाओं की भरमार होती है. 

पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं ने विकासशील देशों के पारंपरिक क्षेत्रों को पूरी तरह से एक तकनीकी वास्तविकता के तौर पर देखा. उनका विचार था कि वाणिज्यिक ईंधन स्रोतों के सामने आने पर विकासशील देशों के परंपरागत क्षेत्र धीरे-धीरे लुप्त हो जाएंगे. उन्होंने ऊर्जा की मांग का आकलन सिंथेटिक इकाइयों (tonnes of oil equivalent (toe) या मेगावाट [MW]) के तौर पर किया. इसने ऊर्जा ज़रूरतों के वास्तविक संघटक को पर्दे के पीछे कर दिया. साथ ही ऊर्जा से जुड़े खाके में बदलाव लाने की संभावनाओं को भी सीमित कर दिया.

मोटे तौर पर दीर्घकालिक पूर्वानुमान लगाने वाले मॉडलों में ये मान लिया गया कि अर्थव्यवस्था में आधारभूत ढांचागत संबंध मौजूद होते हैं जो चरणबद्ध रूप में बदलते रहते हैं. हालांकि वास्तविक दुनिया में कई तरह की रुकावटों और परिवर्तनकारी घटनाओं की भरमार होती है. अतीत में वैश्विक वित्तीय संकट और अभी हाल ही में कोरोना वैश्विक महामारी से ये बात जगज़ाहिर हो चुकी है. पूर्वानुमान की नियत समयसीमा जितनी लंबी होगी, प्रमुख घटनाक्रमों द्वारा सभी मॉडलों में दोहराए जाने वाले आधारभूत आर्थिक और व्यवहार संबंधी संबंधों में बदलाव लाने के आसार भी उतने ही ज़्यादा होंगे.

बहरहाल इन तमाम मॉडलों द्वारा पेश किए गए हालात धरातल पर देखने को नहीं मिले. हालांकि पश्चिमी सांचे से जुड़े घटनाक्रम ने पश्चिमी आर्थिक वृद्धि के सामान्य प्रतिरूप और समृद्धि को विकासशील दुनिया की ओर मोड़ दिया. तेल की क़ीमत में बढ़ोतरी ने धीरे-धीरे विकासशील देशों को विकसित देशों का मोहताज बना दिया. दरअसल पेट्रोलियम उत्पादों के बदले भुगतान करने के लिए उन्हें अतिरिक्त विदेशी मुद्रा की ज़रूरत थी. दूसरी ओर तेल और गैस संसाधनों से संपन्न देश अपने संसाधनों के विकास के लिए पश्चिमी पूंजी और टेक्नोलॉजी पर आश्रित हो गए. बाज़ार के अपने नियमों के बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपसी निर्भरताओं की व्यवस्था वर्गीकृत निर्भरता जैसी बनी रही. इसके तहत असमान नाज़ुक परिस्थितियां मसलन आपस में कारोबार करने वाली इकाइयों (देशों) में एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाने की असमान क्षमता शामिल है. साफ़ है कि इन तौर-तरीक़ों से कुछ देशों का कल्याण कुछ अन्य देशों की इच्छाओं पर निर्भर रहने लगा. अंतररष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) हर साल विश्व में ऊर्जा की संभावनाओं (World Energy Outlook) पर रिपोर्ट पेश करती है. इसमें तेल की क़ीमतों में नाटकीय बढ़ोतरी के बाद तेल की आपूर्ति चरमराने को लेकर नियमित रूप से भविष्यवाणियां की जाती है. दरअसल इसके ज़रिए ओपेक देशों से इशारों में तेल का उत्पादन बढ़ाने की अपील की जाती है. जब कभी ओपेक इन संकेतों को मान लेता है तो पश्चिमी जगत के साथ-साथ बाक़ी दुनिया भी फ़ायदे में रहती है. हालांकि इस क़वायद के मायने यही हैं कि ओपेक देशों को जोख़िम भरा पूंजी निवेश करना होता है जो आख़िरकार तेल की ऊंची क़ीमतों पर ही निर्भर होते हैं.

श्रेणियों को आगे बरकरार रखना

भले ही अतीत में लगाए गए ऊर्जा से जुड़े पूर्वानुमान पूरी तरह से खरे नहीं उतरे लेकिन उन्होंने भविष्य को आकार और बसावट दिया. इस सांचे में उद्योग-संपन्न दुनिया शीर्ष पर आ गई. आज ऊर्जा से जुड़े पूर्वानुमानों में छोटे द्वीप देशों के डूब जाने की भविष्यवाणी की जाती है. इतना ही नहीं इन आकलनों में जीवाश्म ईंधन के बढ़ते इस्तेमाल और नतीजतन जलवायु से जुड़े प्रकोपों की वजह से दुनिया के मिट जाने तक की आशंका जताई जाती है. ग्लासगो में संपन्न COP26 सम्मेलन में कोयले को भूतकाल की वस्तु बनाने से जुड़ी मांग इन्हीं पूर्वानुमानों से प्रेरित है. हक़ीक़त यही है कि कोयले पर आधारित देश नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर अपनी यात्रा को गति देने के लिए विकसित देशों से वित्तीय सहायता और तकनीक का हस्तांतरण करने की गुज़ारिश करने पर मजबूर हो गए हैं. विकासशील देश एक बार फिर समृद्ध दुनिया के सामने नई और महंगी ऊर्जा तकनीकों का आयात करने और उनका बड़ा उपभोक्ता बनने की कतार में खड़े हैं. हालांकि उनसे ऊर्जा से जुड़ी श्रेणी के शीर्ष पर पहुंचने और परिवर्तनकारी ऊर्जा तकनीकों की जानकारियों का मालिक बन उनका पेटेंट हासिल करने की उम्मीद थी.

Source: BP Statistical Review of World Energy 2021

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Akhilesh Sati

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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

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Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

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Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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