Author : Harsha Kakar

Published on Nov 23, 2017 Updated 0 Hours ago

सेना को रेलवे के तीन पैदल पार पथ बनवाने के काम में लगाए जाने की घोषणा के साथ ही कई सवाल भी खड़े हो गए हैं, जिनका सरकार को जवाब देना चाहिए।

सेना से पुल बनवाना, कितना जायज

मुंबई में तीन पैदल पार पथ बनाने का काम सेना को दिए जाने की घोषणा के बाद से यह बहस भी शुरू हो गई है कि सरकार का यह फैसला जायज था या नहीं। कैप्टन अमरिंदर सिंह और ओमर अब्दुल्ला सहित विपक्ष के कई नेताओं ने सरकार को उन कामों में सेना को लगाने को ले कर चेताया है जिनकी जिम्मेदारी दूसरी एजेंसियों की है। सेना प्रमुख ने मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में माना है कि यह काम आम तौर पर लगाए जाने वाले ‘अपनी सेना को जानिए मेले’ से आगे जा कर सेना की छवि को चमकाने के लिए हाथ में लिया गया है। अगर यह राजनीतिक फैसला है जिसे उपयुक्त जगह से लिया गया है, तो ऐसी स्थिति में सेना प्रमुख के लिए उसके अमल के अलावा विकल्प ही क्या है।

सेना के रिटायर्ड अधिकारी 1962 से पहले की ऐसी ही घटना की याद दिलाते हैं, जब सेना को प्रशिक्षण और युद्ध की तैयारी के उसके मूल काम से हटा कर अंबाला में आवास बनाने के काम में लगा दिया गया था। सेना प्रमुख की इच्छा के विरुद्ध किए गए इस काम की वजह से चीन की ओर से अचानक हुए हमले में हमें काफी जानें गवानी पड़ीं और सरकार के कदम की काफी आलोचना हुई। हालांकि इस तर्क में अब ज्यादा दम नहीं रह गया है, क्योंकि 1962 और 2017 की भारतीय सेना में काफी फर्क आ चुका है। अब यह दुश्मन की किसी नापाक हरकत का जवाब देने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं।

सोशल मीडिया पर आ रहे पूर्व फौजियों की टिप्पणियों को देखा जाए तो इनका लब्बोलुआब यही है कि सरकार अपनी उन एजेंसियों को जवाबदेह बनाने में नाकाम रही है, जो पुल जैसी इन परियोजनाओं को समय से पूरा नहीं कर पाईं। अब यह आसान रास्ता तलाश रही है जो एक नई परंपरा कायम कर सकता है। अगर यह परंपरा कायम हो गई तो आने वाले वर्षों में उसे पलटना मुश्किल हो जाएगा। यह सर्वविदित तथ्य है कि राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र की एकता के लिए किसी भी और संगठन से ज्यादा सेना ने प्रयास किए हैं। लेकिन इसे कहां काम पर लगाया जाना है, इसको ले कर हमेशा से एक सीमा रही है। अब ऐसा नहीं हो कि वह खत्म हो जाए।


सोशल मीडिया पर पूर्व फौजियों की टिप्पणियों का संदेश है कि अपने काम को समय से पूरा कर पाने में नाकाम रही अपनी एजेंसियों को सबक सिखाने में सरकार नाकाम रही है।


इस संबंध में देश को संतुष्ट करने के लिए सरकार को कुछ अहम सवालों के जवाब जरूर देने होंगे।

पहला, अगर दो साल पहले एक नए और स्थायी पैदाल पार पथ (एफओबी) को मंजूरी दी गई थी तो आखिर रेलवे ने अब तक इसके लिए निविदा भी तय क्यों नहीं की? इसके लिए कौन जिम्मेवार है और अब तक उसकी जिम्मेदारी तय क्यों नहीं की गई है? क्या रेल मंत्री का अपने ही संगठन में विश्वास खत्म हो गया है? जबकि इसमें इंजीनियरों की भरमार है, इसका अपना इंजीनियरिंग संस्थान है और इस संबंध में पूरी विशेषज्ञता है।

दूसरे, यह सही है कि ऐसे काम करना सेना के लिए मुमकिन है, लेकिन एक नियम के तौर पर सेना को हमेशा अंतिम हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसके विरोध में यह तर्क दिया जा सकता है कि सेना भी देश का ही संसाधन है और इसलिए जरूरत के वक्त इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। हाल के समय में सेना को बिल्कुल अंतिम हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के आदर्श नियम की इतनी खुल कर उपेक्षा की जा रही है कि दूसरी एजेंसियों को लगने लगा है कि उस काम के लिए सेना तो होगी ही। हरियाणा के मामले, योग दिवस (जहां सेना ने दरी बिछाई) और दूर-दराज के इलाकों में पर्यटकों की फैलाई गंदगी को साफ करना ये इसी बात के उदाहरण हैं। यह एक नए चलन की शुरुआत है।

तीसरे, सेना के इंजीनियरों को स्थायी पुल का नहीं, बल्कि युद्ध के दौरान काम आने वाले अस्थायी पुल बनाने का प्रशिक्षण होता है। ऐसे निर्माण को बाद में गिराया जा सकता है और उन्हीं संसाधनों का दूसरी जगह इस्तेमाल किया जा सकता है। जहां एफओबी के बारे में दावा किया जा रहा है कि यह अस्थायी ढांचा होगा, बाद में ऐसे हर मामले की तरह इसे भी स्थायी रूप से रहने दिया जाएगा। यानी यह ऐसा काम है जिसके लिए अतिरिक्त संसाधन और विशेषज्ञता की जरूरत होगी। मानक स्थिति तो यही है कि सेना को यह काम आपातकालीन स्थिति में ही दिया जाना चाहिए। जैसे कि पुल बह गया हो, बाढ़ आने वाली हो और जब दूसरी एजेंसियां या तो इसमें सक्षम नहीं हों या फिर उन्हें बहुत अधिक समय लगने वाला हो। इस साल फरवरी में केरल के एनातू में अस्थायी बेली पुल बनाया जाना, जहां मुख्य पुल की मरम्मत में समय लगता, 2010 में राष्ट्रमंडल खेल के दौरान मुख्य ढांचे के टूट जाने के बाद ओवरब्रिज का निर्माण या फिर श्री श्री के कार्यक्रम में पंटून पुल का निर्माण, ये ऐसे ही उदाहरण हैं। पिछले कुछ दशकों के दौरान यह इलाहाबाद में कुंभ और अर्ध कुंभ मेलों के दौरान अस्थायी पंटून पुल भी बना रही है।

चौथे, सेना को अपने भंडार का इसके लिए इस्तेमाल करना होगा, जो इसके अपने संचालन के लिए काम आता है। इतिहास इस बात का गवाह है कि एक बार बना दिया गया तो यह फुट ओवर ब्रिज हमेशा के लिए बना रहेगा। हो सकता है कि आने वाले वर्षों में एक और ऐसा पुल बना जाए, लेकिन पहले वाले को गिरा दिया जाए, इसकी संभावना बहुत कम है। इस पर खर्च सेना का आएगा और इसे सौंप दिया जाएगा रेलवे को। सेना को इसमें इस्तेमाल होने वाली सामग्री भी वापस नहीं मिलेगी। पुल बनाने के सेना के पहले से कम पड़े रहे संसाधनों में और कमी होगी। सेना को अपने सामान्य काम से अलग काम के लिए लगाए जाने के खर्च और भुगतान को ले कर सेना को सीएजी में अलग संघर्ष करना होगा।

पांचवें, ऐसे निर्माण कार्य के लिए सेना को विभिन्न जगहों से यहां लाया जाएगा और इस दौरान उन्हें अपने सामान्य काम और प्रशिक्षण को कुर्बान करना होगा। काम में लाई जाने वाली चीजों को यहां रखने और निर्माण में शामिल लोगों के रहने के इंतजाम के लिए यहां एक प्रशासनिक अड्डा बनाना होगा। इसके लिए जमीन की हमेशा किल्लत बनी रहती है। ऐसे में इसमें शामिल लोगों की समस्या और बढ़ेगी। सरकार और इसकी राजनीति को समझते हुए तय है कि इस पूरे काम में पूरा श्रम सेना का ही होगा और इस काम में राज्य सरकार या रेलवे की ओर से कोई सहयोग मिलने की उम्मीद नहीं है।

अंत में, संदेह का एक बड़ा कारण यह है कि आखिर यह फैसला यहां के स्थानीय लोगों के फायदे के लिए किया जा रहा है या राज्य में अपनी राजनीतिक जमीन जाने के डर से ऐसा किया जा रहा है। यहां के स्थानीय लोग उपनगरीय रेल में सफर करते हुए रोजाना समस्या का सामना करते हैं और सामान्य तर्क तो यही कहता है कि यह फैसला उनकी मदद के लिए किया गया होगा। लेकिन अगर ऐसा है तो पहले रेल मंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री को पहले रेलवे और स्थानीय नगर निगम की आलोचना करनी चाहिए जिसने निविदा प्रक्रिया और निर्माण में इतनी देरी की और सेना को यह काम देने की जरूरत पड़ी।

अगर सेना को इस काम में लगाए जाने की वजह राजनीतिक फायदा हासिल करना है तो यह फायदा पहुंचाने से ज्यादा नुकसान करेगा। इससे सेना की छवि तो निश्चित तौर पर और चमकेगी क्योंकि यह समय से और अच्छी गुणवत्ता वाला निर्माण कर देगी। लेकिन इससे एक नई परंपरा कायम हो जाएगी। यह भी हो सकता है कि रेलवे चाहे कि अब इसकी देख-भाल का जिम्मा भी सेना ही ले क्योंकि निर्माण उन्होंने किया है।


अगर सेना को यह काम दिए जाने का उद्देश्य राजनीतिक फायदा उठाना है तो यह लाभ से ज्यादा नुकसान करेगा।


इसमें यह संदेश साफ तौर पर जाएगा कि केंद्र और राज्य सरकार दोनों ही अपनी एजेंसियों से दिए गए समय में कोई काम करवाने में पूरी तरह नाकाम हैं। यानी हर जरूरी काम में धीरे चलिए व परियोजनाओं को लेट कीजिए और सरकार दूसरे रास्ते तलाश लेगी। विपक्ष इस मौके का इस्तेमाल सेना की तारीफ करते हुए सरकारी एजेंसियों को बदनाम करने के लिए कर सकता है।

यानी कुछ भी कर लिया जाए, सेना के राजनीतिकरण से बचा नहीं जा सकेगा। इसी तरह आने वाले समय में इससे दूसरी सरकारों के लिए भी दरवाजे खुल जाएंगे कि वे सेना के पहले से ही कम पड़ रहे संसाधनों का उन काम में इस्तेमाल करे जिसकी जिम्मेदारी दूसरी एजेंसियों की है। अगर यह परंपरा बन गई तो आने वाले समय में हम देश के हर विभाग को नाकाम होते और सेना के संसाधनों को और सिमटते हुए ही देखेंगे।

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