Published on Feb 04, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की पहेली या समस्‍या यह है कि मध्यम-आय उत्पादकता में आ रही सुस्‍ती के साथ ‘महान समाज’ कल्याण की अपेक्षाओं में उचित सामंजस्य स्‍थापित करना है।

अंतरिम बजट: आर्थिक सुस्‍ती की राजनीतिक अर्थव्यवस्था

भारत की संसद के निचले सदन में शुक्रवार को पेश किए गए वर्ष 2019-20 के अंतरिम बजट का मूल्यांकन करते वक्‍त इस महत्वपूर्ण बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था वर्ष 2014 से लेकर अब तक आखिरकार किस हद तक बदली है। जब पी. चिदंबरम उस वर्ष हुए आम चुनावों से पहले अंतरिम बजट पेश करने के लिए सदन में खड़े हुए थे, तो ऐसा प्रतीत हुआ था कि देश में माहौल बदल कर अब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के ‘कल्‍याण-वाद’ से परे चले गया है। वर्ष 2014 में पेश किए गए अंतरिम बजट की मुख्य बातें इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य हैं: बेकाबू राजकोषीय घाटे पर लगाम लगाने की तेज-तर्रार कोशिश की गई और हमेशा कोई-न-कोई सौगात देने जैसे कि कुछ शिक्षा ऋणों पर ब्याज माफ करने और उपभोक्ता वस्तुओं पर देय कर में थोड़ी कटौती करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए कुछ प्रयास किए गए। यही नहीं, यूपीए ने अपनी विदाई से पहले भविष्‍य को देखा था और उसे छोटी सरकार एवं राजकोषीय विवेक या दूरदर्शिता नजर आई थी।

सबसे बड़ा तात्कालिक बदलाव यह है कि ऐसे छोटे किसानों को आय हस्तांतरित करने का निर्णय लिया गया है, जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है। इनमें 120 मिलियन परिवार आ जाते हैं जो शायद देश की 40 फीसदी आबादी है। यह व्‍यापक पैमाने और महत्वाकांक्षा की दृष्टि से अभूतपूर्व है।

हालांकि, अब पता चला है कि यह धारणा गलत थी। भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था उस तरह से नहीं बदल रही थी जिस तरह का पारंपरिक विवेक वर्ष 2014 में था। तुलनात्‍मक दृष्टि से इस वर्ष के अंतरिम बजट में अतीत के ज्‍यादातर नियमित बजटों के मुकाबले अपेक्षाकृत अधिक नए व्यय अंतर्निहित हैं। इसमें भारत के भविष्य के लिए एक व्‍यापक ‘कल्‍याण-वाद’ विजन पेश किया गया है। वैसे तो परंपरा यही रही है कि अंतरिम बजट अगले वित्त मंत्री के खर्च संबंधी निर्णयों में बाधक नहीं बनते हैं क्‍योंकि नए वित्‍त मंत्री को ही नए जनादेश के साथ सत्‍तारूढ़ होने वाली नई सरकार की खर्च संबंधी प्राथमिकताओं को निर्धारित करने का विशेषाधिकार प्राप्‍त होता है, लेकिन इसके विपरीत अंतरिम बजट 2019-20 में लगभग 1 लाख करोड़ (ट्रिलियन) रुपये के नए भारी-भरकम खर्च शामिल कर दिए गए हैं। सबसे बड़ा तात्कालिक बदलाव यह है कि ऐसे छोटे किसानों को आय हस्तांतरित करने का निर्णय लिया गया है, जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम भूमि है। इनमें 120 मिलियन परिवार आ जाते हैं जो शायद देश की 40 फीसदी आबादी है। यह व्‍यापक पैमाने और महत्वाकांक्षा की दृष्टि से अभूतपूर्व है।

इससे भी अधिक लंबे समय तक व्‍यापक असर डालकर भविष्‍य की सरकारों को विवश करने वाला बजट प्रस्‍ताव यह है कि अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों पर लक्षित एक नई पेंशन योजना में सरकार की ओर से समान योगदान करने का वादा किया गया है। वैसे तो इसमें अंतर्निहित रकम फि‍लहाल कम है क्‍योंकि वर्तमान में प्रति माह बतौर पेंशन केवल 3,000 रुपये देने का वादा किया गया है। हालांकि, इसके बावजूद यह मान कर चलना असंभव है कि इसे अंततः महंगाई के सूचकांक से न‍हीं जोड़ा जाएगा। यदि वाकई ऐसा होता है तो सरकार को इसके लिए जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के कई प्रतिशत के बराबर विशाल रकम का प्रावधान बजट में करना होगा। अंतरिम बजट के जरिए इस तरह की नौबत एक ऐसी सरकार द्वारा लाई जा रही है जिसका कार्यकाल अब समाप्‍त हो चला है और जो न्यूनतम सरकार के वादे पर आम जनता द्वारा चुनी गई थी!

वर्ष 2014 में यह मान लिया गया था कि तेजी से बढ़ता भारत एक ऐसे मध्यम वर्ग का निर्माण करेगा जो अधिक आत्मनिर्भर एवं आकांक्षी होगा; जो सरकार से मदद की गुहार नहीं लगाएगा और इसके बजाय सरकार से ऐसे उपायों की मांग करेगा जिनके सहारे वह स्‍वयं को समृद्धि की ओर ले जा सके। यह मोदी युग में संभव नहीं हो पाया है। वर्ष 2014 से लेकर अब तक दिए गए विभिन्न बजट भाषणों में शामिल ‘शब्दों का बादल या समूह’ उपदेशपूर्ण है। पहले दो बजट भाषणों में ‘बुनियादी ढांचे’ और ‘निवेश’ पर विशेष जोर दिया गया, लेकिन लगातार दो साल सूखा पड़ने के बाद सत्तारूढ़ राजनेताओं के वक्‍तव्‍यों का केंद्र-बिंदु बड़ी तेजी से बदल गया। मोदी सरकार के तीसरे बजट भाषण में सबसे प्रमुख शब्द ‘किसान’ था। इसके तुरंत बाद ही विमुद्रीकरण या नोटबंदी के कारण हुए व्‍यापक आत्मघाती-नुकसान से देश भर में बड़ी संख्‍या में लोग अपनी आजीविका गंवा बैठे और ऐसी स्थिति में यह मांग जोर पकड़ने लगी कि आर्थिक दृष्टि से कमजोर पड़ चुके लोगों को किसी न किसी रूप में सहायता अवश्‍य प्रदान की जाए।

वर्ष 2014 में यह मान लिया गया था कि तेजी से बढ़ता भारत एक ऐसे मध्यम वर्ग का निर्माण करेगा जो अधिक आत्मनिर्भर एवं आकांक्षी होगा; जो सरकार से मदद की गुहार नहीं लगाएगा और इसके बजाय सरकार से ऐसे उपायों की मांग करेगा जिनके सहारे वह स्‍वयं को समृद्धि की ओर ले जा सके। यह मोदी युग में संभव नहीं हो पाया है।

यह इसी का नतीजा है कि प्रारंभिक वर्षों में बुनियादी ढांचे और पूंजीगत व्यय पर विशेष जोर देने के बाद अब सीधे आय हस्तांतरण करने की नौबत आ गई है। वैसे तो राजमार्गों को इस सरकार की एक सफल गाथा माना जाता है, लेकिन फिर भी इस अंतरिम बजट में सड़क निर्माण पर परिव्यय केवल छह प्रतिशत ही बढ़ाया गया है। यही नहीं, डॉलर के लिहाज से तो रक्षा क्षेत्र को पिछले साल की तुलना में कम राशि ही मिलेगी। इस तरह से बचाया गया पैसा किसानों एवं पेंशन के साथ-साथ उन लोगों को कर छूट देने पर खर्च किया जाएगा जिसे मोदी ‘नव-मध्यम वर्ग’ कहते हैं।

इसे मोदी सरकार की विफलता के अलावा कुछ और मानना मुश्किल है। ऐसे अत्‍यंत महत्वपूर्ण वर्ष जिस दौरान कोई भी प्रणाली व्यक्तिगत समृद्धि में बढ़ोतरी सुनिश्चित करती है उन्‍हें गंवा दिया गया है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या अब बहुत देर हो चुकी है। लोकतंत्र में अर्थशास्त्र दरअसल उभरते राजनीतिक माहौल या धाराओं पर बड़ी तेजी से प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करता है। हाल के वर्षों में जाति-आधारित समूहों द्वारा आरक्षण के लिए दर्जनों आंदोलन किया जाना, मामूली समझी जाने वाली कुछेक सरकारी नौकरियों के लिए हजारों की संख्‍या में अति योग्य आवेदकों द्वारा आवेदन करना, ये सभी यही इंगित करते हैं कि भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था अब सरकार से सहायता मांगने के मोड में पूरी तरह से आ चुकी है।

राजकोषीय जवाबदेही के लिए चेतावनी संकेत बिल्‍कुल स्पष्ट हैं। ऐसे कई अन्य दबाव या खतरे भी हैं जो जल्द ही स्पष्ट हो जाएंगे। आखिरकार, आय हस्‍तांतरण क्‍या है?

ऐसे में यह सवाल भी जेहन में उभरता है कि उत्पादकता और आय में निरंतर वृद्धि के अभाव में क्‍या भारत यहां तक कि इन मांगों को भी पूरा करने में सक्षम साबित होगा जो ढांचागत सुधार से संभव हो सकता था। यूपीए का अभिनव कदम यह था कि उसने ‘बाजार आधारित उच्च विकास दर’ और ‘राजनीति आधारित कल्याण प्रतिमान’ का गठजोड़ कर दिया था। संशय के घेरे में आए जीडीपी के आंकड़े चाहे जो भी बयां करें, लेकिन अब न तो निवेश और न ही उत्पादकता इतनी पर्याप्‍त गति से बढ़ रही है जिससे कि उस ‘जन कल्याणकारी देश’ का निर्माण संभव हो सकता है जिसकी इच्‍छा समस्‍त दलों के राजनेता व्‍यक्‍त करते रहे हैं।

राजकोषीय जवाबदेही के लिए चेतावनी संकेत बिल्‍कुल स्पष्ट हैं। ऐसे कई अन्य दबाव या खतरे भी हैं जो जल्द ही स्पष्ट हो जाएंगे। आखिरकार, आय हस्‍तांतरण क्‍या है? दरअसल यह अमीरों द्वारा गरीब नागरिकों को किए जाने वाला आय हस्‍तांतरण है। यह तभी उचित होता है जब सामाजिक एकजुटता होती है। हालांकि, तेजी से विखंडित होते समाज को ‘आय हस्तांतरण करने वाले समाज या देश’ में तब्‍दील करना राजनीतिक दृष्टि से घातक है। ‘उत्पादक दक्षिण’ आखिरकार क्‍यों ‘अनुत्पादक उत्तर’ की मदद के लिए आगे आए?

भारत में अब एक ऐसी राजनीतिक अर्थव्यवस्था है, जो वर्ष 2014 की तुलना में अत्‍यंत निराशाजनक लक्षण दर्शा रही है। आंतरिक कारणों से नहीं, बल्कि वैश्विक संकट, कच्‍चे तेल की आसमान छूती कीमतों और पश्चिमी देशों में गैर-जिम्मेदाराना मौद्रिक नीति अपनाए जाने से बुरी तरह प्रभावित होने के बाद उस दौरान अर्थव्यवस्था फि‍र से तेज रफ्तार पकड़ने लगी थी। आज यह एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसके बारे में यह माना जाता है कि वह बहुत तेजी से विकास कर रही है, लेकिन उसके विकास के महज कुछ ही दीर्घकालिक स्रोत हैं। भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की पहेली या समस्‍या यह है कि मध्यम-आय उत्पादकता में आ रही सुस्‍ती के साथ ‘महान समाज’ कल्याण की अपेक्षाओं में उचित सामंजस्य स्‍थापित करना है। मोदी एक समय ‘कारोबार में आसानी’ की बातें कहा करते थे; वह अब ‘आसान जीवन’ की बातें कह रहे हैं। हालांकि, मोदी संभवत: यह भूल गए हैं कि ‘आसान जीवन’ केवल तभी संभव है जब ‘कारोबार में आसानी’ सही मायनों में सुनिश्चित हो जाए।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.