Author : Kanchan Gupta

Published on Nov 11, 2019 Updated 0 Hours ago

देश की सर्वोच्च अदालत के इस फ़ैसले के साथ अयोध्या के उस अध्याय का पटाक्षेप हो गया है, जिसकी शुररूआत बाबर के सेनापति मीर बाक़ी ने ग़ैर इस्लामिक ढांचे के ऊपर मस्जिद बनाकर की थी.

अयोध्या का फ़ैसला: वर्तमान अति सुंदर और भविष्य उज्जवल

रामायण हमें बताती है कि श्री राम को 14 साल के लिए वनवास पर भेज दिया गया था. ऐसा कर के श्री राम से वो मुकुट छीन लिया गया था, जिसपर उनका वाजिब हक़ बनता था. ये महाकाव्य हमें भगवान श्री राम के उन 14 वर्षों के वनवास की गाथा बताता है, जब उन्हें तरह-तरह की परीक्षाओं से गुज़रते हुए तमाम सुख-सुविधाओं से दूर वन में जीवन गुज़ारना पड़ा था. अपने वनवास के अंत में श्री राम ने राक्षस रावण का वध किया था. इसके बाद वो अयोध्या लौटे थे और उस गद्दी पर उनका राजतिलक हुआ था, जो साज़िश के तहत से उनसे छीन ली गई थी. ये सभी घटनाएं त्रेता युग में घटित हुई थीं.

और अब इस तस्वीर को फास्ट फॉरवर्ड कर के हम जब इस दौर में आते हैं, तो अयोध्या में हमें राम जन्मभूमि का बेहद विवादित इतिहास देखने को मिलता है. अयोध्या नगरी में जिस जगह पर श्री राम का जन्म हुआ था उस तीन एकड़ ज़मीन पर हिंदुओं के दावे को मुसलमान चुनौती देते रहे थे. इस विवादित ज़मीन को उसके असल मालिक यानी भगवान श्री राम को वापस पाने में क़रीब पाँच सौ बरस लग गए.

हिंदू, अयोध्या की ज़मीन के जिस टुकड़े को राम की जन्मभूमि मानते हैं, उस पर 1528 में मीर बाक़ी ने बाबरी मस्जिद बनवाई थी. मीर बाक़ी, मुगल आक्रमणकारी बाबर की सेना में एक सरदार था. 1528 में इस जगह पर मीर बाक़ी के मस्जिद बनवाने से लेकर 9 नवंबर 2019 को जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस की अगुवाई वाली पाँच जजों की संविधान पीठ ने ये ज़मीन श्री रामलला को वापस लौटाने का फ़ैसला सुनाया, तब तक अयोध्या नगरी ने धार्मिक उत्थान से लेकर सियासी सक्रियता के उतार-चढ़ाव के कई दौर देखे. इसका असर केवल हमारे समाज पर ही नहीं पड़ा, बल्कि राष्ट्रीय स्तर की राजनीति पर भी इसका असर देखने को मिला.

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने गुजरात के सोमनाथ में वो मंदिर बनवाने का विरोध किया था, जिसे लूटा गया, तोड़ा गया और छिन्न-भिन्न कर के वहां मस्जिद बना दी गई थी. पंडित नेहरू का तर्क था कि इससे हिंदुत्ववाद के उभार का मौक़ा मिलेगा. लेकिन, सरदार पटेल ने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के समर्थन की मदद से नेहरू के ऐतराज़ की अनदेखी कर के सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था. लेकिन, जब अयोध्या में भी मंदिर को दोबारा बनवाने की मांग उठी, तो इस बार सरदार पटेल नहीं थे और इस बार नेहरू की ही मर्ज़ी चली.

पहले तो बीजेपी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म किया और अब अयोध्या के विवाद का निपटारा हो गया. बीजेपी के कोर एजेंडे का तीसरा मुद्दा यानी सभी के लिए समान नागरिक संहिता या युनिफ़ॉर्म सिविल कोड पर अभी काम चल रहा है.

ये अजीब ही संयोग है कि जो नेहरू अयोध्या में मंदिर बनाए जाने के ख़िलाफ़ थे, उन्हीं के नाती राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए राम मंदिर का ताला खोला गया था. ये ताला, उस समय अयोध्या में मौजूद विवादित मस्जिद में रामलला की मूर्तियां रखी जाने (बाल राम के प्रकट होने) के बाद कोर्ट के आदेश पर यथास्थिति बनाए रखने के लिए लगाया गया था. लेकिन, राजीव गांधी के कार्यकाल में ये ताला खोल कर हिंदुओं को रामलला की पूजा करने की इजाज़त दे दी गई थी. उस समय की सुनी-अनसुनी कहानियों के मुताबिक़, फ़ैज़ाबाद की ज़िला अदालत ने केंद्र सरकार के निर्देश पर ही विवादित स्थल का ताला खोलने का आदेश जारी किया था.

ये बात 1986 की है. उस समय राजीव गांधी की सरकार सुप्रीम कोर्ट के शाहबानो मामले के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अध्यादेश लाने से नाराज़ हिंदू समुदाय को साधने की कोशिश कर रही थी. राजीव गांधी के क़रीबी दोस्त अरुण नेहरू उस वक़्त राजीव की सरकार में आंतरिक सुरक्षा के मंत्री थे. ऐसा माना जाता है कि अरुण नेहरू ने ही राजीव गांधी को अयोध्या कार्ड खेलने की सलाह दी थी, ताकि मुसलमानों के साथ हिंदुओं को भी साधा जा सके. बाद में राजीव गांधी ने 1989 के आम चुनाव के प्रचार अभियान की शुरुआत भी अयोध्या से ही की थी. हालांकि, उस चुनाव के नतीजे राजीव गांधी की उम्मीद के मुताबिक़ नहीं रहे थे.

विवादित जगह का ताला खुलने के साथ ही हिंदुओं के मन में राम जन्मभूमि को लेकर सदियों से दबी हुई नाराज़गी भी फट पड़ी. विश्व हिंदू परिषद ने राम जन्मभूमि का मुद्दा उठा कर आंदोलन छेड़ दिया. जैसे ही राम के नाम पर आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा, तो उस वक़्त बीजेपी के अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने 1989 में पालमपुर में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रस्ताव पेश किया और अयोध्या आंदोलन को अपनी पार्टी का प्रमुख सियासी मुद्दा बना लिया. इसके बाद आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा निकाली. ऐसा माना जाता है कि आडवाणी ने ये यात्रा वीपी सिंह की विभाजनकारी मंडल राजनीति की काट के लिए निकाली थी. यात्रा के दौरान ही लालकृष्ण आडवाणी को बिहार के समस्तीपुर में गिरफ़्तार कर लिया. इसका यात्रा का नतीजा ये हुआ कि हिंदुओं के उत्थान की ये राजनीति उग्र हिदुंत्व के उभार में तब्दील हो गई.

‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ एक ऐसा ख़याली पुलाव है, जहां सेक्यूरिज़्म के नाम पर एक ही समुदाय को लगातार रियायतें दी जाती रहती हैं और इस में कोई बदलाव नहीं आता. ऐसे आयडिया ऑफ़ इंडिया को आज ख़ारिज किए जाने की ज़रूरत है.

पी वी नरसिम्हाराव ने ये सोचा कि वो छल, प्रपंच, धोखा और कुछ न करने के साथ क़ानून को कुछ अलग तरह से लागू कर के इतिहास का रुख़ मोड़ लेंगे लेकिन, उनकी अक्रियता का नतीजा ये हुआ कि 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा ढहा दिया गया. तब से अयोध्या के राम लला प्लास्टिक के तिरपाल में रह रहे हैं. अब सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद वो विवादित ज़मीन रामलला को दे दी गई है.

विवादित ज़मीन किस की है, इस सरल से सवाल का फ़ैसला करने में हमारे देश की अदालतों ने इतना लंबा वक़्त लगा दिया. 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस मामले में एक फ़ैसला सुनाया था, जिसके तहत विवादित ज़मीन तो दो हिंदू पक्षों और एक मुस्लिम पक्ष मे बराबर बराबर बांट दिया गया था. अब इस में किसी को कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को मानने से इनकार कर दिया और इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी.

इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस दोषयुक्त फ़ैसले के क़रीब एक दशक बाद सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया है कि विवादित ज़मीन असल में श्री राम की है. अब सरकार एक ट्रस्ट बनाएगी, जो इस ज़मीन के इस्तेमाल करने के तौर-तरीक़े तय करेगी. साथ ही मुस्लिम पक्ष की नुमाइंदगी करने वाले सुन्नी सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए अलग से ज़मीन दी जाएगी. देश की सर्वोच्च अदालत के इस फ़ैसले के साथ अयोध्या के उस अध्याय का पटाक्षेप हो गया है, जिसकी शुरुआत बाबर के सेनापति मीर बाक़ी ने ग़ैर इस्लामिक ढांचे के ऊपर मस्जिद बनाकर की थी. भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण ने अपनी जांच में ये पाया था कि विवादित मस्जिद के नीचे पहले से एक ढांचा था, जो इस्लामिक नहीं था.

लेकिन, ये पूरी कहानी का केवल एक भाग है. इस कहानी के और भी पहलू हैं जिन पर टिप्पणी करने की ज़रूरत है.

पहली बात तो ये है कि बीजेपी अब ये दावा कर सकती है कि उसके कोर एजेंडे के तीन मुद्दों में से दो का हल निकाल लिया गया है. पहले तो बीजेपी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म किया और अब अयोध्या के विवाद का निपटारा हो गया. बीजेपी के कोर एजेंडे का तीसरा मुद्दा यानी सभी के लिए समान नागरिक संहिता या युनिफ़ॉर्म सिविल कोड पर अभी काम चल रहा है. अब अगर अगले कुछ महीनों में देश में समान नागरिक संहिता को लागू कर दिया जाता है, तो बीजेपी अपने कोर एजेंडे को पूरा कर लेगी. ऐसा होने पर बीजेपी के पास अस्तित्व की राजनीति के बजाय हाल के प्रासंगिक मुद्दों पर राजनीति करने का मौक़ा होगा. जैसे कि देश की अर्थव्यवस्था. हालांकि, जीत का ढोल बजाना तो ठीक नहीं होगा, लेकिन बीजेपी लोगों के बीच ये राय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी कि मज़बूत नेतृत्व और प्रचंड बहुमत की मदद से ही वादे पूरे किए जा सकते हैं. आने वाले समय में जो नीतियां लागू की जानी हैं, उनकी कमियों को अब ठीक किया जा सकेगा, क्योंकि बीजेपी ने अपने कोर एजेंडे के बड़े हिस्से को पूरा कर लिया है.

परिष्कृत लोकतंत्र वो होते हैं जो अपने इतिहास को छुपाते नहीं, बल्कि उनसे आँखें मिला कर बातें करते हैं, उनसे सबक़ लेते हैं, ताकि इतिहास के कड़वे सबक़ से न वर्तमान प्रभावित हो और न ही उसका असर भविष्य पर पड़े.

दूसरी बात ये है कि इस बार भी कांग्रेस के हाथ खाली रह गए हैं, जबकि राम जन्मभूमि को हमारे दौर में आज़ाद कराने के अभियान की शुरूआत उसी वक़्त हुई थी, जब कांग्रेस सत्ता में थी, और उसके पास विशाल बहुमत था. जैसे-जैसे कांग्रेस की सियासी ताक़त कम होती गई, बीजेपी की राजनीतिक शक्ति में तेज़ी से इज़ाफा होता गया. देश की राजनीति में जो जगह कभी कांग्रेस की हुआ करती थी, आज उस पर बीजेपी काबिज है और मौजूदा हालात ऐसे हैं कि शायद उसे वहां से हिलाया न जा सके.

तीसरी बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने संपत्ति के अधिकार को दोबारा स्थापित किया है. फिर चाहे वो कोई व्यक्ति हो या क़ानूनी प्रतिनिधि (जैसे कि इस मामले में श्री राम को माना गया). सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले से ये साफ़ कर दिया है कि संपत्ति का अधिकार हमारे संविधान के बुनियादी अधिकारों का अटूट हिस्सा है. संविधान से संपत्ति के अधिकार को बुनियादी अधिकार के दायरे से हटाना, इमरजेंसी के बाद जोड़-तोड़ से बनी विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों की बहुत बड़ी ग़लती थी. इसकी वजह से लोगों की स्वतंत्रता कम होती है. उनकी आज़ादी छिनती है. बीजेपी को चाहिए कि वो संपत्ति के अधिकार को दोबारा मूल अधिकारों में शामिल करने के बारे में गहराई से विचार करे. अगर संपत्ति का अधिकार दोबारा मूल अधिकार बनाया जाता है, तो अयोध्या जैसे विवाद अगर पूरी तरह ख़त्म नहीं भी हुए, तो इनकी तादाद काफ़ी कम हो जाएगी.

और, चौथी अहम बात ये है कि बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित किया जाने वाला, ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ एक ऐसा ख़याली पुलाव है, जहां सेक्यूरिज़्म के नाम पर एक ही समुदाय को लगातार रियायतें दी जाती रहती हैं और इस में कोई बदलाव नहीं आता. ऐसे आयडिया ऑफ़ इंडिया को आज ख़ारिज किए जाने की ज़रूरत है. ताकि इस ने हमारे देश की राजनीति और समाज को जो नुक़सान पहुंचाया है, उसे अब और आगे होने से रोका जा सके. जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से साफ़ है कि आस्था की न्यायिक पड़ताल नहीं की जा सकती. न ही किसी भी गणराज्य के लिए किसी धार्मिक आस्था का कोई मायने है. किसी भी सरकार को ऐसे काम करने चाहिए, जिनसे देश की ज़्यादा से ज़्यादा जनता का भला हो सके. और ऐसा करने के लिए उसे इस समुदाय या उस संप्रदाय को रिआयत देने से बचना चाहिए. क्योंकि ऐसे फ़ैसले कभी सफल नहीं होते. आज की तारीख़ में हमारे देश में ऐसे विचारों की कोई जगह नहीं है, जो हिंदू आस्था और विश्वास के सख़्त ख़िलाफ़ हों.

पांचवीं अहम बात ये है कि ख़ुद को गणराज्य घोषित करने के सात दशक बाद अब भारत को अपने इतिहास को स्वीकार कर लेना चाहिए. अब इतिहास को लीपपोत कर, रंग बुहार कर के पेश करने की कोई ज़रूरत नहीं रह गई है. जैसा कि लंबे समय से इस देश में विचारधारा के संरक्षण और राजनीतिक हौसले की मदद से होता आया है. इसका नतीजा वही हुआ है, जैसा कि एक विचारक ने अयोध्या आंदोलन के दौरान बख़ूबी कहा था, ‘अधूरा अतीत, तनावपूर्ण भविष्य’. हम इसी सिंड्रोम के शिकार रहे हैं. देश के कड़वे इतिहास को सोवियत संघ की तर्ज पर तोड़-मरोड़ कर पेश करने का नुस्ख़ा कारगर नहीं रहा है. ये नुस्ख़ा तो उस देश में भी काम नहीं आया, जहां इसे लागू किए जाने के बाद ये विचारधारा के साथ भारत में लाया गया था. लंबे समय से ये तर्क दिया जाता रहा है कि हुकूमतों को इतिहास लिखने के काम से ख़ुद को दूर कर लेना चाहिए. अब समय आ गया है कि भारत में सोवियत संघ के ज़माने के इतिहास लिखने के प्रोजेक्ट को बंद कर देना चाहिए. परिष्कृत लोकतंत्र वो होते हैं जो अपने इतिहास को छुपाते नहीं, बल्कि उनसे आँखें मिला कर बातें करते हैं, उनसे सबक़ लेते हैं, ताकि इतिहास के कड़वे सबक़ से न वर्तमान प्रभावित हो और न ही उसका असर भविष्य पर पड़े. वो बचकाने मुल्क होते हैं, जो अपने नागरिकों को घुट्टी में घोटकर इतिहास का सबक़ पिलाते हैं. जैसा कि पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से साबित हो चुका है.

और अंत में, सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को रामलला की ज़मीन के इस्तेमाल पर निगाह रखने के लिए एक ट्रस्ट बनाने को कहा है. वो ज़मीन जो अब अवैध क़ब्ज़े से मुक्त कर दी गई है. जिस पर अब कोई विवाद नहीं है. लेकिन ये ऐसा काम है जो असल में समाज को करना चाहिए. राज्य को किसी भी पूजा स्थल पर अधिकार करने का अधिकार नहीं है और न ही उसे ऐसा करना चाहिए. फिर चाहे वो ट्रस्ट के माध्यम से हो या किसी बोर्ड के ज़रिए. क्योंकि इससे भी अलग तरह की समस्याएं खड़ी होती हैं.

शनिवार के फ़ैसले के बाद अब समय आ गया है कि हम आगे बढ़ें. हमारा अतीत एकदम शानदार नहीं हो सकता है. न ही हमारा वर्तमान तनावों से मुक्त हो सकता है. अगर हम अपने अनसुलझे अतीत की ओर ही निगाह फेरते रहेंगे. अब भारत के लोगों की सबसे बड़ी चिंता हमारा भविष्य होना चाहिए. अयोध्या विवाद में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से हमें अब इसके अलावा कुछ और सोचने की ज़रूरत नहीं है. क्योंकि इस फ़ैसले ने बाबर और उसके सेनापति मीर बाक़ी की ग़लतियों को सुधार दिया है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.