Published on Nov 09, 2019 Updated 0 Hours ago

अयोध्या सिर्फ जमीन के मालिकाना हक का विवाद कभी नहीं रहा बल्कि यह दबदबे, इंसाफ, पहचान और इतिहास पर दावे का मामला था.

अयोध्या: राजनीति, कानून और तिकड़म

सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में अरसे से चले आ रहे ज़मीन के मालिकाना हक के विवाद पर फैसला सुना दिया है. कानून के लिहाज़ से शायद यह मामला खत्म हो गया है, लेकिन क्या राजनीति और राज-काज के लिहाज़ से भी इसकी प्रासंगिकता खत्म हो गई है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जिस तरह से नियंत्रित प्रतिक्रिया आई है, वह अपनी ही कहानी बयां कर रही है.

अयोध्या विवाद को अदालती प्रक्रिया के ज़रिये टालने के पीछे, नेताओं का मक़सद इस मुद्दे का गैर-राजनीतिकरण करना था. इसके लिए न्यायिक प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जा रहा था, जिससे एक राजनीतिक सवाल भी जुड़ा था और वैसे भी इस तिकड़म का इस्तेमाल देश के हालिया इतिहास में अक्सर किया जाता रहा है. खै़र, इस तरकीब के साथ दिक्कत यह है कि, इससे लंबे समय में देश के लोगों का संस्थानों पर भरोसा मजबूत करने का मक़सद और कोशिश दोनों ही कमज़ोर होता रहा है. अयोध्या कभी भी ज़मीन के मालिकाना हक़ का विवाद नहीं रहा है. यह दबदबे, जख्म़ों पर मरहम लगाने, पहचान और इतिहास से जुड़ा मसला था. असल में यह राजनीतिक मामला था और अदालतों के लिए अक्सर ऐसे मुद्दों पर फैसला लेना मुश्किल होता है.

अयोध्या विवाद को अदालती प्रक्रिया के ज़रिये टालने के पीछे, नेताओं का मक़सद इस मुद्दे का गैर-राजनीतिकरण करना था. इसके लिए न्यायिक प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जा रहा था, जिससे एक राजनीतिक सवाल भी जुड़ा था.

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की तह में न जाते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि इससे तीन चीज़ें स्पष्ट हैं. पहली, अदालत को उम्मीद है कि राजनीतिक तौर पर मुमकिन इस एकमात्र फैसले को लागू करने से देश की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद मज़बूत होगी और ‘धर्मनिरपेक्षता’ अपने आप में विवाद का विषय नहीं है. दूसरी, कोर्ट चाहता है कि ख़ास धार्मिक आस्थाओं या प्राचीन पुरातात्विक साक्ष्यों के संदर्भ के बग़ैर उसके फैसले को सही माना जाए, लेकिन इसके साथ ही उसने अतीत के साक्ष्यों और विवादित स्थल को प्रासंगिक भी माना है. तीसरी, सरकार की शांति और सौहार्द बनाए रखने की पारंपरिक सोच बरकरार रहे.

पहले पॉइंट पर अदालत के शब्द बिल्कुल स्पष्ट हैं. फैसले के दूसरे पार्ट और सेक्शन 795 को पूरा पढ़ा जाना चाहिए, लेकिन मैं यहां उसका एक छोटा सा हिस्सा दे रहा हूं, “कानून वह ज़मीन तैयार करता है, जिसका सिरा पकड़कर इतिहास, विचारधाराओं और धर्मों के बीच प्रतिस्पर्धा हो सकती है. हालांकि, उनकी सीमा तय करके अदालत को संतुलन बरकरार रखना होगा क्योंकि कानून पर आखि़री आवाज वही है. उसे यह पक्का करना होगा कि एक नागरिक की आस्था दूसरे से न टकराए या वह दूसरे की आज़ादी और आस्था को कुचलने न पाए.”

फैसला मौजूदा राजनीतिक माहौल के हिसाब से भी सही होना चाहिए, भले ही इसका इतिहास से बहुत या बिल्कुल लेना-देना न हो. दिलचस्प बात यह है कि शीर्ष अदालत के फैसले के इस हिस्से में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का ज़िक्र भी नहीं हुआ है.

भारतीय समाज के केंद्र में धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिहाज़ से यह सराहनीय पहल है, लेकिन दूसरी ओर सामान्य बात यह है कि फैसला मौजूदा राजनीतिक माहौल के हिसाब से भी सही होना चाहिए, भले ही इसका इतिहास से बहुत या बिल्कुल लेना-देना न हो. दिलचस्प बात यह है कि शीर्ष अदालत के फैसले के इस हिस्से में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का ज़िक्र भी नहीं हुआ है. हालांकि, इसके ज़रिये उन संवैधानिक मूल्यों पर ज़ोर दिया जा सकता था, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता और कानून की नज़र में सभी नागरिकों के एक बराबर होने की बात कही गई है.

दूसरी बात यह है कि क्या आगे चलकर इस फैसले को लेकर सवाल खड़े किए जाएंगे. अयोध्या मामले में आस्था के मुद्दे पर अदालत ने बात स्पष्ट कर दी है. उसने फैसले में लिखा है, “अयोध्या का मुकदमा अचल संपत्ति से जुड़ा है. कोर्ट आस्था के आधार पर नहीं बल्कि सबूतों के आधार पर फैसला करता है.” सच तो यह है कि इस मामले में सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर बहस के दौरान जिन ऐतिहासिक बातों का ज़िक्र हुआ, उस पर जजों ने कई सवाल पूछे. हालांकि, अंतिम फैसले में उसने इनमें से ज्य़ादातर को अप्रासंगिक माना. जहां तक सुप्रीम कोर्ट की बात है, उसने माना कि 1860 से पहले संबंधित जगह पर मुसलमानों के नमाज़ पढ़ने के साक्ष्य कमजोर हैं. संबंधित जगह पर हिंदुओं की पूजा का दावा कहीं मज़बूत रहा है. इस पहलू का तफ़सील से विश्लेषण करना इस लेख में संभव नहीं है. मिसाल के तौर पर यह सवाल कि रेवेन्यू और टैक्स रिकॉर्ड को यात्रियों द्वारा कही गई बातों से अधिक तरजीह क्यों दी गई, जबकि इन दोनों में से किसी को ज़मीन के मालिकाना हक का स्पष्ट सबूत नहीं माना जाना चाहिए. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि अदालत के फैसले के इस आधार पर सवाल खड़े किए जा सकते हैं. कोर्ट के फैसले में संबंधित ज़मीन के कथित ‘कंपोजिट’ नेचर को भी आधार बनाया गया है, लेकिन अदालत ने खुद कहा कि कम से कम 1856 से इसका बंटवारा हो गया था. अदालत को उम्मीद है कि इस फैसले से देश के संस्थानों के निष्पक्ष छवि मजबूत होगी, लेकिन यह सवाल भी बना रहेगा.

विजयी पक्ष को इस बात का फायदा मिला है कि उसने मुद्दे को हमेशा विवादित बनाए रखा. उसे कानूनी आधार पर भी इसका लाभ मिला है. उसने अतीत में जो विवाद खड़े किए थे, उसे उस जगह पर सक्रिय रूप से पूजा का संकेत माना गया.

तीसरा पॉइंट भी अहम है कि इस फैसले का राजनीतिक असर क्या होगा. शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के ज़मीन को तीन हिस्सों में बांटने को कानूनी तौर पर अवांछनीय करार देते हुए यह भी कहा कि राजनीतिक तौर पर इस पर अमल करना मुश्किल था. उसने कहा, “शांति और सौहार्द बनाए रखने के लिए लिहाज़ से भी हाई कोर्ट का फैसला सही नहीं लगता. ज़मीन के बंटवारे से दोनों में से किसी पक्ष का हित नहीं सधेगा या न ही इस फैसले से स्थायी शांति और सौहार्द स्थापित करने में मदद मिलेगी.” देश की सरकारें हर कीमत पर शांति बनाए रखना चाहती हैं, जो उसे इस मामले में अंग्रेजी राज से जोड़ता है. हालांकि, दिक्कत यह है कि यही बात आगे चलकर राजनीतिकरण की वजह बन सकती है, जिससे अदालत बचना चाहती है. इसी बहाने से न्यायपालिका को प्रभावित करने के आरोप लग सकते हैं. इस मामले में विजयी पक्ष को इस बात का फायदा मिला है कि उसने मुद्दे को हमेशा विवादित बनाए रखा. उसे कानूनी आधार पर भी इसका लाभ मिला है. उसने अतीत में जो विवाद खड़े किए थे, उसे उस जगह पर सक्रिय रूप से पूजा का संकेत माना गया. 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सख्त़ टिप्पणी की है, लेकिन आखि़र में उसने शांति और सौहार्द के लिए वैसी स्थिति को खतरनाक माना है. उसने साफ तौर पर कहा कि इस मसले के समाधान के उपाय करते वक्त उसे ऐसी बातों पर ग़ौर करना होगा.

ऐसा लगता है कि अयोध्या मामले के गैर-राजनीतिकरण की राजनीतिक वर्ग की कोशिशें सफल भी हुई हैं और नाकाम भी. देश के राजनीतिक हलकों में कुछ समय से माना जा रहा था कि राम मंदिर का निर्माण होकर रहेगा. इस लिहाज़ से देखें तो अब संवैधानिक सिद्धांतों के आधार पर इसके लिए सांस्थानिक समर्थन मिल गया है. इस मुद्दे के गैर-राजनीतिकरण के लिहाज़ से यह सफलता है. एक हद तक अब राजनीति अयोध्या से परे हो गई है. इसे भी सफ़लता की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है. इस विवाद को लेकर जो तल्ख़ी बनी हुई थी, वह ख़त्म हो गई है. ऐसे में पहचान का राजनीतिक सवाल अब नागरिकता और अन्य अधिकारों से जुड़ना चाहिए, लेकिन वह इस मामले में नाकाम रहा है. दोनों ही पक्ष इस फैसले को उस नई राजनीतिक सच्चाई के तौर पर देखेंगे, जिसमें आज हम सब जी रहे हैं.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.