Author : Ramanath Jha

Published on Dec 03, 2018 Updated 0 Hours ago

जवाबदेही और स्वायत्ता के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए भारत सरकार और प्रमुख संस्थानों के बीच चल रही रस्साकशी को खत्म करना क्यों जरुरी है?

अहम संस्थानों की स्वायत्तता के साथ-साथ पारदर्शिता और जवाबदेही भी अहम

अत्‍यंत अहम राष्ट्रीय सार्वजनिक संगठनों की संस्थागत स्वायत्तता का सवाल एक ऐसा विषय है जिसको लेकर इस देश में अक्‍सर बहस छिड़ जाती है। चूंकि ये संस्थान और उनके फैसले सार्वजनिक जीवन के साथ-साथ राष्ट्रीय स्‍तर पर गवर्नेंस के स्‍वरूप पर भी व्‍यापक प्रभाव डालते हैं, इसलिए उनके द्वारा निष्पक्ष ढंग से निर्णय लिए जाने पर बार-बार सवालिया निशान लगाए जाते हैं। हाल ही में विपक्षी दलों ने भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) के कामकाज पर सवाल उठाए हैं। ताजा विवाद भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) से जुड़ा है जिसने सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। इन सभी मामलों में भारत सरकार पर दखलंदाजी करने और इन संस्थानों को अपने काम‍काज में मिली स्वायत्तता समाप्‍त करने के प्रयास करने का आरोप लगाया गया है। हालांकि, इस तरह की विवादास्‍पद स्थिति कोई हाल की उपज नहीं है क्‍योंकि अतीत में भी संस्थागत स्वायत्तता के संबंध में गैर-वाजिब कदम उठाए जाने के कारण हर सरकार की कड़ी निंदा हर विपक्षी दल द्वारा की गई है।

अगस्त 2013 में सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विरोध जताते हुए कहा था कि उसे ‘विभिन्न मंजूरियों के लिए मंत्रालय से संपर्क करना है… जो नौकरशाही के स्तर पर लंबित हैं… इससे सीबीआई की कुशल कार्यप्रणाली प्रभावित हो रही है।’ सीबीआई ने मांग की कि उसके निदेशक का दर्जा बढ़ाकर सचिव के स्तर का कर दिया जाए। बाद में एक जनहित याचिका (पीआईएल) के जरिए इसे आवश्‍यक संबल प्रदान किया गया। पीआईएल में यह आरोप लगाते हुए भारत सरकार पर करारा प्रहार किया गया कि वह सीबीआई पर अपना नियंत्रण छोड़ने को तैयार नहीं है। इसमें यह दलील दी गई कि सीबीआई को अनावश्यक रूप से मंत्री और सचिव दोनों ही के दोहरे नियंत्रण में डाल दिया गया है जिससे उसका कामकाज प्रभावित होता रहा है। उधर, केंद्र सरकार ने अपने हलफनामे में सीबीआई के सभी महत्वपूर्ण सुझावों को खारिज कर दिया। हलफनामे में जांच कार्य को निष्पादन से अलग रखने के न्यायिक सिद्धांत की दुहाई दी गई। हलफनामे में कहा गया कि सचिव स्तर के एक अधिकारी के रूप में सीबीआई के निदेशक विभिन्‍न मामलों के लिए सार्वजनिक अभियोजकों या सरकारी वकीलों की नियुक्ति करने में सक्षम होंगे, जो वांछनीय नहीं है। केंद्र सरकार ने ठीक इसी आधार पर इस प्रस्ताव को भी सिरे से खारिज कर दिया कि सीबीआई को विधि एवं न्याय मंत्रालय के अनुमोदन के बिना ही विशेष वकीलों को नियुक्त‍ करने का अधिकार दे दिया जाए।

ऊपर उद्धृत घटनाक्रमों एवं प्रतिक्रियाओं की संक्षिप्त प्रस्तुति से यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि संस्थान स्‍वयं को मिली स्वायत्तता के वर्तमान स्तर से सदैव असंतुष्ट रहते हैं और वे अपने कामकाज में ज्‍यादा खुली छूट पाने के लिए निरंतर कोई न कोई युक्ति‍ ईजाद करते रहते हैं।

कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने यह स्पष्ट नजरिया अपनाया कि सचिव का दर्जा प्रदान करना ‘लोकतांत्रिक संवैधानिक सिद्धांतों के प्रतिकूल’ होगा। इसे बिल्‍कुल उचित बताया गया कि जांच एजेंसियां ‘कार्यपालिका की प्रशासनिक देख-रेख’ में ही काम करें। तत्कालीन मंत्री (डीओपीटी) ने एक सम्मेलन में यही नजरिया एक बार फि‍र पेश करते हुए विशेष जोर दिया कि ‘केवल एक ही कार्यपालिका का होना बिल्‍कुल लाजिमी है’ और तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इस बात पर सहमति जताई कि ‘नीति निर्धारण’ के बारे में ‘कोई पुलिस एजेंसी फैसला सुनाए’, यह कतई उचित नहीं है। सीबीआई से जुड़े मौजूदा विवादों को ‘पिंजरे में बंद तोते’ के पूर्ववर्ती दिनों की एक विस्‍तारित कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।

मौजूदा समय में जिस अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण संगठन पर सभी लोगों ने अपनी नजरें जमा दी हैं वह भारतीय रिजर्व बैंक है। भारतीय रिजर्व बैंक और भारत सरकार के बीच निरंतर जारी मतभेदों के कारण ही ऐसी नौबत आई है। आरबीआई की उधार संबंधी पाबंदियों एवं एनबीएफसी (गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों) के लिए अधिक तरलता (लिक्विडिटी) और इस बारे में सरकार की राय सहित कई मुद्दों ने सभी लोगों को हैरत में डाल दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक के एक अत्‍यंत वरिष्ठ पदाधिकारी ने सार्वजनिक रूप से आगाह करते हुए कहा है कि अगर आरबीआई की स्वायत्तता कम कर दी गई तो उसके विनाशकारी नतीजे सामने आएंगे। उन्‍होंने कहा, ‘ कई कारणों से किसी भी सरकार का निर्णय लेने संबंधी दायरा या इसकी गुंजाइश टी-20 मैच (क्रिकेट मैच से तुलनात्‍मक बानगी पेश करते हुए) की निर्धारित समयावधि की ही तरह कम हो जाती है … हमेशा किसी न किसी तरह के सियासी चुनाव जैसे कि राष्ट्रीय, राज्य स्‍तरीय, मध्यावधि चुनाव, इत्‍यादि होते ही रहते हैं। इसके ठीक विपरीत कोई भी केंद्रीय बैंक टेस्ट मैच खेलता है और प्रत्येक सत्र को जीतने की कोशिश करता है, लेकिन एक अहम बात यह भी है कि वह अपना वजूद बनाए रखता है, ताकि अगले सत्र को जीतने का मौका मिले और इस तरह से यह सिलसिला चलता रहता है।’ उन्‍होंने पूर्वानुमान व्‍यक्‍त करते हुए कहा, ‘जो सरकारें केंद्रीय बैंक की आजादी या स्‍वायत्‍तता का सम्मान नहीं करती हैं उन्‍हें देर-सवेर वित्तीय बाजारों के प्रकोप झेलने पड़ेंगे, आर्थिक विपत्ति का सामना करना पड़ेगा और वे उस पल को कोसेंगी जिस क्षण उन्‍होंने किसी महत्वपूर्ण नियामक संस्थान को कमजोर बना दिया था; वहीं दूसरी ओर केंद्रीय बैंक की आजादी की कद्र करने वाली उनकी बुद्धिमान समकक्ष सरकारें सस्‍ते कर्जों का लुत्‍फ उठाएंगी, उन्‍हें अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का स्‍नेह मिलेगा, और उनका कार्यकाल अपेक्षाकृत ज्‍यादा लंबा रहेगा।’

उधर, सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक को आड़े हाथों लेते हुए यह याद दिलाया कि जब बैंकों ने ‘अर्थव्यवस्था को कृत्रिम रूप से दुरुस्‍त बनाए रखने के लिए अंधाधुंध ढंग से’ ऋण बांटे थे, तो कैसे उसने ‘जानबूझकर इस गलत चलन की अनदेखी’ की थी। सरकार का कहना है कि केंद्रीय बैंक वर्ष 2008 से लेकर वर्ष 2014 तक की अवधि के दौरान डूबत ऋणों का पहाड़ खड़ा होने की जि‍म्मेदारी से अपना मुंह नहीं मोड़ सकता है। हालांकि, सरकार ने यह भी कहा, ‘आरबीआई अधिनियम की रूपरेखा के अंतर्गत केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता एक आवश्यक और स्वीकार्य गवर्नेंस अनिवार्यता है। भारत में विभिन्‍न सरकारों ने सदैव इसे ध्‍यान में रखा है और इसका सम्मान किया है।’ वित्त मंत्रालय के प्रेस नोट में यह भी कहा गया, ‘सरकार और केंद्रीय बैंक दोनों को ही अपने कामकाज में जन हित एवं भारतीय अर्थव्यवस्था की जरूरतों को सदैव ध्‍यान में रखना चाहिए। इस प्रयोजन के लिए समय-समय पर सरकार और आरबीआई के बीच कई मुद्दों पर व्यापक सलाह-मशविरा या परामर्श होते रहते हैं।’ वित्त मंत्रालय ने यह भी कहा, ‘भारत सरकार ने इस तरह के परामर्शों के दौरान चर्चा किए गए विषयों या मुद्दों को कभी भी सार्वजनिक नहीं किया है। केवल इस दौरान लिए जाने वाले अंतिम निर्णयों के बारे में सूचित किया जाता है। सरकार इन परामर्शों के माध्यम से विभिन्‍न मुद्दों पर अपना आकलन पेश करती है और संभावित समाधान सुझाती है। सरकार आगे भी यह सिलसिला जारी रखेगी।’

इन चर्चाओं के दौरान जवाबदेही का मसला भी उठाया गया। इस संबंध में कई बयान दिए गए जैसे कि ‘निर्वाचित सरकार का दायित्व ही सर्वोच्च या सबसे अहम होता है’। वैसे तो संस्थागत स्वायत्तता का सम्मान करने की बात कही गई, लेकिन इसके साथ ही यह भी जोड़ा गया, ‘सभी संस्थानों को इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मिलकर काम करना होगा। यही विभिन्न विभागों और संस्थानों के बीच निर्धारित रिश्‍ता है … सभी संस्थानों को समग्र गवर्नेंस के उद्देश्य को एकीकृत करना चाहिए।’

सीबीआई और आरबीआई जैसे संगठनों की संस्थागत स्वायत्तता के बारे में अब भी बहुत कुछ कहना बाकी है। इच्छुक पक्षों के प्रभाव के बिना ही जांच कार्य और मौद्रिक नीति दोनों ही निष्पक्षता से अवश्‍य जारी रहने चाहिए।

वहीं, दूसरी ओर सरकार निरंकुश संस्थागत स्वायत्तता को लेकर हमेशा चौकन्‍नी रहती है। दरअसल, इस तरह की स्थिति में सरकारें इन संस्थानों के मुकाबले पूरी तरह से निष्प्रभावी हो सकती हैं। यही कारण है कि सरकारें चाहती हैं कि ये संस्‍थान भले ही पूरी तरह से सरकार- अनुरूप न हों, लेकिन काफी हद तक उनके अनुगामी अवश्‍य बने रहें। दरअसल, ऐसे में सत्ता संघर्ष शुरू हो जाता है।

उदाहरण के लिए, यह मानना नितांत आवश्यक है कि केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता मूल्य के साथ-साथ वित्तीय क्षेत्र में भी स्थिरता को बढ़ावा देती है जो सतत आर्थिक विकास के लिए अत्‍यंत जरूरी है। इसके साथ ही यह मान लेना भी उतना ही जरूरी है कि सीबीआई के कामकाज में स्वायत्तता गुणवत्तापूर्ण जांच और बड़े अपराधों की रोकथाम के लिए अपरिहार्य है। हालांकि, सार्वजनिक संस्थानों द्वारा इस देश के लोगों को उपलब्ध कराए जा रहे गवर्नेंस की गुणवत्ता नागरिकों के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह केवल संस्थागत स्वायत्तता पर ही अपनी निगाहें जमाने से हासिल नहीं होगा। सुशासन के सिद्धांत के साथ-साथ इसे व्यवहार में लाने के लिए स्वायत्तता को अवश्‍य ही पारदर्शिता और जवाबदेही से संतुलित किया जाना चाहिए। सत्ता में अंतर्निहित भ्रष्टाचार को ध्‍यान में रखते हुए सत्‍ता प्राप्‍त लोगों या संस्‍थानों पर अंधविश्वास नहीं किया जा सकता है। अत: किसी भी संस्थान को जितनी अधिक स्वायत्तता दी जाए उतनी ही अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही भी उसमें होना अत्‍यंत आवश्यक है। यह अब मुश्किल भी नहीं है क्योंकि उत्‍कृष्‍ट प्रौद्योगिकी की बदौलत इच्छुक संगठन अत्‍यधिक पारदर्शिता सुनिश्चित कर सकते हैं। इससे ऐसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में सहायता मिलेगी जिसके जरिए संस्थानों और उनके पदाधिकारियों को उन्‍हें सौंपे गए कार्यों के प्रति जवाबदेह बनाया जा सकता है।

दुर्भाग्यवश, इन विषयों पर बहुत कम चर्चाएं होती हैं कि ये संस्थान कितने पारदर्शी हैं और वे कितने जवाबदेह रहे हैं। वैसे तो इन संगठनों को सौंपी गई जिम्‍मेदारियां बड़ी संवेदनशील हैं और उनके द्वारा लिए जाने वाले कुछ गोपनीय निर्णयों को जगजाहिर नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसके बावजूद निश्चित रूप से ढेर सारी जानकारियों को साझा करने की आवश्यकता है। चाहे जो भी हो, पारदर्शिता के मामले में इनका रिकॉर्ड अपेक्षा के अनुरूप प्रतीत नहीं होता है एवं जवाबदेही के मामले में तो इनका रिकॉर्ड और भी निराशाजनक है। ऐसे में, उदाहरण के लिए, यह पता लगाना फायदेमंद होगा कि केंद्रीय बैंक कितना पारदर्शी है और वह आम जनता एवं बाजारों को अपनी रणनीति, आकलन और नीतिगत निर्णयों के साथ-साथ अपनी प्रक्रियाओं के बारे में जिस प्रकार की जानकारियां प्रदान करता है उस मामले में वह कितना पारदर्शी है। इसके साथ ही यह पता लगाना भी आवश्‍यक है कि उसके द्वारा दी जाने वाली जानकारियां कितनी खुली, स्पष्ट और सामयिक रहती हैं। इसी तरह सीबीआई के मामले में भी यह सब पता लगाया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, जिस तरह से ‘कारोबार में सुगमता’ के मोर्चे पर विभिन्‍न राष्ट्रों की तुलना की जाती है, ठीक उसी तरह से अन्य लोकतांत्रिक देशों के केंद्रीय बैंकों और समकक्ष जांच एजेंसियों के साथ आपस में इसी तरह से तुलना या विश्लेषण करना नितांत उपयुक्त होगा।

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