Author : Sushant Sareen

Published on Nov 29, 2019 Updated 0 Hours ago

पिछले कई महीनों से पाकिस्तानी सत्ता-गलियारे में यह हवा गरम थी कि ‘कुछ’ होने वाला है. यह अफवाह जनरल बाजवा को तीन साल के सेवा-विस्तार देने के इमरान सरकार के फैसले से पैदा हुई थी.

वहां फौज में सब कुछ ठीक नहीं

पाकिस्तान की एक दिलचस्प हकीकत है. वहां अफवाहें नहीं होतीं. जिसे लोग अफवाह समझते हैं, वह असल में ‘अधपका तथ्य’ होता है. यानी, वह ऐसा सच होता है, जो समय से पहले पक रहा होता है. अगर वह पक गया, तो सबके सामने जाहिर हो जाता है, और नहीं पका, तो कहीं दब जाता है. चूंकि बातें तैर रही होती हैं, इसलिए माना यही जाता है कि कुछ-न-कुछ हो जरूर रहा है. सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा (गुरुवार-शुक्रवार की रात उनका कार्यकाल खत्म हो रहा था) का प्रकरण भी कुछ ऐसा ही है. पर तमाम विवादों के बाद अंतत: उन्हें छह महीने का सेवा-विस्तार मिल ही गया.

पिछले कई महीनों से पाकिस्तानी सत्ता-गलियारे में यह हवा गरम थी कि ‘कुछ’ होने वाला है. यह अफवाह जनरल बाजवा को तीन साल के सेवा-विस्तार देने के इमरान सरकार के फैसले से पैदा हुई थी. आनन-फानन में लिए गए इस निर्णय का ठीकरा फोड़ा गया उप-महाद्वीप के ‘नाजुक हालात’ पर. कहा गया कि हालात को देखते हुए उनकी सेवा का विस्तार जरूरी है. मगर माना यही गया कि दबाव में आकर हुकूमत ने यह किया है. कहा यह भी जा रहा था कि चूंकि जनरल बाजवा ने ही तहरीक-ए-इंसाफ प्रमुख को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाया है, इसलिए इमरान के वजीर-ए-आजम बने रहने के लिए उनका भी पद पर बने रहना जरूरी है. एक तर्क यह भी दिया जाता है कि बाजवा तो सेवा-विस्तार के पक्ष में नहीं थे, पर इमरान अपने हित में ऐसा करना चाहते हैं.

इमरान सरकार के फैसले की वजह चाहे जो भी रही हो, लेकिन इसे अच्छी निगाह से नहीं देखा गया. सार्वजनिक तौर पर भले ही कोई आवाज नहीं उठी, लेकिन फौज के अंदरखाने में इसके खिलाफ खिचड़ी जरूर पकने लगी थी. इसी सूरतेहाल में मौलाना फजलुर रहमान की हुकूमत के खिलाफ ‘आजादी मार्च’ मुहिम शुरू हुई, जिसे सेना प्रमुख की आपत्ति के बाद भी निकाला गया. जाहिर है, किसी की मदद और इशारे के बिना मौलाना इतना बड़ा कदम नहीं उठा सकते थे. ‘कुछ होने’ की चर्चा को तब और बल मिला, जब आंदोलन खत्म करते हुए उन्होंने विश्वास जताया कि दिसंबर-जनवरी में मुल्क की हुकूमत बदल जाएगी. तब यही माना गया कि इमरान खान तो बहाना हैं, असल निशाना बाजवा हैं. कहा गया कि कुछ फौजी अधिकारियों ने यह पूरा षड्यंत्र रचा है, ताकि बाजवा को उनके पद से हटाया जा सके.

पिछले तीन दिनों से पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने जनरल बाजवा को लेकर जो टिप्पणियां कीं, उसके मूल में भी ऐसी ही कुछ चालबाजियां हैं. बाजवा के खिलाफ उस शख्स ने याचिका दायर की थी, जो आदतन ऐसा करते रहते हैं. इससे पहले भी बाजवा के अहमदी होने और उन्हें पद से बर्खास्त करने को लेकर अदालत में एक याचिका लगाई गई थी, लेकिन दो दिनों के बाद ही उसे वापस ले लिया गया. इस वजह से नई याचिका को भी ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई. मगर इस दफा सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ उस याचिका को स्वीकार कर लिया, बल्कि उस पर सुनवाई भी शुरू कर दी. अपनी सुनवाई में अदालत ने कुछ बुनियादी सवाल उठाए, जिनमें कुछ कानूनी थे, कुछ सांविधानिक, कुछ कार्रवाई से जुड़े, तो कुछ फौजी-कायदों से. अदालत ने अपनी नाराजगी जताते हुए साफ-साफ पूछा कि अब तक (आजादी के बाद से) तो मुल्क के हालात कमोबेश ऐसे ही रहे हैं, तो क्या महज बिगड़े हालात की वजह से सेना अध्यक्ष को सेवा-विस्तार दिया जाना चाहिए? हालात अगर इतने खराब हैं, तो क्या गारंटी है कि अगले तीन वर्षों में ये ठीक हो जाएंगे? अगर पहले ठीक हो गए, तो क्या जनरल बाजवा पद छोड़ेंगे, या तीन वर्षों के बाद भी बिगड़े रहे, तो उन्हें फिर से सेवा-विस्तार दिया जाएगा? और सबसे अहम कि क्या फौज नामक हमारी संस्था इतनी कमजोर है कि महज एक शख्स की विदाई से वह टूट जाएगी? हालांकि सुप्रीम कोर्ट से आई तल्ख टिप्पणियों की वजह हुकूमत की बेवकूफियां भी हैं. पहले उसने बाजवा के सेवा-विस्तार से जुड़ी विज्ञप्ति जारी की, लेकिन बाद में उनकी दोबारा नियुक्ति की बात कहने लगी. इससे स्पष्ट तौर पर हुकूमत की काफी किरकिरी हुई.

साफ है, अदालत के कंधे का इस्तेमाल करके जनरल बाजवा को निशाना बनाने की कोशिश की गई. परदे के पीछे इसे फौजी विद्रोह की आहट बताया जा रहा है. वैसे, अदालत का इस्तेमाल करने का यह तरीका वहां सामान्य है. नवाज शरीफ और यूसुफ रजा गिलानी जैसे वजीर-ए-आजम को भी इसी तरीके से सत्ता से बाहर किया गया था. माना यही जाता है कि ‘डीप स्टेट’ (उन फौजी अधिकारियों का अघोषित समूह, जो मुल्क के नीति-निर्माण में दबदबा रखते हैं) इस तरीके का इस्तेमाल करके सियासतदानों पर नकेल कसता है. शीर्ष अदालत बेशक खुद को एक खुदमुख्तार स्तंभ बताती है, पर जानकारों की नजर में वह डीप स्टेट के इशारे पर ही काम करती है. फौज के खिलाफ वह अमूमन नहीं जाती. बाजवा प्रकरण पहला मामला है, जिसमें उसने किसी पदासीन सेना अध्यक्ष के खिलाफ सख्त रुख अपनाया है. यह भी डीप स्टेट के इशारे के बिना नहीं हो सकता.

बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम से कई सवाल पैदा हुए हैं, जिनसे आने वाले दिनों में वहां के नीति-नियंताओं को जूझना होगा. पाकिस्तान में पहले भी फौजी बगावतें हुई हैं, लेकिन पद पर मौजूद सेना अध्यक्ष के खिलाफ किसी षड्यंत्र का यह पहला मौका है. निश्चय ही इससे सेना अध्यक्ष के रूप में जनरल बाजवा के रुतबे पर असर पड़ेगा. फौजी अधिकारियों के आपसी विश्वास भी इससे खासे प्रभावित हुए हैं. आने वाले दिनों में वे एक-दूसरे पर कितना भरोसा कर पाएंगे, यह देखने वाली बात होगी. इस प्रकरण ने फौज और हुकूमत के आपसी रिश्तों पर भी संदेह बढ़ा दिया है. पाकिस्तान में पहले ‘माइनस वन’ की बातें होती थीं, पर जो जनरल बाजवा के साथ किया गया है, अब ‘माइनस टू’ हो सकता है, यानी बाजवा की स्थिति तो डांवांडोल होगी ही, इमरान सरकार की सेहत भी खराब हो सकती है.


ये लेख मूल रूप से LIVE हिंदुस्तान में छपी थी.

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