Author : Sunjoy Joshi

Published on Dec 23, 2020 Updated 0 Hours ago

प्रजातंत्र में संवाद का होना बहुत ज़रुरी होता है और सभी स्टेकहोल्डर से संवाद होना चाहिए.

कृषि क़ानून: सरकार और किसान के सामने कौन से विकल्प

कड़ाके की ठंड और गहरे धुंध के बावजूद किसानों ने अपना आंदोलन लगभग 1 महीने से जारी रखा है. कहा जा रहा है कि यह मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती बन सकती है. अगर सरकार अपने कदम पीछे खींचती है तो यह मोदी सरकार के हार के तौर पर देखा जाएगा जो एक मज़बूत सरकार की छवि के लिए अच्छा नहीं होगा. दूसरी तरफ किसान डटे हुए हैं. इससे कई प्रश्न खड़े हो रहे हैं. कोविड-19 के बाद के दौर में जो अर्थव्यवस्था में सुधार आना चाहिए था उसको भी झटका पहुंच रहा है. ऐसे में कई सवाल उभर कर के सामने आते हैं कि किसान और सरकार के बीच में क्या विकल्प है? अगर स्टेट लिस्ट में कृषि क़ानून आता है तो क्या वह संघीय ढांचा को कमजोर करता है? और मौज़ूदा रूप में अगर यह क़ानून लागू हो गया तो क्या नुक़सान हो सकता है?

नग़मा सहर: नोबेल प्राइज़ विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी का कहना है कि इस क़ानून में कंटेंट प्रमुख समस्या नहीं है. समस्या यह है कि विश्वास की बहुत कमी है. और सब यह मानते हैं कि कृषि की 3 फ़ीसदी से भी कम विकास दर है उससे उबरना बहुत ज़रुरी है, लेकिन यह रास्ता नहीं हो सकता. तो यह मामला कैसे आगे और बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है?

संजय जोशी: कृषि में सुधार एक तरह से ओखली में सिर डालने के जैसा है. यह बड़े हिम्मत का कार्य है. दोनों तरफ से राजनीतिकरण हो रहा है. आज सरकार भी मानती है कि क़ानून में कहीं ना कहीं समस्याएं तो है. इसलिए इसे नज़दीक से देखना बहुत ज़रुरी हो जाता है. इस एक्ट के माध्यम से सबसे पहले सरकार के तरफ से यह कहा जा रहा है कि किसान को अपनी फ़सल बेचने की खुली छूट मिल जाएगी. पर पहले भी किसान को इस तरह की छूट थी. हां, बंधन था तो ट्रेडर्स के ऊपर.

यदि हम इसे नज़दीक से देखें तो यह पाते हैं कि सरकार कहीं भी नहीं कह रही है कि एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) व्यवस्था हट जाएगी. यह सिर्फ़ एक अंदेशा है. इसका कारण यह है कि राज्यों के अधिकार क्षेत्र से टैक्सेशन को खींच लिया है. यह साफ कहा गया है कि मंडी के बाहर के एरिया में खुली छूट है. कोई भी ट्रेड कर सकता है. सरकार उस पर किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगा सकती. इससे ऐसा अंदेशा होता है कि अगर ऐसा होने लगेगा तो मंडियों का तो अंत हो जाएगा उसका कोई भविष्य नहीं बचेगा और किस तरह से केंद्र और राज्य सरकार के बीच इस वैकल्पिक व्यवस्था का रेगुलेशन किया जाएगा? इतनी सारी ख़ामियाँ इसलिए है क्योंकि कुछ चीजें केंद्र सूची में है और कुछ चीजें राज्य सूची में है और इसको नेविगेट करते-करते कई सारे समस्याएं कृषि क़ानून को बनाने में उभरकर सामने आए हैं. जिसकी वजह से इसमें विरोधाभास पैदा हो गया है.

इतनी सारी ख़ामियाँ इसलिए है क्योंकि कुछ चीजें केंद्र सूची में है और कुछ चीजें राज्य सूची में है और इसको नेविगेट करते-करते कई सारे समस्याएं कृषि क़ानून को बनाने में उभरकर सामने आए हैं. जिसकी वजह से इसमें विरोधाभास पैदा हो गया है. 

नग़मा सहर: इसके ज़रिए राज्य सरकारें जो कर वसूलते थे उसको भी केंद्र सरकार ने ले लिया है. यह सिर्फ़ किसानों के बारे में नहीं है, इससे राज्यों के राजस्व का घाटा भी नज़र आता है. पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में जहां औसतन क्रमशः पैंतीस सौ करोड़ और सोलह सौ करोड़ कर इकट्ठा होता था, उस पर भी एक तरह से बड़ा ख़तरा नज़र  रहा है.

संजय जोशी: जब से जीएसटी आया है तब से टैक्सेशन का मुद्दा केंद्र और राज्य सरकारों के बीच में और बढ़ गया है. कई सारे टैक्सेशन के अधिकारों को केंद्र सरकार अपने हाथों में लेते चला जा रहा है. अगर राज्यों के टैक्सेशन के अधिकार कम होते हैं तो उससे राज्यों के वर्चस्व कम होता है. ऐसे में यह प्रश्न उठना लाज़मी है कि भारत के संघीय ढांचे का भविष्य क्या होगा, लेकिन इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि भारत में जो रिफ़ॉर्म होने हैं उसमें राज्यों की क्या भूमिका होगा. क्या राज्यों के परामर्श से रिफ़ॉर्म होंगे या केंद्र अपने आप निश्चित करेगा. एक बड़ा मुद्दा विश्वास का भी आ गया है. क्या केंद्र और राज्य सरकारों को एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी बन कर काम करना है या साथ मिलकर. अगर एक दूसरे के प्रतिबंध ही बन कर काम करेंगे तो वास्तव में रिफ़ॉर्म नहीं हो पाएंगे. इसलिए सबसे पहले केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के मूलभूत मुद्दों को का समाधान करना अति आवश्यक हो जाता है. इस प्रकार

अगर राज्यों के टैक्सेशन के अधिकार कम होते हैं तो उससे राज्यों के वर्चस्व कम होता है. ऐसे में यह प्रश्न उठना लाज़मी है कि भारत के संघीय ढांचे का भविष्य क्या होगा, लेकिन इससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि भारत में जो रिफ़ॉर्म होने हैं उसमें राज्यों की क्या भूमिका होगा.

नग़मा सहर: 2015 में शारदा कुमार कमेटी के मुताबिक भारत में सिर्फ़ 6% किसान ही एमएसपी का फ़ायदा उठा पा रहे थे. दूसरी फ़सलों पर जो इस क़ानून के दायरे में नहीं थे उन पर क्या असर पड़ेगा?

संजय जोशी: एमएसपी व्यवस्था में सुधार की आगे भी बहुत ज़रुरत है. इसके अलावा अन्य दूसरे फ़सलों पर भी यदि एमएसपी सिस्टम लागू नहीं होता तो यह भारतीय कृषि का एक बहुत बड़ा नुक़सान होगा. आज बात यह हो रही है कि एमएसपी को मिनिमम गारंटी प्राइस कर दिया जाए. यह बात स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ भी कह रहा है. वास्तव में इस पूरे वाद-विवाद में रिफ़ॉर्म का मुद्दा पटरी से उतरता जा रहा है. वास्तव में एमएसपी का उद्देश्य स्टेबलाइजेशन प्राइस होनी चाहिए. इसका उद्देश्य कभी यह नहीं होना चाहिए कि सरकार गारंटी प्रोक्योरमेंट करें. सरकार को मार्केट स्टेबलाइजेशन करनी चाहिए. यदि सभी फ़सलों के लिए मार्केट स्टेबलाइजेशन मैकेनिज्म बनता है तो उस प्रकार की व्यवस्थाओं के बारे में सरकार को ज़रुर सोचना चाहिए कि कैसे उनका इंप्लीमेंटेशन होगा.. किस तरह से इसकी फंडिंग होगी..? वास्तव में राज्यों के सपोर्ट के बिना भारत जैसे देश में इसका इंप्लीमेंटेशन हो ही नहीं सकता. इसलिए केंद्र सरकार को राज्यों के साथ मिलकर एमएसपी व्यवस्था में सुधार लाने की ज़रुरत है. एमएसपी व्यवस्था को गारंटी प्राइस नहीं करना है क्योंकि यह एक जायज़ डिमांड नहीं है और यह कर पाना सरकार के लिए संभव ही नहीं है.

प्रोक्योरमेंट के लिए कई सारे और विकल्प है- चाहे कारपोरेट आए, चाहे छोटे व्यापारी आए कंपटीशन होना चाहिए और उस कंपटीशन में मंडी की भी भागीदारी हो. 

नग़मा सहर: इस बिल में छोटे किसानों को लग रहा है कि उनके साथ शोषण हो रहा है. क्या इसे फ्री ट्रेड हो जाना चाहिए?

संजय जोशी: क़ानून कोई जादू की छड़ी नहीं है कि आपने पार्लियामेंट में क़ानून पारित कर दिया तो भारतीय कृषि का कायापलट हो जाएगा. यही स्थिति आज इन तीन क़ानूनों की है. यह तीन क़ानून बहुत अच्छे हैं या बुरे हैं इनसे सिर्फ़ भारतीय कृषि का कायापलट नहीं हो सकता है. भारतीय कृषि में यदि परिवर्तन लाना है तो कई और मूलभूत ख़ामियाँ हैं- जैसा की मंडियों के बारे में बात की जा रही है, उन ख़ामियों को दूर करना बहुत आवश्यक है. इन ख़ामियों को दूर करने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था का ढांचा कैसे तैयार होगा. जब तक वह ढांचा तैयार नहीं होता, तब तक किसानों को सरकार के द्वारा सहयोग देने की आवश्यकता और भी ज़रुरी हो जाती है.

क़ानून कोई जादू की छड़ी नहीं है कि आपने पार्लियामेंट में क़ानून पारित कर दिया तो भारतीय कृषि का कायापलट हो जाएगा. यही स्थिति आज इन तीन क़ानूनों की है.

नग़मा सहर: मौज़ूदा परिस्थितियों को देखते हुए सरकार और किसान के सामने क्या विकल्प है?

संजय जोशी: प्रजातंत्र में संवाद का होना बहुत ज़रुरी होता है और सभी स्टेकहोल्डर से संवाद होना चाहिए. चाहे वो किसान हो, चाहे वो ट्रेडर्स हो या फिर बिचौलिए हो. समस्या यह है कि हमारे दिग्गज़ क़ानून निर्माताओं ने ऐसे-ऐसे डेफिनिशन बना दिया है कि कोई देखकर यह नहीं कह सकता कि हमने स्टेट वाले मुद्दे पर क़ानून पारित कर दिया. पर यह ऐसे मुद्दे है जिसमें बिना राज्य सरकारों की मदद से संभव नहीं है. हो सकता है कि हमारे केंद्र शासन कहे कि हमने जो क़ानून पारित किया है उसमें हमारे डेफिनिशन की कोई अवहेलना नहीं हो रही है. पर व्यवहारिक तौर पर कई मुद्दे उभर कर सामने आते हैं.

मेरे विचार से वास्तव में यह क़ानून स्टैंडिंग कमेटी के पास जाने चाहिए थे क्योंकि यह वैध चीजें है. इससे लोगों का अधिकार प्रभावित होता है. इसलिए इसमें अभी भी मंथन की और आवश्यकता है.

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