Published on Sep 24, 2020 Updated 0 Hours ago

किसान-किसान की इस लड़ाई में परिदृश्य से जो ग़ायब है, वो असल में किसान ही है. उसकी अपनी कोई आवाज़ नहीं, उसके पास अपनी कोई ताक़त नहीं. ऐसा शोषित देश का किसान आज संसद से लेकर सड़क तक पर हो रही राजनीतिक कुश्ती का तमाशबीन भर है.

कृषि सुधार क़ानून: राजनीतिक शोर-शराबे को नजरअंदाज़ कर समृद्धि के अर्थशास्त्र को अपनाने का समय

सरकार ने हाल ही में कृषि क्षेत्र में सुधार के जो क़दम उठाए हैं, वो बड़ी आसानी से किए जा सकने वाले सुधार हैं. लेकिन, इनके पीछे कई हित लगे थे. कृषि क्षेत्र में सुधार के जिन तीन विधेयकों के ख़िलाफ़ हम विरोध प्रदर्शन होते देख रहे हैं, वो कोई चौंकाने वाली बात नहीं है. ये विरोध भारत की शोर शराबे वाली लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है. उसी लोकतंत्र को एक तरफ़ आर्थिक सुधारों की सख़्त दरकार है. लेकिन, जब ये सुधार होते हैं तो उन्हें ऐसा ही हंगामा खड़ा करके रोकने की कोशिश की जाती है. कृषि क्षेत्र के ये सुधार किसानों को उनकी फ़सलों का अधिक मूल्य दिलाने का वादा करते हैं. उन्हें अपनी फ़सल बेचने के अधिक विकल्प मुहैया कराते हैं. और साथ ही साथ सरकार द्वारा घोषित किए जाने वाले समर्थन मूल्य की मौजूदा प्रक्रिया के माध्यम से ज़रिए किसानों की उपज की न्यूनतम क़ीमत सुनिश्चित करने का भी वादा करते हैं. इससे किसी को नुक़सान तो नहीं होगा. लेकिन, देश के करोड़ों किसानों को इन कृषि सुधारों से लाभ होगा.

फिर भी, भारत सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए उठाए गए इन क़दमों का विरोध, ग़रीब और छोटे किसानों के नाम पर प्रदर्शन के ज़रिए किया जा रहा है. कृषि सुधार विधेयकों के ख़िलाफ़ ये जो प्रदर्शन हो रहे हैं, उनके पीछे अमीर, बड़े और असरदार किसान और कृषि क्षेत्र से जुड़े कारोबारी हैं. ये इस बात की एक और मिसाल है कि गए ज़माने की राजनीति, आने वाले बेहतर कल की राह में बाधा बनकर खड़ी हो गई है. केंद्र सरकार को इस विरोध के आगे क़तई नहीं झुकना चाहिए. बल्कि बेहतर तो ये होगा कि सरकार छोटे किसानों से सीधे संवाद शुरू करे. हमारे देश में खेती की बंद श्रृंखला वही है, जो किसानों के नाम पर शोषण वाली राजनीति करती आई है. छोटे किसानों के साथ सीधे संवाद स्थापित करने के अलावा, सरकार को चाहिए कि वो जन धन योजना की ही तरह किसानों को कर्ज़ देने की एक ऐसी संस्थागत व्यवस्था करे, जिस पर बिचौलियों का कोई नियंत्रण न हो. क्योंकि, किसानों को क़र्ज़ की मौजूदा व्यवस्था पर इन्हीं बिचौलियों का कंट्रोल है.

एक वर्ग के लिए तीन क़ानून

इस समय तीन ऐसे क़ानून हैं, जिन पर बहुत विवाद हो रहा है. इन तीनों क़ानूनों के कुछ मुख्य़ प्रावधान इस तरह से हैं.

आवश्यक वस्तु (संशोधन) एक्ट 2020: इस नए क़ानून का मक़सद कृषि संबंधी उत्पादों के उत्पादन और वितरण पर अत्यधिक क़ानूनी नियंत्रण से रियायत देना है. इस संशोधन के साथ बीसवीं सदी के, यानी 65 साल पुराने 1955 के आवश्यक वस्तु अधिनियम को इक्कीसवीं सदी की हक़ीक़तों, ज़रूरी लचीलेपन और आकांक्षाओं के अनुरूप ढाला गया है. इस विधेयक का लक्ष्य अनाजों, दालों, आलू, प्याज़, खाने के तेल के बीजों और खाद्य तेलों पर नियंत्रण को ख़त्म करना है. अब इन वस्तुओं के नियमन को लेकर आदेश बेहद असाधारण परिस्थितियों में ही जारी किया जाएगा. यानी केवल युद्ध, अकाल, दाम में असाधारण वृद्धि और भयंकर प्राकृतिक आपदा के समय ही इस क़ानून के तहत इन वस्तुओं का नियमन किया जा सकेगा. नए क़ानून में उन विशेष परिस्थितियों को भी परिभाषित किया गया है. जैसे कि, बागवानी उत्पादों की खुदरा क़ीमत में सौ प्रतिशत से अधिक का उछाल, या फिर ख़राब न होने वाले खाने-पीने के सामान के दामों में पचास प्रतिशत से ज़्यादा की वृद्धि होना. और दाम में इस वृद्धि का आकलन करने के लिए भी समय सीमा, नए क़ानून में निर्धारित की गई है. पिछले बारह महीनों में इन वस्तुओं के क्या दाम रहे थे या फिर पिछले पांच वर्षों में इन वस्तुओं की औसत क़ीमत कितनी रही थी. चूंकि खाद्य पदार्थों की हमारे देश में बहुत बर्बादी होती है. तो, ऐसे में 65 साल पुराने क़ानून में बदलाव से देश में कोल्ड स्टोरेज के बुनियादी ढांचे का विकास हो सकेगा. इससे खाद्य पदार्थों का भंडारण किया जा सकेगा. जिससे किसी को भी नुक़सान नहीं होगा.

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि इस क़ानून से कृषि उत्पादन मंडी समितियों के किसानों की उपज ख़रीदने पर रोक नहीं लगी है. बल्कि, नए क़ानून के बन जाने से राज्य सरकारें, किसानों के APMC से बाहर उपज बेचने पर कोई मंडी शुल्क, कर या चुंगी नहीं वसूल सकेंगी.

कृषि उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (प्रोत्साहन एवं सरलीकरण) एक्ट, 2020: इस नए क़ानून के कृषि उत्पादों के व्यापार के क्षेत्र में कृषि उत्पादन मंडी समितियों (APMC) का एकाधिकार टूटेगा. मंडी समितियों का संचालन राज्य सरकारें करती हैं. इस नए क़ानून के बन जाने से किसान अब अपनी उपज को मंडी समितियों के बाहर अन्य जगहों पर भी बेच सकेंगे. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि इस क़ानून से कृषि उत्पादन मंडी समितियों के किसानों की उपज ख़रीदने पर रोक नहीं लगी है. बल्कि, नए क़ानून के बन जाने से राज्य सरकारें, किसानों के APMC से बाहर उपज बेचने पर कोई मंडी शुल्क, कर या चुंगी नहीं वसूल सकेंगी. इसके अलावा, इस नए क़ानून के लागू होने के बाद राज्य सरकारें किसी किसान, फसलों के व्यापारी या इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग और लेन-देन करने वाले से किसी भी तरह का टैक्स, शुल्क या चुंगी नहीं वसूल पाएंगी. संविधान के मुताबिक़, कृषि राज्य का विषय है. लेकिन, खाद्य पदार्थ राष्ट्रीय स्तर के बाज़ार का हिस्सा हैं. इस क़ानून के माध्यम से किसान इस राष्ट्रीय बाज़ार तक अपनी पहुंच बना सकेंगे. जबकि, वो अपना काम केंद्र और राज्य के संवैधानिक अधिकारों के दायरे में रह कर कर सकेंगे. इस क़ानून से केंद्र और राज्यों के बीच टकराव का मसला ही नहीं उठता. क्योंकि इस क़ानून में कृषि उत्पादन मंडी समितियों की व्यवस्था को बिल्कुल नहीं छुआ गया है. बल्कि, केवल किसानों की मदद करने वाला ये क़ानून बनाया गया है. इस क़ानून से किसानों के लिए विकल्पों के द्वार तो खुलते हैं. मगर किसी को नुक़सान नहीं होता. पुरानी व्यवस्था में कोई और बदलाव इस नए क़ानून से नहीं होता.

किसान कृषि क्षेत्र सेवाएं और मूल्य गारंटी समझौता (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) क़ानून 2020: ये तीसरा विधेयक उपरोक्त दो विधेयकों की अगली कड़ी है. इससे समझौतों की एक ऐसी क़ानूनी व्यवस्था तैयार की गई है, जिससे किसान अलग अलग कंपनियों और उन थोक ख़रीदारों को अपनी फ़सल बेच सकेंगे जो थोक में कृषि उत्पाद ख़रीद कर आगे बेचते हैं. इस क़ानून का मक़सद किसानों और थोक व्यापारियों के बीच के इस संबंध में क़ीमतों, पारदर्शिता भुगतान के तरीक़ों और फसल पहुंचाने के तौर तरीक़ों को क़ानूनी जामा पहनाता है. इस विधेयक से उपज की गुणवत्ता और मानकों का पालन करने की बाध्यता होगी. अब तक ये फ़ैसला कृषि उत्पादन मंडी समितियों के बिचौलियों के हाथ में होता था. और छोटे किसान उसके फ़ैसले पर कोई सवाल उठाने का हक़ नहीं रखते थे. अगर हम किसी बुरी स्थिति की भी कल्पना करें, तो अधिक से अधिक यही होगा कि कृषि उत्पादन मंडी समितियों और कंपनियों के बीच प्रतिद्वंदिता से छोटे किसानों को अपनी उपज का बेहतर मूल्य मिल सकेगा. इसके अतिरिक्त, छोटे किसानों के संरक्षण के लिए ये क़ानून किसानों के स्वामित्व के अधिकार छीनने पर हर क़ीमत पर रोक लगाता है. इस विधेयक में शामिल किए गए समझौतों को वित्तीय व्यवस्थाओं जैसे कि क़र्ज़ और बीमा से जोड़ा गया है. और आख़िर में इस क़ानून में किसान और फ़सलों के ख़रीदारों के विवाद के निपटारे की व्यवस्था की गई है. इसमें एक अपीलीय अथॉरिटी के गठन की भी व्यवस्था है.

अगर हम किसी बुरी स्थिति की भी कल्पना करें, तो अधिक से अधिक यही होगा कि कृषि उत्पादन मंडी समितियों और कंपनियों के बीच प्रतिद्वंदिता से छोटे किसानों को अपनी उपज का बेहतर मूल्य मिल सकेगा.

किसानों को तवज्जो..

हालांकि, इन तीनों क़ानूनों के लागू होने के बावजूद, भारतीय खाद्य निगम (FCI) न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था के तहत किसानों से उनकी उपज ख़रीदता रहेगा. फिर भी, अगर आंकड़ों के लिहाज़ से देखें तो ये व्यवस्था बहुत उम्मीदें नहीं जगाती. पिछले पंद्रह वर्षों के दौरान (यानी वर्ष 2003 से 2018 के बीच) सरकारी एजेंसियों ने किसानों द्वारा बेचे जाने वाले गेहूं का 26.8 प्रतिशत (उत्पादन 134.0 करोड़ टन और FCI की ख़रीद 35.9 करोड़ टन) और कुल धान का केवल 31.3 प्रतिशत (कुल उत्पादन 155.8 करोड़ टन, सरकारी एजेंसियों द्वारा ख़रीद 48.8 करोड़ टन) ही ख़रीदा है. पिछले साल सरकारी एजेंसियों द्वारा ख़रीदे गए गेहूं और धान के आंकड़े भी लगभग ऐसे ही हैं. सरकारी एजेंसियों ने पिछले साल कुल उत्पादन का 31.3 प्रतिशत गेहूं और 32.7 प्रतिशत धान ख़रीदा था. सवाल ये है कि बाक़ी की उपज कहां जाती है? कृषि पर 62वीं स्थायी समिति की रिपोर्ट (2018-19) जिसे कृषि उत्पादों की मार्केटिंग और साप्ताहिक ग्रामीण हाटों की भूमिका का नाम दिया गया था, उसे जनवरी 2019 में संसद में पेश किया गया था. इस रिपोर्ट के मुताबिक़, किसानों से उनकी ज़रूरत से अधिक अनाज की ख़रीद या तो साहूकार या व्यापारी करते हैं, वो भी बहुत कम क़ीमत पर. ये साहूकार और व्यापारी या को ख़ुद ही किसानों की उपज ख़रीदते हैं. या फिर पास की मंडियों के बड़े व्यापारियों के बिचौलियों के तौर पर ये अनाज ख़रीदते हैं. ज़ाहिर है, कृषि उपज की ख़रीद फ़रोख़्त का ये कारोबार पूरी तरह से छोटे किसानों के हितों के ख़िलाफ़ दिखता है.

लगभग यही कहानी बाग़बानी के क्षेत्र में दोहराई जाती दिखती है. उदाहरण के लिए, क़ुदरती ख़ूबसूरती से भरपूर उत्तराखंड राज्य में छोटे किसान अपनी उपज को दो से आठ लकड़ी के बक्सों में भर कर सड़क के किनारे छोड़ देते हैं. किसानों के उत्पाद से भरे ये लकड़ी के बक्से तब तक वहां पड़े रहते हैं, जब तक हलद्वानी स्थित कृषि उत्पाद मंडी समिति का छोटा सा ट्रक वहां से नहीं गुज़रता है. ये ट्रक किसानों की उपज को सड़क से उठाता है. किसान अपनी वस्तुओं के दाम फ़ोन पर देख सकते हैं. लेकिन, कारोबारी अक्सर किसानों को उनकी उपज का बाज़ार भाव से कम मूल्य देते हैं. व्यापारी, किसानों की उपज के दाम में बहुत मामूली कटौती करते हैं. लेकिन, ये पूरी तरह से व्यापारी का फ़ैसला होता है. इसमें किसानों की कोई भागीदारी नहीं होती. ये पूरी प्रक्रिया अपारदर्शी होती है. और किसान के पास व्यापारी द्वारा दिए जा रहे मूल्य को स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता. पहाड़ के किसान पहले ही बारिश की कमी से परेशान हैं. क्योंकि वो फ़सलों की सिंचाई के लिए बारिश के पानी पर ही निर्भर हैं. पहाड़ी इलाक़ों के बढ़ते तापमान की वजह से ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाले सेबों की खेती अब और उत्तरी ठंडे पहाड़ी इलाक़ों में की जा रही है. ऐसे में उत्तराखंड के छोटे किसानों की मजबूरी ये है कि उन्हें अपनी उपज का जो भी दाम मिल रहा हो, उसे वो स्वीकार कर लें. क्योंकि बिचौलिए ही फ़सलों के दाम तय करते हैं. लेकिन, अब क़ानून में किए गए बदलाव से जब बिचौलियों और कंपनियों के बीच मुक़ाबला होगा, तो छोटे किसानों को निश्चित रूप से अपनी उपज का बेहतर मूल्य हासिल करने का मौक़ा मिलेगा.

कृषि उत्पाद मंडी समितियां आज वो काम बिल्कुल नहीं कर रही हैं, जिस काम के लिए उनकी स्थापना की गई थी. उनका काम किसानों के हितों का ध्यान रखना था. लेकिन, किसानों की उपज ख़रीदने की सरकारी प्रक्रिया में उनका एकाधिकार होने के कारण उपज की ख़रीद बिक्री की प्रक्रिया पूरी तरह से दूषित हो चुकी है. ये मंडी समितियां गिने चुने आढ़ती रखती हैं. बाज़ार शुल्क के नाम पर किसानों से ज़्यादा रक़म वसूलती हैं. फिर कमीशन चार्ज भी वसूला जाता है. क़ानूनी तौर पर कमीशन चार्ज तो व्यापारियों पर लगना चाहिए. लेकिन, ये लागत भी किसानों के ऊपर थोप दी जाती है. और उनकी उपज के कुल मूल्य से ही कमीशन भी वसूला जाता है. कई राज्यों में तो जब किसान मंडी समिति से बाहर अपनी उपज बेचता है, तो भी उससे कमीशन और मंडी शुल्क वसूला जाता है. भले ही किसान अलग अलग राज्यों में रहते हों और राज्यों की राजनीति का हिस्सा हों. लेकिन, राज्यों में तमाम सरकारें आती जाती रहीं, पर उन्होंने छोटे किसानों को उनके ही हाल पर रहने को छोड़े रखा. हम ये उम्मीद ही कर सकते हैं कि कृषि क्षेत्र के इन सुधारों से छोटे किसानों का भला होगा. यहां पर भरोसे के साथ भला होने के बजाय हम उम्मीद लगाने की बात इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि कई बार बहुत अच्छी नीयत से बनाए गए क़ानून और सुधार भी वास्तविक तौर पर उतने फ़ायदेमंद नहीं साबित होते. इसकी मिसाल 2016 में बना इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड है. जिसमें बार बार संशोधन किए गए. ऐसे में कृषि क्षेत्र में सुधार लाने वाले इन क़ानूनों से छोटे किसानों को आर्थिक न्याय मिलने की उम्मीद ही की जा सकती है.

कृषि उत्पाद मंडी समितियां आज वो काम बिल्कुल नहीं कर रही हैं, जिस काम के लिए उनकी स्थापना की गई थी. उनका काम किसानों के हितों का ध्यान रखना था. लेकिन, किसानों की उपज ख़रीदने की सरकारी प्रक्रिया में उनका एकाधिकार होने के कारण उपज की ख़रीद बिक्री की प्रक्रिया पूरी तरह से दूषित हो चुकी है.

लेकिन, बिचौलियों को बदनाम करना बंद होना चाहिए

ऊपर बिचौलियों की उनकी हरकतों और बर्ताव के लिए आलोचना करने के बावजूद ये कहना ज़्यादा उचित है कि बिचौलियों की व्यवस्था पर जो लगातार हमले हो रहे हैं, वो उचित नहीं हैं. ख़राब प्रक्रियाओं, या संस्थाओं की व्यवस्था को तोड़-मरोड़कर लाभ कमाने से कोई संस्था ख़राब नहीं हो जाती. बिचौलिये भी एक ज़रूरी सेवा प्रदान करते हैं. ये देश की तमाम आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र में देखने को मिलता है. फिर चाहे गाड़ियों की बिक्री (कार के शोरूम) हो, रियल स्टेट में संपत्तियों की ख़रीद-बिक्री (प्रॉपर्टी ब्रोकर) हो, शेयर बाज़ार के दलाल हों या बीमा एजेंट. इस बात को ऐसे समझें कि बिना शेयरों के दलाल के शेयर बाज़ार में कोई पूंजी नहीं देखने को मिलेगी.

बिचौलिए ही बाज़ार तैयार करते हैं. कुछ समय के बाद उनकी सेवाओं के लिए जो मूल्य दिया जाता है, वो घट जाता है. भारत में ऐसा जब भी हुआ है, तब सुधारों के ख़िलाफ़ शोर मचाया गया है. कभी निवेशकों के नाम पर, तो कभी ग्राहकों के नाम पर. मिसाल के तौर पर, शेयर बाज़ार में इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग से पहले के दौर में शेयरों की ब्रोकरेज का कमीशन पांच प्रतिशत हुआ करता था. लेकिन, 1990 के दशक के मुक़ाबले आज शेयर बाज़ार इतना विशाल हो गया है कि उसमें बिना इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग करने वालों का ये कमीशन संख्या के लिहाज़ से बहुत ही कम रह गया है. अब सिर्फ़ एक क्षेत्र ऐसा है जहां कॉरपोरेट संस्थाओं की वजह से होने वाले ऐसे लाभ ग्राहकों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं. और वो देश का बीमा क्षेत्र है. और इसकी वजह बीमा क्षेत्र का नियामक है, जो अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में असफल रहा है. आज भारत के बीमा क्षेत्र में सुधार लाने की सख़्त ज़रूरत महसूस की जा रही है.

कुछ तबक़ों के हितों के लिए विरोध करने की ये समस्या हमारे देश में लंबे समय से चली आ रही है. ऐसे विरोध के बीच आज देश में कृषि क्षेत्र के बहुप्रतीक्षित सुधार किए जा रहे हैं. हमारे देश में कृषि की इस एजेंसी आधारित व्यवस्था में समस्या एजेंसी का होना नहीं है. बल्कि, असली दिक़्क़त तो उस एजेंसी के काम-काज पर कोई निगरानी न होना है. हमारे देश में कृषि क्षेत्र में वित्त और क़र्ज़ की सामाजिक संरचनाएं भी ऐसी हैं, जिसमें बिचौलिया ही साहूकार है. और चूंकि कारोबारी बैंक, कृषि क्षेत्र में अपनी वैसी पहुंच नहीं बना सके हैं, जिनसे कृषि क्षेत्र में क़र्ज़ की मांग पूरी की जा सके. तो, ये बिचौलिए भारी ब्याज पर किसानों को क़र्ज़ देते हैं. ऐसे में जन धन योजना का दायरा कृषि ऋण के क्षेत्र में बढ़ाकर इस समस्या से भी पार पाया जा सकता है.

बाज़ार की नाकामी के कारण ही आज कृषि उपज की ख़रीद की व्यवस्था पर राजनेताओं, अधिकारियों और बिचौलियों का क़ब्ज़ा है. जैसे ही खेती के बाज़ार में कॉरपोरेट व्यवस्था का प्रवेश होगा, तो इनमे से कई समस्याओं का अंत हो जाने की उम्मीद है. अब जो नए संस्थान इस क्षेत्र में खड़े होंगे, उन्हें ये सुनिश्चित करना होगा कि नई व्यवस्था में पुरानी प्रक्रियाओं का ही स्थानांतरण न हो जाए. जैसे कि, राज्य सरकारें इन सुधारों की प्रक्रिया में दख़ल देकर कंपनियों की आमद को धीमा कर दें. नई कंपनियां ऐसी संरचनाएं खड़ी कर सकती हैं, जो मौजूदा व्यवस्था से तालमेल बनाकर काम कर सकती हैं. ये लगातार चलने वाली प्रक्रिया होगी. हो सकता है कि बिचौलियों की भूमिका आगे भी बनी रहे. लेकिन, किसानों से उनकी वसूली करने की आदत पर लगाम लगनी चाहिए. सुधार के ये तीन नए क़ानून इसे सुनिश्चित करेंगे. पुरानी व्यवस्था से नई व्यवस्था में जाने के इस बदलाव के राजनीतिक प्रभाव भी देखने को मिलेंगे. और इनका असर हमें 2024 के लोकसभा चुनावों के नतीजों के तौर पर दिख सकता है.

बाज़ार की नाकामी के कारण ही आज कृषि उपज की ख़रीद की व्यवस्था पर राजनेताओं, अधिकारियों और बिचौलियों का क़ब्ज़ा है. जैसे ही खेती के बाज़ार में कॉरपोरेट व्यवस्था का प्रवेश होगा, तो इनमे से कई समस्याओं का अंत हो जाने की उम्मीद है. अब जो नए संस्थान इस क्षेत्र में खड़े होंगे, उन्हें ये सुनिश्चित करना होगा कि नई व्यवस्था में पुरानी प्रक्रियाओं का ही स्थानांतरण न हो जाए.

राजनीतिक हंगामे को नज़रअंदाज़ कीजिए

किसान-किसान की इस लड़ाई में परिदृश्य से जो ग़ायब है, वो असल में किसान ही है. उसकी अपनी कोई आवाज़ नहीं, उसके पास अपनी कोई ताक़त नहीं. ऐसा शोषित देश का किसान आज संसद से लेकर सड़क तक पर हो रही राजनीतिक कुश्ती का तमाशबीन भर है. मज़े की बात ये है कि जिन राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्र में इन सुधारों का वादा किया था, वो आज इस सुधार के ख़िलाफ़ राजनीतिक मोर्चा खोले हुए हैं. आज जीते जागते किसान को महज़ एक लफ़्ज़ में तब्दील कर दिया गया है. आज छोटे किसान एक ऐसा मोहरा बन गए हैं, जिन्हें ताक़तवर और व्यवस्था में जमे हुए लोगों के हितों की हिफ़ाज़त करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. याद कीजिए कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी एक्ट (MGNREGA) के कारण सबसे ज़्यादा बड़े किसानों को ही नुक़सान हुआ. क्योंकि कम मज़दूरी पर काम करने वाले कृषि क्षेत्र के मज़दूरों के पास अब अधिक सम्मान के साथ काम करने और ज़्यादा पैसे कमाने व सामाजिक सुरक्षा का एक बेहतर विकल्प मिल गया था. तब भी बड़े किसानों ने इस सुधार का विरोध किया था. लेकिन, उनका विरोध टिक नहीं सका. क्योंकि, मनरेगा से कृषि क्षेत्र के मज़दूरों को होने वाले लाभ को लेकर अच्छा माहौल बन गया. लेकिन, इस फ़ायदे को ज़मीनी स्तर तक पहुंचने और जनता को समझने में एक चुनावी चक्र लगा था. कृषि क्षेत्र से संबंधित इन नए सुधारों के लाभ भी ज़मीनी स्तर तक पहुंचने में उतना ही वक़्त लगने की संभावना दिख रही है.

समृद्धि के अर्थशास्त्र का आलिंगन कीजिए

कृषि क्षेत्र में सुधार के इन नए क़ानूनों को लेकर जो आख़िरी तर्क दिया जा रहा है, वो भी एक छलावा ही है. विरोधियों का कहना है कि केंद्र सरकार किसानों के हितों को बड़े कॉरपोरेटर घरानों को बेच रही है. ‘सूट-बूट की सरकार’ वाला घटिया नारा शायद अब नए रंग रूप में सामने आए. इसी नारे के कारण,मौजूदा सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया को धीमा कर दिया था. लेकिन, अब इस सरकार ने भी अपनी ग़लतियों से सबक़ सीख लिए हैं. इसलिए नए आर्थिक सुधारों को रोका नहीं जाना चाहिए. आर्थिक सुधारों से राजनीतिक लाभ होता है, इसके सबूत स्पष्ट नहीं हैं. लेकिन, सुधारों वाली सोच बिल्कुल सही दिशा में चल रही है. बड़े बड़े आलीशान और साम्राज्यवादी दौर के बंगलों में रहना और हिंदुस्तान में बड़े पैमाने पर ग़रीबों का होना एक चुभने वाला विरोधाभास है. और ख़ास तौर पर छोटे किसानों के साथ तो ये मज़ाक़ जैसा है. ये कहना बहुत आसान है कि पैसा बुरी चीज़ है. संपत्ति जमा करना शैतानी आदत है. और सबको समृद्ध करना एक ऐसा ख़्वाब है, जो कभी पूरा नहीं होगा. करदाताओं के पैसे से मिलने वाले लाभ ज़िंदगी भर लेते रहने के आदी हमारे माननीयों ने तो ऐसी व्यवस्था बनायी है कि उनके टैक्स भी देश के करदाता ही भरते हैं. आज बड़े किसान जो छोटे किसानों की लड़ाई लड़ने का नाटक कर रहे हैं, वो टैक्स नहीं देते. अगर पैसा और बड़ी कंपनियों में शैतान बसता है, तो करदाता के पैसे से मनाया जा रहा ये जश्न भी बंद होना चाहिए. आप लाभ लेते रहने के साथ साथ उस व्यवस्था का विरोध नहीं कर सकते, जिससे लाभ ले रहे हैं.

और जहां तक बुद्धिजीवियों की बात है, तो वो इन आर्थिक सुधारों के लिए कई दशकों से रोना रो रहे हैं. और अब जबकि ये सुधार वाक़ई हो रहे हैं. जिसमें छोटे किसानों की सुरक्षा के सभी उपाय किए गए हैं, तो ऐसा लगता है कि इन सुधारों के विरोध में बुद्धिजीवियों के पास सिर्फ़ एक ही तर्क है और वो ये कि उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा नही है. न तो ये कोई विचार है और न ही इसे किसी सिद्धांत की संज्ञा दी जा सकती है. बेहतर होगा कि इस आधार पर सुधारों का विरोध कर रहे ये बुद्धिजीवी किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाएं और अपने राजनीतिक धर्म का पालन करें. उन्हें वो स्वतंत्र विचार वाले नेता होने का नाटक करना बंद कर देना चाहिए. इन सुधारों को किसी भी क़ीमत पर न रोका जाना चाहिए और न ही टाला जाना चाहिए.

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