Author : Sunjoy Joshi

Published on Dec 15, 2020 Updated 0 Hours ago

यदि भारतीय कृषि में सुधार होता है तो यह सभी के हित में है, इसलिए इसमें सभी पार्टी को मिलकर, साथ बैठकर बात करनी चाहिए और सुधार लानी चाहिए. तभी जो परिवर्तन देश के किसानों के लिए लाने हैं वह सफल होगा.

कृषि क़ानून: समस्या से समाधान तक कैसे पहुंचा जाए?

नए कृषि क़ानून को लेकर देश-भर के किसान पिछले बीस दिनों से दिल्ली में धरने पर है, राजधानी दिल्ली चारों तरफ़ से घिर चुकी है, लोगों को आने-जाने में दिक्कत हो रही है और कई ज़रूरी काम रुक गए हैं. किसानों के इस आंदोलन को देश के विभिन्न वर्गों का समर्थन भी मिल रहा है. किसान नेता और सरकार के नुमाईंदों के बीच 2-3 दौर की बातचीत भी अब तक बेनतीजा निकली है. आगे ये आंदोलन क्या रुख़ ले सकता है और दोनों पक्षों को कैसे इसे एक तार्किक मोड़ तक ले जाने की कोशिश करनी चाहिए – ये बता रहें हैं ओआरएफ़ के चेयरमैन संजय जोशी, उनके साथ बातचीत कर रही हैं नग़मा स़हर.

नग़मा सहर — नए कृषि क़ानून से क्या समस्या है?

संजय जोशी — वास्तव में असली राजनीति तो लोक-नीति पर होनी चाहिए. यदि लोक-नीति पर राजनीति होती है तो वह अच्छी बात है. इसमें कई मुद्दे हैं. सभी मानते हैं कि कृषि क़ानून में सुधार होनी चाहिए लेकिन इस क़ानून में जो समस्या उभरकर सामने आई है, वो यह है कि यह क़ानून एक ऑर्डिनेंस के रूप में आया है और इसे 100 घंटे के भीतर लागू किया गया. इस पर काफी हंगामा होता रहा. पार्लियामेंट में बहस नहीं हो पाई और जो बातें स्टैंडिंग कमेटी के सामने होनी चाहिए थी वो आज सड़कों पर हो रही है. और जब नीति की बातें सड़कों पर होती हैं, तो बहस पटरी से उतर जाती है. और वही इसके साथ ही हुआ है. आज हालत यह बन रही है कि न सरकार और न ही जनता बहस को वापस पटरी पर लाने के मूड में दिख रही है.

यह क़ानून एक ऑर्डिनेंस के रूप में आया है और इसे 100 घंटे के भीतर लागू किया गया. इस पर काफी हंगामा होता रहा. पार्लियामेंट में बहस नहीं हो पाई और जो बातें स्टैंडिंग कमेटी के सामने होनी चाहिए थी वो आज सड़कों पर हो रही है. 

इस क़ानून से दूसरा प्रश्न यह उठता है कि सरकार किसकी समस्या हल करना चाहती थी. क्या वह किसानों की समस्या का समाधान करना चाहती थी या वह अपनी समस्या का समाधान करना चाहती थी? किसानों की समस्या कई है, मार्केटिंग भी एक समस्या है, लेकिन यह मूल समस्या नहीं है. सरकार को प्रोक्योरमेंट (वसूली) की समस्या ज़रूर है, लेकिन कई राज्यों में जहां यह विरोध हो रहे हैं, जैसे- की पंजाब और हरियाणा वहां प्रोक्योरमेंट किसानों के लिए समस्या नहीं बल्कि समाधान थी. हां, सरकार के लिए ज़रूर एक समस्या है. इसीलिए सरकार कह रही है कि हम एमएसपी से पीछे नहीं हटेंगे. आज बात हो रही है भारतीय किसान संघ जो रूलिंग पार्टी का ही एक अंग है. उनका कहना है कि हमें मिनिमम सपोर्ट प्राइस नहीं, मिनिमम गारंटी प्राइस चाहिए. इस तरह से जनता और सरकार के बीच में यह मुद्दा उलझता ही जा रहा है और अपने मूल मुद्दे से कहीं ना कहीं पीछे छूटता जा रहा है.

नग़मा सहर  कृषि में कैसे उत्पादकता बढ़ाई जाए?

संजय जोशी — जो लोग इस क़ानून की आलोचना करते हैं वह सरकार को बिहार का उदाहरण देते हैं कि देखिए आप बिहार में एपीएमसी एक्ट को ख़त्म करके कौन-सा तीर मार लिया, कौन सी मार्केटिंग वहां स्थापित हो गई. किसान के पास कितने विकल्प आ गए, उन्हें कितने अच्छे प्राइस मिल रहे हैं अर्थात उनको नुक़सान ही हुआ है फ़ायदा नहीं हुआ. हमारा देश इतना ड्राइवर्स है, यहां की कृषि इतनी ड्राइवर्स है, यहां की समस्याएं इतनी विविध हैं कि किसी एक क़ानून से इसका निराकरण कर पाना इतना आसान नहीं है.

पिछले 35 सालों में अपने इकोनॉमी की संरचना देखें तो कृषि का जीडीपी में जो योगदान 35% हुआ करता था. वह आज घट करके महज़ 15% हो गया है. और कृषि पर आधारित जो लोग हैं उनकी संख्य़ा 75% से घटकर 50% तक हो गई है. अर्थात अभी भी देश की बहुत बड़ी आबादी कृषि पर आश्रित है. 

यदि हम पिछले 35 सालों में अपने इकोनॉमी की संरचना देखें तो कृषि का जीडीपी में जो योगदान 35% हुआ करता था. वह आज घट करके महज़ 15% हो गया है. और कृषि पर आधारित जो लोग हैं उनकी संख्य़ा 75% से घटकर 50% तक हो गई है. अर्थात अभी भी देश की बहुत बड़ी आबादी कृषि पर आश्रित है. जीडीपी से स्पष्ट प्रतीत होता है कि जितनी बड़ी मात्रा में कृषि का विस्तार होना चाहिए, उतनी बड़ी मात्रा में हुआ नहीं है. तो स्पष्ट है कि लोगों की आमदनी घटेगी, बढ़ेगी नहीं. भारतीय कृषि में जो सुधार होनी चाहिए वह इसी में होनी चाहिए कि कृषि में कैसे उत्पादकता बढ़ाई जाए.

दूसरी समस्या कृषि में यह है कि पिछले 35 सालों में कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर में इन्वेस्टमेंट लगातार घटता ही गया है, बढ़ा नहीं है. सिर्फ़ एक्ट पारित करके यह नहीं हो सकता. इसलिए एक सही रोड में — एक सही प्लान और एक सही नीति बनाने की ज़रूरत है. अगर 86% फार्मर हमारे छोटे किसान है तो ज़ाहिर है कि वह सीधे कॉरपोरेट को जाकर तो अनाज नहीं बेचेंगे. उनकी समस्याएं अलग है, बड़े किसानों की समस्याएं अलग हैं. तो इसलिए एक जो कॉम्प्लेक्स स्ट्रक्चर यानी कि जटिल स्वरूप भारतीय कृषि का है, उसको समझना ज़रूरी है और उसके हिसाब से उसका समाधान करना ज़रूरी होगा और जिससे हिसाब से कृषि नीतियों की आवश्यकता होगी, सिर्फ़ ये तीन क़ानून इसके लिए पर्याप्त नहीं है.

नग़मा सहर  क्या कृषि का निजीकरण मुमकिन है?

संजय जोशी — मंडी व्यवस्था सरकार ने ही स्थापित है. यदि हम 2019 में स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट देखें तो उन्होंने मंडी व्यवस्था की ख़ामियों को उजागर किया है, लेकिन मंडियों को हटा देना उसका समाधान नहीं है. मंडियों में कैसे किसान और अधिक सशक्त बने, पूरे देश में जहां इतने सारे राज्य हैं, वहां सिर्फ़ साढे छह हजार ही मंडियां हैं, मंडियों की संख्य़ा पर्याप्त नहीं है. किसानों को बहुत दूर-दूर तक जाकर के अपना सामान बेचना पड़ता है और छोटा किसान तो वहां तक जा ही नहीं सकता. भारत का किसान प्रोग्रेसिव है. ग्रीन रिवॉल्यूशन किसान ही लेकर आये हैं. उसको अपना हित मालूम है. यदि उन्नत किसानों को साथ लेकर एक वैकल्पिक व्यवस्था कायम की जाए जिससे उनकी इनकम बढे, तो कोई ताक़त नहीं है जो बदलाव को रोक सकती है.

भारत का किसान प्रोग्रेसिव है. ग्रीन रिवॉल्यूशन किसान ही लेकर आये हैं. उसको अपना हित मालूम है. यदि उन्नत किसानों को साथ लेकर एक वैकल्पिक व्यवस्था कायम की जाए जिससे उनकी इनकम बढे, तो कोई ताक़त नहीं है जो बदलाव को रोक सकती है. 

भारत पंद्रह अलग-अलग एग्रो-क्लाइमेटिक ज़ोन में बंटा हुआ है. हर जगह की समस्याएं अलग-अलग हैं. एमएसपी सिस्टम का सबसे बड़ा दोष यह था कि उसने इस विविधता को ही तहस-नहस कर दिया था. इतने बड़े क्षेत्र को सिर्फ़ धान और गेहूं के चक्कर में फंसा कर रख दिया और आज स्थिति यह है कि मिट्टी ख़राब हो रही है, पानी का दुरुपयोग हो रहा है. नीति ऐसी होनी चाहिए कि कृषि में जो विविधता है उसे कैसे बढ़ावा मिले, उसमें कैसे इज़ाफा हो, वो कम नहीं हो, ऐसी नीतियों की हमें आवश्यकता है.

नग़मा सहर  संवाद के लिए कौन से विकल्प दिखाई देते हैं?

संजय जोशी — सबसे पहली चीज तो किसान और सरकार के बीच में वापस फिर से विश्वास स्थापित हो और किसानों को यह महसूस हो कि सरकार जो काम कर रही है, हमारे भलाई के लिए कर रही है. सरकार को भी यह दर्शाना ज़रूरी हो जाता है कि वह मिनिमम सपोर्ट प्राइस को हटाता है तो वह इससे बेहतर व्यवस्था लाएगी और वह मिनिमम सपोर्ट प्राइस से ज़्यादा कीमत देगी. जिन किसानों की यहां पर चर्चा हो रही है वो भारत के सबसे उन्नत किसान हैं. और वो उन किसानों में से हैं, जो बदलाव और सुधार को स्वीकार कर सकते हैं. इसलिए सरकार को इन्हें साथ लेकर के चलना चाहिए, न कि उन्हें विरोधी बनाना चाहिए. उन्हें यह बताने की ज़रूरत है कि आप सिर्फ़ धान और गेहूं तक सिमट कर मत रह जाइए. आप अपने फ़सलों में विविधता लाइए.

जिन किसानों की यहां पर चर्चा हो रही है वो भारत के सबसे उन्नत किसान हैं. और वो उन किसानों में से हैं, जो बदलाव और सुधार को स्वीकार कर सकते हैं. इसलिए सरकार को इन्हें साथ लेकर के चलना चाहिए, न कि उन्हें विरोधी बनाना चाहिए

हम अपने सांस्कृतिक धरोहर की बातें करते हैं. यह तो महज़ तीन — साढ़े तीन हज़ार वर्ष पुरानी धरोहर है, पर कृषि धरोहर तो हमारी 10,000 वर्ष पुरानी है जिसे किसान पीढ़ी दर पीढ़ी संजोते आए हैं. इसलिए आज के समय में उन बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी को सुरक्षित रखना हम सबका कर्तव्य बन जाता है. इसलिए हमें ऐसी नीतियों को लाने की ज़रूरत है जो इस डाइवर्सिटी को सुरक्षित रखता हो. सिर्फ़ दो-तीन फ़सलों को ले करके हम ग्रीन रेवोलुशन नहीं कर सकते हैं. इसलिए हमें इस धरोहर को सुरक्षित रखना होगा, क्योंकि ऐसे कई लोग है जो इस क्षेत्र को हथियाना चाहते हैं. अगर उनका इस पर क़ब्ज़ा हो जायेगा तो निश्चित रूप से किसानों को बहुत नुकसान है. इनसे भी हमारे किसानों को बचाना बहुत ज़रूरी हो जाता है.

नग़मा सहर  क्या यह जल्दबाज़ी में उठाया गया क़ानून है?

संजय जोशी — जो भी सुधार के मुद्दे हैं उन पर पार्लियामेंट्री व्यवस्था के अंतर्गत राजनीतिक बहस होना चाहिए. हमारे स्टैंडिंग कमेटी के लोग काफी अनुभवी हैं, ज़मीन से जुड़े हुए हैं, वो जानते हैं कि क्या समस्याएं हैं, इस तरह के मुद्दों पर विचार-विमर्श होकर के कुछ ना कुछ समाधान निकलकर के सामने आते है. और यदि समाधान डिसेंट्रलाइज्ड होकर आते हैं, तो वह ज़्यादा अच्छे होते हैं. यदि भारतीय कृषि में सुधार होता है तो यह सभी के हित में है. इसलिए इसमें सभी पार्टी को मिलकर के साथ बैठकर के बात करनी चाहिए और सुधार लानी चाहिए. तभी जो परिवर्तन देश के किसानों के लिए लाने हैं वह सफल होगा.

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