भारत के ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाएं, जो देश के सुदूर हिस्सों में कुशल और अकुशल दोनों तरह के श्रम क्षेत्रों में काम करती हैं, विभिन्न माध्यमों के ज़रिए अपने अधिकारों और मांगों का दावा करने में क़ामयाब रही हैं. उन्होंने पर्यावरण संबंधी चिंताओं, सामाजिक-आर्थिक उन्नति और डिजिटल माध्यमों का प्रभावी रूप से इस्तेमाल कर अपने समुदाय के भीतर अपने लिए विश्वसनीयता, स्वतंत्रता और प्रतिस्पर्धा की तलाश की है. इस तरह के मंच महिलाओं को परोक्ष रूप से हिम्मत देते हैं और अपने अधिकारों के लिए लड़ने में सक्षम बनाते हैं, जिससे अंतत: वो राजनीतिक कौशल भी प्राप्त कर पाती हैं. भारत में पंचायती राज की शुरुआत करने वाले 72 वें संवैधानिक संशोधन की मदद से महिलाओं को स्थानीय विधानसभाओं और सरपंच के पद के लिए एक तिहाई आरक्षण मिला.
इस योजना ने सत्ता और सामाजिक ताकत का विस्तार कर महिलाओं को निर्णय लेने की शक्ति दी और देश के सुदूर इलाकों में लोकतंत्र की सीमाओं का विस्तार किया. इसमें क्षेत्र की पूंजी और वहां के मानव और बौद्धिक संसाधनों पर समान नियंत्रण प्रदान किया जाना शामिल था, जिसने महिलाओं को अपना जीवन स्तर सुधारने और एक बेहतर जीवन जीने की अनुमति दी. हालांकि, राजनीति में स्थान पाने के लिए, महिलाओं को अन्य सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों और विभिन्न ज्ञान आधारित क्षेत्रों में भी अपनी क्षमता साबित करनी होती है.
आर्थिक क्षेत्र में ग्रामीण महिलाओं के सशक्तिकरण का उद्भव
ग्रामीण महिलाओं के उत्थान के उद्देश्य के लिए लागू की गई शुरुआती आर्थिक नीतियां काफी हद तक असफल रहीं. एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम की उप-योजना ग्रामीण क्षेत्रों में महिला एवं बाल विकास (DWCRA) ka 1982-83 में 50 ग्रामीण ज़िलों में शुरू किया गया था. इसके चलते महिलाएं अपनी झिझक और कमज़ोरियों को दूर कर पाईं और संपत्ति व सामान की ख़रीद-फ़रोख़्त के अलावा, महंगे साहूकारों के बजाय बैंक से ऋण लेने में सक्षम हुईं. नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च सेंटर फॉर मैक्रो कंज्यूमर रिसर्च द्वारा 2011 में जारी एक अध्ययन के अनुसार, बैंकों की 12.6 प्रतिशत की ब्याज़ दर के मुकाबले साहूकारों के ऋण पर ब्याज़ उच्चतम स्तर पर 44 प्रतिशत कर हो सकता है. ऐसे में महिलाओं के लिए इन ऊंची दरों पर ऋण लेना और कामकाज शुरु करना बेहद कठिन था.
आर्थिक सशक्तीकरण के इस मॉडल को केवल भारत के छोटे क्षेत्रों जैसे आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में ही कुछ सफलताएँ मिलीं क्योंकि अधिकांश क्षेत्रों में ग्रामीण क्रेडिट नेटवर्क को लेकर समझ विकसित नहीं हो पाई और इसलिए वो प्रभावी नहीं रहे. इन योजनाओं के बाद, स्व-सहायता समूहों यानी सेल्फ हेल्प ग्रुप (एसएचजी) जैसी सूक्ष्म-ऋण योजनाएं शुरू की गईं, जो क्षेत्र के स्थानीय बैंकों के साथ भागीदारी में चलते थे. ये एसएचजी ‘सहकर्मी-निगरानी’ (peer monitoring) के सिद्धांतों पर आधारित हैं। इस मॉडल के तहत यह स्वीकार किया जाता है कि हो सकता है कि बैंक गांव में स्थित हो या न भी हो, इसलिए प्रत्येक लाभार्थी पूरे समूह के लिए ज़िम्मेदार और जवाबदेह है. यह योजना सफल रही, क्योंकि इसने महिलाओं को वित्तीय ज्ञान दिया और उन्हें आर्थिक अनुशासन के साथ काम करने और जीविकोपार्जन करने के लिए प्रेरित किया. महिलाओं के ये समूह परस्पर सहयोग और भागीदारी से चलते थे जिससे ऋण चुकाने का स्तर बेहतर हुआ और भुगतान संबंधी चूक में उल्लेखनीय कमी आई. पहले की योजनाओं के विपरीत, इस मॉडल ने महिलाओं को अपनी गति और सहूलियत के साथ, विभिन्न आर्थिक गतिविधियों की शुरुआत के लिए प्रोत्साहित किया, क्योंकि अब ऋण लेने का एक भरोसेमंद स्रोत उनकी पहुंच के भीतर था.
आर्थिक सशक्तीकरण के इस मॉडल को केवल भारत के छोटे क्षेत्रों जैसे आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में ही कुछ सफलताएँ मिलीं क्योंकि अधिकांश क्षेत्रों में ग्रामीण क्रेडिट नेटवर्क को लेकर समझ विकसित नहीं हो पाई और इसलिए वो प्रभावी नहीं रहे.
स्व-सहायता समूहों ने महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाया और उनके जीवन में वित्तीय स्थिरता पैदा की जिससे वो उन्नति के राह पर अग्रसर हुईं, लेकिन महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MNREGA) यानी मनरेगा द्वारा पूरे हुए लक्ष्यों की तुलना में इन नीतियों की सफलता कम रही, क्योंकि मनरेगा के तहत मुख्य रूप से 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी मिलती थी. यह एक ऐतिहासिक और उल्लेखनीय मॉडल है, जो 2 फरवरी 2006 को पहले चरण में 200 ज़िलों में प्रमुखता के साथ शुरु किया गया और उसके बाद 2007-08 में इसे बढ़ाकर 130 ज़िलों तक पहुंचाया गया. इन सब योजनाओं के ज़रिए महिलाएं अब एक ऐसे स्तर पर पहुंचने में सक्षम हुई हैं, जहां पंचायत और स्थानीय प्रशासन के दूसरे केंद्रों में उनकी बात को सुना जाता है और उन्हें महत्व दिया जाता है.
मनरेगा के प्रावधान गैर-कुशलता वाली नौकरियों में काम करने वाली माताओं की ज़रूरतों के प्रति भी संवेदनशील हैं; कामकाज की जगहों पर बच्चों को संभालने के लिए क्रैच की सुविधा, काम और भुगतान के प्रति पूरी जवाबदेही, रोज़मर्रा के कामकाज में पारदर्शिता और ठेकेदारों व बिचौलियों की भूमिका को खत्म किए जाने ने महिलाओं के लिए काम को आसान बनाया है और इन स्थितियों ने महिलाओं के पक्ष में काम किया है. इसने लैंगिक असमानताओं को भी कम किया है, और महिलाओं को अपने हक़ में सौदेबाज़ी की शक्ति दी है. हालांकि, ग्रामीण महिलाओं और पुरुषों के बीच अभी भी वेतन का व्यापक अंतर मौजूद है. इससे शिक्षा और महिलाओं के रोज़गार के बीच ‘यू-आकार’ का एक संबंध पैदा होता है, जिसके तहत अशिक्षित या कम शिक्षा प्राप्त महिला ‘संकट से प्रेरित’ होकर रोज़गार तलाशती है, जबकि एक बेहतर शिक्षित महिला के पास बेहतर रोज़गार चुनने और बेहतर वेतन पाने के व्यापक अवसर होते हैं. भुगतान से जुड़े रोज़गार के अवसर ज़्यादातर, सरकारी रोज़गार यानी सरकार द्वारा उन लोगों के रोज़गार पैदा किए जाने से जुड़े होते हैं, जिन्हें कोई दूसरा काम नहीं मिल रहा हो, अंग्रेज़ी में इसे “employer of the last resort” के रुप में समझा जाता है. ऐसे मामलों में मुमकिन है कि भुगतान की एवज़ में किए गए काम भी महिलाओं को सशक्त न बना पाएं. मनरेगा के माध्यम से श्रमिकों को अपने काम को स्वयं चुनने का विकल्प मिलता है. मनरेगा की शुरुआत के पीछे मुख्य लक्ष्य यह है कि यह रोज़गार के ज़रिए लोगों को सामाजिक और आर्थिक रूप से समानता का अधिकार देता है और उनके आत्म-सम्मान व आत्मविश्वास को बढ़ाता है. कई मामलों में यह ग्रामीण महिलाओं के लिए उनकी योग्यता और क्षमता को पहचानने के एक तंत्र के रूप में भी काम कर सकता है.
शिक्षा और महिलाओं के रोज़गार के बीच ‘यू-आकार’ का एक संबंध पैदा होता है, जिसके तहत अशिक्षित या कम शिक्षा प्राप्त महिला ‘संकट से प्रेरित’ होकर रोज़गार तलाशती है, जबकि एक बेहतर शिक्षित महिला के पास बेहतर रोज़गार चुनने और बेहतर वेतन पाने के व्यापक अवसर होते हैं.
ग्रामीण महिलाओं को पर्यावरणीय माध्यमों के ज़रिए सशक्त बनाना
पर्यावरण अनुसंधान से जुड़े कई संस्थान भी ग्रामीण महिलाओं के लिए रोज़गार पैदा करते हैं. राजस्थान के तिलोनिया में बेयरफुट कॉलेज (Barefoot College) के पाठ्यक्रमों के माध्यम से, महिलाएं न केवल शिक्षार्थियों और प्रशिक्षुओं के रूप में काम करती हैं, बल्कि वे गाँवों में टिकाऊ ऊर्जा संयंत्रों के संरक्षण से जुड़ी कोशिशों का हिस्सा भी बन गई हैं. सामुदायिक आधार पर काम करते हुए कम से कम 30 प्रतिशत महिलाओं को मिलाकर एक ऊर्जा और पर्यावरण समिति बनाई जाती है. यह समिति सबसे ग़रीब घरों की पहचान करती है, और ये पुरुष और महिलाएं 3 से 6 महीने के लिए ‘बेयर फुट सौर इंजीनियरों’ के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं. एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (TERI) ने इन क्षेत्रों में लाइटिंग ए बिलियन लाइव्स कार्यक्रम की शुरुआत की और ग्रामीण क्षेत्रों की मुट्ठी भर महिलाओं के साथ काम शुरु कर उन्हें ‘ऊर्जा उद्यमियों’ में बदल दिया. इस परियोजना ने वैश्विक स्तर पर 5.65 मिलियन लोगों को प्रभावित किया है और भारत के 24 राज्यों के अलावा 13 देशों को अपने अभियान में शामिल करते हुए, जून 2017 से अबतक दुनिया भर में 1,130,570 से ज़्यादा घरों को सहयोग प्रदान किया है. अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (आईएसए) के सदस्य के रूप में भारत ने टिकाऊ उर्जा क्षेत्र में महिला भागीदारी को बढ़ाया है. ऐसे में भारत के लिए अब अगला लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह इन ग्रामीण महिलाओं को टिकाऊ ऊर्जा से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों की कौशल विकास संबंधी परियोजनाओं में संलग्न करे, ताकि वो इस क्षेत्र में बेहतर हुनर वाले काम भी कर सकें.
डिजिटलीकरण के ज़रिए महिलाओं का सशक्तिकरण
तकनीकी उन्नति और ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटलीकरण के संबंध में, यह माना जाता है कि नई तकनीकें महिला सशक्तिकरण में योगदान नहीं दे सकतीं. साथ ही बहुत मुमकिन है कि इससे लिंग ध्रुवीकरण और गहराए और अमीर-ग़रीब के बीच की दूरी या आर्थिक विभाजन और अधिक बढ़ जाए. ऐसे में सबसे ज़रूरी सवाल यह है कि डिजिटल साक्षरता का उपयोग लिंग के अंतर को कम करने और मोबाइल प्रौद्योगिकी के स्वामित्व में लिंग संबंधी समानता पैदा करने के लिए किया जा सकता है या नहीं. नवंबर 2016 में भीषण सूखे के बाद, अब्दुल लतीफ जमील पावर्टी एक्शन लैब (J-PAL) द्वारा नाइजर में किए गए गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के एक हिस्से के रूप में, 96 गांवों के कुछ चयनित घरों में बिना किसी शर्त पैसे का हस्तांतरण किया गया. एक समूह को नकद प्राप्त हुआ, दूसरे समूह को ऑनलाइन धन हस्तांतरित किया गया और तीसरे समूह को नकद और ऑनलाइन दोनों रुप से धन हस्तांतरित किया गया. इस प्रयोग के परिणाम सामने आने पर पता चला कि जिन इलाकों में ऑनलाइन पैसे हस्तांतरित किए गए थे, वहां बच्चों की आहार संबंधी आवश्यकताओं में 10 प्रतिशत सुधार हुआ साथ ही उन क्षेत्रों में महिलाओं द्वारा उगाई जाने वाली फसलों की उपज में भी वृद्धि हुई. इससे पता चलता है कि नक़दी के सरल डिजिटल हस्तांतरण भर से महिलाओं के लिए सही जगह पैसे खर्च करना और परिवार के भीतर इस संबंध में मोलभाव करना संभव हो पाया.
इसी तरह की एक पहल वोडाफ़ोन इंडिया ने एम-पैसा (M-pesa) के ज़रिए की जो, 2013 में केन्या के एक मॉडल से प्रेरित था. यह योजना काम नहीं कर पाई क्योंकि भारतीय रिज़र्व बैंक ने इसे नकद हस्तांतरण प्रणाली के बजाय बैंकिंग सेवा के रूप में देखा, और क्योंकि आवेदन और पंजीकरण की प्रक्रिया भी बेहद जटिल और समय लेने वाली थी. हालांकि, एम-पैसा को जिन इलाकों में शुरु किया गया वहां, 8.4 मिलियन से ज़्यादा लोगों को वित्तीय समावेशन का लाभ मिला. वोडाफ़ोन और आइडिया सेलुलर के विलय के बाद इस योजना की काफ़ी निंदा हुई क्योंकि इसके बाद ये दोनों ही इस योजना से बाहर निकल गए. फिर भी, इस प्रयोग ने PayTm, PayPal, GooglePay जैसी नई कंपनियों और पैसा हस्तांतरण के पहले से भी अधिक सुगम और नए तरीकों के लिए रास्ता बनाया, जिसने महिलाओं के लिए नए अवसर पैदा किए और उन्हें पैसे से जुड़े फैसले खुद लेने का अधिकार दिया.
इस तरह की डिजिटल उन्नति को व्यापक रूप से शिक्षा पाठ्यक्रमों के अंतर्गत आने वाले डिजिटल कौशल कार्यक्रमों के साथ जोड़ा जाना चाहिए, ताकि महिलाओं में वित्तीय मामलों की जानकारी बढ़े और वो अपने आर्थिक मामलों को बेहतर ढंग से समझने और निपटाने में सक्षम हों. यदि ऐसा हो पाता है तो इससे ग्रामीण इलाकों में पैठ कर चुके पितृसत्तात्मक मानदंडों और रीति-रिवाज़ों को भी चुनौती मिलेगी और महिलाएं व पुरुष रूढ़िबद्ध सोच से आगे बढ़ पाएंगे.
एक महिला जो पर्यावरण की दृष्टि से जागरुक है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र है, और डिजिटल रूप से मुखर है, अंततः देश के राजनीतिक फलक पर एक लोकतांत्रिक आवाज़ बन कर उभरेगी और इस क्षेत्र में बराबरी कायम करने की दिशा में आगे बढ़ेगी.
एक महिला जो पर्यावरण की दृष्टि से जागरुक है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र है, और डिजिटल रूप से मुखर है, अंततः देश के राजनीतिक फलक पर एक लोकतांत्रिक आवाज़ बन कर उभरेगी और इस क्षेत्र में बराबरी कायम करने की दिशा में आगे बढ़ेगी. साल 2015 में इंटेलकैप (Intellecap) नाम की एक वैश्विक विकास परामर्श कंपनी ने ग्रामीण क्षेत्रों में मूल्य श्रृंखलाओं की पहचान और उनके डिजिटलीकरण की शुरुआत की. उन्होंने इस मॉडल के प्रमुख लाभार्थियों की पहचान करने का लक्ष्य रखा, क्योंकि महिलाएं गैर-कृषि संबंधित गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने, गांव के पारिस्थितिक तंत्र को संरक्षित करने और सौर-ऊर्जा उद्यमियों के रूप लगातार काम कर रही थीं. इस तरह के मॉडल ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को नई तकनीकों से रूबरू कराते हुए, रोज़गार और सशक्तीकरण के नए अवसर पैदा कर सकते हैं, और इस दिशा में बहुत आगे जाने की संभावना रखते हैं.
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