Authors : Mona | Shoba Suri

Occasional PapersPublished on Apr 19, 2024
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भारत की बुज़ुर्ग महिलाओं में जेंडर के आधार पर गैर-संचारी बीमारियों की बहुलता: एक विश्लेषण

  • Mona
  • Shoba Suri

    हाल के दशकों में देखा जाए तो, जिस प्रकार से चिकित्सा के क्षेत्र में तेज़ी के साथ विकास हुआ है और प्रजनन दर में कमी आई है, उसने भारत में वृद्ध वयस्कों की जनसंख्या बढ़ाने में अहम योगदान दिया है. लेकिन ऐसा नहीं है कि चिकित्सा क्षेत्र में हुई प्रगति का और महामारी विज्ञान को लेकर नए-नए शोधों का सभी बुजुर्गों को एक समान फायदा हुआ है. अगर जनसांख्यिकी की बात की जाए तो ख़ास तौर पर बुजुर्ग महिलाओं को चिकित्सा क्षेत्र में हुई इस प्रगति का अपेक्षाकृत उतना फायदा नहीं मिला है. कहने का मतलब यह है कि 60 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा, बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में गैर-संचारी रोगों (NCDs) यानी संक्रमण से नहीं फैलने वाली बीमारियों, जैसे डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, हड्डी व जोड़ों के रोग, कैंसर, मानसिक विकार और अवसाद से पीड़ित है. वृद्ध वयस्कों में अगर महिलाओं और पुरुषों की तुलना की जाए, तो 1,000 वृद्ध महिलाओं में इन गैर-संचारी बीमारियों से पीड़ितों की संख्या 62 है, जबकि बुजुर्ग पुरुषों में प्रति 1,000 पर 36 है. इस पेपर में वृद्ध वयस्क महिलाओं यानी बुजुर्ग महिलाओं में गैर-संक्रमित रोगों के अधिक प्रसार के कारणों की पड़ताल करने का प्रयास किया गया है. इस असमानता की पड़ताल के दौरान उपलब्ध आंकड़ों और अध्ययनों की समीक्षा की गई, जिसमें यह पता चला है कि पारंपरिक रूप से महिलाओं की समाज और परिवार में जो भूमिकाएं हैं और सामाजिक-आर्थिक रूप से जो विषमताएं व्याप्त हैं, उनकी वजह से बुजुर्ग महिलाओं में गैर-संचारी बीमारियों की चपेट में आने की संभावना अधिक होती है. इस पेपर में लॉन्गिट्यूडिनल एजिंग स्टडी इंडिया (2017-18) के पहले चरण के आंकड़ों का उपयोग किया गया है और उनके व्यापक अध्ययन के माध्यम से यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया है कि वृद्ध वयस्क महिलाओं के लिए लैंगिक एवं आयु के हिसाब से उपयुक्त स्वास्थ्य प्रणाली स्थापित करने के लिए अलग से नीतियां बनाना बेहद ज़रूरी है.

Attribution:

मोना और शोबा सूरी, "भारत की बुज़ुर्ग आबादी में लैंगिक आधार पर गैर-संचारी बीमारियों का संक्रमण: एक विश्लेषण," ओआरएफ़ समसामयिक पेपर नंबर 428, फरवरी 2024, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन.

प्रस्तावना

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार गैर-संचारी रोग (NCDs), या पुरानी बीमारियां ऐसी बीमारियां हैं, जिनसे मरीज़ काफ़ी लंबे समय से पीड़ित होता है और जो आनुवंशिक रोगों, शारीरिक, पर्यावरणीय और व्यवहारिक कारकों का मिलाजुला नतीज़ा होती हैं.[1] प्रमुख गैर-संचारी बीमारियों में हृदय रोग, कैंसर, सांस से जुड़े पुराने रोग और मधुमेह शामिल हैं. इस पेपर में भारत में गैर-संचारी बीमारियों से पीड़ित वृद्ध वयस्क महिलाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है. ज़ाहिर है कि वृद्ध वयस्क महिलाओं के गैर-संचारी रोगों से ग्रसित होने के लिए कई वजहें ज़िम्मेदार होती हैं. इसके अलावा वो कारण भी ज़िम्मेदार होते हैं, जिन्हें विशेषज्ञ "स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक" भी कहते हैं. ये "सामाजिक परिस्थितियां वो होती हैं, जिनमें लोग पैदा होते हैं, उनकी परवरिश होती है, वे कामकाज करते हैं और जीवन यापन करते हैं. यानी ऐसी परिस्थितियां, जो व्यापक तौर पर लोगों के रोज़मर्रा के जीवन को प्रभावित करती हैं."[2] इन परिस्थितियों में आय और सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा, बेरोज़गारी और नौकरी की असुरक्षा, आवास, बुनियादी सुविधाएं और पर्यावरण जैसे मुद्दे शामिल हो सकते हैं.

देखा जाए तो स्वास्थ्य देखभाल के मामले में महिलाएं हमेशा से हाशिए पर रही हैं, यानी उनकी सेहत ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है या कहा जाए कि उनकी बीमारियों को अहमियत नहीं दी जाती है. महिलाएं जब गर्भवती होती हैं, बच्चे को जन्म देती हैं तभी उनके स्वास्थ्य को तवज्जो दी जाती है, उसके बाद महिलाओं के स्वास्थ्य पर ध्यान देना बंद कर दिया जाता है. ऐसे में आगे चलकर जैसे-जैसे इन महिलाओं की उम्र बढ़ती जाती है, वे अशिक्षित, वित्तीय रूप से असुरक्षित और बीमारियों से पीड़ित आबादी का हिस्सा बन जाती हैं और उन्हें हर स्तर पर असमानता झेलने पर मज़बूर होना पड़ता है. इस पूरी परिस्थिति को कहीं न कहीं महिलाओं को लेकर व्याप्त सामाजिक पूर्वाग्रहों और उनकी लैंगिक भूमिकाओं के प्रभाव के माध्यम से समझा जा सकता है. उदाहरण के तौर पर परिवार में बुजुर्ग महिलाओं की स्थित बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में बदतर होती है और वृद्ध वयस्क महिलाओं को अवैतनिक घरेलू कार्यों में अधिक समय बिताना पड़ता है. (बुजुर्ग महिलाओं को प्रतिदिन 245 मिनट अवैतनिक कार्य करने पड़ते हैं, जबकि बुजुर्ग पुरुषों को केवल 112 मिनट ही ऐसे कार्य करने पड़ते हैं). इतना ही नहीं, अक्सर वृद्ध वयस्क महिलाओं को ज़्यादा मेहनत वाले कार्यों से दूर कर दिया जाता है और तुलनात्मक रूप से कम वेतन दिया जाता है. इसके अलावा डिजिटल उपकरणों और टेक्नोलॉजी यानी मोबाइल, इंटरनेट आदि तक भी उनकी पहुंच कम होती है. वृद्ध वयस्क महिलाओं को अक्सर लिंग आधारित हिंसा का भी सामना करना पड़ता है. इसके अतिरिक्त बुजुर्ग महिलाओं को उचित खान-पान नहीं मिलने से उनमें पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और इससे उम्र बढ़ने के साथ-साथ उनमें एनीमिया (3.1 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 5.9 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित होती हैं) और मोटापा (3.4 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 10.2 प्रतिशत महिलाएं मोटापे से ग्रस्त होती) जैसी बीमारियां बढ़ जाती हैं.

वर्ष 2021 में भारत में बुजुर्गों की आबादी [A]13.8  करोड़ थी, जिसमें महिलाओं की संख्या 7.1 करोड़ थी.[3] इसके अलावा, वर्ष 1961 के बाद से देश की कुल आबादी में बुजुर्गों की संख्या लगातार बढ़ रही है. यानी 1961 में भारत में बुजुर्ग पुरुषों की आबादी कुल जनसंख्या की 5.5 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2021 में बढ़कर 9.6 प्रतिशत हो गई, वहीं 1961 में देश की कुल आबादी में बुजुर्ग महिलाएं 5.8 प्रतिशत थीं, जिनकी संख्या 2021 में बढ़कर 10.7 प्रतिशत पर पहुंच गई. (चित्र 1 देखें).

चित्र 1: भारत की कुल आबादी के प्रतिशत के रूप में बुजुर्गों की जनसंख्या

स्रोत: 2021 में भारत में बुजुर्गों की आबादी, सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय[4]

आंकड़ों से साफ है कि हाल के वर्षों में भारत में बुजुर्गों की आबादी लगातार बढ़ रही है. लेकिन जिस अनुपात में बुर्जुगों की आबादी में इज़ाफा हुआ है, उस अनुपात में बुजुर्गों द्वारा सामना की जाने वाली विशेष प्रकार की स्वास्थ्य चुनौतियों का समाधान तलाशने पर ध्यान नहीं दिया गया है. ज़ाहिर है कि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS) और जनगणना के दौरान नियमित तौर पर बुजुर्गों की आबादी के बारे में जानकारी एकत्र की जाती है, लेकिन उसमें इस तरह के आंकड़ों का अभाव होता है, जिनसे पता चले कि बुजुर्गों को उम्र बढ़ने के साथ-साथ किस प्रकार की गैर-संक्रमित बीमारों का सामना करना पड़ता है. उल्लेखनीय है कि अगर वृद्ध वयस्कों को होने वाले वाले गैर-संचारी रोगों की समुचित जानकारी उपलब्ध होगी, तो भारत को सतत विकास लक्ष्य 3 और 5 में शामिल लक्ष्यों को पूरा करने के लिए बुजुर्गों की समस्याओं से संबंधिति नीतियां बनाने में मदद मिलेगी. ख़ास तौर पर देखा जाए, तो वृद्ध वयस्कों द्वारा जिन चुनौतियों का सामना किया जाता है, उनका समाधान निम्नलिखित लक्ष्यों से संबंधित है:

  • 4 (गैर-संचारी रोगों से पीड़ित बुजुर्गों की बीमारी का बचाव एवं उपचार करके उनकी समय से पहले होने वाली मृत्यु की दर को एक तिहाई तक कम करना और बुजुर्गों के मानसिक स्वास्थ्य और अच्छी सेहत को बढ़ावा देना);
  • 8 (व्यापक स्वास्थ्य कवरेज हासिल करने के लिए, जिसमें सभी के लिए वित्तीय लिहाज़ से सुरक्षा, सभी की गुणवत्तापूर्ण ज़रूरी हेल्थकेयर सेवाओं तक पहुंच और सभी तक सुरक्षित, प्रभावी, गुणवत्तापूर्ण एवं किफायती आवश्यक दवाओं एवं वैक्सीनों की सुविधा सुनिश्चित करना शामिल है), और
  • 4 (सार्वजनिक सेवाओं, बुनियादी ढांचे और सामाजिक सुरक्षा नीतियों के प्रावधानों के ज़रिए अवैतनिक देखभाल और घरेलू काम के महत्व को स्वीकार करना और वर्ष 2030 तक राष्ट्रीय स्तर पर घर एवं परिवार के अंदर समुचित सहभागी उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करना).

इसके अलावा, इस पेपर में संयुक्त राष्ट्र स्वस्थ वृद्धावस्था दशक (2021-2030) के मुताबिक़ व्यक्ति-केंद्रित एकीकृत स्वास्थ्य देखभाल और दीर्घकालिक स्वास्थ्य सेवाओं को ज़मीनी स्तर पर लागू करने की सिफ़ारिश की गई है. यानी ऐसी स्वास्थ्य सेवाओं को लागू करने की सिफ़ारिश की गई है, जो वृद्धजनों के लिहाज़ से विशेष रूप से विकसित की गई हों.

मौज़ूदा अध्ययनों और आंकड़ों की समीक्षा

वैश्विक अध्ययनों का विश्लेषण

विकसित और विकासशील दोनों ही प्रकार के देशों में बुजुर्गों के स्वास्थ्य को लेकर हुई रिसर्च यानी बुजुर्गों से ही उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछे गए सवालों के जो जवाब हासिल हुए हैं, उनसे स्पष्ट हो गया है कि बजुर्ग महिलाएं एवं बुजुर्ग पुरुषों के स्वास्थ्य के बीच बहुत बड़ा अंतर है. उदाहरण के तौर पर वियतनाम में ली, क्वाशी और प्रचुआबमोह (2018) द्वारा वृद्ध वयस्कों के बीच किए गए अध्ययन में जो तथ्य सामने आए हैं, उनके मुताबिक़ पुरुषों की तुलना में अपने खराब स्वास्थ्य की बात करने वाली महिलाओं की संख्या अधिक थी.[5] सिंगापुर में भी वृद्ध वयस्कों के स्वास्थ्य को लेकर इसी प्रकार की स्टडी की गई और इसमें जब बुजुर्गों से उनके स्वास्थ्य से जुड़े सवाल पूछे गए, तो उसमें भी सामने आया कि पुरुषों के मुक़ाबले महिलाएं स्वास्थ्य समस्याओं, ख़ास तौर पर पुरानी बीमारियों से अधिक पीड़ित थीं, साथ ही उन्हें ख़राब सेहत की वजह से रोज़मर्रा के कामकाज करने में भी दिक़्क़त पेश आती थी. इस अध्ययन में एक और अहम बात यह सामने आई कि जब जनसांख्यिकीय, सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों एवं स्वास्थ्य से जुड़े ख़तरों को नियंत्रित किया गया और बुजुर्गों का सामाजिक सहयोग किया गया तो पुरानी बीमारियों से पीड़ित बुजुर्ग पुरुषों और महिलाओं के बीच यह अंतर काफ़ी कम हो गया था.[6] इस बीच, लैटिन अमेरिका और कैरेबियन इलाक़े के 7 शहरों में भी बुजुर्गों के बीच इसी तरह का अध्ययन किया गया. इस स्टडी के परिणाम भी कुछ ऐसे ही थे, यानी वृद्ध वयस्क पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या में वृद्ध वयस्क महिलाओं ने अपनी ख़राब सेहत की बात कही थी.[7] ताइवान की बात करें तो वहां स्वास्थ्य से जुड़ी विभिन्न सुविधाओं की व्यापकता के बावज़ूद वृद्ध पुरुषों की तुलना में वृद्ध महिलाओं ने अपनी सेहत अधिक ख़राब होने की बात कही.[8] इसी प्रकार से मेक्सिको में किए गए सर्वेक्षण में भी वृद्ध महिलाओं ने वृद्ध पुरुषों की तुलना में अपने स्वास्थ्य को ख़राब बताया है.[9]

पूरी दुनिया में किए गए विभिन्न अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि चाहे पुरानी बीमारियों के बारे में हो या फिर अन्य रोगों के लेकर, महिलाओं में एक से अधिक रोगों से ग्रसित होने के मामले पुरुषों की तुलना में ज़्यादा पाए जाते हैं. 

इतना ही नहीं, पूरी दुनिया में किए गए विभिन्न अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि चाहे पुरानी बीमारियों के बारे में हो या फिर अन्य रोगों के लेकर, महिलाओं में एक से अधिक रोगों से ग्रसित होने के मामले पुरुषों की तुलना में ज़्यादा पाए जाते हैं. इसके पीछे तमाम कारण है और इनमें जैविक, सामाजिक-सांस्कृति और आर्थिक वजहें भी हैं. वर्तमान अध्ययनों में भी विशेष रूप से विभिन्न आयु वर्ग की महिलाओं में गैर-संचारी रोगों की व्यापकता दिखाई देती है.

नेपाल की बात की जाए, तो वहां किए गए अध्ययन में सामने आया है कि कैंसर से प्रभावित मरीज़ों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या काफ़ी अधिक है.[10] इतना ही यह भी पता चला कि नेपाल में युवा महिलाओ में स्तन कैंसर के मामले अधिक हैं, जबकि अधेड़ उम्र की महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर अधिक पाया गया है और बुजुर्ग महिलाओं में फेफड़ों का कैंसर होना अधिक सामान्य है.[11] जहां तक डायबिटीज यानी मधुमेह और फास्टिंग ग्लूकोज, यानी खाली पेट ग्लूकोज का स्तर बढ़ने की बात है तो यह उम्र बढ़ने के साथ-साथ पुरुषों और महिलाओं में यह समान रूप से दिखाई दिया है.[12],[13] इसी तरह से युगांडा में बुजुर्गों पर आधारित एक स्टडी में सामने आया है कि 60 से 69 वर्ष और 70 से 79 वर्ष आयु समूहों के बुजुर्गों में गैर-संचारी बीमारियां होना सामान्य बात थी, लेकिन इन आयु वर्गों में वृद्ध महिलाओं में ये बीमारियां होने की संभावना ज़्यादा थी.[14] चीन में किए गए अध्ययन के मुताबिक़ वहां पुरुषों में डायबिटीज, उच्च रक्तचाप और डिस्लिपिडेमिया के मामले अधिक थे, जबकि महिलाओं में ऑस्टियोपोरोसिस से पीड़ित होने के मामले अधिक थे.[15] इस स्टडी में यह भी पता चला कि पुरुषों और महिलाओं दोनों में उम्र बढ़ने के साथ-साथ मधुमेह, ऑस्टियोपोरोसिस और उच्च रक्तचाप का प्रचलन बढ़ता गया, जबकि मोटापा और डिस्लिपिडेमिया की बीमारी केवल महिलाओं में ही उम्र के साथ बढ़ती देखी गई.

इसी प्रकार से ईरान की एक बड़ी कंपनी के कर्मचारियों में बीमारियों को लेकर एक अध्ययन किया गया, जिसमें सामने आया कि पुरुष और महिला, दोनों ही कर्मचारियों में उम्र के साथ मधुमेह, हृदय संबंधी रोग, ऑस्टियोपोरोसिस और कैंसर का प्रसार बढ़ गया.[16] क़तर में की गई एक स्टडी में भी इसी तरह के नतीज़े सामने आए. इस स्टडी के अनुसार उम्र के साथ-साथ पुरुषों और महिलाओं दोनों में ही इन बीमारियों का प्रसार बढ़ता गया, साथ ही यह बढ़ोतरी 30 से 49 आयु वर्ग की महिलाओं और पुरुषों में सबसे अधिक थी.[17] कनाडा में भी वयस्कों पर इसी प्रकार का अध्ययन किया गया. इसमें पता चला कि महिलाओं में गठिया एवं हाई ब्लडप्रेसर जैसी पुरानी बीमारियों के कारण, उनकी सेहत पुरुषों की तुलना में ज़्यादा ख़राब थी. इसके अलावा, इस स्टडी में यह भी सामने आया कि महिलाओं के ख़राब स्वास्थ्य के पीछे कहीं न कहीं उन्हें स्वास्थ्यपरक सामाजिक एवं भौतिक परिस्थितियां नहीं मिलना ज़िम्मेदार है, इसके साथ ही महिलाओं की जो सामाजिक भूमिकाएं हैं और उनसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में जो तनाव पैदा होता है, उसने भी उनकी सेहत बिगाड़ने का काम किया है.[18]

ज़ाहिर है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं की आय कम होती, सिंगल पेरेंट होने पर, ज़्यादातर महिलाओं को ही दिन-रात काम में खटना पड़ता है, यानी उन्हें नौकरी के लिए भी समय देना पड़ता है और घरेलू कामकाज, बच्चों की देखभाल में भी पूरा वक़्त देना होता है. इसके साथ ही महिलाओं को ऐसे पेशों में काम करना पड़ता है, जिन्हें कमतर समझा जाता है. अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, जर्मनी और स्पेन में विभिन्न शहरों में बुजुर्गों को लेकर किए गए एक विश्लेषण में सामने आया है कि वैतनिक कार्य, घरेलू कामकाज और फुरसत के पलों यानी अन्य मनोरंजक गतिविधियों के लिए जो समय आवंटित किया गया है, वो महिलाओं और पुरुषों दोनों के ही बेहतर स्वास्थ्य के मुताबिक़ था, हालांकि जर्मनी, इटली और स्पेन में इसमें लैंगिक अंतर पाया गया था, यानी इन देशों में महिलाओं के साथ बराबरी का बर्ताव नहीं किया गया था.[19]

गैर-संचारी रोग और स्वास्थ्य जोख़िम वाले व्यवहार, यानी जिनसे बीमारी का ख़तरा बढ़ता है और जो आगे चलकर दिव्यांगता या मृत्यु का कारण बन सकते हैं, इनका लैंगिक आधार पर किस प्रकार से प्रसार होता है, अर्थात यह महिलाओं को किस प्रकार से अधिक प्रभावित करते हैं, उसको लेकर दुनियाभर में काफ़ी अध्ययन किए गए हैं और इसको लेकर विस्तृत आंकड़े भी उपलब्ध हैं. ब्रज़ील के ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीब बुजुर्गों के बीच स्वास्थ्य जोख़िम वाले व्यवहार का क्या प्रभाव पड़ता है, उसे जानने के लिए एक अध्ययन किया गया. इस अध्ययन में पाया गया कि ग्रामीण इलाक़ों में पुरुष और महिलाएं, दोनों ही धूम्रपान एवं शराब पीने के आदी थे और धूम्रपान करने के साथ कोई शारीरिक मेहनत भी नहीं करते थे, ज़ाहिर है कि यह उनके स्वास्थ्य के लिहाज़ से बेहद ख़तरनाक था.[20] इस स्टडी में यह भी पता चला कि महिलाओं की तुलना में ग्रामीण पुरुष शारीरिक रूप से अधिक निष्क्रिय थे. ब्राज़ील में बुजुर्गों पर किए गए एक अन्य अध्ययन से पता चला कि महिलाओं और पुरुषों की शारीरिक निष्क्रियता और उनका अधिक वजन स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा ख़तरा था.[21] इसी प्रकार से इथियोपिया में एक समुदाय पर आधारित स्टडी में सामने आया कि शराब पीना, शारीरिक निष्क्रियता और कम मात्रा में फल और सब्जियों का सेवन जैसी कई आदतें पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अधिक थीं.[22]

दक्षिण अफ्रीक्रा में यह भी देखा गया है कि वहां 50 वर्ष से अधिक आयु वालों के लिए पेंशन कवरेज 51 प्रतिशत था, जबकि 65 वर्ष से अधिक आयु वालों के लिए पेंशन कवरेज 79 प्रतिशत था.[23] शोध में आगे कहा गया है कि जिसको जितने अधिक दिनों से पेंशन मिल रही थी, वो उपचार के लिए उतना ही अधिक डॉक्टरों के पास जा रहा था और उच्च रक्तचाप की बीमारी का इलाज करा रहा था. अर्थात उम्र बढ़ने के साथ-साथ बीमारी बढ़ती जा रही थी, लेकिन पेंशन मिलने की वजह से बुजुर्गों को इलाज कराने में कोई दिक़्क़त नहीं थी. इसी प्रकार से वियतनाम में भी परिवारों के बीच स्वास्थ्य से जुड़े एक अध्ययन के मुताबिक़ जो व्यक्ति गैर-संचारी रोगों से पीड़ित थे और स्वास्थ्य बीमा भी करवा रखा था, ऐसे लोगों की इलाज के लिए ओपीडी यानी अस्पताल में डॉक्टरों के पास जाने की संभावना, ऐसे व्यक्तियों की तुलना में दोगुनी थी, जिनका हेल्थ इंश्योरेंस नहीं था. हालांकि, इस अध्ययन में ऐसे परिवारों, जिनमें गैर-संचारी रोग से पीड़ित सदस्य हैं, उनकी स्थिति और स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी होने के बीच कोई ख़ास संबंध नहीं मिला.[24]

भारतीय संदर्भ में किए गए अध्ययन

भारत की बात की जाए, तो भारत में भी कुछ इसी तरह के आंकड़े सामने आए हैं. भारत में प्रति 1,000 महिलाओं में से 62 में गैर-संचारी रोग होने की संभावना है, जबकि 1,000 पुरुषों में से महज 36 को ही डायबिटीज, रक्तचाप, कैंसर आदि जैसी गैर-संचारी बीमारियां होने की संभावना है.[25] भारत में उच्च रक्तचाप, अवसाद, आंत्रशोध और डायबिटीज सबसे प्रचलित गैर-संचारी बीमारियां हैं. भारत में बुजुर्ग ग्रामीण महिलाओं के स्वास्थ्य की स्थिति को समझने के लिए वर्ष 2012 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़ उच्च रक्तचाप सबसे अधिक होने वाला गैर-संचारी रोग है (78 प्रतिशत बुजुर्ग ग्रामीण महिलाओं ने बताया कि उन्हें उच्च रक्तचाप है). इसके बाद सबसे अधिक होने वाली बीमारियों में डायबिटीज (66 प्रतिशत), ऑस्टियोअर्थराइटिस (73 प्रतिशत) और ब्रॉन्कियल अस्थमा (77 प्रतिशत) शामिल हैं.[26]

भारत में 2017 में पहली लॉन्गिट्यूडिनल एजिंग स्टडी (LASI) द्वारा जारी आंकड़ों से पता चला कि भारत में किस प्रकार से गैर-संचारी रोगों के फैलाव में लैंगिक अंतर व्याप्त है, इसके साथ ही सामाजिक-जनसांख्यिकीय एवं जोख़िम कारकों में कितना लैंगिक अंतर है, यानी महिलाएं इन बीमारियों से पुरुषों की तुलना में कितनी अधिक प्रभावित हैं.[27] बुजुर्गों से उनकी स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में जानकारी हासिल करने वाले अध्ययनों ने यह सिद्ध किया है कि उनके बीच किस हद तक लैंगिक अंतर है. यानी किस प्रकार से बुजुर्ग महिलाएं गैर-संचारी बीमारियों की चपेट में अधिक हैं.[28],[29],[30],[31] इसी प्रकार से LASI की रिपोर्ट में बताया गया है कि 45 से 59 वर्ष के लोगों की तुलना में 60 वर्ष और उससे अधिक आयु के बुजुर्गों में स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं अमूमन दोगुना होती है.[32] इसमें भी वृद्ध महिलाओं को सेहत से जुड़ी समस्याओं की संभावना सबसे अधिक है.

भारत में बुजुर्ग महिलाओं की स्वास्थ्य समस्यायों को लेकर किए गए अध्ययन में उन्हें तीन आयु वर्गों यानी 60 से 69 वर्ष, 70 से 79 और 80 से ऊपर की आयु वर्ग में विभाजित किया गया है. इस स्टडी में पाया गया कि भारतीय बुजुर्ग महिलाओं में उम्र बढ़ने के साथ-साथ मधुमेह और कैंसर जैसी बीमारियों का प्रसार बढ़ जाता है

भारत में बुजुर्ग महिलाओं की स्वास्थ्य समस्यायों को लेकर किए गए अध्ययन में उन्हें तीन आयु वर्गों यानी 60 से 69 वर्ष, 70 से 79 और 80 से ऊपर की आयु वर्ग में विभाजित किया गया है. इस स्टडी में पाया गया कि भारतीय बुजुर्ग महिलाओं में उम्र बढ़ने के साथ-साथ मधुमेह और कैंसर जैसी बीमारियों का प्रसार बढ़ जाता है.[33] भारत के पूर्वी राज्यों में महिलाओं के स्वास्थ्य पर किए गए एक अध्ययन में सामने आया कि जिन लड़कियों की कभी शादी हुई थी, उनमें माइल्ड एनीमिया यानी हल्की श्रेणी की ख़ून की कमी सबसे अधिक पाई गई, जबकि ऐसी लड़कियों में जो कुंवारी थीं, उनमें माइल्ड एनीमिया लगभग नहीं पाया गया. मध्यम श्रेणी की ख़ून की कमी उन युवा लड़कियों में सबसे अधिक थी, जिनकी कभी शादी नहीं हुई थी और जिन लड़कियों की किशोरावस्था में शादी हुई थी. इसकी प्रकार से गंभीर दर्ज़े की ख़ून की कमी उन बुजुर्ग महिलाओं में सबसे अधिक देखने को मिली, जिनकी कभी शादी नहीं हुई थी, जबकि उन बुजुर्ग महिलाओं में जिनकी कम उम्र में शादी हुई थी, उनमें गंभीर एनीमिया की बीमारी कम थी.[34]

मोटापा या अधिक वजन भी स्वास्थ्य से जुड़ी एक बड़ी चिंता है और कई तरह की गैर-संचारी बीमारियों से इसका क़रीबी संबंध है.[35] ऐसा इसलिए, क्योंकि मोटापे की वजह से कई गैर-संचारी रोगो होने का ख़तरा बढ़ जाता है, साथ ही यह विकलांगता की वजह भी बन सकता है और मौत का कारण भी बन सकता है. हालांकि, कमर की चौड़ाई और कमर एवं कूल्हे का अनुपात कहीं न कहीं बुजुर्ग पुरुषों और महिलाओं दोनों में ही होने वाली तमाम बीमारियों के तेज़ी से फैलाव की वजह बने हुए हैं. इतना ही नहीं, वृद्ध महिलाओं में कमर और कूल्हे के अनुपात की समस्या बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में अधिक पाई गई है. स्टडी के मुताबिक 75.4 प्रतिशत बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में 78.5 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं इससे पीड़ित होती हैं. इसी प्रकार से 37.1 प्रतिशत महिलाएं कमर की चौड़ाई से पीड़ित होती हैं, जबकि इससे ग्रसित बुजुर्ग पुरुषों का प्रतिशत महज 8.9 है.[36] मोटापा और अधिक वजन हृदय से जुड़ी कई बीमारियों, जैसे कि कोरोनरी हार्ट डिजीज, उच्च रक्तचाप और स्ट्रोक का कारण बनता है, साथ ही टाइप 2 डायबिटीज की भी वजह बन सकता है. इसके अलावा, मोटापा और अधिक वजन कई तरह के कैंसर का भी कारण बन जाता है, जैसे कि रजोनिवृत्ति के बाद महिलाओं में स्तन कैंसर, एंडोमेट्रियल कैंसर और कोलन व किडनी कैंसर. ज़ाहिर है कि यह सभी बीमारियां कहीं न कहीं बुजुर्ग महिलाओं में उच्च मृत्यु दर की बड़ी वजह बन कर उभरी हैं.[37] कुल मिलाकर अध्ययन में पाया गया है कि मोटापा, अधिक वजन और निष्क्रियता जैसे कारकों की वजह से पुरुषों की तुलना में महिलाओं में गैर-संचारी बीमारियों के होने की संभावना अमूमन अधिक थी. ज़ाहिर है कि बुजुर्ग महिलाओं में मोटापा होना आम बात है, साथ ही शारीरिक रूप से मेहनत नहीं करना भी सामान्य है.[38],[39]

LASI के आंकड़ों से भारत के पूर्वोत्तर और पूर्वी इलाक़ों में तंबाकू का अत्यधिक उपयोग किए जाने का भी पता चलता है. इसके साथ ही पता चला है कि शहरी क्षेत्रों के सभी आयु वर्ग के पुरुषों और महिलाओं में ग्रामीण इलाकों की तुलना में मोटापे की समस्या अधिक होती है. हालांकि ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में मोटापा एवं निष्क्रियता की वजह से जो स्वास्थ्य ख़तरे हैं, उनका फैलाव उम्र के साथ बढ़ता हुआ दिखा है.[40] विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक स्टडी के मुताबिक़ ऐसी वयस्क महिलाओं की संख्या पुरुषों की तलुना में अधिक है, जो शारीरिक मेहतन या शारीरिक गतिविधियों से दूर रहती हैं. जबकि धूम्रपान करने और शराब पीने के मामले में यह एकदम उलट है, यानी वयस्क महिलाओं की तुलना में पुरुष अधिक धूम्रपान करते हैं और शराब पीते हैं.[41] इसके आलवा अध्ययन में यह भी सामने आया है कि सबसे अधिक इनकम वाले वर्गों में 70 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में, ख़ास तौर पर 70 से अधिक की बुजुर्ग महिलाओं और तंबाकू खाने वाले बुजुर्गों में कई तरह के गैर-संचारी रोग होने की संभावना अधिक थी.[42]

कुंडू एवं अन्य (2022) में अपने शोध में यह भी पाया कि देश का कोई भी राज्य या क्षेत्र हो, वहां बुजुर्गों द्वारा निजी अस्पतालों में इलाज के लिए किया जाने वाला ख़र्च बहुत अधिक था. आंकड़ों के मुताबिक़ सरकारी अस्पतालों में ख़र्च की तुलना में बुर्जुगों द्वारा निजी अस्पतालों में पांच गुना अधिक धनराशि ख़र्च की गई थी.[43] LASI के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि हेल्थ इंश्योरेंस वाले वृद्ध लोगों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेने की संभावना अधिक दिखाई देती है और जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है इलाज़ के लिए डॉक्टरों के पास जाने का सिलसिला भी बढ़ता हुआ दिखाई दिया. लेकिन जब इलाज के लिए एक-दो दिन अस्पताल में भर्ती होने की बात आती है, तो आंकड़ों में यह दिखाई दिया कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ पुरुष एवं महिलाएं दोनों ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं या सरकारी अस्पतालों में कम जाते हैं. एक और तथ्य सामने आया है कि बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में महिलाएं डॉक्टरों से परामर्श लेने के लिए या इलाज के लिए अस्पताल में कम भर्ती होती हैं. ज़ाहिर है कि ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पुरुषों की तुलना में महिलाएं अपने स्वास्थ्य को लेकर ज़्यादा गंभीर नहीं होती है, या कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य को लेकर लापरवाह होती हैं.[44]

इतना ही नहीं वर्ष 1995-96 और 2014 के NSSO यानी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय की तरफ से जारी किए गए आंकड़ों से स्पष्ट रूप से पहली बात जो पता चलती है, वो यह है कि ऐसे कार्यों को करने वाले बुजुर्ग पुरुषों, जिसके लिए उन्हें भुगतान किया जाता है और ऐसे कार्यों को करने वाले बुजुर्ग पुरुषों, जिसके लिए कोई पैसा नहीं दिया जाता है या जो कोई काम ही नहीं करते हैं, उनका अनुपात बराबर है. जबकि वृद्ध महिलाओं के मामले में ऐसा नहीं है. 90 प्रतिशत वृद्ध महिलाएं ऐसी होती हैं, जो अवैतनिक कार्य करती हैं, यानी उन्हें कार्य के एवज में कोई भुगतान नहीं किया जाता है. NSSO के आंकड़ों से जो दूसरी बात निकलकर सामने आई, वो यह है कि जो ग़रीब बुजुर्ग अवैतनिक कार्यों में संलग्न रहते हैं, या कोई कार्य नहीं करते हैं, उन्हें स्वास्थ्य समस्याएं होने की संभावना प्रबल होती है, यानी इन दोनों के बीच कहीं न कहीं संबंध था.[45] अध्ययन में सामने आया है कि वेतनभोगी श्रमिकों से लेकर अवैतनिक श्रमिकों और गैर-कामकाजी आबादी तक बुजुर्गों में ख़राब स्वास्थ्य और चलने-फिरने में दिक़्क़त जैसी परेशानियां बढ़ती जाती हैं.[46] ज़ाहिर है कि महिलाएं अक्सर परिवार की देखभाल और घरेलू कामकाज में संलग्न रहती हैं और इसके लिए उन्हें या तो बहुत कम पैसा मिलता है या फिर वे मुफ्त में ही इन कार्यों को करती हैं और ये परिस्थितियां वृद्धावस्था में महिलाओं में गैर-संचारी बीमारियां होने की संभावना को बहुत बढ़ा देती हैं.

उल्लेखनीय है कि बुजुर्गों के लिए सामाजिक सुरक्षा उपाय मौज़ूद हैं या उपलब्ध नहीं है, इससे भी उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है. ग्लोबल साउथ के सभी देशों में देखा जाए तो बुजुर्ग नागरिकों को पेंशन और स्वास्थ्य बीमा की पर्याप्त सुविधा नहीं मिलती है.[47],[48],[49] गौरतलब है कि महिलाओं की उम्र पुरुषों की तुलना में अधिक होती है, यानी महिलाएं कहीं न कहीं पुरुषों की तुलना में अधिक समय तक जीवित रहती हैं, इसके बावज़ूद महिलाओं को नियमित वेतन वाले रोज़गार, रिटायरमेंट पर मिलने वाले लाभ और पेंशन जैसी सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं.[50]

विभिन्न आंकड़ों की विस्तृत समीक्षा से यह साफ तौर पर पता चलता है कि भारत में वृद्ध महिलाओं के बीच गैर-संचारी रोगों के प्रसार के लिए कई सामाजिक कारक ज़िम्मेदार हैं, जैसे कि आय, सामाजिक सुरक्षा और व्यवहारिक तौर-तरीक़े एवं जीवनशैली. 

विभिन्न आंकड़ों की विस्तृत समीक्षा से यह साफ तौर पर पता चलता है कि भारत में वृद्ध महिलाओं के बीच गैर-संचारी रोगों के प्रसार के लिए कई सामाजिक कारक ज़िम्मेदार हैं, जैसे कि आय, सामाजिक सुरक्षा और व्यवहारिक तौर-तरीक़े एवं जीवनशैली. हालांकि, ये जितने भी अध्ययन किए गए हैं और अलग-अलग क्षेत्रों एवं वर्गों के बीच से आंकड़े जुटाए गए हैं, उनमें से ज़्यादातर वृद्ध वयस्कों की स्वास्थ्य समस्याओं पर केंद्रित हैं. यानी इन अध्ययनों में बुजुर्गों के विभिन्न गैर-संचारी बीमारियों की चपेट में आने और उससे पड़ने वाले असर पर विस्तार से चर्चा नहीं की गई है, जैसा कि आधिकारिक सरकारी आंकड़ों से स्पष्ट होता है.

सामने आए आंकड़ों के निहितार्थ

उपरोक्त अध्ययनों से जो भी आंकड़े सामने आए हैं, उनसे साफ तौर पर पता चलता है कि वृद्धावस्था के दौरान पुरुषों और महिलाओं को स्वस्थ और गुणवत्ता पूर्ण जीवन जीने के लिए बराबरी का अवसर नहीं मिलता है, बल्कि सामजिक रूप से इसमें लैंगिक भेदभाव प्रबल हो जाता है और सेहत के लिहाज़ से महिलाओं को दोयम दर्ज़े का माना जाता है. शोध के मुताबिक़ महिलाओं की उम्र लंबी होती है यानी उनके जीवित रहने की संभावना पुरुषों की तुलना में अधिक होती है. बुजुर्ग महिलाओं में उम्र के साथ-साथ ख़राब सेहत की संभावना ज़्यादा होती है, इतना ही नहीं तमाम बीमारियों के बाद भी पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक समय तक जीवित रहती हैं.[51] कम आय वाले देशों में कैंसर, डायबिटीज, हृदय रोग, सांस संबंधित पुरानी बीमारियां और अन्य गैर-संचारी रोग तेज़ी के साथ बढ़ रहे हैं. इसकी प्रमुख वजह अनहेल्दी खानपान, तंबाकू का अत्यधिक उपयोग एवं संक्रामक बीमारियों में कमी आने जैसे प्रमुख व्यवहारिक कारण हैं.[52] आबादी में बढ़ोतरी होने और लोगों की औसत आयु बढ़ने की वजह से संक्रामक, मातृ, नवजात और पोषण संबंधी बीमारियों के बजाए अब गैर-संचारी रोगों का फैलाव अधिक हो रहा है. पूरी दुनियों में गैर-संचारी रोगों से जितने लोगों की मृत्यु होती है, उनमें तीन-चौथाई से अधिक लोग (31.4 मिलियन) निम्न और मध्यम आय वाले देशों के होते हैं, ज़ाहिर है कि इन देशों में बुजुर्गों के लिए विकसित देशों के समान बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं है और वहां सामाजिक और आर्थिक वजहों से बीमारी से ग्रसित बुजुर्गों का इलाज नहीं हो पाता है.[53]

  1. हृदय रोग

अगर पुरानी बीमारियों के फैलाव की बात की जाए तो उम्र के साथ हृदय एवं फेफड़ों से जुड़ी बीमारी यानी श्वसन रोगों में बढ़ोतरी होना कोई नई बात नहीं है. LASI की रिपोर्ट (Wave I) के मुताबिक़ आयु बढ़ने के साथ ही हृदय संबंधी बीमारियों का प्रसार बढ़ जाता है. इस रिपोर्ट में पाया गया है कि 45 से 59 वर्षों के आयु वर्ग के 22 प्रतिशत लोगों में, 60 से 74 आयु वर्ग के 34.6 प्रतिशत बुजर्गों में और 75 साल के ऊपर के 37 प्रतिशत लोगों में हृदय रोग था.[54] इतना ही नहीं, शहरी क्षेत्रों में बुजुर्गों, ख़ास तौर पर वृद्ध महिलाओं में हृदय संबंधी बीमारियों का प्रसार बहुत अधिक है. संयुक्त राष्ट्र पॉपुलेशन फंड की वर्ष 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक़ बुजुर्ग महिलाओं में गैर-संचारी बीमारियों का प्रसार 60 से 69 आयु वर्ग में 60.7 प्रतिशत था, जबकि 70 और उससे अधिक उम्र वाली महिलाओं में एनसीडी का प्रसार 74.1 प्रतिशत था.[55]

चित्र 2 बुजुर्ग महिलाओं में हृदय रोग से संबंधित स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर बढ़ोतरी के एक सिलसिलेवार तरीक़े को दिखाता है, हालांकि कुछ पूर्वोत्तर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यह पैटर्न थोड़ा अलग दिखाई देता है.

चित्र 2: 60+ आयु के बुजुर्गों में स्वयं-रिपोर्ट की गई हृदय संबंधी रोगों की व्यापकता

 

स्रोत: LASI 2017-18[56]

भारत में हृदय रोगों से पीड़ित लोगों के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो यहां एक तिहाई बुजुर्ग उच्च रक्तचाप से पीड़ित हैं, जबकि 5.2 प्रतिशत बुजुर्गों को पुराने हृदय रोग की समस्या है और 2.7 प्रतिशत बुजुर्गों को अपने जीवन में कभी न कभी स्ट्रोक महसूस हुआ है.[57] ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज (2019)[58] की रिपोर्ट में भारत में मौतों की जो वजह बताई गई है, वो चौंकाने वाली है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में होने वाली सभी मौतों में से लगभग 24.8 प्रतिशत मौतें हृदय संबंधी रोगों की वजह से होती हैं. मेडिकल सर्टिफिकेशन ऑफ कॉज ऑफ डेथ (2020)[59] यानी मौत के चिकित्सीय प्रमाणपत्रों से जुड़े आंकड़ों से भी स्पष्ट है कि ब्लड सर्कुलेटरी सिस्टम से संबंधित बीमारियों की वजह से होने वाली मौतों के प्रतिशत में अभूतपूर्व बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. इनमें पल्मोनरी सर्कुलेशन से जुड़ी बीमारी, इस्चेमिक हार्ट डिजीज यानी हृदय की धमनियों के सिकुड़ने से संबंधित बीमारियां, सेरेब्रोवास्कुलर डिजीज यानी मस्तिष्क में रक्त के प्रवाह से संबंधित बीमारियां और उच्च रक्तचाप से संबंधित बीमारियां शामिल हैं. ख़ास तौर पर 60 साल या उससे अधिक आयु की महिलाओं में इस तरह की बीमारियों का प्रकोप तेज़ी के साथ बढ़ता है और कहीं न कहीं उनकी मृत्यु की वजह भी बनता है.

जहां तक भारत के विभिन्न राज्यों में हृदय संबंधी रोगों के प्रसार की बात है, तो केरल (पुरुषों में 45.1 प्रतिशत, महिलाओं में 42.2 प्रतिशत), गोवा (पुरुषों में 43.5 प्रतिशत, महिलाओं में 41.3 प्रतिशत) और अंडमान एवं निकोबार (पुरुषों में 41.2 प्रतिशत, महिलाओं में 38.5 प्रतिशत) जैसे राज्यों में पुरुषों में कार्डियोवास्कुलर बीमारियों की दर अधिक थी. जबकि छत्तीसगढ़ (17.9 प्रतिशत महिलाएं, 14.6 प्रतिशत पुरुष) और मेघालय (33.2 प्रतिशत महिलाएं, 16.2 प्रतिशत पुरुष) जैसे राज्यों में महिलाओं में हृदय संबंधी रोगों की दर अधिक थी. इतना ही नहीं, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, झारखंड और तमिलनाडु जैसे राज्यों में पुरुष और महिलाओं में हृदय संबंधी रोगों के प्रसार की दर लगभग बराबर थी. मेघालय के आंकड़ों पर नज़र डालें तो वहां महिलाओं में हृदय संबंधी बीमारियों की व्यापकता (33.2 प्रतिशत) पुरुषों (16.4 प्रतिशत) की तुलना में दोगुनी थी.

  1. एनीमिया या ख़ून की कमी

 महिलाओं में प्रजनन आयु, यानी बच्चा जनने की आयु में एनीमिया होना आम बात है.[B] हालांकि, बुजुर्ग महिलाओं (60 वर्ष या उससे अधिक आयु की महिलाएं) पर युवा महिलाओं की तुलना में एनीमिया का अत्यधिक गंभीर और लंबे समय तक प्रभाव पड़ता है. ख़ून की कमी उनके स्वास्थ्य और रोज़मर्रा के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित कर सकती है.[60] दिल्ली में बुजुर्ग महिलाओं (60-92 साल की उम्र) के स्वास्थ्य को लेकर की गई एक स्टडी[61] में लगभग 80 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित पाई गईं. इस अध्ययन में यह भी पता चला कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के वृद्धाश्रमों में रहने वाले बुजुर्ग पुरुषों एवं महिलाओं में एनीमिया आम बात है,[62] इसी प्रकार से पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले बुजुर्गों में भी ख़ून की कमी देखी गई है.[63]

चित्र 3: विभिन्न राज्यों में 60+ आयु के बुजुर्गों में एनीमिया की स्थिति

 

स्रोत: LASI 2017-18

उपरोक्त आंकड़ों से साफ प्रतीत होता है कि बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या में वृद्ध महिलाएं एनीमिया से पीड़ित पाई गई हैं. बिहार, दिल्ली, गोवा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक और पंजाब जैसे राज्यों में तो 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र के पुरुषों की तुलना में लगभग दोगुनी बुजुर्ग महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं. जबकि, चंडीगढ़, दमन और दीव, लक्ष्यद्वीप और पूर्वोत्तर के राज्यों जैसे कि मणिपुर, मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा में बुजुर्ग महिलाओं में एनीमिया बहुत व्यापक है. भारत में बुजुर्ग आबादी में कुल मिलाकर 3.1 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 5.9 प्रतिशत महिलाएं ख़ून की कमी की समस्या से पीड़ित हैं.

गर्भवती महिलाओं में एनीमिया बहुत घातक होता है, अगर उस समय एनीमिया का उचित इलाज नहीं किया जाता है कभी गंभीर स्थितियां पैदा हो सकती हैं. जैसे कि कम वजन का बच्चा जन्म ले सकता है, प्रसव के बाद नवजात की या मां की मौत हो सकती है, या फिर महिला की बाक़ी ज़िंदगी बीमारियों में गुजरने की संभावना बढ़ सकती है. अर्थात गर्भवती महिलाओं में एनीमिया का समुचित इलाज कर ऐसी परिस्थितियों को टाला जा सकता है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 में जो आंकड़े सामने आए हैं उनमें महिलाओं और बच्चों में एनीमिया के मामलों में बढ़ोतरी दिखाई गई है, जो काफ़ी चिंताजनक स्थित हैं. इसके मुताबिक़ प्रजनन आयु (15-49 वर्ष) वर्ग की 57 प्रतिशत महिलाएं और 60 प्रतिशत किशोर लड़कियां (15-19 वर्ष) एनीमिया से पीड़ित हैं.[64] एनीमिया को लेकर यह हालात महिलाओं में ख़ून की कमी की समस्या का शीघ्र समाधान निकालने के लिए तत्काल क़दम उठाए जाने की ज़रूरत को सामने लाते हैं.

  1. उच्च रक्तचाप

भारत के दक्षिणी राज्यों के शहरी ज़िलों में 80 वर्ष और उससे अधिक उम्र के लोगों पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 83.5 प्रतिशत बुजुर्ग उच्च रक्तचाप की समस्या से पीड़ित थे. इनमें 81.6 प्रतिशत बुजुर्ग पुरुष, जबकि 84.7 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं उच्च रक्तचाप से पीड़ित थीं. एक और बात यह भी सामने आई, इनमें से 64.5 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाओं और पुरुषों ने इस बीमारी को स्वयं रिपोर्ट किया था.[65]

 

चित्र 4: विभिन्न राज्यों में 60+ आयु के बुजुर्गों में उच्च रक्तचाप की व्यापकता

स्रोत: LASI 2017-18

भारत में बुजुर्गों में उच्च रक्तचाप होना बहुत ही सामान्य सी बात है. भारत में हर तीन बुजुर्गों में से एक बुजुर्ग उच्च रक्तचाप से पीड़ित है.[66] वृद्ध नागरिकों में उच्च रक्तचाप का प्रसार देखें, तो पुरुषों (22.9 प्रतिशत) की तुलना में बुजुर्ग महिलाओं में यह बीमारी (27.8 प्रतिशत) अधिक है. ऊपर दिए गए आंकड़ों से साफ पता चलता है कि चंडीगढ़ में 60 वर्ष और उससे अधिक उम्र की महिलाओं में सबसे अधिक यानी 44.1 प्रतिशत महिलाएं हाइपरटेंशन से पीड़ित हैं, जबकि जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, पंजाब, केरल और गोवा में उच्च रक्तचाप से पीड़ित बुजुर्ग महिलाओं का प्रतिशत क्रमश: इसके बाद है. नागालैंड ऐसा राज्य है जहां सबसे कम बजुर्ग महिलाएं उच्च रक्तचाप से पीड़ित हैं, यहां सिर्फ 14.9 प्रतिशत वृद्ध महिलाओं में ही यह समस्या पाई गई.

वर्ष 2021 में डाउन टू अर्थ के एक अंक में स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए उच्च रक्तचाप के फैलाव पर स्टोरी प्रकाशित की गई थी, जिसमें हाइपरटेंशन के लिए इनकम को एक कारण बताया गया था. इसमें बताया गया था कि भारत में सबसे अधिक इनकम और ख़र्च करने वाले वर्ग के 42 प्रतिशत वृद्ध नागरिक उच्च रक्तचाप से पीड़ित थे, जबकि निर्धन तबके में सिर्फ़ 25 प्रतिशत बुजुर्ग नागरिक ही हाइपरटेंशन से पीड़ित थे.[67] इसके आलवा यह भी सामने आया है कि मिजोरम और बिहार में, जहां केवल लगभग 50 प्रतिशत लोगों को इलाज की सुविधा मिली, वहां बुजुर्गों में उच्च रक्तचाप की दर कम थी. जबकि, अरुणाचल प्रदेश में जिनते बुजुर्गों को उच्च रक्तचाप की बीमारी थी, उनमें से केवल एक-चौथाई को ही उपचार मिल रहा था. वहीं गोवा, आंध्र प्रदेश, पुडुचेरी और केरल में 90 प्रतिशत से अधिक वृद्ध उच्च रक्तचाप का इलाज करा रहे थे.

  1. मधुमेह

भारत को “डायबिटीज कैपिटल” भी कहा जाता है और ऐसा ख़ास तौर पर देश के बड़े शहरों में मधुमेह के व्यापक प्रसार के कारण कहा जाता है. LASI की मानें तो भारत में 45 से 59 आयु वर्ग के लोगों में डायबिटीज का फैलाव 9.2 प्रतिशत है, जबकि इसकी तुलना में वृद्ध वयस्कों में इसका प्रसार 14.2 प्रतिशत के साथ काफ़ी अधिक है.

देखा जाए तो बुजुर्गों में डायबिटीज की बीमारी को लेकर लैंगिक आधार पर कोई असमानता नहीं है, यानी डायबिटीज को लेकर पुरुषों और महिलाओं में कोई अंतर नहीं है. लेकिन वैश्विक स्तर पर इसको लेकर की गई तमाम रिसर्च में यह सामने आया है कि अगर बुजुर्ग महिलाओं को डायबिटीज होती है, तो उन्हें गंभीर किस्म के हृदय रोग होने की संभावना पुरुषों की तुलना में अधिक होती है. रिसर्च के मुताबिक़ डायबिटीज से पीड़ित बुजुर्ग महिलाओं में हृदय रोगों का ख़तरा चार गुना अधिक होता है, जबकि मधुमेह से पीड़ित बुजुर्ग पुरुषों में हृदह रोगों का ख़तरा दोगुना अधिक होता है. इसके अलावा हार्ट अटैक आने पर महिलाओं को गंभीर नतीज़े भुगतने पड़ते हैं.[68] इसके अलावा, मधुमेह की वजह से होने वाले हृदय संबंधी रोगों के कारण होने वाली मृत्यु की दर बुजुर्ग पुरुषों में 2.1 है, जबकि बुजुर्ग महिलाओं में 4.9 है. आमतौर पर देखा जाए, तो पुरुषों की तुलना में महिलाओं को लगभग दस साल बाद हृदय संबंधी रोग होते हैं, लेकिन डायबिटीज इस अंतर को पूरी तरह से समाप्त कर देती है. इसी तरह से दिल का दौरा पड़ने के मामलों को देखा जाए, तो डायबिटीज से पीड़ित महिलाओं को हार्ट अटैक का ख़तरा बहुत अधिक होता है और पुरुषों की तुलना में उन्हें ज़ल्द अटैक पड़ता है.[69]

इसके अलावा, यह सर्वविदित है कि डायबिटीज के लिए मुख्य रूप से मोटापा, अधिक वजन, उच्च बीएमआई यानी बॉडी मास इंडेक्स ज़िम्मेदार है. हालांकि, मोटापा और ज़्यादा वजन जैसी स्थितियां अधेड़ उम्र से वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते बदल जाती हैं और मोटापा कहीं न कहीं कम हो जाता है, लेकिन पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ऐसा अमूमन कम ही होता है.[70] यद्यपि, इसके लिए महिलाओं और पुरुषों की अलग-अलग जीवन शैली को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. ख़राब जीवन शैली के कारण ख़ास तौर पर महिलाओं में मधुमेह होने की संभावना एवं खाली पेट ग्लूकोज का स्तर बढ़ने की संभावना प्रबल हो जाती है.[71] डायबिटीज होने की एक अन्य प्रमुख वजह मानसिक तनाव और अवसाद भी होता है, जो कि पुरुषों की तुलना में बुजुर्ग महिलाओं में काफी अधिक पाया गया. 26.2 प्रतिशत पुरुषों में, जबकि 31.4 प्रतिशत महिलाओं में तनाव और अवसाद की स्थिति पाई गई है.[72] इसीलिए, पहली नज़र में भले ही डायबिटीज में लैंगिक असमानता नहीं दिखती है, लेकिन आकड़ों से यह स्पष्ट है कि बुजुर्ग महिलाओं को मधुमेह की वजह से पुरुषों की तुलना में अधिक घातक नतीज़े भुगतने पड़ते हैं.

LASI के आंकड़ों के मुताबिक़ 12.4 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 10.8 प्रतिशत वृद्ध महिलाओं में डायबिटीज मेलिटस को लेकर स्वंय जानकारी प्रदान की है. अगर देश के अलग-अलग राज्यों में महिलाओं के बीच डायबिटीज की स्व-रिपोर्ट  करने की व्यापकता को देखें, तो केरल, चंडीगढ़ और तमिलनाडु राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों अंडमान एवं निकोबार और लक्षद्वीप में महिलाओं के बीच यह अधिक है.

चित्र 5: विभिन्न राज्यों में 60+ आयु के बुजुर्गों में डायबिटीज की व्यापकता

स्रोत: LASI 2017-18

  1. हड्डी और जोड़ों से संबंधित बीमारियां

भारत में हड्डी और जोड़ों से संबंधित बीमारियों की बात की जाए, तो इनमें 22 से 39 प्रतिशत प्रसार के साथ ऑस्टियोअर्थराइटिस एक सबसे अधिक दिखाई देने वाली बीमारी है. इसके साथ ही गठिया हड्डी ओर जोड़ों से संबंधित दूसरी सबसे व्यापक बीमारी है.[73] 65 साल से ऊपर के 70 प्रतिशत लोगों में ऑस्टियोअर्थराइटिस के लक्षण दिखने लगते हैं, वहीं 45 प्रतिशत महिलाओं में भी इसके लक्षण दिखाई देने लगते हैं. इस बीमारी की वजह से लोग चलने-फिरने से लाचार हो जाते हैं, नतीज़तन एक जगह बैठे रहने से मोटापा बढ़ने का ख़तरा भी बढ़ जाता है.[74] हड्डी और जोड़ों से जुड़ी बीमारियां संभावित रूप से विटामिन डी की कमी, जोड़ों में सूजन, हड्डियों के क्षरण और और ट्यूमर के कारण होती हैं.

LASI द्वारा जो आंकड़े जारी किए गए हैं, उनमें हड्डी एवं जोड़ों से संबंधित विभिन्न बीमारियों के लैंगिक आधार पर आंकड़े शामिल हैं. जैसे कि 0.9 प्रतिशत बुजुर्ग पुरुष, जबकि 1 प्रतिशित बुजुर्ग महिलाएं ऑस्टियोपोरोसिस से पीड़ित होती हैं. गठिया के मामले में 9.9 प्रतिशत महिलाएं और 7.1 प्रतिशत पुरुषों इससे पीड़ित होते हैं. वहीं हड्डी और जोड़ों के रोगों के माममले में 16.9 प्रतिशत महिलाएं और 12.3 प्रतिशत पुरुष इससे पीड़ित होते हैं. इसके अलावा, पुराने दर्द की बात की जाए, तो पुरुषों (लगभग 25 प्रतिशत) की तुलना में महिलाओं में (लगभग 33 प्रतिशत) यह अधिक पाया जाता है.

हड्डियों एवं जोड़ों से संबंधित बीमारियों के पनपने के लिए तमाम सामाजिक, जनसांख्यिकीय, पर्यावरणीय, जीवनशैली और स्वास्थ्य से जुड़े कारण ज़िम्मेदार होते हैं. उदाहरण के तौर पर उम्र बढ़ने साथ-साथ अक्सर बुजुर्ग लोग शारीरिक रूप से अशक्त हो जाते हैं और उनके सोचने-समझने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है. नतीज़तन वृद्ध वयस्कों की मृत्यु होने या फिर कोई गंभीर चोट लगने की संभावना अधिक होती है.[75] आंकड़ों पर गौर करें तो बुजर्ग महिलाओं को बुजुर्ग पुरुषों की अपेक्षा चोट अधिक लगती है, साथ ही उनके साथ गिरने-पड़ने जैसी घटनाएं भी अधिक होती हैं. इसके अलावा, एनएसएस के आंकड़ों से साफ ज़ाहिर होता है कि चोट लगने की वजह से महिलाओं की तुलना में पुरुष अस्पतालों में अधिक संख्या में भर्ती होते हैं.[76] चोट का इलाज कराने को लेकर पुरुषों और महिलाओं के बीच इस असमानता की आगे और पड़ताल किए जाने की आवश्यकता है.

चित्र 6: विभिन्न राज्यों में 60+ आयु के बुजुर्गों में हड्डी एवं जोड़ों से संबंधित बीमारियों की व्यापकता

स्रोत: LASI 2017-18

ज़ाहिर है कि वृद्ध पुरुषों की तुलना में बुजुर्ग महिलाओं में हड्डी और जोड़ों से संबंधित बीमारियां होने की संभावना अधिक है. आंकड़ों पर गौर करें तो पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है, जहां 31.9 प्रतिशत के साथ बुजुर्ग महिलाओं में हड्डी एवं जोड़ों से जुड़ी बीमारियों का प्रसार सबसे अधिक है. इसके बाद क्रमश: जम्मू-कश्मीर, केरल, दमन एवं दीव और तेलंगाना राज्यों का नंबर आता है. जिन राज्यों में बुजुर्ग महिलाओं में हड्डी एवं जोड़ों से जुड़ी बीमारियों का प्रसार सबसे कम है, उनमें मणिपुर और मेघालय शामिल हैं, जहां यह सिर्फ़ 3 प्रतिशत ही है. केरल और पश्चिम बंगाल ऐसे राज्य हैं, जहां बुजुर्ग पुरुषों और बुजुर्ग महिलाओं के बीच हड्डी एवं जोड़ों की बीमारियों का अंतर सबसे अधिक है. केरल में 27.8 प्रतिशत वृद्ध महिलाएं इससे पीड़ित हैं, जबकि पुरुषों का आंकड़ा 14.7 प्रतिशत है. इसी तरह से पश्चिम बंगाल में 31.9 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं एवं 19.3 प्रतिशत बुजुर्ग पुरुष हड्डी और जोड़ों की बीमारियों से पीड़ित हैं.

सामाजिक निर्धारकों की भूमिका

बुजुर्गों में गैर-संचारी बीमारियां होने के पीछे कई सामाजिक और शारीरिक कारण होते हैं. सामाजिक निर्धारकों की बात करें, तो प्रमुख रूप से चार कारण ऐसे हैं, जो एनसीडी का ख़तरा पैदा करते हैं, जैसे कि हेल्दी फूड की कमी, शारीरिक निष्क्रियता, तंबाकू चबाना और अधिक मात्रा में शराब पीना. इसी तरह से तीन शारीरिक स्थितियां जो गैर-संक्रमिक बीमारियों के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार हैं, वो हैं – रक्तचाप, मोटापा और बेकाबू डायबिटजी. इसके अलावा भी कई सामाजिक निर्धारक हैं, जो गैर-संचारी रोगों को पनपने के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं, जैसे कि नौकरी की परिस्थितियां, परिवार और समाज से मिलने वाला सहयोग एवं शिक्षा का स्तर.

इस सेक्शन में किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करने में सामाजिक-जनसांख्यिकीय कारकों की भूमिका को परखने के लिए LASI (2017-18) द्वारा जारी किए गए देश के विभिन्न राज्यों से संबंधित आंकड़ों का उपयोग किया गया है.

धूम्रपान, तंबाकू का सेवन और अत्यधिक शराब पीना

निसंदेह तौर पर ज़्यादातर गैर-संचारी बीमारियां जीवन शैली से संबंधित चार व्यावहारिक कारणों की वजह से होती हैं. यह हैं- तंबाकू का सेवन, शारीरिक रूप से कुछ नहीं करना, पोषक भोजन नहीं लेना और शराब पीना. ऐसा करने से शरीर में चार प्रकार के महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं, जैसे कि ब्लड प्रेशर का बढ़ना यानी उच्च रक्तचाप, अधिक वजन और मोटापा, ग्लूकोज स्तर में बढ़ोतरी यानी डायबिटीज और कोलेस्ट्रॉल के स्तर में वृद्धि.[77] शरीर में होने वाले यह चारों बदलाव कहीं न कहीं गैर-संचारी रोगों को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होते हैं. इंडोनेशिया में वर्ष 2016 में शहरी आबादी के बीच स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर एक स्टडी की गई थी. इस अध्ययन में सामने आया कि बुढ़ापे की ओर बढ़ती महिलाओं में उच्च रक्तचाप, मोटापा और कोलेस्ट्रॉल का स्तर अधिक होने का ख़तरा बढ़ गया. जबकि शहरों में पुरुषों के बीच धूम्रपान करने वालों की संख्या अधिक थी, जिसकी वजह से वे युवावस्था में ही हाई ब्लड प्रेशर की चपेट में आ जाते थे.[78] थाईलैंड में वर्ष 2019  में किए गए इसी प्रकार के एक अध्ययन से पता चलता है कि वहां महिलाओं द्वारा भारी मात्रा में शराब का सेवन किया जाता था, इसलिए उनमें उच्च रक्तचाप और उच्च ट्राइग्लिसराइड स्तर का ख़तरा बहुत अधिक था.[79]

लैंसेट ग्लोबल हेल्थ ने 2017 में अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि कम आय और निम्न-मध्यम आय वाले देशों की महिलाओं में तंबाकू खाने की आदत अधिक थी, जबकि पुरुषों में धूम्रपान करने की आदत अधिक थी.[80] भारत की बात की जाए तो यहां वर्ष 2009 से 2016 के बीच महिलाओं में तंबाकू का सेवन करने में कमी दर्ज़ की गई है,[C] ज़ाहिर है कि देश में तंबाकू नियंत्रण के प्रयासों को जारी रखने की ज़रूरत है.[81]

भारत के कुछ राज्यों में वृद्ध वयस्कों पर किए गए एक अध्ययन में सामने आया है कि सामान्य जीवनशैली वाले लोगों में एक भी गैर-संचारी रोग नहीं होते हैं, उनकी तुलना में बुजुर्गों, महिलाओं, सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से अच्छी स्थिति वाले लोगों, तम्बाकू खाने और शराब पीने वाले लोगों में एक साथ कई गैर-संचारी रोग होने की संभावना अधिक होती है.[82],[83] धूम्रपान, तंबाकू सेवन और अधिक शराब पीने जैसे ये जो भी स्वास्थ्य जोख़िम हैं, वे स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं, लेकिन ये सारी आदतें महिलाओं की तुलना में पुरुषों में अधिक होती है. इस तरह के काम पुरुष द्वारा अधिक किए जाते हैं और यह सिलसिला बुढ़ापे तक अनवरत चलता रहता है. हालांकि, आंकड़ों से पता चलता है कि देश के बाक़ी क्षेत्रों की तुलना में पूर्वोत्तर के इलाक़ों में पुरुषों और महिलाओं द्वारा समान रूप से तंबाकू का सेवन किया जाता है.

चित्र 7: विभिन्न राज्यों में 60+ आयु के बुजुर्गों द्वारा धूम्रपान से जुड़े आंकड़े

स्रोत: LASI 2017-18

वृद्ध पुरुषों और महिलाओं द्वारा धूम्रपान किए जाने से संबंधित आंकड़ों पर गौर करें, तो 25.8 प्रतिशत वृद्ध वयस्क पुरुष धूम्रपान करते हैं, जबकि 2.4 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं धूम्रपान करती हैं. राज्यवार अगर धूम्रपान के आंकड़ों को देखें, तो मिजोरम, त्रिपुरा, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड जैसे पहाड़ी एवं उत्तर पूर्व के राज्यों और हरियाणा एवं राजस्थान में धूम्रपान अधिक देखने को मिला. इसी प्रकार से शराब पीने से जुड़े आंकड़ें देखे जाएं, तो भारत में केवल 0.5 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं ही अत्यधिक शराब पीने की आदी हैं, जबकि अधिक शराब पीने वाले बुजुर्ग पुरुषों की संख्या 6.2 प्रतिशत है. देश के विभिन्न राज्यों से जुड़े आंकड़ों को देखें, तो किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में पुरुषों की तुलना में बुजुर्ग महिलाओं द्वारा अधिक शराब नहीं पी जाती है. लेकिन अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर राज्यों समेत पूर्वोत्तर के इलाक़ों और देश के दक्षिण-पूर्वी इलाक़ों के झारखंड, ओडिशा एवं तेलंगाना राज्यों में शराब पीने वाली बुजुर्ग महिलाओं की संख्या उल्लेखनीय रूप से अधिक थी. (चित्र 9) जहां तक तंबाकू खाने की बात है, तो 27.9 प्रतिशत बुजुर्ग पुरुष और 13.9 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं तंबाकू का सेवन करती हैं.

चित्र 8: विभिन्न राज्यों में 60+ आयु के बुजुर्गों द्वारा तंबाकू सेवन के आंकड़े

स्रोत: LASI 2017-18

चित्र 9: विभिन्न राज्यों में 60+ आयु के बुजुर्गों द्वारा अत्यधिक शराब पीने के आंकड़े

स्रोत: LASI 2017-18

शिक्षा का स्तर

भारत, स्वीडन,चीन और कनाडा समेत दुनिया के अलग-अलग देशों में वृद्ध वयस्कों के बीच स्वास्थ्य समस्यों से जुड़ी एक स्टडी में सामने आया है कि महिलाओं की तुलना में वृद्ध बुजुर्ग बेहतर तरीक़े से अपनी सेहत के बारे में जानकारी देने में सक्षम हैं.[84],[85], [86],[87]  इस बीच, वर्ष 2017 में यूरोपीय देशों के एक विश्लेषण के मुताबिक़ बुजुर्गों के स्वास्थ्य को लेकर जो लैंगिक अंतर है, यानी महिलाओं एवं पुरुषों के बीच जो असमानता है, उसके लिए जो भी कारक ज़िम्मेदार है, उनमें शैक्षणिक योग्यता भी एक बड़ी वजह है. यानी महिलाओं की शिक्षा का स्तर पुरुषों की तुलना में कम होता है, इसलिए वे अपनी बीमारियों के बारे में बेहतर तरीक़े से नहीं बता पाती हैं.[88]  भारत में LASI के आकड़ों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है. इन आंकड़ों के मुताबिक़ जिन बुजुर्ग महिलाओं की शिक्षा अच्छी थी, उन्हें बीमारियों के इलाज और उससे निजात पाने के तरीक़ों के बारे में अधिक जानकारी थी. अर्थात पढ़े-लिखे होने पर गैर-संचारी रोगों का प्रसार कम होता है.

जर्मनी में वर्ष 2011 में की गई एक स्टडी के अनुसार महिलाओं में शिक्षा का प्रसार बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ, क्योंकि इससे महिलाओं में डायबिटीज का ख़तरा कम हो गया है.[89] भारत के मामले में भी यह सच साबित हो रहा है. भारत में तमाम अध्ययनों में यह सामने आया है कि कम पढ़ा-लिखा होने से डायबिटीज होने की संभावना अधिक हो जाती है. इसकी वजह यह है कि शिक्षा का स्तर कम होने से लोगों को उचित खान-पान नहीं करने के नुक़सान के बारे में जानकारी नहीं होती है, साथ ही उनमें बेहतर स्वास्थ्य के लिए जो ज़रूरी चीज़ें हैं, उनको लेकर जागरूकता का अभाव होता है और यह सब मिलकर कहीं न कहीं बीमारी बढ़ने की वजह बनता है.[90] जापान में वर्ष 2019 में अधेड़ उम्र के पुरुषों और महिलाओं के बीच एक अध्ययन किया गया, जिसमें सामने आया कि महिलाओं में शिक्षा का स्तर बढ़ने के साथ-साथ उनमें डायबिटीज, हृदय रोग, स्ट्रोक, उच्च रक्तचाप और कैंसर जैसी बीमारियों का प्रसार कम होता जाता है.[91]

निम्न और मध्यम आय वाले देशों में इस बात के पुख्ता प्रणाम मौज़ूद हैं कि सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का गैर-संचारी रोगों के व्यवहारिक ख़तरों पर गंभीर असर पड़ता है. ऐसे में ज़ाहिर तौर पर भारत में साक्षरता दर में कमी का संबंध स्वास्थ्य साक्षरता में कमी यानी सेहत के बारे में जागरूकता की कमी से हो सकता है. इसके साथ ही जो वृद्ध वयस्क उच्च आय वर्ग से आते हैं, उनमें उच्च रक्तचाप का ख़तरा अधिक था, इसके अलावा हृदय से संबंधिति बीमारियों का ख़तरा भी दोगुना था.[92]

चित्र 10: विभिन्न राज्यों में 60+ के बुजुर्गों में लैंगिक आधार पर शिक्षा का स्तर: कोई शिक्षा नहीं

स्रोत: LASI 2017-18

चित्र 11: विभिन्न राज्यों में 60+ के बुजुर्गों में लैंगिक आधार पर शिक्षा का स्तर: 5 वर्ष तक स्कूली शिक्षा

स्रोत: LASI 2017-18

चित्र 12: विभिन्न राज्यों में 60+ के बुजुर्गों में लैंगिक आधार पर शिक्षा का स्तर: 5 से 9 वर्ष तक स्कूली शिक्षा

स्रोत: LASI 2017-18

चित्र 13: विभिन्न राज्यों में 60+ के बुजुर्गों में लैंगिक आधार पर शिक्षा का स्तर: 10 या अधिक वर्षों तक स्कूली शिक्षा

स्रोत: LASI 2017-18

जनसंख्या के लिहाज़ से देखा जाए तो भारत के तमाम प्रदेशों और क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम पढ़ी-लिखी हैं, यानी उनकी शिक्षा का स्तर कम है. यह ऊपर दिए गए स्कूली शिक्षा के आंकड़ों, अर्थात 5 वर्ष से कम (चित्र 11), 5 से 9 वर्ष (चित्र 12), और 10 वर्ष से अधिक की स्कूली शिक्षा (चित्र 13) से साफ हो जाता है. इसके अलावा, देश में कभी स्कूल नहीं जाने वाले बुजुर्गों में पुरुषों की तलुना में महिलाओं की संख्या काफ़ी ज़्यादा है.

पारिवारिक सहयोग

पुरानी और जीवनशैली से संबंधित बीमारियों के इलाज और मरीज़ों की देखभाल करने में सामाजिक संपर्क यानी दोस्त, रिश्तेदार और परिवार के लोग महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. चीन में इस विषय पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़ स्वास्थ्य के बारे में जानकारी और उसका समुचित इलाज एवं अच्छी आर्थिक स्थिति, बुजुर्गों के संतोष और उनकी संतुष्टि के लिए सबसे अहम है.[93] ज़ाहिर है कि अपनेपन की भावना, जीवनसाथी के साथ मधुर रिश्ते, घर में सुरक्षा का भाव और मदद करने वाला सामाजिक नेटवर्क एक ख़ुशहाल जीवन के लिए बेहद अहम होता है.[94] अमेरिका में पुराने समय से रहने वाले हिस्पैनिक प्रवासियों को भी जब अपने कामकाज में लगाई गई पाबंदियों से राहत मिली, तभी उन्हें भी अपनी खुद की सेहत बेहतर महसूस होने लगी थी.[95] इसके अलावा, डायबिटीज, हाइपरटेंशन और दूसरी गैर-संचारी बीमारियों का मुक़ाबला करने में परिवार के सदस्यों का सहयोग बेहद अहम होता है. क्योंकि इससे मरीज़ों को समय पर दवाएं खाने में मदद मिलती है, किसी ऐसी स्वास्थ्य परिस्थिति का पता लगाने में सहायता मिलती है, जिसके बारे में मालुम नहीं होता है, साथ ही बीमारी के समय स्वभाव भी अच्छा रहता है, यानी चिड़चिड़ापन या अवसाद नहीं होता है और इसे ज़ाहिर तौर पर ज़ल्द से ज़ल्द बीमारी से बाहर निकलने में मदद मिलती है.[96] परिवार की तरफ से मिलने वाला यह सहयोग गैर-संचारी बीमारियों को शुरुआती अवस्था में ही नियंत्रित करने में बहुत मददगार सिद्ध होता है.

भारत में देखा जाए तो पारिवारिक संरचना बहुत सशक्त है और परिवार के भीतर बुजुर्ग सदस्यों की बेहतर तरीक़े से स्वास्थ्य देखभाल की जाती है और उनकी आर्थिक ज़रूरतों को भी अच्छे से पूरा किया जाता है. LASI द्वारा जारी किए गए आंकड़ों का विश्लेषण करने से यह बात सामने आती है कि अगर बुजुर्ग लोग अपने जीवनसाथी और बच्चों के साथ रहते हैं, तो इससे न सिर्फ़ उनका जीवन ख़ुशहाल होता है, बल्कि उन्हें जो भी बीमारियां होती हैं, उनका उपचार भी अच्छे से होता है. जो भी आंकड़े उपलब्ध हैं, उनके मुताबिक़ 4.5 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं अकेली रहती हैं, जबकि अकेले रहने वाले बुजुर्ग पुरुषों की संख्या 1.8 प्रतिशत है. LASI की रिपोर्ट के अनुसार 60 वर्ष से अधिक उम्र की लगभग 30 प्रतिशत महिलाएं विधवा हैं, जबकि 60 वर्ष से ऊपर के विदुरों की संख्या यानी जिनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी हो, ऐसे पुरुषों की संख्या महज 10 प्रतिशत है. इसे इस प्रकार से समझा जा सकता है कि पुरुषों की आयु महिलाओं की अपेक्षा अमूमन कम होती है, इसके अलावा अक्सर महिलाओं की शादी उनकी उम्र से बड़े पुरुष के साथ होती है. आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि विधुरों की तुलना में विधवाओं में कई प्रकार की गैर-संचारी बीमारियों के होने की संभावना अधिक है, अर्थात 48.5 प्रतिशत बुजुर्ग विधवा महिलाएं ऐसी हैं, जो गैर-संक्रमिक रोगों से पीड़ित होती हैं, जबकि ऐसे विदुर बुजुर्गों का प्रतिशत 44.8 है. वृद्ध वयस्क जनसंख्या में बुजुर्ग विधवा महिलाओं की अधिक संख्या उन्हें ख़ास तौर पर कमज़ोर और असुरक्षित बनाने का काम करती है. क्योंकि विधवा महिलाओं के उत्तराधिकार सीमित हो सकते हैं, पारिवारिक संपत्ति में उनके हिस्से पर असर पड़ सकता है, इसके अलावा उन पर सामाजिक स्तर पर तमाम तरह की पाबंदिया थोपी जा सकती हैं. इस सभी के फलस्वरूप ऐसी विधवा बुजुर्ग महिलाओं की इनकम में कमी आ सकती है और उन्हें आर्थिक दुश्वारियों का सामना करना पड़ सकता है.

LASI के आंकड़ों का गहन विश्लेषण करने से यह भी सामने आता है कि युवाओं की तुलना में वृद्ध वयस्कों की दोस्ती-यारी होने की संभावना भी कम होती है. इतना ही नहीं बुजुर्ग महिलाओं के भी नज़दीकी दोस्त बनना मुश्किल होता है.[97] इसके अलावा, आंकड़े यह भी बताते हैं कि 24.4 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाओं को अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बच्चों पर निर्भर रहना पड़ता था, जबकि ऐसे बुजुर्ग पुरुषों की संख्या केवल 8.6 प्रतिशत थी. इसे इस प्रकार से समझा जा सकता है कि महिलाएं अपने पूरे जीवन में मज़बूत आर्थिक स्थिति में नहीं रहती हैं और वे अपने बुढ़ापे की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अधिक धनराशि भी एकत्र नहीं कर पाती हैं, इस कारण उन्हें बुढ़ापे में अपने बच्चों पर निर्भर रहना पड़ता है. भारत के सभी राज्यों में वृद्ध महिलाओं की तुलना में अधिक संख्या में बुजुर्ग पुरुष अपने जीवनसाथी और बच्चों के सहयोग से गुजर-बसर करते हैं.

चित्र 14: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों के रहन-सहन का इंतज़ाम : अकेले रहने वाले बुजुर्ग

स्रोत: LASI 2017-18

 

चित्र 15: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों के रहन-सहन का इंतज़ाम : जीवनसाथी के साथ रहने वाले बुजुर्ग

स्रोत: LASI 2017-18

 

चित्र 16: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों के रहन-सहन का इंतज़ाम: जीवनसाथी एवं बच्चों के साथ रहने वाले बुजुर्ग

स्रोत: LASI 2017-18

सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो बुजुर्ग महिलाओं की तुलना में ऐसे बुजुर्ग पुरुषों का प्रतिशत ज़्यादा है, जो या तो अपने जीवनसाथी के साथ रहते हैं, या फिर अपने बच्चों के साथ रहते हैं.

चित्र 17: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों के रहन-सहन का इंतज़ाम : दूसरों के साथ रहने वाले बुजुर्ग

स्रोत: LASI 2017-18

चित्र 15, 16, और 17 के दिए गए आंकड़ों से साफ तौर पर पता चलता है कि भारत के अधिकतर प्रदेशों में बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या में बुजुर्ग महिलाएं अपने जीवनसाथी या बच्चों के साथ नहीं रहती हैं, बल्कि दूसरों के साथ रहतीं हैं. यद्यपि, उत्तर भारत के विभिन्न राज्य, यानी उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, दिल्ली और केंद्र शासित प्रदेश दादरा और नगर हवेली में ऐसा नहीं है.

इसी तरह से हरियाणा और पड़ोस में स्थित केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ को छोड़कर, भारत में कहीं भी अकेले रहने वाले 60 साल से ऊपर के पुरुषों का प्रतिशत अधिक नहीं है.

कामकाज और सामाजिक सुरक्षा

इसमें कोई संदेह नहीं है कि अगर बुजुर्ग आर्थिक गतिविधियों यानी पैसा कमाने से जुड़े कार्यों में लगे रहते हैं, तो उनके आर्थिक और सामाजिक कल्याण पर इसका सकारात्मक असर पड़ता है. अगर बुजुर्ग महिलाओं की बात की जाए, तो वृद्ध पुरुषों की तुलना में उन्हें न सिर्फ़ बीमारियों को अधिक झेलना पड़ता है, बल्कि उपचार की सुविधाएं भी उन्हें नहीं मिल पाती हैं. रॉय और चौधरी (2008) द्वारा किए गए अध्ययन में यह सच्चाई सामने निकलकर आई है कि भारत में बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में बुजुर्ग महिलाओं को बीमारी की हालत में अस्पताल में भर्ती होने का अवसर बहुत कम मिल पाता है.[98] उन्होंने अपनी स्टडी में आगे बताया है कि बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में बुजुर्ग महिलाओं को अधिक बीमारियां होती हैं, साथ ही महिलाओं की तबीयत ख़राब होने पर अस्पताल में भर्ती होने या उपचार जैसी सुविधाओं तक उनकी पहुंच सीमित होती है. इसे सामाजिक-आर्थिक तौर पर व्याप्त लैंगिक असमानता के आधार पर समझा जा सकता है. ज़ाहिर है कि बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में बुजुर्ग महिलाओं की वित्तीय आज़ादी कम होती है, यानी उनके पास न तो इनकम का पुख्ता स्रोत होता है और न ही ख़र्च करने के लिए अधिक राशि होती है. रॉय और चौधरी की इस स्टडी से जो एक बात बाहर निकलती है, वो यह है कि अगर भारत में बुजुर्गों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाया जाता है, तो इससे महिलाओं को बहुत लाभ मिलेगा, क्योंकि बुढ़ापे में उन्हें अपने बीमारियों का इलाज कराने में कोई आर्थिक अड़चन नहीं आएगी और इससे उनके स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर पड़ेगा. इसी प्रकार से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले बुजुर्गों के स्वास्थ्य को लेकर एक अध्ययन में यह सामने आया है कि ऐसी बुजुर्ग महिलाएं, जिनके पास कमाई का कोई साधन नहीं था, उनमें मधुमेह और उच्च रक्तचाप की बीमारी का प्रतिशत बहुत अधिक था.[99]

जहां तक रोज़गार और श्रम की बात है, तो यहां पर लैंगिक आधार पर बहुत अधिक विभाजन है, यानी लैंगिक असमानता बहुत अधिक है. इतना ही नहीं बुजुर्ग महिलाओं के काम करने की प्रकृति और उन्हें होने वाली गैर-संचारी बीमारियों के बीच भी संबंध है. कामकाज के कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिन पर महिलाओं का वर्चस्व है, जैसे की खेती-किसानी से जुड़ी गतिविधियों में महिलाओं का बोलबाला है. दूसरी ओर बिजनेस, बाज़ार और संगठित क्षेत्र के रोज़गार में ऐतिहासिक रूप से पुरुषों का दबदबा रहा है.[100]

राष्ट्रीय स्तर के आंकड़ों के मुताबिक़ कृषि और उससे जुड़ी दूसरी गतिविधियों में पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक काम करती हैं. कृषि सेक्टर में 51.7 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 62.6 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं. कृषि कार्यों में संलग्न पुरुषों की औसत मासिक कमाई 6,157 रुपये है, जबकि महिलाओं की कमाई इसकी तुलना में बहुत कम है, यानी औसतन 3,840 रुपये प्रति माह ही है. कुछ इसी प्रकार का हाल कृषि से अलग दूसरी व्यावसायिक गतिविधियों में भी हैं, जहां पुरुषों की औसतन प्रतिमाह कमाई 10,513 रुपये होती है, जबकि महिलाओं की 5,225 रुपये होती है. इसी प्रकार से वेतन वाली नौकरियों से होने वाली आय में भी यह अंतर साफ दिखाई देता है. यानी नौकरीपेशा पुरुषों को प्रतिमाह औसतन 13,338 रुपये वेतन मिलता है, जबकि नौकरीपेशा महिलाओं को औसतन प्रतिमाह 7,514 रुपये वेतन मिलता है.

 

चित्र 18: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों द्वारा किया जाने वाला कामकाज: कृषि और अन्य संबंधित गतिविधियां

नोट: कृषि कार्य में खेती करना, वानिकी, पशु पालन और मत्स्य पालन एवं खुद के या परिवार के या फिर दूसरों के खेत/मत्स्यपालन/वानिकी के लिए काम करना शामिल है.

 

स्रोत: LASI 2017-18

चित्र 18 में दिए गए आंकडों के मुताबिक़ देश भर में आमतौर पर महिलाएं असंगठित क्षेत्रों में अधिक संख्या में कार्यरत हैं. ख़ास तौर पर महिलाएं खेती-किसानी और इससे जुड़े दूसरे कार्यों में अधिक संलग्न है, ज़ाहिर कि इन कार्यों को घरेलू कामकाज का ही विस्तार माना जाता है. हालांकि, केरल, पश्चिम बंगाल और मिजोरम के साथ-साथ अंडमान और लक्षद्वीप के द्वीपों तथा दिल्ली एवं चंडीगढ़ के शहरी क्षेत्रों ऐसा देखने के नहीं मिलता है. इस मुद्दे की अभी और विस्तार से पड़ताल किए जाने की आवश्यकता है.

चित्र 19: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों द्वारा किया जाने वाला कामकाज: गैर-कृषि और व्यावसायिक गतिविधियां

नोट: गैर-कृषि व्यावसायिक गतिविधियों में खुद का बिजनेस यानी स्वरोज़गार शामिल है, जिसमें कोई कर्मचारी नहीं हो या फिर गैर-कृषि व्यवसाय के मालिक.

 

स्रोत: LASI 2017-18

आंकड़ों के मुताबिक़ सिर्फ़ कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों में ही महिलाओं का वर्चस्व है, उसके अलावा लगभग सभी राज्यों में बिजनेस-व्यापार से जुड़े कार्यों में (चित्र 19) पुरुषों का ही एकाधिकार है. महिलाओं के व्यावसायिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेने की कई वजहें हैं, जैसे कि महिलाओं की मार्केट तक पहुंच बेहतर नहीं होती है और उन्हें वित्तीय मसलों की ज़्यादा जानकारी नहीं होती है. आंकड़ों के अनुसार पूर्वोत्तर के मेघालय, मिजोरम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्य ही ऐसे हैं, जहां बुजुर्ग पुरुषों की तुलना में बुजुर्ग महिलाओं की आर्थिक और व्यावसायिक गतिविधियों में अधिक संलग्नता दिखाई देती है.

भारत में बुजर्गों को पेंशन और बीमा की सुविधा मिलने में भी मुश्किल है. आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में एम्पलॉयर इंश्योरेंस यानी नियोक्ता बीमा और पेंशन योजनाओं की सुविधा ग्रामीण इलाक़ों के केवल 9 प्रतिशत बुजुर्ग पुरुषों को मिल पाती है, जबकि शहरी इलाक़ों में ये सुविधाएं संगठित सेक्टर में कार्यरत 41.9 प्रतिशत पुरुषों के लिए उपलब्ध हैं. महिलाओं के मामले में बीमा और पेंशन जैसी सुविधाओं का और भी बुरा हाल है. भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में 3.9 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 38.5 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाओं को ही बीमा और पेंशन की सुविधा नसीब होती है. ज़ाहिर है कि बाक़ी वर्कफोर्स में अस्थाई कर्मचारी या फिर स्वरोज़गार करने वाले लोग शामिल हैं और इन लोगों को न तो सेवानिवृत्ति का कोई लाभ मिल पाता है और न ही इन्हें हेल्थकेयर से जुड़ा कोई लाभ मिलता है.[101]

चित्र 20: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों द्वारा किया जाने वाला कामकाज: वेतन वाली नौकरी

नोट: वेतन वाली नौकरी में पूर्णकालिक, अंशकालिक, अनुबंध-आधारित, अस्थायी या साल के कुछ महीने वाले रोज़गार शामिल हैं.

 

स्रोत: LASI 2017-18

LASI के आंकड़ों के मुताबिक़ सिर्फ़ 1.9 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं ही काम से जुड़ी पेंशन योजनाओं के अंतर्गत आती थीं, जबकि ऐसे बुजुर्ग पुरुषों की संख्या 8.4 प्रतिशत थी. केरल के अलावा बाक़ी सभी राज्यों के आंकड़े यह बताते हैं वहां संगठित क्षेत्र से रिटायर होने वाली महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में काफ़ी कम है. (चित्र 21) वहीं राष्ट्रीय स्तर के आंकड़ों को देखें, तो वहां भी स्थिति बहुत उत्साहजनक नहीं हैं. राष्ट्रीय स्तर पर 7.3 प्रतिशत पुरुषों के भविष्य निधि के खाते खुले हुए हैं, जबकि महज 2.8 प्रतिशत महिलाओं को ही भविष्य निधि की सुविधा उपलब्ध है.[102]

गौरतलब है कि घातक स्वास्थ्य नतीज़ों को रोकने यानी बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच स्थापित करने में सामाजिक सुरक्षा तंत्र एवं सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की बहुत बड़ी भूमिका होती है. स्वास्थ्य बीमा जैसी सुविधा नहीं होने पर किसी विपरीत स्वास्थ्य परिस्थिति में बेहतर इलाज के लिए बहुत अधिक धनराशि की आवश्यकता होती है, ऐसे में सामाजिक सुरक्षा तंत्र बेहद अहम हो जाता है. LASI दवारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार केवल 3.2 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाओं ने इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होने के दौरान चिकित्सा ख़र्च का भुगतान करने हेतु स्वास्थ्य बीमा का उपयोग किया, जबकि बुजुर्ग पुरुषों ने समान स्वास्थ्य बीमा होने पर लगभग दोगुनी तादाद में इस सुविधा का लाभ उठाया. यद्यपि, इसके पीछे संभावित वजह यह हो सकती है कि महिलाओं में वित्तीय साक्षरता की कमी है, यानी उन्हें वित्तीय सुविधाओं के बारे में मुकम्मल जानकारी नहीं है. साथ ही यह भी वजह हो सकती है कि महिलाओं को संगठित क्षेत्र में कम नौकरियां मिलती हैं, हालांकि इस मुद्दे पर और अधिक शोध किए जाने की ज़रूरत होगी. इसके अलावा, LASI  आंकड़ों का गहनता से विश्लेषण करने पर सामने आता है कि जिन बुजुर्ग व्यक्तियों के पास हेल्थ इंश्योरेंस की सुविधा उपलब्ध थी, उन्हें एक से अधिक बीमारियां होने की संभावना अधिक थी. ज़ाहिर है कि हर बीमारी का उपचार कराने से ख़र्च भी बढ़ गया.[103]

चित्र 21: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों को मिलने वाला सामाजिक सुरक्षा कवरेज: काम से संबंधित पेंशन योजना

स्रोत: LASI 2017-18

चित्र 22: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों को मिलने वाला सामाजिक सुरक्षा कवरेज: भविष्य निधि

स्रोत: LASI 2017-18

चित्र 23: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों को मिलने वाला सामाजिक सुरक्षा कवरेज: संगठित सेक्टर से सेवानिवृत्ति

स्रोत: LASI 2017-18

चित्र 23 में दिए गए आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि जैसे-जैसे महिलाओं की सेवानिवृत्ति की आयु निकट आती जाती है, यानी वे बुढ़ापे की ओर अग्रसर होती हैं, वैसे-वैसे कार्यबल में उनकी भागीदारी भी कम होती जाती है. आंकड़ों के मुताबिक़ हरियाणा (चित्रा 24) को छोड़कर, मुश्किल से किसी भी राज्य में बुजुर्ग महिलाओं को कोई सेवानिवृत्ति पेंशन मिल रही है.

चित्र 24: विभिन्न राज्यों में लैंगिक आधार पर 60+ के बुजुर्गों को मिलने वाला सामाजिक सुरक्षा कवरेज: वर्तमान में सेवानिवृत्ति पेंशन पाने वालों के आंकड़े

स्रोत: LASI 2017-18

उपरोक्त आंकड़ों से कुल मिलाकर जो तस्वीर सामने आती है, वो यह है कि भारत के बड़े राज्यों की तुलना में छोटे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाएं अपेक्षाकृत अधिक हैं, यानी अधिक संख्या में बुजुर्गों को सामाजिक सुरक्षा कवरेज हासिल है. कहने का मतलब यह है कि उत्तर भारत, पूर्वी भारत और मध्य भारत के बड़े राज्यों में सामाजिक सुरक्षा कवरेज संतोषजनक नहीं है.

कोविड-19 का प्रभाव

कोविड-19 महामारी की पहली लहर का प्रकोप जब भारत में फैला था, तब उससे जान जाने का ख़तरा सबसे अधिक वृद्ध आबादी में दिखाई दिया था, ख़ास तौर पर जो बुजुर्ग पहले से ही किसी दूसरी बीमारी की चपेट में थे, उनकी जान ज़्यादा जोख़िम में थी. उस दौर में कोरोना के संक्रमण से पीड़ित बुजुर्गों को सबसे अधिक देखभाल की ज़रूरत थी.[104] इतना ही नहीं अगर वर्ष 2020 के कोविड काल के आंकड़ों पर नज़र डालें तो कोरोना वायरस का सबसे अधिक ख़तरा बुजुर्ग पुरुषों पर था, लेकिन बुजुर्ग महिलाओं पर भी इसका ख़तरा कोई कम नहीं था, बल्कि उन पर इसकी चपेट में आने और मौत का ख़तरा कहीं अधिक था.[105]

कोरोना महामारी के दौरान जो हालात थे और जिस प्रकार से लोगों की जान पर बन आई थी, उसको लेकर 16 देशों में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि कोविड-19 की वजह से युवाओं की तुलना में 65 वर्ष या उससे अधिक उम्र के बुजुर्गों की मृत्यु दर बहुत ज़्यादा थी.

कोरोना महामारी के दौरान जो हालात थे और जिस प्रकार से लोगों की जान पर बन आई थी, उसको लेकर 16 देशों में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि कोविड-19 की वजह से युवाओं की तुलना में 65 वर्ष या उससे अधिक उम्र के बुजुर्गों की मृत्यु दर बहुत ज़्यादा थी.[106] इसके अलावा, महिलाओं की तुलना में पुरुषों में कोविड-19 से मौत का जोख़िम अधिक था. कोलंबिया और चिली जैसे देशों में तो बुजुर्गों के लिहाज़ से बहुत ही भयावह स्थिति थी, जहां कोविड-19 को मरने वालों की कुल संख्या में बुजुर्गों की तादाद 86 प्रतिशत तक थी.[107] पेरू की बात करें, तो वहां कोविड-19 से मरने वालों में 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र के बुजुर्गों की संख्या 70 प्रतिशत थी.

जहां तक भारत की बात है, तो भारत में दुनिया के दूसरे विकसित देशों की तुलना में कुल आबादी में बुजुर्गों का अनुपात कम है. लेकिन भारत में बुजुर्गों के लिए सामाजिक सुरक्षा के उपायों की कमी है, साथ ही संरचनात्मक स्तर पर भी तमाम तरह की दिक़्क़तें हैं, जो बुजुर्गों में असुरक्षा का भाव पैदा करती हैं. इतना ही नहीं, भारत में बुजुर्गों के कल्याण और उनकी देखभाल के लिए दूसरे देशों की तुलना में जो वित्तीय मदद दी जाती है, वो भी बहुत कम है. साथ ही वृद्धावस्था से संबंधित विशेष प्रकार की स्वास्थ्य सुविधाओं के इंफ्रास्ट्रक्चर की भी कमी है और बुजुर्गों से जुड़ी आउटरीच गतिविधियों यानी बुजुर्ग आबादी तक आवश्यक सेवाएं प्रदान करने से संबंधित गतिविधियों का भी नितांत अभाव है. राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण के वर्ष 2017-18 के आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में लगभग 70 प्रतिशत बुजुर्ग आबादी अपनी रोज़मर्रा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दूसरों पर निर्भर है.[108] इसके अलावा कोविड-19 महामारी जैसे संकट में बुजुर्गों का सामाजिक संपर्क पुरी तरह से टूट जाता है और उनकी ज़रूरी देखभाल भी नहीं हो पाती है. ज़ाहिर है कि आपात स्वास्थ्य स्थितियों में डिजिटिल टूल्स, जैसे कि मोबाइल, स्मार्ट फोन, इंटरनेट आदि की अहमियत बहुत बढ़ जाती है, क्योंकि इन्हीं माध्यमों के ज़रिए लोगों तक ज़रूरी सूचनाएं पहुंचाई जाती हैं, लेकिन भारत में बुजुर्गों की डिजिटल माध्यमों तक पहुंच सीमित होती है और ऐसे में उनकी परेशानी और अधिक बढ़ जाती है.

कोविड-19 महामारी के दौरान भारत के बुजुर्गों की एक और बड़ी चिंता कोरोना वैक्सीन को लेकर थी, दरअसल, बुजुर्ग आबादी वैक्सीन लगवाने को लेकर हिचकिचा रही थी. उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु में बड़ी संख्या में बुजुर्गों ने कोविड वैक्सीन को नकार दिया था. आंकड़ों के मुताबिक़ राज्य के 27.6 प्रतिशत वृद्ध वयस्क कोविड-19 बीमारी को नियंत्रित करने के लिए वैक्सीन लेने को राज़ी नहीं थे.[109],[110] बुजुर्गों की आबादी में पुरुषों में कोविड वैक्सीन लेने को लेकर अधिक झिझक देखने को मिली थी. इसी प्रकार से नागालैंड ऐसा राज्य था, जहां कोविड वैक्सीन को लेकर ज़बरदस्त दुष्प्रचार था और लोगों में टीका लगवाने को लेकर दुविधा का माहौल था. इतना ही नहीं, नागालैंड में वर्ष 2021 में कोविड वैक्सीन की पहली डोज लेने वाले नागरिकों की संख्या देश में सबसे कम थी. इसके अलावा, एक और तथ्य यह निकलकर सामने आया है कि भारत में 45+ आयु वर्ग के नागरिकों की बीच और ऐसे ज़िलों में जहां निरक्षरता बहुत अधिक है, वहां कोविड वैक्सीन के प्रति नकारात्मक माहौल था, यानी ये लोग टीके लगवाने से घबरा रहे थे.[111]

जहां तक बुजुर्गों की जनसंख्या की बात है, तो उनके बीच सबसे बड़ी स्वास्थ्य चिंता कहीं न कहीं गैर-संचारी बीमारियां और ख़राब मानसिक स्वास्थ्य है.[112] निसंदेह तौर पर बुजुर्गों में मानसिक विकार बहुत नुक़सानदायक होते हैं, क्योंकि इनसे गैर-संचारी रोगों के फैलने का ख़तरा कई गुना बढ़ जाता है.[113],[114] ज़ाहिर है कि शराब और तंबाकू का सेवन करने के अतिरिक्त, ख़राब मानसिक स्वास्थ्य वाले मरीज़ों का खान-पान भी अक्सर अच्छा नहीं होता है, यानी वे हेल्जी भोजन नहीं खाते हैं, इसके अलावा वे शारीरिक रूप से कोई परिश्रम नहीं कर पाते हैं. यह सारी आदतें ऐसे बुजुर्गों में गैर-संचारी बीमारियों के पनपने की बड़ी वजह बनती हैं.[115] इनमें कोरोनरी आर्टरी से जुड़ी बीमारियां, स्ट्रोक और कैंसर के साथ-साथ मोटापा, उच्च रक्तचाप और मेटाबोलिक सिंड्रोम जैसी घातक बीमारियां पैदा होने का ख़तरा बढ़ जाता है.

निष्कर्ष और सिफ़ारिशें

इस पेपर में बुजुर्गों में गैर-संचारी रोगों के प्रसार और उनमें इस प्रकार की बीमारियां पनपने के पीछे की वजहों को लेकर उपलब्ध विभिन्न प्रकार के आंकड़ों और अध्ययनों की गहनता से समीक्षा करने की कोशिश की गई है. इसके अलावा, इस पेपर में जैविक, सामाजिक एवं आर्थिक नज़रिए से उम्र बढ़ने के दौरान लैंगिक आधार पर पड़ने वाले प्रभावों, यानी इन सभी कारकों का बुजुर्ग पुरुषों और बुजुर्ग महिलाओं पर अलग-अलग किस तरह का असर पड़ता है, उसका भी विस्तार से उल्लेख किया गया है. उल्लेखनीय है कि भारत में ऐसी नीतियां बनाए जाने की ज़रूरत है, जो बुजुर्गों में गैर-संचारी रोगों के बढ़ते प्रसार को रोकने और उनके लिए उपचार से संबंधित हेल्थ सिस्टम में लैंगिक पहलू को प्रमुखता देने वाली हों. इस पेपर में विभिन्न आंकड़ों के विस्तृत विश्लेषण से यह भी सामने आया है कि बुजुर्गों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाना एक जटिल कार्य बना हुआ है, साथ ही इसमें उनकी बढ़ती आयु एक बड़ी रुकावट है. ज़ाहिर है कि वृद्धावस्था में बेहतर स्वास्थ्य बेहद आवश्यक है और इसे सुनिश्चित करने के लिए बुजुर्गों में बीमारियों की रोकथाम करने वाली रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना अहम है. यानी ऐसी रणनीतियों को अमल में लाने की ज़रूरत है, जो बुजुर्गों में गैर-संचारी रोगों को शुरुआती अवस्था में ही रोक दें. कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि स्वास्थ्य प्रणाली में वृद्ध वयस्कों की विशेष चिकित्सीय देखभाल को शामिल किया जाए और लंबे समय तक देखभाल के प्रावधानों की व्यवस्था की जाए. ऐसा करने के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि राष्ट्रीय योजनाओं में बुजुर्गों की स्वास्थ्य देखभाल के लिए लैंगिक आधार पर बजट का आवंटन सुनिश्चित किया जाए, ताकि बुजुर्ग पुरुषों एवं बुजुर्ग महिलाओं को उनकी विशिष्ट स्वास्थ्य ज़रूरतों के मुताबिक़ चिकित्सीय बुनियादी ढांचा विकसित किया जा सके.

ज़ाहिर है कि वृद्धावस्था में बेहतर स्वास्थ्य बेहद आवश्यक है और इसे सुनिश्चित करने के लिए बुजुर्गों में बीमारियों की रोकथाम करने वाली रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करना अहम है. यानी ऐसी रणनीतियों को अमल में लाने की ज़रूरत है, जो बुजुर्गों में गैर-संचारी रोगों को शुरुआती अवस्था में ही रोक दें. 

सिफ़ारिशें

  • स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों में महिलाओं एवं पुरुषों की स्वास्थ्य देखभाल को लेकर तमाम तरह की विषमताएं मौज़ूद हैं. स्वास्थ्य तंत्र में फैली इन लैंगिक असमानताओं से निपटने के लिए और बुजुर्गों की आवश्यकताओं को विशेष तौर से ध्यान में रखते हुए लैंगिक रूप से संवेदनशील और आयु-संवेदनशील नीतियां बनाने की ज़रूरत है.
  • जिस प्रकार से बुजुर्गों की आबादी में इज़ाफा हो रहा है और उनमें गैर-संचारी बीमारियों का फैलाव बढ़ता जा रहा है, उसके मद्देनज़र न केवल स्वास्थ्य शिक्षा प्रणाली में सुधार करने और जागरूता फैलाने की ज़रूरत है, बल्कि बुजुर्गों के लिए नियमति तौर पर स्वास्थ्य जांच की सुविधाएं उपलब्ध कराना भी आवश्यक है. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता पैदा करने और गैर-संचारी बीमारियों की समय-समय पर जांच करने से इन बीमारियों का पता लगाने, उनका प्रसार रोकने और बेहतज उपचार मुहैया कराने में सहायता मिल सकती है.
  • जिस प्रकार से लगातार बुजुर्गों की जनसंख्या में बढ़ोतरी हो रही है, ऐसे में वृद्धों की ज़रूरतों से निपटने के लिए ख़ास तौर पर बुजुर्गों के स्वास्थ्य देखभाल से जुड़े विशिष्ट पेशेवरों की कुशलता और विशेषज्ञता को बढ़ाने की आवश्यकता है.
  • बुजुर्गों के बीच लैंगिक आधार पर गैर-संक्रमित बीमारियों के प्रसार यानी वृद्ध पुरुषों की अपेक्षा वृद्ध महिलाओं में गैर-संचारी रोगों की अत्यधिक फैलाव को रोकने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाए जाने की ज़रूरत है. इसके लिए सरकारी विभागों, गैर-सरकारी संगठनों, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और समुदाय-आधारित संगठनों के बीच सहयोग एवं साझेदारी को प्रमुखता दी जानी चाहिए.

मोना ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में जूनियर फेलो हैं.

शोबा सूरी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.

लेखक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास की सजुशा अशोक द्वारा उपलब्ध कराई गई अनुसंधान सहायता के लिए उन्हें धन्यवाद देते हैं. सजुशा अशोक पूर्व में ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के हेल्थ इनीशिएटिव में एक इंटर्न के तौर पर काम कर चुकी हैं.


ये लेखक के निजी विचार हैं.

Endnotes

[a] वरिष्ठ नागरिकों पर राष्ट्रीय नीति (2011) में 60 वर्ष और उससे अधिक की उम्र के व्यक्तियों को बुजुर्ग बताया गया है.

[b] WHO के अनुसार हीमोग्लाबिन का स्तर 12 g/dl से नीचे होने पर 'एनीमिया' होता है.

[c] धुआं रहित तंबाकू में तंबाकू को चबाना, सूंघना, तंबाकू से बने उत्पाद को दांतों और मसूड़ों के बीच दबाकर रखना यानी पान, गुटखा या खैनी के रूप में इस्तेमाल करना शामिल है.


[A] वरिष्ठ नागरिकों पर राष्ट्रीय नीति (2011) में 60 वर्ष और उससे अधिक की उम्र के व्यक्तियों को बुजुर्ग बताया गया है.

[B] WHO के अनुसार हीमोग्लाबिन का स्तर 12 g/dl से नीचे होने पर 'एनीमिया' होता है.

[C] धुआं रहित तंबाकू में तंबाकू को चबाना, सूंघना, तंबाकू से बने उत्पाद को दांतों और मसूड़ों के बीच दबाकर रखना यानी पान, गुटखा या खैनी के रूप में इस्तेमाल करना शामिल है.

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Authors

Mona

Mona

Mona is a Junior Fellow with the Health Initiative at Observer Research Foundation’s Delhi office. Her research expertise and interests lie broadly at the intersection ...

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Shoba Suri

Shoba Suri

Dr. Shoba Suri is a Senior Fellow with ORFs Health Initiative. Shoba is a nutritionist with experience in community and clinical research. She has worked on nutrition, ...

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