Special ReportsPublished on Sep 13, 2022
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Azadi Ka Amrit Mahotsav The Story Of The Development Of India At 75

Azadi Ka Amrit Mahotsav: भारत की विकास गाथा, विकासात्मक विरोधाभास और आर्थिक विकास की बदलती दृष्टि!

  • Anirban Sarma
  • Aparna Roy
  • Basu Chandola
  • Debosmita Sarkar
  • Malancha Chakrabarty
  • Mona
  • Nilanjan Ghosh
  • Oommen C. Kurian
  • Shoba Suri
  • Soumya Bhowmick
  • Sunaina Kumar

     India at 75:  भारत के विकास (Development of India) की राह परंपरागत रूप से इस सोच के अनुरूप नहीं रही है. हालांकि, अब यह सोच बदल रही है. सरकार ने महामारी (Coronavirus Pandemic) की वजह से लगाई गई तालाबंदी (Lockdown in India) के दौरान कमज़ोर आबादी को सामाजिक सुरक्षा (Social Security) प्रदान करने का प्रयास किया.

Azadi Ka Amrit Mahotsav: ऐतिहासिक रूप से भारत ने खुद को विकासात्मक विरोधाभास के रूप में प्रस्तुत किया है – ‘‘पर्याप्त संसाधन, पर्याप्त गरीबी,’’ जिसे कुछ लोग तथाकथित ‘‘संसाधन अभिशाप’’ की अभिव्यक्ति के रूप में संदर्भित करेंगे.[5] संसाधन अभिशाप परिकल्पना को प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद ‘विकास घाटा’ अर्थात कम आय, कम आर्थिक विकास, कमजोर लोकतंत्र और कम समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों वाली अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में विकास संकेतकों में खराब प्रदर्शन करने वाली अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति में वर्णित किया जा सकता है. लेकिन भारतीय स्थिति इस तरह की एक रेखा वाली सैद्धांतिक रचना की तुलना में बयान नहीं की जा सकती, क्योंकि यह उससे कहीं अधिक जटिल है. भारत के संपूर्ण इतिहास में, हमेशा से ही अविकसित और विकास के क्षेत्र रहे हैं,[6] जो लगभग एक रेखीये और निकटस्थ अंदाज में स्थित हैं. (Azadi Ka Amrit Mahotsav)

संसाधन अभिशाप परिकल्पना को प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद ‘विकास घाटा’ अर्थात कम आय, कम आर्थिक विकास, कमजोर लोकतंत्र और कम समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों वाली अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में विकास संकेतकों में खराब प्रदर्शन करने वाली अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति में वर्णित किया जा सकता है.

साथ ही, यह समझने की आवश्यकता है कि वितरणात्मक न्याय या समान हिस्सेदारी और प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता की चिंताओं पर विचार किए बिना आर्थिक विकास का बेलगाम और अंधा पीछा ‘‘विकास की लागत’’ के रूप में एक जैविक परिणाम को साथ लेकर आता है. वे अक्सर कम समय यानी अल्पावधि में महसूस नहीं होते, लेकिन लंबे समय में दिखाई देने लगते हैं. या तो ये भौतिक बुनियादी ढांचे के निर्माण की वजह से आजीविका को होने वाले नुकसान और पुनर्वास की बढ़ती समस्याओं के रूप में हो सकते हैं, या मानव आवास को प्रभावित करने वाली इकोसिस्टम की सेवाओं को पहुंचने वाले नुकसान के रूप में हो सकते हैं.[7] (Azadi Ka Amrit Mahotsav)

आजादी के बाद से विशेषत: 1990 की शुरुआत में हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद से भारतीय विकास की गाथा इसी वर्गीकरण में आती है. आर्थिक उन्नति में बड़े पूंजीगत व्यय के माध्यम से नई पूंजी का निर्माण हुआ. कई मामलों में, समाज को आजीविका और इकोसिस्टम सेवाओं में होने वाले जो नुकसान वहन करने पड़ते हैं उसकी कीमत लंबे समय में होने वाले आर्थिक लाभ से ज्यादा भारी होती है. लंबे समय तक किए गए इस तरह के निवेश की फलोत्पादकता पर अधिक व्यापक विश्लेषण के माध्यम से दिखाई देने वाला नकारात्मक लाभ-लागत अंतर ऐसे निवेश पर सवालिया निशान लगा देता है.[8] इस प्रकार, जबकि रेखीये बुनियादी ढांचे, कृषि, उद्योग और शहरी बस्तियों के लिए बड़े पैमाने पर भूमि-उपयोग परिवर्तन और संरचनात्मक हस्तक्षेपों के माध्यम से जल विज्ञान व्यवस्था के प्राकृतिक प्रवाह में परिवर्तन आर्थिक प्रगति के लिए लागू किए गए थे. इन्हें भी पुनर्वास से जुड़ी सामाजिक कीमत अथवा पुनर्वास की कमी से जोड़कर देखा गया है, जो संघर्ष को जन्म देता है. इसके बावजूद भौतिक पूंजी की आर्थिक उन्नति को बढ़ावा देने में जो अहम भूमिका है उसे नकारा नहीं जा सकता. भले ही कारोबारी माहौल और आर्थिक प्रतिस्पर्धात्मकता को दीर्घ स्तर पर बढ़ावा देने में भौतिक बुनियादी ढांचे के पर्याप्त अनुभवजन्य साक्ष्य उपलब्ध हैं.[9] इस मायने में यह एक आवश्यक बुराई थी, जिसे भारतीय सामाजिक-अर्थव्यवस्था को विशेषत: आजादी के बाद के विकास के प्रारंभिक चरणों के दौरान झेलना पड़ा.

आर्थिक विकास की बदलती दृष्टि

विकास को ही उन्नति अथवा आर्थिक प्रगति के एकमात्र पैमाने के रूप में देखे जाने की कोशिशों को दशकों से विश्व स्तर पर चुनौती दी गई है. युद्ध के बाद के दशकों में यूरोपीय पुनर्निर्माण और उपनिवेश से बाहर आने वाले देशों, जिसे उस समय थर्ड वर्ल्ड अर्थात तीसरी दुनिया कहा जाता था, में विकास को लेकर यह सोच कि विकास केवल पूंजी निर्माण के माध्यम से ही हो सकता था, उस सोच को चुनौती दी गई और अब विकास में मानवीय चेहरा प्रमुख प्रतिमान में हो गया.[10] समय के साथ, रोम की प्रलय के दिन की मान्यता को मानने वाले क्लब ने इस माल्थुसियन मत पर फिर से विचार किया कि मानवजनित हस्तक्षेपों के कारण प्राकृतिक संसाधनों की कमी भविष्य में मानव आर्थिक विकास की महत्वाकांक्षाओं को बनाए रखने में सक्षम नहीं होगी.[11]

ऐसे में अनेक सम्मेलन, वैज्ञानिक आकलन और वैश्विक घोषणाएं हुई हैं, जो सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों सहित विकास के लिए एक अधिक समग्र दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की मांग करती हैं, और जिन्हें अंतत: 2015 में एसडीजी द्वारा बनाई गई अधिक व्यापक कार्यसूची से प्रतिस्थापित किया गया है. 17 लक्ष्यों के माध्यम से विकासात्मक शासन के लिए एक पर्याप्त विस्तारित और व्यापक कार्यसूची प्रस्तुत करते हुए एसडीजी, अर्थशास्त्री मोहन मुनसिंघे के ‘सस्टेनोमिक्स’ में एक सैद्धांतिक आधार पाते हैं जो एक ट्रांसडिसप्लिनरी ज्ञान के आधार पर तैयार किया गया है.

ऐसे में अनेक सम्मेलन, वैज्ञानिक आकलन और वैश्विक घोषणाएं हुई हैं, जो सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों सहित विकास के लिए एक अधिक समग्र दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की मांग करती हैं, और जिन्हें अंतत: 2015 में एसडीजी द्वारा बनाई गई अधिक व्यापक कार्यसूची से प्रतिस्थापित किया गया है. 17 लक्ष्यों के माध्यम से विकासात्मक शासन के लिए एक पर्याप्त विस्तारित और व्यापक कार्यसूची प्रस्तुत करते हुए एसडीजी, अर्थशास्त्री मोहन मुनसिंघे के ‘सस्टेनोमिक्स’ में एक सैद्धांतिक आधार पाते हैं, जो एक ट्रांसडिसप्लिनरी ज्ञान के आधार पर तैयार किया गया है. यह निर्माण आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय लक्ष्यों को जोड़ता है, जिससे समानता, दक्षता और स्थिरता के तीन मानक उद्देश्यों को संबोधित किया जाता है.[12] कई मामलों में, ये उद्देश्य ऐसे उभरते हैं, जिनके साथ समझौता नहीं किया जा सकता.

भारत के विकास की राह परंपरागत रूप से इस सोच के अनुरूप नहीं रही है. हालांकि, अब यह सोच बदल रही है. सरकार ने महामारी की वजह से लगाई गई तालाबंदी के दौरान कमज़ोर आबादी को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास किया. लेकिन सरकार के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद एक बड़ा वर्ग यह लाभ पाने से वंचित रह गया. ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि देश में अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ी आबादी अपंजीकृत है और इस कारण वितरण की समस्या उपजती है. इसके अलावा सरकारी रिकॉर्ड में अब भी बड़े पैमाने पर प्रवासी श्रमिकों को दर्ज नहीं किया जा सका है. ऐसे में यह स्पष्ट है कि यह बाजार की ताकतें ही हैं, जिन्होंने अब तक गरीबों और कमज़ोर लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान की है. लॉकडाउन, मूलभूत बाज़ार की ताकतों को बंद करने जैसा ही था, जिसकी वजह से अनौपचारिक श्रम शक्ति को अधर में छोड़ दिया गया. इसी वजह से एसडीजी, भारतीय विकास नीति तंत्र के समक्ष शासन प्रणाली संबंधी चुनौती पेश करते हैं.

नोट: यह लेख ओआरएफ़ हिंदी के लॉन्ग फॉर्म सामयिक रिसर्च पेपर “अमृत महोत्सव: वो 10 नीतियाँ, जिनकी वजह से निर्माण हो रहा है एक चिरस्थायी भारतवर्ष का!” से लिया गया एक छोटा सा हिस्सा है. इस पेपर को विस्तार से पढ़ने के लिये आगे दिये गये occasional paper के लिंक पर क्लिक करें, जिसका शीर्षक है- अमृत महोत्सव: वो 10 नीतियाँ, जिनकी वजह से निर्माण हो रहा है एक चिरस्थायी भारतवर्ष का!

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Anirban Sarma

Anirban Sarma

Anirban Sarma is Director of the Digital Societies Initiative at the Observer Research Foundation. His research explores issues of technology policy, with a focus on ...

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Aparna Roy

Aparna Roy

Aparna Roy is a Fellow and Lead Climate Change and Energy at the Centre for New Economic Diplomacy (CNED). Aparna's primary research focus is on ...

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Basu Chandola

Basu Chandola

Basu Chandola is an Associate Fellow. His areas of research include competition law, interface of intellectual property rights and competition law, and tech policy. Basu has ...

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Debosmita Sarkar

Debosmita Sarkar

Debosmita Sarkar was an Associate Fellow with the SDGs and Inclusive Growth programme at the Centre for New Economic Diplomacy at Observer Research Foundation, India. Her ...

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Malancha Chakrabarty

Malancha Chakrabarty

Dr Malancha Chakrabarty is Senior Fellow and Deputy Director (Research) at the Observer Research Foundation where she coordinates the research centre Centre for New Economic ...

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Mona

Mona

Mona is a Junior Fellow with the Health Initiative at Observer Research Foundation’s Delhi office. Her research expertise and interests lie broadly at the intersection ...

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Nilanjan Ghosh

Nilanjan Ghosh

Dr Nilanjan Ghosh heads Development Studies at the Observer Research Foundation (ORF) and is the operational head of ORF’s Kolkata Centre. His career spans over ...

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Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian is Senior Fellow and Head of the Health Initiative at the Inclusive Growth and SDGs Programme, Observer Research Foundation. Trained in economics and ...

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Shoba Suri

Dr. Shoba Suri is a Senior Fellow with ORFs Health Initiative. Shoba is a nutritionist with experience in community and clinical research. She has worked on nutrition, ...

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Soumya Bhowmick is a Fellow and Lead, World Economies and Sustainability at the Centre for New Economic Diplomacy (CNED) at Observer Research Foundation (ORF). He ...

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Sunaina Kumar is Director and Senior Fellow at the Centre for New Economic Diplomacy at the Observer Research Foundation. She previously served as Executive Director ...

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Sayanangshu Modak

Sayanangshu Modak

Sayanangshu Modak is a doctoral candidate in the School of Geography, Development and Environment at the University of Arizona. ...

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