पिछले एक महीने से अफ़ग़ानिस्तान में जारी संकट अब एक महत्वपूर्ण मोड़ पर आ गया है जहां अमेरिकी सेना आख़िरकार 20 सालों से चले आ रहे लंबे युद्ध की समाप्ति कर अफ़ग़ानिस्तान से वापसी कर रही है. इस बीच काबुल ने दोहा में हुए वार्ता और जंग के मैदान दोनों ही जगहों पर तालिबान को समर्थन देने के आरोप में अपने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के ख़िलाफ़ मुख़ालफत की आवाज़ बुलंद कर दी है.
पिछले दिनों उज़्बेकिस्तान के ताशकंद में आयोजित एक सम्मेलन में अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ गनी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान पर दक्षिण और मध्य एशिया के मुल्कों के बीच व्यापार और संबंधों को विस्तार देने को लेकर जमकर बरसे. जैसा कि दो पड़ोसी मुल्क आपस में एक दूसरे के ख़िलाफ़ बयानबाजी कर रहे थे, तब ऐतिहासिक तौर पर दो महत्वपूर्ण देश जो इस सम्मेलन में मौजूद थे, उन लोगों ने इस पूरे घटनाक्रम से दूरी बना कर रखी, जो बेहद चौंकाने वाला था. यहां जिन दो मुल्कों का ज़िक्र किया जा रहा है वो सऊदी अरब और युनाइटेड अरब एमीरात (यूएई) हैं.
रियाद और अबू धाबी, जिनका तालिबान समेत पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान दोनों के साथ ऐतिहासिक संबंध रहा है, उनके साथ साल 2018 में क़तर के दोहा में हुई वार्ता के दौरान दोनों देशों ने जानबूझकर दूरी बनाई. 9/11 की घटना के बाद यूएई ने अफ़ग़ानिस्तान में साल 2003 से ही सैन्य मौजूदगी तो रखी लेकिन सिर्फ़ आतंक के ख़िलाफ़ अमेरिका के कथित नैरेटिव को पूरा करने के लिए
रियाद और अबू धाबी, जिनका तालिबान समेत पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान दोनों के साथ ऐतिहासिक संबंध रहा है, उनके साथ साल 2018 में क़तर के दोहा में हुई वार्ता के दौरान दोनों देशों ने जानबूझकर दूरी बनाई. 9/11 की घटना के बाद यूएई ने अफ़ग़ानिस्तान में साल 2003 से ही सैन्य मौजूदगी तो रखी लेकिन सिर्फ़ आतंक के ख़िलाफ़ अमेरिका के कथित नैरेटिव को पूरा करने के लिए. जबकि सऊदी अरब की कोशिश अफ़ग़ानिस्तान को धार्मिक नजरिए से देखने की थी, ख़ासकर इस अवधारणा के साथ कि रियाद का पाकिस्तान के ऊपर पूरा प्रभाव है और अफ़ग़ानिस्तान में उसी असर का विस्तार करने का मौका रियाद ढूंढ रहा था. अमेरिकी छत्रछाया के तहत सऊदी अरब साल 2012 में अफ़ग़ानिस्तान की इस्लामिक संस्थानों को फंड मुहैया कराने में जुटा रहा जिसका मक़सद अफ़ग़ानिस्तान में वो अपनी मज़बूती बढ़ाना चाहता था. साल 1980 से लेकर 1989 तक अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत रूस के ख़िलाफ़ जो मुजाहिदीन लड़ाई लड़ रहे थे उन्हें ऐतिहासिक तौर पर खाड़ी क्षेत्र से पैसा और लड़ाके मुहैया कराए जा रहे थे. इसका नतीजा यह हुआ कि आमू दरिया नदी के पास से सोवियत रूस पूरी तरह से अपनी सेना की वापसी कर ली. पाकिस्तान के पत्रकार अहमद राशिद की लिखी किताब ‘तालिबान’ के मुताबिक सऊदी अरब ने साल 1980 से 1990 के दौरान मुजाहिदीनों को 4 बिलियन अमेरिकी डॉलर की मदद पहुंचाई थी. ये उस रक़म और मदद से अलग थी जो अनाधिकारिक तौर पर इस्लामिक संस्थाओं, चैरिटी, राजाओं के निजी फंड और मस्जिदों से वसूली जाती थीं.” हालांकि, दूसरे विद्वानों जैसे थॉमस हेग्गहैमर का संशय के साथ कहना है कि ऐसे दावे बिना किसी दस्तावेज़ और रिकॉर्ड के पूरी तरह सत्यता पर खरे नहीं उतरते हैं. हालांकि, ऐसे तरीक़ों से इतर हेग्गहैमर की टिप्पणी थी कि सऊदी अरब एड कर्मचारियों की हवाई टिकट पर सब्सिडी दिया करता था. और इस व्यवस्था का फ़ायदा निजी चैरिटी, मस्जिदों और मुजाहिद्दीन से जुड़ने के लिए आगे आने वाले लोगों ने भी समान रूप से उठाया.
कट्टरवाद को लेकर बदलता नज़रिया
लेकिन साल 2021 में खाड़ी में अलग तरह की परिस्थितियां हैं. अफ़ग़ानिस्तान को लेकर सउदी अरब, यूएई और इस क्षेत्र में दूसरे मुल्कों के हस्क्षेप में कमी की बड़ी वजह मध्य एशिया में कट्टरवाद के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव है जिसे लेकर मौजूदा वक़्त में रियाद और अबू धाबी का नेतृत्व पहले से ही पूरा ध्यान दे रहा है. पिछले कुछ वर्षों में यूएई इस क्षेत्र में प्रमुख वित्तीय केंद्र के रूप में उभरा है. जहां दुनिया भर से कारोबार, व्यापार और निवेश आकर्षित हुए हैं. दो राय नहीं कि यूएई कुछ दिनों से अपनी पहचान ‘मध्य एशिया का सिंगापुर’ जैसा बनाने की कोशिश में है. यूएई के लिए यह बदलाव बेहद अहम है कि वह ख़ुद की अर्थव्यवस्था को तेल पर आधारित होने से बचाये और अपनी आर्थिक पोर्टफोलियो को ऐसा बनाने की कोशिश करे जिससे तेज़ी से बढ़ती वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की चुनौतियों को लेकर वह ख़ुद को तैयार कर सके. इस क्षेत्र में यूएई को जो कामयाबी हाथ लगी है उससे सऊदी अरब के विवादित और किंग बनने की तैयारी में बैठे प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (एमबीएस) के नेतृत्व में देश नए प्रयोगों के लिए प्रेरित हो रहा है. प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने तेल आधारित अर्थव्यवस्था से मुल्क़ को अलग करने के लिए कई ढांचागत और मुश्किल भरी सुधार प्रक्रियाओं की बुनियाद रखी है.
यूएई के लिए यह बदलाव बेहद अहम है कि वह ख़ुद की अर्थव्यवस्था को तेल पर आधारित होने से बचाये और अपनी आर्थिक पोर्टफोलियो को ऐसा बनाने की कोशिश करे जिससे तेज़ी से बढ़ती वैश्विक आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की चुनौतियों को लेकर वह ख़ुद को तैयार कर सके.
सऊदी अरब के लिए मुक्त व्यवस्था को अमल में लाने के लिए आर्थिक उदारीकरण ही सिर्फ़ आवश्यक नहीं है बल्कि देश में सामाजिक और धार्मिक अवधारणाओं को भी यहां बदलने की ज़रूरत है. परंपरागत राज्य के ढांचे में आने वाली ऐसी बाधाएं अफ़ग़ानिस्तान में लड़ाई लड़ रहे मुजाहिदीन को लेकर सऊदी अरब की पहले की भू-राजनीतिक स्टैंड के मुक़ाबले कहीं उपयुक्त नहीं नज़र आती है. यहां तक कि सऊदी अरब के पाकिस्तान के साथ रिश्ते का रूख़ भी रियाद की सत्ता पर एमबीएस के वर्चस्व के बाद से बदलने लगा है. हालांकि इसे सही करने के लिए प्रिंस मोहम्मद बिन जायेद के नेतृत्व में यूएई ने मुस्लिम ब्रदरहुड – जो करीब एक शताब्दी पूर्व मिस्र में विद्धान हसन अल बन्ना द्वारा शुरू किया गया – की विचारधारा के विस्तार के ख़िलाफ़ आक्रामक रूख़ अपनाया. यूएई का ब्रदरहुड की रूढ़िवादी और अक्सर कट्टरपंथी विचारधाराओं के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने का ही नतीजा था कि साल 2013 में मिस्र में सैन्य तख़्तापलट में अबू धाबी ने गुपचुप तरीक़े से अपनी भूमिका निभाई थी जिससे ब्रदरहुड के समर्थन वाली और प्रजातांत्रिक तरीक़े से चुनी गई मोहम्मद मोरसी की सरकार सत्ता से बाहर कर दी गई. जून 2017 में यूएई और सऊदी अरब दोनों ने मिलकर गल्फ को-ऑपरेशन काउंसिल (जीसीसी) के पार्टनर कतर के ख़िलाफ़ घेराबंदी की जिसे मुस्लिम ब्रदरहुड जैसों को दोहा का समर्थन हासिल था. दरअसल रियाद और अबू धाबी को ऐसा लगा कि क़तर का नेतृत्व क्षेत्रीय मामलों में अपनी मौजूदगी बढ़ाने के लिए हस्तक्षेप बढ़ा रहा है. इसकी वजह से अफ़ग़ानिस्तान की शांति प्रक्रिया में सऊदी और यूएई की महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की संभावनाएं काफी उलझती चलीं गईं, जो साल 2018 में दोहा में आधिकारिक तौर पर शुरू हुई थी और जिसे तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने समर्थन दिया था.
खाड़ी देशों में वैचारिक बदलाव का ही नतीजा था कि इन मुल्कों में घरेलू सुरक्षा को लेकर चुनौतियां बढ़ गईं. इन बदलावों के चलते सऊदी अरब में शांति और स्थिरता बहाल करने को लेकर शायद सबसे ज़्यादा घरेलू चुनौतियां बढ़ गईं.
खाड़ी देशों में वैचारिक बदलाव का ही नतीजा था कि इन मुल्कों में घरेलू सुरक्षा को लेकर चुनौतियां बढ़ गईं. इन बदलावों के चलते सऊदी अरब में शांति और स्थिरता बहाल करने को लेकर शायद सबसे ज़्यादा घरेलू चुनौतियां बढ़ गईं. क्योंकि सऊदी अरब तब वैचारिक रूप से खुद को बदलने की कोशिश में था लेकिन इससे वहां के समाज के रूढ़िवादी लोगों के विरोध का जोख़िम बढ़ गया जिसमें बड़ी तादाद में युवाओं के भी शामिल होने का ख़तरा था. उदाहरण के तौर पर अमेरिका की जमीन पर 9/11 हमले के बाद दिसंबर 2019 में फ्लोरिडा में अल कायदा से संबंधित एक मात्र आतंकी घटना हुई जब सऊदी अरब एयर फोर्स के 21 साल के मोहम्मद अलशमरानी नाम के कर्मचारी ने 11 लोगों पर गोलियां दागी जिसमें तीन लोगों की मौत हो गई. यह घटना तब घटी जब एमबीएस सऊदी अरब को आधुनिक इस्लामिक विचारधारा की तरफ ले जाने में लगे थे जो दुनिया भर के लोगों के साथ सम्मत हो सके. मई महीने में सऊदी अरब ने मस्जिदों से उनके यहां लगे लाउडस्पीकर की आवाज को धीमी करने और नमाज़ के बाद उन्हें बंद करने का आदेश जारी किया था. नमाज़ के दौरान दुकानों और कारोबार को बंद करने के जरूरी नियम में भी कुछ राहत दे दी गई. यहां तक कि सऊदी अरब की धार्मिक पुलिस जिसे मुत्तावा भी कहा जाता है उनपर अंकुश लगाना शुरू कर दिया गया. यह सब इस मक़सद से किया जा रहा था जिससे किंग सलाहकार की भूमिका में लोगों को नजर आएं ना कि ऐसी ताकत के तौर पर जो धार्मिक शिष्टाचार को तोड़ने पर लोगों को सार्वजनिक रूप से दंडित करता हो.
वैचारिक रुढ़ीवादिता और उदार अर्थव्यवस्था
खाड़ी मुल्कों में शक्ति के केंद्र में हो रहे ऐसे बदलावों के चलते सऊदी अरब अफ़गान युद्ध के दौरान सोवियत संघ के ख़िलाफ़ जैसा सहयोग अर्जित कर सकता था उसके मुकाबले यह नए बदलाव उसे अलग दिशा में ले जा रहे थे.
एक अधिक खुली अर्थव्यवस्था विकसित करने की दिशा में धार्मिक पूर्णता का मतलब होता है कि सऊदी अरब जैसे मुल्क की पारंपरिक आम जनधारणा – जिसे बाहर की दुनिया बेहद पिछड़ा और रुढ़िवादी नीति के तौर पर देखती है – उसमें पूरी तरह बदलाव लाने की ज़रूरत है अगर एमबीएस मुल्क और समाज को अपने दृष्टिकोण से और ज़्यादा खुला और उदार अर्थव्यवस्था बनाना चाहते हैं. यूएई को बहुत हद तक यह जताने की ज़रूरत है कि वो बिना ज़्यादा क्षेत्रीय विवाद में उलझे इन चीजों को पूरा कर सकता है और इस्लामिक व्यवस्था को भी कायम कर सकता है. अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध का संकट सऊदी अरब जैसे मुल्कों के लिए घरेलू स्तर पर चुनौतियां बढ़ाने वाला है. खुद को निवेशकों का मक्का कहलाने के लिए रियाद को ये सुनिश्चित करना होगा कि यह देश फिर से अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान से पलायन करने वाले लड़ाकों की ना तो शरणस्थली बने और ना ही ऐसे केंद्र के रूप में पहचान बनाए जहां आर्थिक मदद की आड़ में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाता हो.
अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध का संकट सऊदी अरब जैसे मुल्कों के लिए घरेलू स्तर पर चुनौतियां बढ़ाने वाला है. खुद को निवेशकों का मक्का कहलाने के लिए रियाद को ये सुनिश्चित करना होगा कि यह देश फिर से अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान से पलायन करने वाले लड़ाकों की ना तो शरणस्थली बने और ना ही ऐसे केंद्र के रूप में पहचान बनाए जहां आर्थिक मदद की आड़ में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाता हो.
अफ़ग़ानिस्तान को लेकर ख़ास कर सऊदी अरब, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के धार्मिक जानकार मुस्लिम वर्ल़्ड लीग (एमडब्ल्यूएल) के ढांचे के तहत जून के महीने में मक्का में मिले. यहां इन विचारकों ने अफ़ग़ानिस्तान में जारी हिंसा को पूरी तरह ‘अनुचित’ बताया. इन विचारकों के मुताबिक तालिबान ने जो संघर्ष छेड़ी है “उसका कोई औचित्य नहीं है और इसे जिहाद नहीं कहा जा सकता”. एमडबल्यूएल सम्मेलन से पहले इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के महासचिव, युसूफ अल औहतेमीन, ने भी तालिबान के नेतृत्व में जारी हिंसा को “मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नरसंहार” बताया. अक्सर सऊदी अरब के नेतृत्व में किया गया यह दिखावा उसके नए लक्ष्यों से जुड़ा हुआ है.
नियोम को 500 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बाज़ार लागत से बिल्कुल शुरुआत से दुनिया के सबसे उन्नत शहर के रूप में विकसित करने की सऊदी अरब की योजना और दुबई में यूएई द्वारा एक्सपो 2020 का आयोजन इस मकसद से करना कि दुबई अपनी पहचान दुनिया भर के कारोबारी जगत में बना सके, इसके लिए सुरक्षा और स्थिरता को विकास का नया मंत्र बनाना होगा. पहले से ही इन चीजों को कामयाब बनाने के लिए एक तरफ यूएई, बहरीन, इज़राइल और दूसरी तरफ ईरान और सऊदी अरब के बीच अब्राहम संधि पर हस्ताक्षर किया गया. इसके तहत सऊदी अरब और ईरान आपस में बातचीत करके रिश्तों को सामान्य बनाने की कोशिश करते हैं जिससे सबसे बड़े वैचारिक अंतर को कम किया जा सके और इस क्षेत्र की सबसे बड़ी दो शक्तियों के केंद्र शिया और सुन्नी के बीच संबंधों को सामान्य किया जा सके. 90 के दशक में सिर्फ पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई ही ऐसे मुल्क थे जिन्होंने आधिकारिक तौर पर काबुल में तालिबान सरकार को मान्यता दी थी. अफ़ग़ानिस्तान संकट के इतिहास को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि खाड़ी देशों में इसे लेकर अब ज़्यादा तिकड़म करने की जगह नहीं है.
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