लगभग सौ साल हो गए हैं, जब मुसलमानों ने स्वेच्छा से गो मांस खाना छोड़ दिया था. मौलाना मुहम्मद अली, मौलाना शौकत अली, हकीम अजमल ख़ान, मियां हाजी अहमद खत्री, मियां छोटानी, मौलाना अब्दुल बारी और मौलाना हुसैन अहमद मदनी जैसी देशप्रेमी मुस्लिम शख़्सियतों ने सन् 1919 में इस दिशा में पहल की थी. यह वही लोग हैं, जिन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में उसी साल शुरू किए गए ख़िलाफ़त आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी.
गो वध विरोध का एक और रूप सूफ़ी ख़्वाजा हसन निजामी ने पेश किया है. चिश्तिया सिलसिले के इस बुज़ुर्ग ने “तर्के-गो कुशी” (1921) नामक किताब लिखी. जिसमें मुगल शहंशाह अकबर का वह फरमान यानी आदेश पेश किया गया है, जिसके ज़रियेउन्होंने गो वध पर रोक लगाई थी. इन प्रतिष्ठित उलेमा ने अपने अनुयायियों से आग्रह किया था कि वे गो कुशी से परहेज करें. इस पर उन्हें मौलाना अबुल आला मौदूदी जैसे कट्टर उलेमा का विरोध झेलना पड़ा तथा दोनों ओर से फतवाबाज़ी हुई.
मॉब लिंचिंग और गो रक्षा के नाम पर होने वाली इस हिंसा को देख कर कई सुप्रतिष्ठित मुस्लिम बुद्धिजीवी मांग कर रहे हैं कि गो वध के विरुद्ध सख़्त क़ानून बना दिया जाए. कुछ तो गो वध को देश भर में प्रतिबंधित करने आग्रह कर रहे हैं.
इसके एक सदी बाद गो वध का मामला फिर उठ खड़ा हुआ है. गो रक्षा की आड़ में कई हिंसक गिरोह तैयार हो चुके हैं, जो गाय की रक्षा के नाम पर मुसलमानों व दलितों को निशाना बना रहे हैं. अब ये इतने बे-लगाम हो चुके हैं कि सन् 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा, “मुझे पता है कुछ लोग जो रात में आपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं, वे सुबह उठ कर गो रक्षक का चोला ओढ़ लेते हैं.” मॉब लिंचिंग और गो रक्षा के नाम पर होने वाली इस हिंसा को देख कर कई सुप्रतिष्ठित मुस्लिम बुद्धिजीवी मांग कर रहे हैं कि गो वध के विरुद्ध सख़्त क़ानून बना दिया जाए. कुछ तो गो वध को देश भर में प्रतिबंधित करने आग्रह कर रहे हैं.
दारुलउलूम देवबंद की विचारधारा से संबद्ध व स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने वाले संगठन ज़मीअत उलमा-ए-हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी का ख़याल है कि गाय की रक्षा को राजनीति से जोड़ दिया गया है और इसका इस्तेमाल मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है. मौलाना ने कहा, “हम इस पर सेंट्रल लॉ बनाने की डिमांड कर रहे हैं, ताकि इस भूत से पीछा छूटे.” हालांकि उन्हें विश्वास नहीं है कि ऐसे किसी क़ानून को देश के विभिन्न राज्यों की सरकार स्वीकार करेगी.
यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि मुस्लिम नेतृत्व की बहुसंख्या देश में गो वध पर रोक लगाने के हक में रही, लेकिन सत्ताधारी दलों ने उस पर कभी रोक नहीं लगाई.
यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि मुस्लिम नेतृत्व की बहुसंख्या देश में गो वध पर रोक लगाने के हक में रही, लेकिन सत्ताधारी दलों ने उस पर कभी रोक नहीं लगाई.
गो वध और सांप्रदायिक दंगों पर तथ्यपरक शोध करने वाली इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च की फ़ेलो डॉ. नाज़िमा परवीन स्पष्ट करती हैं कि संवैधानिक सभा (1948-49) में इस विषय पर चर्चा के दौरान मुस्लिम बहुसंख्या चाहती थी कि गो रक्षा हिंदुओं का मौलिक अधिकार मान लिया जाए लेकिन मामला राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया. उनके मुताबिक यह कांग्रेस व जनसंघ (भाजपा का पूर्व रूप) का षड्यंत्र था. वे गो रक्षा क़ानून का समर्थन कर रहे थे लेकिन उसे हिंदुओं का मौलिक अधिकार बना पाने में असफल रहे. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ख़ुद इसे लेकर केंद्रीय क़ानून बनाने के पक्ष में थे लेकिन वे यह भी चाहते थे कि इस बाबत निर्णय का अधिकार प्रांतों को दे दिया जाना चाहिए.
मौलाना मदनी की तरह ही परवीन ख़ुद भी इस बाबत एक स्पष्ट क़ानून का समर्थन करती हैं, लेकिन वे इस मामले की व्यावहारिक अड़चनों को भी ख़ूब समझती हैं. उनके मुताबिक इस तरह का क़ानून बन जाने से “अव्वल तो यह मुद्दा हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा. दूसरे देश भर में गो वध पर रोक के अति गंभीर आर्थिक पहलू हैं. कई उद्योग-धंधे इससे जुड़े हैं, जिनका स्वामित्व मुसलमानों के पास नहीं है.”
प्रख्यात विधि विशेषज्ञ व नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद के वाइस चॉन्सलर फैज़ान मुस्तफ़ा के मुताबिक गो-वध पर रोक से पहले हमें पर्यावरण को नज़र में रखना होगा. जैसे अनुपयोगी हो चुके पशुओं का निदान कैसे किया जाएगा? वे कहते हैं मुसलमान तो शुरू से गो-वध का विरोध करते आए हैं. “बाबर ने हुमायूं को वसीयत की थी कि गो-वध मत करने देना, क्योंकि इससे हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचेगी.”
पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ़ मुहम्मद खां के मुताबिक गो वध पर रोक के लिए नया क़ानून बनाने के बजाय पुराने क़ानून को ही सख़्ती से लागू किए जाने से काम हो सकता है. “यह सेंट्रल सब्जेक्ट नहीं है. देश में पहले से ही इसके लिए कड़े क़ानून क़ानून हैं और सज़ा भी है. मौजूदा क़ानून क़ानूनकाफी है लेकिन वही लागू नहीं हो रहा है.” शाह बानो केस में एक मज़बूत रुख़ अपना चुके ख़ान इसकी मिसाल देते हैं कि बिहार, उत्तरप्रदेश व उत्तराखंड में गो वध पर रोक है लेकिन वहां सड़क किनारे वाले ढाबों तक पर बीफ के कबाब आसानी से मिल जाते हैं.
गो वध के बाबत इस समय विभिन्न क़ानून हैं. देश के 28 में से 20 राज्यों में गो वध पर रोक है, लेकिन बंगाल, केरल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मीजोरम, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा में बीफ कानूनी तौर पर सब जगह मिलता है.
उच्चतम न्यायालय ने गो वध मामले में अक्सर इसके आर्थिक पहलू को नज़र में रखा, जैसे उपयोगी पशुओं का वध न हो, लेकिन वे पशु जो आर्थिक रूप से बोझ बन रहे हों, उन पर यह रोक न हो. कुछ क़ानून विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि एक लोकतांत्रिक देश में, एक वर्ग की भावनाओं को ठेस न पहुंचे, इस कारण से देश के अन्य नागरिकों को उनके आहार से क़ानूनन रोकना बुद्धिमानी नहीं है लेकिन मुस्लिम उलेमा यानी धार्मिक विद्वान शुरू से इस मामले में कानूनी बहस कम करते हैं.
पीसी घोष अपनी किताब “द डेवलपमेंट ऑफ द इंडियन नेशनल कांग्रेस 1892-1909” (प्रकाशित कलकत्ताः 1960) में वाइसराय लैंसड्विन की राय नकल करते हैं. इसके मुताबिक गो रक्षा आंदोलन ने इंडियन नेशनल कांग्रेस को “आपसी विवादों में उलझी एक मूर्ख सोसायटी से असली राजनीतिक शक्ति में बदल दिया है, जिसे स्थानीय लोगों के बेहद ख़तरनाक तत्वों का समर्थन प्राप्त है.”
एक वर्ग की भावनाओं को ठेस न पहुंचे, इस कारण से देश के अन्य नागरिकों को उनके आहार से क़ानूनन रोकना बुद्धिमानी नहीं है लेकिन मुस्लिम उलेमा यानी धार्मिक विद्वान शुरू से इस मामले में कानूनी बहस कम करते हैं.
गो वध के विरोध में ख़िलाफ़त आंदोलन के नेताओं व ख़्वाजा हसन निज़ामी की अपील की पूरे देश में सराहना की गई. मियां हाजी अहमद खत्री, बॉम्बे के मियां छोटानी ने अनेक बार अपने स्वधर्मी लोगों से सैकड़ों गायें छुड़वा कर हिंदुओं के हवाले कीं. मुसलमानों के द्वारा गो वध का इस तरह सक्रिय विरोध करने का सकारात्मक प्रभाव यह हुआ कि देश में हिंदू-मुस्लिम एकता मज़बूत हुई और ख़िलाफ़त आंदोलन सफल हुआ.
लेखिका मर्शिया के हरमेंसन आश्चर्यचकित थीं कि ख़्वाजा हसन निज़ामी ने “तर्के गो कुशी” 1921 में लिखी थी, लेकिन इसका पुनर्प्रकाशन 1950 में हुआ और इसे पाकिस्तान के नागरिकों को समर्पित क्या गया था. इससे वे इस नतीजे पर पहुंचती हैं कि गो-वध और उस पर रोक के मामले का उपयोग राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया गया. निज़ामी ने अपनी किताब में इसका ज़िक्र किया है कि गो-वध पर पाबंदी कोई नई बात नहीं है. मुगलों के दौर से यह होता आया है. सन् 1857 की क्रांति और उसके बाद गांधी के नेतृत्व में हिंदू-मुस्लिम एकता का स्पष्ट संदेश देने के लिए मुसलमानों ने गो-वध पर रोक लगाने की विधिवत घोषणा की थी.
दिलचस्प बात यह है कि निज़ामी ने अपनी किताब में मौलाना मौदूदी जैसे आपत्ति करने वालों को बाक़ायदा चुनौती दी, जिनको शंका थी कि “अगर आज हिंदुओं की भावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए गो- वध पर रोक लगा दी गई तो कल वे मांग करने लगेंगे कि मुसलमानों की अज़न पर रोक लगाओ.” सूफ़ी परंपरा के ख़्वाज हसन निज़ामी ने इसका जवाब यह दिया कि भारत से मुसलमानों की हुक़ूमत चली जाने के बावजूद हिंदुओं ने गो वध रोकने के अलावा कोई और मांग नहीं रखी है. उन्होंने क़ुरआन की इस आयत का भी जिक्र किया, “उस (रब) तक तुम्हारा रक्त और मांस नहीं पहुंचता…”
मौलाना आजाद यूनिवर्सिटी जोधपुर के अध्यक्ष और इस्लामिक स्टडीज के प्रोफ़ेसर एमिरेट्स अख्तरुलवासे अलग तरह की सलाह देते हैं कि मुसलमानों को ख़ुद से सौ साल तक बीफ खाना छोड़ देना चाहिए. यह मानव इतिहास में अभूतपूर्व उदाहरण होगा, जिसमें करोड़ों लोग अपने देशवासियों की भावनाओं को का सम्मान करते हुए बीफ खाना छोड़ दिया होगा.
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