एक इंसान की दूसरे इंसान के ख़िलाफ़ सबसे ख़राब काम करने की इच्छा का कोई उदाहरण किसी दूसरे प्राणी में नहीं मिल सकता. हालिया इतिहास ऐसी मिसालों से भरपूर रहा हैं जिसकी शुरुआत हिटलर ने यहूदियों के नरसंहार से की, फिर स्टालिन की यातना और बाद में माओ और शी जिनपिंग के सुधारवादी कैंप से लेकर मध्य-पूर्व में ISIS के हाथों क्रूरतापूर्ण हत्याएं और ज़ुल्म तक हैं. इस दौरान ‘प्रोजेक्ट MK-अल्ट्रा’ भी आया जिसके ज़रिए कंबोडिया जैसे देश में अमेरिका ने दिमाग़ को कंट्रोल करने का प्रयोग किया.
रोमन साम्राज्य के सम्राट बारबारोसा के समय से इतिहास में समय-समय पर जैविक युद्ध का ज़िक्र होता रहा है. बारबारोसा ने 12वीं शताब्दी के दौरान इटली के कुओं को लाशों से ज़हरीला कर दिया जबकि पहले और द्वितीय विश्व युद्ध के समय एंथ्रेक्स और बाद में दूसरे ज़हर का इस्तेमाल किया गया. तो क्या वुहान वायरस दुश्मन को ख़त्म करने के बेहतरीन तरीक़ों की खोज में इसी तरह के भयानक प्रयोगों का एक अध्याय था या फिर ये कोई शानदार प्रयोग था जो ग़लत साबित हुआ ? वुहान वायरस की उत्पति को लेकर कई तरह की थ्योरी सामने आ रही हैं. वॉशिंगटन पोस्ट ने जनवरी में इज़रायल के एक रिसर्चर के हवाले से लिखा कि संभवत: वायरस चीन के हुबेई में वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी में बनाया गया. वहीं वैज्ञानिक और शिक्षा संस्थानों से जुड़े लोग लीक की संभावना पर भी खुलकर चर्चा कर रहे हैं लेकिन वो इस बात पर भी सहमत हैं कि ये जैविक हथियार नहीं है. लीक निश्चित तौर पर पहले ही हो गया होगा. चेचक के ख़त्म होने से पहले 1977 में क़ुदरती तौर पर चेचक के आख़िरी मामले के बाद यूनिवर्सिटी ऑफ बर्मिंघम मेडिकल स्कूल की लैब में बनी चेचक वायरस के लीक होने से ब्रिटिश मेडिकल फ़ोटोग्राफर जैनेट पार्कर चेचक के शिकार हो गए और इस वजह से उनकी मौत हो गई.
जब वुहान वायरस पहली बार सुर्खियों में आया तो भारत सरकार ने तुरंत क़दम उठाए. भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (ITBP) ने दिल्ली के बाहरी इलाक़े में 600 बिस्तरों का एक अस्पताल बनाया जबकि आर्म्ड फोर्सेज़ मेडिकल सेंटर ने हरियाणा में एक इमरजेंसी मेडिकल सेंटर शुरू किया. विदेशियों का प्रवेश बंद कर दिया गया, ज़मीनी सीमाएं सील कर दी गईं और बाद में सभी उड़ानों को रोक दिया गया. वुहान और चीन के दूसरे हिस्सों के अलावा ईरान और इटली में फंसे भारतीयों को वापस लाया गया. इनमें से कई लोग जो पैसे के दम पर भारत और विदेशों में बेहतरीन इलाज करवा सकते हैं वो देश में स्वास्थ्य सुविधाओं का मज़ाक़ उड़ाते थे. ये हालात पिछले कुछ सालों में नहीं हुए थे. आम भारतीयों के लिए तो आयुष्मान भारत योजना की वजह से ये बेहतर हुए हैं. हालांकि, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि इसमें और बेहतरी की गुंजाईश है. कोविड 19 या वुहान वायरस के आने से भारत ने जहां तक संभव हुआ एहतियाती क़दम उठाए. इसमें हमारे भारतीय डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मियों की निस्वार्थ सेवा का बड़ा योगदान है. भारत के संसाधनों को देखते हुए नुक़सान को सीमित करना जीत होगी.
विशेषाधिकार प्राप्त तबके के कुछ लोगों के ख़तरनाक तौर पर गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार और बेहूदा हरकतों को छोड़ दें तो आम लोगों की प्रतिक्रिया तारीफ़ के काबिल है. मक्का और वैटिकन समेत दूसरे देशों में धार्मिक जमावड़ों पर रोक लगा दी गई है. भारत में रामनवमी का आयोजन नहीं होगा और मलेशिया में तबलीग़ी जमात का जलसा टाल दिया गया है. पूरे विश्व में स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी बंद हैं. इस वैश्विक संकट के बीच सभी भारतीयों के लिए सबसे महत्वपूर्ण अवधि की अभी बस शुरुआत हुई है.
ये सच है कि तमाम आधुनिक सुविधाओं के बीच भारत में स्वास्थ्य व्यवस्थाएं पर्याप्त नहीं हैं. आबादी का दबाव न सिर्फ़ संख्या के मामले में है बल्कि घनत्व के मामले में भी. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में जो कहा, उसकी तुलना कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडू के भाषण से करके मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि कुछ तबक़ों के लिए मोदी जो भी करते हैं वो ख़राब है. इसकी एक वजह ये भी है कि ऐसे तबके के लोग ये भी सोचते हैं कि पश्चिमी देश जो करते हैं, अच्छा करते हैं. कनाडा 3 करोड़ 70 लाख लोगों का देश है जबकि भारत 130 करोड़ लोगों का. कनाडा की प्रति व्यक्ति GDP 46,213 डॉलर है जबकि भारत में ये आंकड़ा 2,044 डॉलर है. कनाडा क्षेत्रफल के मामले में भारत के मुक़ाबले तीन गुना बड़ा देश भी है. कनाडा का सिर्फ़ एक पड़ोसी देश है जो दोस्त की तरह उसकी रक्षा करता है जबकि भारत के दो ऐसे पड़ोसी देश हैं जो दोस्त से बढ़कर दुश्मन हैं, जो परमाणु हथियारों से लैस हैं और उनमें से एक हमारे ख़िलाफ़ जिहादी आतंकवाद का प्रायोजक भी है. हम अपनी रक्षा के लिए विशाल धनराशि ख़र्च करने को मजबूर हैं. साथ ही सीमित संसाधन भी. ट्रुडू ने पैसे की चर्चा की तो मोदी ने इंसानियत का ज़िक्र किया. दोनों ने पूरी तरह अलग प्राथमिकताओँ को संबोधित किया.
हर देश अपने पास मौजूद सामूहिक संसाधनों के हिसाब से इस परिस्थिति से निपटेगा. नरेन्द्र मोदी ने 22 मार्च को देश के नाम अपने संबोधन में जो एहसास कराया वो ये है कि अगर हम अपना दिल पूरी तरह से लगा दें तो हम क्या नहीं हासिल कर सकते हैं. 29 मिनट का भाषण हमें महामारी से निजात नहीं दिलाएगा लेकिन इस बात का एहसास ज़रूर कराएगा कि मिल-जुलकर हम महामारी को मात दे सकते हैं. इस वक़्त हमें ऐसे लोगों की बातों से परहेज करना चाहिए जो इस मामले के विशेषज्ञ नहीं हैं. दहशत हम किसी क़ीमत पर नहीं चाहते हैं.
हम अभी भी नहीं जानते कि कब, कहां और कैसे ये डर ख़त्म होगा. लेकिन दुनिया के सभी देशों को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि इस आपराधिक कृत्य की अंतर्राष्ट्रीय जवाबदेही तय हो. अगर दुनिया इस महामारी को देर तक रहने देती है, अगर हम इस तरह की गतिविधियों को बार-बार होने देते हैं तो समाज सामूहिक रूप से इसे सामान्य मानकर चलने लगेगा. इंसान के हाथों बनी इस महामारी को देखकर लगता है कि ये क़ुदरत का भी बदला है. इंसानों ने धरती पर जो विनाश किया है ये उसका परिणाम है. क्या हम ऐसा करके ख़ुद को ज़िंदा रख सकते हैं ? बिल्कुल नहीं जब तक कि हम पीछे नहीं जाते, रुकते नहीं, इस बात पर विचार नहीं करते कि हम कैसे रहते हैं और उसमें कुछ बदलाव नहीं करते.
ये वक़्त राजनीति करने का नहीं है, ये वक़्त पुराने ढंग पर लौटने, लचीलापन दिखाने और ये जंग लड़ने का है.
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