महिला आरक्षण विधेयक की सफलता को लेकर हाल ही में जो गतिविधियां देखने को मिली हैं, उनसे यह स्पष्ट पता चलता है कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए की जा रहीं अनवरत कोशिशें कितनी महत्वपूर्ण साबित हुई हैं.
भारत के संसदीय इतिहास में 20 सितंबर 2023 की तारीख़ ऐतिहासिक दिन के रूप में दर्ज़ की जाएगी, क्योंकि इस दिन महिला आरक्षण बिल या वर्ष 2008 के संविधान (108वें संशोधन) विधेयक को संसद के विशेष सत्र के दौरान लोकसभा में पारित किया गया था. इससे पहले कैबिनेट से इस महिला आरक्षण बिल को मंज़ूरी मिली थी. वर्ष 2010 में महिला आरक्षण बिल को दो-तिहाई बहुमत से राज्यसभा ने पास कर दिया था, 187 सदस्यों ने इसके पक्ष में मतदान किया था, जबकि सिर्फ़ एक सांसद ने इसके विरोध में वोटिंग की थी. हालांकि, अफसोस की बात यह कि तब निचले सदन यानी लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पर मतदान की नौबत ही नहीं आ पाई थी और आख़िरकार 15वीं लोकसभा के भंग होने के साथ ही यह विधेयक भी समाप्त हो गया.
भारत की G20 अध्यक्षता के दौरान अब फोकस केवल महिलाओं के विकास पर नहीं रह गया है, बल्कि अब पूरा ध्यान महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास पर केंद्रित हो गया है. भारत ने पहले ही एजेंडा 2030 के SDG 5.5 में वर्णित लक्ष्यों को हासिल करने का संकल्प लिया है.
महिला आरक्षण विधेयक पारित होने से क़रीब एक सप्ताह पहले ही जारी किए गए G20 नई दिल्ली लीडर्स डिक्लेरेशन में एक बुनियादी सिद्धांत के रूप में लैंगिक समानता को लेकर G20 की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित किया गया है. इसमें इस बात पर ख़ासा ज़ोर दिया गया है कि महिलाओं एवं लड़कियों के सशक्तिकरण में निवेश का सतत विकास के एजेंडा 2030 में उल्लेख किए गए लक्ष्यों, विशेष रूप से लैंगिक समानता पर सतत विकास लक्ष्य (SDG) 5 को मज़बूती प्रदान करने में कई गुना असर पड़ता है. ज़ाहिर है कि भारत की G20 अध्यक्षता के दौरान अब फोकस केवल महिलाओं के विकास पर नहीं रह गया है, बल्कि अब पूरा ध्यान महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास पर केंद्रित हो गया है. भारत ने पहले ही एजेंडा 2030 के SDG 5.5 में वर्णित लक्ष्यों को हासिल करने का संकल्प लिया है. SDG 5.5 में राजनीति और सार्वजनिक जीवन में निर्णय लेने वाले सभी पदों पर महिलाओं की संपूर्ण एवं प्रभावशाली भागीदारी और महिलाओं की लीडरशिप के लिए बराबरी के अवसरों का आह्वान किया गया है.
ऐतिहासिकसंदर्भ
देखा जाए तो वर्ष 2008 में जब महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पेश किया गया था, वो भारत के संसदीय इतिहास का एक ऐतिहासिक पल था. यह विधेयक निर्णय लेने वाले निकायों में महिलाओं की कम भागीदारी और प्रतिनिधित्व को बढ़ाने का एक असाधारण प्रयास था. इस महिला आरक्षण विधेयक के अंतर्गत संसद और राज्य विधानसभाओं, ख़ास तौर पर लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण का प्रस्ताव रखा गया था. महिला आरक्षण विधेयक को हमेशा से ही सभी पार्टियों का ज़बरदस्त समर्थन मिला है, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार ज़ोर देकर कहा था, “निसंदेह रूप से सरकार महिला आरक्षण शुरू करने के पक्ष में है… अगर महिला सशक्तिकरण हमारा उद्देश्य है, तो फिर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाया जाना चाहिए.” संविधान विधेयक (108वां संशोधन) के रूप में पहचाने जाने वाले इस महिला आरक्षण विधेयक को सभी का भरपूर समर्थन मिला है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने इस विधेयक को “बेहद ज़रूरी एवं ऐतिहासिक” बताया था. हालांकि, राज्यसभा में महिला आरक्षण बिल पास हुआ, इसके बावज़ूद यह विधेयक आख़िरकार 15वीं लोकसभा के भंग होने के साथ ही समाप्त हो गया. उस दौरान जिस प्रकार से यह विधेयक लोकसभा के समक्ष नहीं जा पाया, उससे यह पता चलता है कि विधायिका के स्तर पर महिला आरक्षण को लागू करने में कितनी चुनौतियां हैं.
एक बात ज़रूर है कि महिला आरक्षण को लागू करने में हुई देरी ने राजनीति में लैंगिक असमानता को समाप्त करने को लेकर पुरुषों के वर्चस्व वाली विधायिकाओं की बेरुखी को कहीं न कहीं सामने ला दिया है.
विधायिकाओं में महिला आरक्षण की परिकल्पना उस वक़्त पहली बार सामने आई थी, जब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार द्वारा पंचायती राज संस्थानों (PRIs) में महिलाओं को आरक्षण प्रदान करने के लिए संसद में संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया था. राजीव गांधी के बाद की तमाम सरकारों ने विधायिकाओं में महिलाओं को आरक्षण देने का वादा किया, लेकिन उन सरकारों को इसके लिए ज़रूरी समर्थन जुटाने के दौरान कई चुनौतियों का मुक़ाबला करना पड़ा. 17वीं लोकसभा के गठन के लिए हुए आम चुनावों के दौरान देश के दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों यानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में महिला आरक्षण के मुद्दे को जगह दी थी और संसद एवं राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का वादा किया था. हालांकि, यह सवाल क़ायम है कि क्या महिला आरक्षण की इस प्रतिबद्धता को क़ानूनी जामा पहनाने के लिए राजनीतिक दलों में पर्याप्त इच्छाशक्ति है. ज़ाहिर है कि विधायिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण के मुद्दे पर पिछले तीन दशकों से अधिक समय से चर्चाओं और बहसों का दौर चल रहा है. ऐसे में यह जानना भी बेहद ज़रूरी है कि क्या राजनीतिक रूप से महिलाओं को सशक्त करने के लिए आरक्षण के अलावा भी कोई और विकल्प हो सकता है. हालांकि, एक बात ज़रूर है कि महिला आरक्षण को लागू करने में हुई देरी ने राजनीति में लैंगिक असमानता को समाप्त करने को लेकर पुरुषों के वर्चस्व वाली विधायिकाओं की बेरुखी को कहीं न कहीं सामने ला दिया है.
उल्लेखनीय है कि विधायिका के लोअर हाउस अर्थात निचले सदन ज़मीनी स्तर के मुद्दों का समाधान तलाशने में अहम भूमिका निभाते हैं. आरक्षण को राजनीति में महिलाओं की समुचित भागीदारी सुनिश्चित करने के एक माध्यम के तौर पर देखा जाता है, क्योंकि सामाजिक स्तर पर महिलाओं पर काफी बंदिशें हैं और अशिक्षा व अपनी मर्जी से कुछ करने की आज़ादी नहीं होना, संसद या विधानसभाओं में उनके पहुंचने में सबसे बड़ी रुकावटें बनती हैं. महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए एक व्यापक नज़रिया भारतीय संविधान के 73वें संशोधन में पाया जा सकता है. इस संविधान संशोधन के अंतर्गत पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों जैसे अल्पसंख्यक समूहों के लिए सीटें आरक्षित करने की बात कही गई है. संसद और राज्य विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व के उलट, PRIs ग्रामीण महिलाओं के हितों को प्रमुखता देते हुए, ज़मीनी स्तर पर पब्लिक गुड्स यानी सार्वजनिक वस्तुओं के एक समान और निष्पक्ष वितरण पर ध्यान केंद्रित करते हैं. उल्लेखनीय है कि इस नज़रिए में लैंगिक समानता की नीतियों को ज़मीनी स्तर पर मुकम्मल कार्रवाई में बदलने की भी क्षमता थी, जो कि लैंगिक निष्पक्षता और समान हिस्सेदारी के सिद्धांतों को भी बरक़रार रखता है.
सामाजिकताना–बानाऔरप्रतिनिधित्व
ज़मीनी स्तर पर लैंगिक समानता की नीतियां कितनी प्रभावशाली हैं, यह जाति, लिंग और धर्म समेत मौज़ूदा सामाजिक ताने-बाने पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है. यही सामाजिक ताना-बाना ऊंच-नीच वाले सामाजिक संबंधों को विकसित करता है और किसी व्यक्ति के जीवन का अटूट हिस्सा बन जाता है, साथ ही उसके सामाजिक बात-व्यवहार एवं हैसियत पर उल्लेखनीय रूप से असर डालता है. (SGD) थ्योरी के मुताबिक़ समूह के सदस्यों को एक सकारात्मक सामाजिक पहचान बनाए रखने के लिए प्रेरित किया जाता है, जो कि राजनीतिक दलों के काम करने के तरीक़ों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. ये राजनीतिक पार्टियां अक्सर पारंपरिक सामाजिक ताने-बाने के साथ सामंजस्य स्थापित करती हैं, ताकि मतदाताओं को दूर छिटकने से रोका जा सके. इसी प्रकार से सरकारी मशीनरी ने महिलाओं के चुनावी प्रतिनिधित्व को प्रोत्साहित करने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया है, क्योंकि ऐसा करना बने बनाए मापदंड़ों को चुनौती पेश कर सकता है. इसके अतिरिक्त, विधायिका में महिलाओं के लिए आरक्षण बीबी–बेटी–बहू की संस्कृति को बरक़रार रखेगा, जिसमें महिलाओं को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के बजाए मुख्य तौर पर पत्नी, बेटी और बहू के रूप में ही माना जाता है. ये कुछ ऐसी बातें हैं, जो राजनीति में वास्तविक अर्थों में लैंगिक समानता हासिल करने में मौज़ूदा पुरुष प्रधान सामाजिक ताने-बाने द्वारा पैदा की जाने वाली विभिन्न चुनौतियों को सामने लाती हैं.
इन सारी चुनौतियों के बावज़ूद, अगर महिलाओं को आरक्षण मिलता है और वे राजनीतिक रूप से सशक्त होती हैं, तो यह बदलाव समाज पर एक स्थाई प्रभाव डाल सकता है.
इन सारी चुनौतियों के बावज़ूद, अगर महिलाओं को आरक्षण मिलता है और वे राजनीतिक रूप से सशक्त होती हैं, तो यह बदलाव समाज पर एक स्थाई प्रभाव डाल सकता है. अध्ययनों के अनुसार, बार-बार महिला उम्मीदवारों के चुने जाने से सामाजिक महत्वाकांक्षाओं को प्राप्त करने में महिलाओं की भागीदारी बढ़ सकती है और लैंगिक असमानता भी कम हो सकती है. भारत के गांवों में महिला सरपंचों की संख्या में बढ़ोतरी देख गई है, क्योंकि गांवों में महिला मतदाता चुनाव में महिला प्रतिनिधियों को ही चुनना पसंद करती हैं. वर्ष 2004 में प्रख्यात अर्थशास्त्री राघबेंद्र चट्टोपाध्याय और एस्थर डुफ्लो ने पश्चिम बंगाल के बीरभूम और राजस्थान के उदयपुर के आंकड़ों के माध्यम से पंचायतों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के महत्व को बताने की कोशिश की थी. पारंपरिक सांख्यिकीय महत्व के परीक्षणों (statistical significance tests) को अमल में लाते हुए उन्होंने एक दिलचस्प तथ्य को सामने लाने का काम किया था. इसके मुताबिक़ अगर गांव में कोई महिला चुनी जाती है, तो उसके द्वारा स्थानीय स्तर पर महिला आबादी तक सरकारी वस्तुओं और सेवाओं को आवंटित करने की संभावना अधिक होती है. इसलिए कहा जा सकता है कि महिलाओं का राजनीतिक प्रतिधित्व शुरूआत में ज़रूर प्रतीकात्मक लग सकता है, लेकिन मतदाताओं के व्यवहार और विचारों पर, विशेष रूप से ज़मीनी स्तर पर इसका लंबे समय तक असर रहता है.
कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि भारत में महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण को लेकर तमाम बाधाएं ज़रूर सामने आ रही हैं, बावज़ूद इसके इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना ही उचित है. महिला आरक्षण विधेयक की क़ामयाबी एवं लैंगिक समानता को लेकर प्रतिबद्धता को लेकर ताज़ा गतिविधियां उत्साहित करने वाली हैं. इन ताज़ा घटनाक्रमों ने राजनीति व सार्वजनिक जीवन में निर्णय लेने के सभी अहम स्तरों पर महिलाओं की पूर्ण और प्रभावशाली भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए की गईं कोशिशों के महत्व को सामने लाने का काम किया है. उल्लेखनीय है कि ये सारी कोशिशें अंतत: समाज पर स्थाई असर डालने वाली साबित होंगी, ख़ास तौर पर ज़मीनी स्तर पर प्रभाव डालने वाली सिद्ध होंगी, जहां बदलाव लाना सबसे ज़रूरी है.
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Soumya Bhowmick is a Fellow and Lead, World Economies and Sustainability at the Centre for New Economic Diplomacy (CNED) at Observer Research Foundation (ORF). He ...