दुनिया के बहुत से हिस्सों में पानी की बढ़ती किल्लत के बीच, इस महत्वपूर्ण संसाधन तक पहुंच को लेकर मची होड़ टकरावों का सबब बनती रही है। भारत में सितम्बर, 2016 के उरी हमले के बाद, सरकार ने सिंधु जल संधि के अंतर्गत पाकिस्तान को आवंटित पश्चिमी नदियों के जल के उपयोग पर अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए बांधों, नहरों और जलाशयों का निर्माण कर अपने पड़ोसी देश से बदला लेने की योजना बनाई थी। इस पेपर का लक्ष्य इस नीतिगत निर्णय के कानूनी, आर्थिक और सामाजिक उलझावों को दूर करना है। इसकी समाप्ति इस टिप्पणी के साथ की गई है कि भारत यदि दोनों देशों के बीच बहने वाली नदियों यानी ट्रांसबाउंड्री नदियों पर कोई भी परियोजना को कार्यान्वित करने का फैसला करता है,वह परियोजना न सिर्फ आर्थिक और पर्यावरण की दृष्टि से व्यवहार्य होनी चाहिए, बल्कि प्रचलित अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत भारत की बाध्यता का अनुपालन करने वाली भी होनी चाहिए।
परिचय
‘पीने के लिए है शराब; लड़ने के लिए है जल’ मार्क ट्वेन की इस लोकप्रिय कहावत से इस जल संसाधन के बारे में वर्तमान में जारी चर्चाओं के संदर्भ को समझा जा सकता है। दुनिया भर में पानी की किल्लत की परिणति उसका इस्तेमाल करने वालों के बीच के बीच संघर्ष के रूप में हुई है और मीठे पानी को लेकर होने वाले संघर्षों का इतिहास बहुत लम्बा और तकलीफदेह है। अमेरिका के पेसेफिक इंस्टीट्यूट ने दुनिया भर मे जल के कारण उपजने वाले तनावों की कई घटनाओं को दर्ज किया है। इनमें वे घटनाएं शामिल हैं, जहां पानी राजनीतिक लक्ष्यों के लिए या सैन्य कार्रवाई के दौरान हथियार के रूप में उपयोग में लाया गया। जलाशय आतंकवादी हमलों का निशाना बनाए गए हैं तथा आर्थिक एवं सामाजिक विकास परियोजनाओं के संदर्भ में विवादों का कारण रहे हैं। जल से जुड़े संघर्षों के घटनाक्रमों से संबंधित इस इंस्टीट्यूट की सूची में तीसरी सदी ईसा पूर्व 400 [i] से लेकर 2015 तक [ii] के जल संघर्ष शामिल हैं। तालिका—1 में 1980 से 2015 के बीच जल को लेकर हुए संघर्षों को दर्शाया गया है।
यूएन-वॉटर (जल से संबंधित मसलों के लिए संयुक्त राष्ट्र अंतर-एजेंसी व्यवस्था)के अनुसार, ट्रांसबाउंड्री नदियों के जल से संबंधित विवाद भड़कने के पीछे कई कारण उत्तरदायी होते हैं, जिनमें जल की कमी, बांध निर्माण, जल निकालने (या पानी जैसे नदियों,झीलों, भूजल जलाशयों को उनके कुदरती वातावरण से अलग किया जाना), उद्योगों द्वारा प्रदूषण और वर्तमान कानूनी दायित्वों का उल्लंघन शामिल हैं। इन तनावों को कोई अंत फिलहाल नजर नहीं आता, क्योंकि बढ़ती आबादी, शहरीकरण,आर्थिक विकास और जलवायु परिवर्तन ये सभी दुनिया के जल संसाधनों पर जबरदस्त दबाव डाल रहे हैं। [iii] साथ ही पानी की महत्वपूर्ण प्रकृति और इस साझा संसाधन को बचाने की आवश्यकता ने भी नदी तटों पर स्थित इन देशों को एक-दूसरे का सहयोग करने की महत्वपूर्ण प्रेरणा का काम किया है। यह बात दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लगभग 300 अंतर्राष्ट्रीय जल-बंटवारा संधियों पर विचार-विमर्श होने और उन पर हस्ताक्षर किए जाने की बड़ी संख्या से बेहतर ढंग से परिलक्षित होती है। [iv] साथ ही, इंटरनेशनल वॉटर इवेंन्ट्स डेटाबेस द्वारा उपलब्ध कराए गए 1948 से 2008 तक की जल संबंधी सकारात्मक और नकारात्मक घटनाओं के बीएआर गहनता पैमाने के अनुसार, जल के संबंध में सहयोग से संबंधित कई घटनाओं (समस्त मामलों का 77 प्रतिशत) दर्ज किया गया। इनमें जल-बंटवारा संधियां भी शामिल हैं, जो जल विवादों से कहीं बढ़कर हैं(19 प्रतिशत)। [v] यह इस बात को दर्शाता है कि जल हितधारकों को केवल बांटता ही नहीं है,बल्कि उनके विविध हितों को भी जोड़ता है।
जल और संघर्ष के बीच के जटिल संबंधों ने दुनिया भर के नीति निर्धारकों, विशेषकर एशिया और अफ्रीका के बीच चिंताएं उत्पन्न की हैं। पेसेफिक इंस्टीट्यूट द्वारा एशिया में रिपोर्ट किए गए जल से संबंधित संघर्षों के 80 मामलों में से 58 में कुछ हद तक हिंसा भी हुई। [vi] इनमें से एक मामला 2012 में भारत के जम्मू कश्मीर में तुलबुल नेविगेशन लॉक/वुलर बांध निर्माण स्थल पर आतंकवादी हमले से जुड़ा है। पाकिस्तान इस परियोजना का विरोध कर रहा है। उसकी दलील है कि यह परियोजना सिंधु जल संधि के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है। दरअसल, यह संधि विभाजन के समय भारत और पाकिस्तान के बीच हुए भीषण जल संघर्ष और 1948 में भारत द्वारा पाकिस्तान के कुछ भागों के लिए पानी की सप्लाई काटे जाने की घटना के दौरान आरंभ की गई थी। [vii] इतना ही नहीं, अमेरिकी नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन(नासा)द्वारा 2003 से 2012 के दौरान उपग्रहों के जरिए एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए हाल ही में एक सर्वेक्षण में संकेत किया है कि सिंधु बेसिन दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा दबाव झेलने वाला बेसिन है और इसका जल स्तर हर साल 4 से 6 एमएम की दर से घटता जा रहा है। [viii] सिंधु बेसिन के आसपास भारत और पाकिस्तान के संघर्ष को समझने के लिए, 1960 की सिंधु जल संधि का विस्तार से अध्ययन किया जाना जरूरी है।
सिंधु जल संधि
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान के बीच 1960 में हस्ताक्षरित सिंधु जल संधि, सिंधु बेसिन में — भारत और पाकिस्तान के कुछ क्षेत्रों से होकर बहने वाली छह नदियों के जल के बंटवारे का प्रावधान करती हैं। इस व्यवस्था के अनुसार, भारत को तीन पूर्वी नदियों (रावी, ब्यास और सतलुज) तक असीमित पहुंच हासिल है, जबकि तीन पश्चिमी नदियों (सिंधु झेलम और चिनाब)का जल पाकिस्तान को आवंटित किया गया है; भारत बाद वाली नदियों के जल का उपयोग केवल घरेलू, गैर-उपभोज्य, कृषि और पनबिजली बनाने के उद्देश्यों में कर सकता है। कुछ विश्लेषक इस संधि को दुनिया की सबसे “उदार” संधियों में एक करार देते हैं,जिसमें पाकिस्तान को सिंधु व्यवस्था के जल के 80.52 प्रतिशत हिस्से के इस्तेमाल का हक दिया गया है, जबकि भारत का हिस्सा केवल 19.48 प्रतिशत है। [ix]
इस संधि के बावजूद, भारत और पाकिस्तान के बीच जलमार्गों के बारे में तनाव अब तक बरकरार है। इनमें किशनगंगा पनबिजली संयंत्र के संबंध में 2013 का मध्यस्थता विवाद शामिल है, जो परियोजना के उद्देश्य के लिए जल का रुख मोड़ने के भारत के अधिकार की पुष्टि करता है, साथ ही भारत की किशनगंगा और रातले पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण के संबंध में असहमतियों को दूर करने में विश्व बैंक को शामिल किए जाने की व्यवस्था की करता है। नए मध्यस्थता न्यायाधिकरण या तटस्थ विशेषज्ञ नियुक्त करने के लिए क्रमश: पाकिस्तान और भारत द्वारा साथ-साथ किए गए अनुरोधों पर, सिंधु जल संधि के अंतर्गत प्रक्रियागत भूमिका निभाने वाले विश्व बैंक ने दोनों देशों से मध्यस्थता के जरिए अपने मतभेद मिटाने का अनुरोध किया। [x] उससे पहले, सितम्बर, 2016 में उरी पर हुआ आतंकवादी हमला सिंधु जल संधि को महत्वपूर्ण स्थिति में ले आया। इन हमलों में 18 भारतीय सैनिक शहीद हो गए और दर्जनों घायल हो गए, इन हमलों ने एक बार फिर से भारत में सार्वजनिक बहस का एक और चैनल खुल गया, जबकि नीति निर्माताओं और सुरक्षा विशेषज्ञों ने पाकिस्तान में अव्यवस्था उत्पन्न करने के लिए रणनीतियों और विकल्पों के प्रश्न पर गौर करना शुरू कर दिया। नीतिगत विचार विमर्श के दौरान पाकिस्तान के साथ जल संधि रद्द करने सहित गैर-सैन्य विकल्पों पर गौर किया गया। सिंधु जल संधि के बारे में, भारत सरकार ने निम्नलिखित दो उपायों पर गौर किया :
- विचार-विमर्श में सहायता करने, आंकड़ों का आदान-प्रदान करने और संभावित विवादों के समाधान के लिए संधि के अंतर्गत गठित सिंधु जल आयोग के प्रचालनों को निलंबित करना [xi]
- बांध, नहरें और जलाशय बनवाकर पश्चिमी नदियों के जल का अधिकतम उपयोग करने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करना
देशों की सरहदों के आर-पार बहने वाली नदियों के जल के उपयोग के संबंध में प्रचलित कानूनी दायित्व
ट्रांसबाउंड्री नदियों के जल के उपयोग के उथल-पुथल भरे इतिहास के कारण नदियों के किनारे बसे इन देशों के अधिकारों और दायित्वों के लिए व्यापक कानूनी प्रारूप तैयार किया गया है। कानूनी दृष्टिकोण से, किसी भी देश को अपने पड़ोसी को नुकसान पहुंचाने के लिए ट्रांसबाउंड्री नदियों पर अपने अधिकार का इस्तेमाल इजाजत नहीं है। यहां तक कि कोई अंतर्राष्ट्रीय समझौता न होने के बावजूद, भारत द्वारा साझा नदियों पर शुरू की गई कोई भी परियोजना को ट्रांसबाउंड्री नदियों के जल का उपयोग करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रचलित कानूनों (या प्रतिनिधि देशों द्वारा दोहराए गए, एक समान और व्यवहार में लाए गए अंतर्राष्ट्रीय नियमों, जिन्हें कानून के रूप में स्वीकार किया जा चुका है) का पालन करते हुए अपने दायित्व निभाने होंगे। [xii] इतना ही नहीं, सिंधु जल संधि स्पष्ट करती है कि उसे प्रचलित अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की तर्ज पर ही लागू किया जाना और समझा जाना चाहिए। [xiii] दरअसल, 2013 में भारत और पाकिस्तान से संबंधित एक मामले में मध्यस्थता न्यायाधिकरण ने यह निर्णय लिया कि जहां एक ओर भारत को किशनगंगा/नीलम नदी पर बिजली का उत्पादन करने के लिए विवादित परियोजना के निर्माण का अधिकार है, लेकिन सिंधु जल संधि और प्रचलित अंतर्राष्ट्रीय कानून द्वारा निर्धारित प्रतिबंधों के कारण साझा जल के इस्तेमाल पर उसका यह अधिकार सीमित है। [xiv]
हालांकि प्रचलित कानून के अंतर्गत स्थापित नियमों की कानूनी सटीक विषय वस्तु को परिभाषित करना मुश्किल है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की परम्परा और न्यायाधिकरणों के फैसले अंतर्राष्ट्रीय नदियों के उपयोग से संबंधित विविध महत्वपूर्ण सिद्धांतों को सुदृढ़ करते हैं। ट्रांसबाउंड्री नदियों के जल पर पूर्ण क्षेत्रीय सम्प्रभुता के दावे को खारिज करते हुए प्रचलित कानूनी प्रारूप प्रमुख रूप से जल संसाधन के न्यायोचित उपयोग और सीमा पार स्थित दूसरे देश को नुकसान से बचाने के दायित्व संबंधी सिद्धांतों के इर्द-गिर्द घूमता है।
‘सीमित क्षेत्रीय संप्रभुता’ के नियम का अर्थ यह है कि कोई भी देश अपने क्षेत्र में बहने वाली साझा नदियों के जल का तभी तक इस्तेमाल कर सकता है, तब तक कि उससे नदी के किनारे स्थित दूसरे देशों के हितों को नुकसान न पहुंचता हो। प्रसिद्ध लैक लानॉक्स मध्यस्थता मामले में इस सिद्धांत की प्रचलित कानून के रूप में पुष्टि की जा चुकी है। यह विवाद पीरीनीस पर्वत श्रृंखला में लानॉक्स झील पर फ्रांस सरकार द्वारा एक परियोजना शुरू किए जाने पर भड़का । स्पेन की सरकार को अंदेशा था कि उसके हितों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण ने व्यवस्था दी कि नदी के ऊपरी हिस्से वाले देश का ‘यह दायित्व है कि वह विविध हितों को ध्यान में रखें; अपने हितों की पूर्ति के प्रयास के अनुरूप उन्हें हर प्रकार से संतुष्ट करे और दर्शाए कि वह अपने हितों के साथ नदी के किनारे वाले अन्य देश के हितों के साथ सामंजस्य बैठाने दिशा में वास्तव में चिंतित है।’ [xv]
नतीजतन, देशों को अपने क्षेत्र के भीतर न्यायसंगत और उचित ढंग से जल संसाधनों का उपयोग करने का अधिकार है। इसका आशय है कि नदी के किनारे स्थित ऊपरी और निचले देश ट्रांसबाउंड्री नदियों के जल का समान भले ही नहीं, लेकिन उचित रूप से उपयोग करने के अधिकारी हैं। कई कानूनी साधनों — मिसाल के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय जल धाराओं के गैर-नौवहन उपयोग संबंधी संयुक्त राष्ट्र समझौता, अंतर्राष्ट्रीय नदियों के जल के उपयोग पर हेलसिंकी नियम और हाल के जल संसाधनों से संबंधित बर्लिन नियमों के अनुसार साझा जल संसाधनों का उपयोग निर्धारित करने के लिए जैसे बेसिन की भौगोलिक स्थिति, साझा नदियों पर आश्रित आबादी और उसकी आर्थिक व सामाजिक जरूरतें, मौजूदा उपयोग और भविष्य की संभावित जरूरतों जैसे कारकों को ध्यान में रखना आवश्यक है। वैसे तो ये साधन भारत केे लिए कानूनन बाध्यकारी नहीं है, फिर भी वे प्रचलित नियमों की व्याख्या के मार्गदर्शक समझे जाते हैं। साझा जल संसाधनों के न्यायसंगत और उचित उपयोग के सिद्धांत की अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) द्वारा गेबिसिकोवो-नाग्यमारोस मामले में पुष्टि की गई है। [xvi] हंगरी की चिंताओं के बावजूद स्लोवाकिया द्वारा दानुबे नदी पर [xvii] चलायी जाने वाली गेबिसिकोवो-नाग्यमारोस बांध परियोजनाओं से संबंधित विवाद में फैसला सुनाते हुए आईसीजे ने सुस्थापित कानूनी सिद्धांत “नदी की पूर्ण धारा के उपयोग में नदी किनारे स्थित समस्त देशों की उचित समानता और नदी किनारे स्थित किसी भी एक देश को अन्य देशों की तुलना में किसी तरह की पक्षपातपूर्ण तरजीह न देने” का हवाला दिया। [xviii] ऐसा देखा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत, कोई भी देश एकपक्षीय रूप से साझा संसाधनों पर नियंत्रण नहीं कर सकता और नदी के किनारे स्थित अन्य देश को नदियों के प्राकृतिक संसाधनों का उचित और न्यायसंगत हिस्सा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं रख सकता। [xix]
सीमा के पार बसे देश को होने वाले नुकसान को रोकना प्रचलित अंतर्राष्ट्रीय कानून का एक और सुव्यवस्थित दायित्व है और मौलिक नियम के रूप में, इसे किसी भी देश की विकास संबंधी नीति द्वारा नजरंदाज नहीं किया जा सकता। इसलिए, यदि किसी विकास परियोजना से किसी अन्य देश के पर्यावरण को पर्याप्त नुकसान पहुंच सकता हो, तो उसका दायित्व है कि इस नुकसान को रोके या कम से कम इसमें कमी लाए। [xx] स्थाई मध्यस्थता न्यायालय ने भारत की किशनगंगा पनबिजली परियोजना के खिलाफ पाकिस्तान के विवाद से संबंधित मामले में इस नियम की पुष्टि की। इसकी व्याख्या यह समझाने के लिए की गई कि नदी के किनारे स्थित निचला देश होने के नाते पाकिस्तान का किशनगंगा/नीलम नदी की निचली धारा के न्यूनतम प्रवाह पर अधिकार है, जिसका आशय यह निकाला गया कि भारत अपने नियोजित बिजली संयंत्र में बिजली उत्पादन में कमी करे। [xxi] हालांकि इस दायित्व की सटीक कानूनी विषयवस्तु स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं की गई है, सिद्धांतयुक्त कानूनी साधनों का विश्लेषण दर्शाता है कि इसे सामान्यत: सम्पूर्ण कर्तव्य की बजाए(निर्धारित परिणाम प्राप्त करने के लिए किया गया सम्पूर्ण कर्तव्य) सतर्कतापूर्वक काम करने का कर्तव्य (परिणाम पाने के लिए न्यायसंगत परिश्रम और सतर्कता से निभाया गया दायित्व) पर आधारित दायित्व समझा जाता है। किसी भी ऐसे उपाय करते समय उचित सतर्कता बरतनी चाहिए, जिनसे दूसरों देशों को नुकसान पहुंच सकता हो। आईसीजे द्वारा 2010 में अर्जेंटीना और उरूग्वे के बीच उरूग्वे नदी पर पल्प मिलों के निर्माण को लेकर उपजे विवाद पर दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए सतर्कतापूर्वक काम करने के कर्तव्य पर विचार किया गया। पक्षों को संभावित पर्यावरण संबंधी हानि को रोकने का दायित्व सौंपने वाली द्विपक्षीय जल-बंटवारा संधि के एक विशेष प्रावधान की व्याख्या करते हुए, न्यायालय ने न्यायसंगत सतर्कता को आवश्यकता की विषयवस्तु के रूप में एक उपयोगी व्याख्यात्मक मार्गदर्शन निर्धारित किया।
इसमें कहा गया है कि हानि को रोकने का दायित्व “प्रत्येक पक्ष के अधिकार क्षेत्र और नियंत्रण में की जाने वाली समस्त गतिविधियों में सतर्कता बरतना है। यह ऐसा दायित्व है, जो केवल उचित नियम और उपाय अपनाने को ही नहीं, बल्कि उनको अमल में लाते समय निश्चित सतर्कता बरतने और सार्वजनिक तथा निजी ऑपरेटरों पर प्रशासनिक नियंत्रण जैसे दूसरे पक्ष के अधिकारों की रक्षा के लिए ऐसे ऑपरेटरों की गतिविधियों की निगरानी को अपनाने को भी आवश्यक बनाता है।” [xxii]
इतना ही नहीं, यह देखा गया है कि उपर्युक्त ऐहतियाती सिद्धांत सहयोग के कर्तव्य के बिना निरर्थक रहेगा, जिसमें अधिसूचित करने, सूचना का आदान-प्रदान करने, इच्छुक देशों के साथ किसी भी ऐसी परियोजना के बारे में परामर्श और बातचीत करने जरूरत शामिल है, जो संभवत: उनके लिए जोखिमभरा हो सकता है।पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में सहयोग के कर्तव्य के महत्व की पुष्टि गेबिसिकोवो-नाग्यमारोस मामले में पुष्टि की गई है। [xxiii]पर्यावरण के क्षेत्र में देशों के बीच सहयोग के प्रस्ताव [xxiv] में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने कहा है कि सहयोग के प्रभावी कर्तव्य के लिए देशों द्वारा अपने अधिकारक्षेत्र में किए जाने वाले कार्य के लिए तकनीकी आंकड़ों को सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध कराया जाना जरूरी है। हालांकि उसमें आगे कहा गया है कि इस आवश्यकता को “सहयोग और अच्छे पड़ोसी की भावना” के साथ अंजाम दिया जाना चाहिए; अगर इसके बिना किया गया, तो यह प्रत्येक [देश] के प्राकृतिक संसाधनों के अन्वेषण, उपयोग और विकास से संबंधित कार्यक्रमों और परियोजनाओं में, जिसके [देश] क्षेत्रों में इस तरह के कार्यक्रमों और परियोजनाओं को अंजाम दिया जा रहा हो, उनमें [देश] विलम्ब करने या विघ्न डालने में समर्थ बनाने के लिए होगा।” [xxv] यह प्रचलित कानूनी दायित्व द्विपक्षीय आयोगों के साथ एक संस्थागत फ्रेमवर्क की स्थापना करते हुए विविध द्विपक्षीय जल-बंटवारा समझौतों में शामिल किया गया है। ये आयोग ट्रांसबाउंड्री नदियों पर कार्यान्वित की जा रही व्यक्तिगत परियोजनाओं की समीक्षा, परामर्श और निर्णय करता है।
विशेषतौर पर, पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन कराने का कोई भी दायित्व सहयोग के कर्तव्य को अमल में लाने की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण समझा जाता है। पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन के बिना, देशों को अधिसूचित करने और परामर्श देने का कर्तत्व ट्रांसबाउंड्री जोखिमों की चपेट में आने की आशंका के कारण बेमानी हो जाता है। आईसीजे ने उरूग्वे-अर्जेंटीना पल्प मिल मामले में अपनी राय देते हुए पर्यावरणीय आकलन किए जाने की जरूरत व्यक्त की थी। हालांकि इस मामले में पक्षों (1975 उरूग्वे नदी अधिनियम), [xxvi] के बीच द्विपक्षीय समझौते के अंतर्गत दायित्वों से संबंधित विवाद शामिल था, न्यायालय ने कहा कि यह संधि प्रचलित कानून के अंतर्गत लगाए गए वर्तमान दायित्वों को संहिताबद्ध करती है। इसमें आगे कहा गया है कि संधि की “प्रचलन के अनुरूप व्याख्या की जानी चाहिए, जिसे हाल के वर्षों में [देशों]के बीच इस हद तक स्वीकृति मिली है कि उसे अब उस स्थान के पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करने के लिए सामान्य अंतर्राष्ट्रीय नियम के अंतर्गत आवश्यकता समझा जाने लगा है, जहां इस बात का खतरा हो कि प्रस्तावित औद्योगिक गतिविधि का ट्रांसबाउंड्री संदर्भ में, विशेषकर साझा संसाधनों पर महत्वपूर्ण रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता हो। इतना ही नहीं, तब सतर्कता बरतना नहीं जाएगा […], यदि किसी कार्य की योजना बना रहा पक्ष नदी की व्यवस्था या जल की गुणवत्ता को प्रभावित करने का जिम्मेदार हो, वह उन कार्य के संभावित प्रभावों के संबंध में पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन न करवाए।” [xxvii]
ट्रांसबाउंड्री जल पर सीमित क्षेत्रीय सम्प्रभुता की अवधारणा के गिर्द विकसित होते उपरोक्त प्रचलित कानूनों के सिद्धांत भारत की घरेलू विधान व्यवस्था में भी संजोए गए हैं। भारत में अंतर-राज्य जल विवादों का निपटारा करते हुए न्यायाधिकरण हमेशा हानि को रोकने के कर्तव्य के पक्षधर रहे हैं। मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान राज्यों के बीच नर्मदा जल विवाद के संबंध में न्यायाधिकरण ने 1978 में फैसला सुनाया, “कोई राज्य किसी अंतर-राज्यीय नदी के बारे में फैसला नहीं ले सकता, क्योंकि यह उसी अंतर-राज्यीय नदी के जलक्षेत्र के दायरे में आने वाले अन्य राज्यों के अधिकारों को हानिकारक रूप से प्रभावित कर सकता है।” [xxviii] भारत में राज्यों के बीच अंतर-राज्यीय नदियों के जल का आवंटन ‘न्यायसंगत विभाजन’ पर आधारित है, जिसके अनुसार नदी के किनारे स्थित प्रत्येक राज्य जल का उचित भाग प्राप्त करने का अधिकारी है। [xxix]
इस प्रकार यह अंतर्राष्ट्रीय और भारत की घरेलू विधि प्रणाली दोनों का अनुसरण करता है कि ट्रांसबाउंड्री नदियों को आवश्यक रूप से राजनीतिक सीमाओं की परवाह किए बगैर, सभी समुदायों को समान लाभ उपलब्ध कराने वाला साझा संसाधन समझा जाए। अंतर्राष्ट्रीय प्रचलित कानून उन मामलों में लागू होते हैं, जहां देशों के बीच कोई भी विशिष्ट जल-बंटवारा संधि नहीं की गई हो, लेकिन साथ ही वे वर्तमान समझौतों द्वारा परिकल्पित कानूनी फ्रेमवर्क में मौजूद खामियों को भी दूर करते हुए उन्हें पूर्णता प्रदान करते हों। ट्रांसबाउंड्री संसाधनों पर प्रचलित कानून की विकसित होती प्रकृति को देखते हुए, यह नियमों का प्रावधान करता है, जिन्हें शुरूआती जल संधियों में शामिल नहीं किया गया है; इसका एक उदाहरण पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करने का दायित्व है। इसके परिणामस्वरूप, अंतर्राष्ट्रीय जल बेसिनों में परियोजनाएं चलाने वाले देशों को न सिर्फ जल-बंटवारा समझौतों का पालन करना होगा, बल्कि साथ ही अंतर्राष्ट्रीय प्रचलित कानून के अंग के तहत दायित्वों का सम्मान भी सुनिश्चित करना होगा।
ट्रांसबांउड्री जल परियोजनाओं के आर्थिक और सामाजिक निहितार्थ
सिंधु बेसिन की नदियों पर बांधों, जलाशयों और नहरों का निर्माण करने के भारत के नीतिगत निर्णय ने इनके फायदों और इन पर आने वाली लागत का आकलन करना अनिवार्य कर दिया है। विविध अनुसंधानों ने दर्शाया है कि बड़े बांधों का निर्माण करने के प्रभाव पूरे पारिस्थिति तंत्र पर होते हैं।सिंधु बेसिन की नदियों पर बांधों, जलाशयों और नहरों का निर्माण करने का भारत के नीतिगत निर्णय ने इनके फायदों और इन पर आने वाली लागत का आकलन करना अनिवार्य कर दिया है। विविध अनुसंधानों ने दर्शाया है कि बड़े बांधों का निर्माण करने के प्रभाव गरीबों और अपनी गुजर-बसर के लिए नदियों पर निर्भर रहने वाले मूल निवासियों सहित पूरे पारिस्थिति तंत्र पर होते हैं। विश्व बांध आयोग (डब्ल्यूसीडी) के अनुसार, “किसी भी बांध परियोजना के समापन की परिणति हर हाल में मानव कल्याण की दिशा में सतत सुधार में होनी चाहिए, और वह यह है कि वो आर्थिक दृष्टि से व्यवहारिक, समाजिक दृष्टि से न्यायसंगत और पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ हो।” [xxx] जहां एक ओर बहुत से देशों ने अपनी आबादी की पानी ओर ऊर्जा की बढ़ती मांगों को पूरी करने के लिए बड़े बांधों के निर्माण के क्षेत्र में निवेश किये हैं, वहीं दूसरी ओर इसके लाभ, इस पर आने वाली लागत के मुकाबले काफी कम हैं।
बांध का निर्माण करने संबंधी परियोजनाओं को शुरूआत करने के लिए बड़े पैमाने पर वित्तीय निवेश की जरूरत होती है। डब्ल्यूसीडी द्वारा 2001 में कराए गए एक अध्ययन के अनुसार, ऐसा अनुमान है कि 1990 के दशक में विकासशील देशों ने बांध परियोजनाओं पर हर साल 22-31 बिलियन डॉलर राशि का निवेश किया, जिनमें से 80 प्रतिशत का सीधे तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र से वित्त पोषण मिला। [xxxi] मौद्रिक निवेश के अलावा, किसी बांध को पूरा बनकर तैयार होने में औसतन पांच से आठ वर्ष का समय लगता है। [xxxii] दीर्घकालिक निवेश और उत्पादन से पहले की लम्बी अवधि के बावजूद दुनिया भर में बांधों का निर्माण किया गया है। अकेले भारत में ही वर्तमान में 5190 बड़े बांध हैं, [xxxiii] जिनमें से 313 अब तक निमार्णाधीन हैं। लगभग 39 बांध सिंधु बेसिन में स्थित हैं; उनमें से ज्यादातर विवादों के बीच बनकर तैयार हो चुके हैं। [xxxiv]
यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच ज्यादातर जल विवाद, दरअसल बांधों पर होने वाले संघर्ष हैं। उदाहरण के तौर पर जम्मू कश्मीर में चिनाब नदी पर बनाया गया 2008 में बनकर तैयार हुआ — बघलियार बांध,अपने डिजाइन ओर भंडारण क्षमता के कारण विवाद का कारण रहा है। इसी तरह, झेलम नदी पर किशनगंगा बांध भी नदी की धारा का रुख मोड़ने के कारण विवादों से घिरा है। जल संसाधनों के प्रबंधन और कृषि, औेद्योगिक और घरेलू उपयोग, बाढ़ नियंत्रण और पन बिजली उत्पादन जैसे विविध उद्देश्यों के लिए बांधों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। भारत और पाकिस्तान के बीच जल संबंधी बहस, हालांकि ज्यादा जटिल हैं और जल बंटवारे से कहीं बढ़कर है; जल को लेकर होने वाले संघर्षों का मूल कारण दोनों देशों के बीच आपसी विश्वास का अभाव है। अमेरिका के इंस्टीट्यूट ऑफ पीस की एक विशेष रिपोर्ट के अनुसार, बगलिहार बांध परियोजना पर असहमति की वजह केवल तकनीकी पहलु ही नहीं थे, बल्कि पाकिस्तान की सुरक्षा संबंधी चिंताएं — कम प्रवाह वाले सर्दी के महीनों में पानी को रोकने/सीमित करने तथा अधिक प्रवाह वाले गर्मी के महीनों में अधिक पानी छोड़ने की भारत की मंशा, पाकिस्तान के उस क्षेत्र में बाढ़ का कारण बनने की आशंका से भी प्रेरित थी। [xxxv] यह सही मायने में दोनों देशों के बीच भरोसे की कमी को रेखांकित करता है; भारत की ओर से उठाये गए किसी भी कदम को पाकिस्तान में संशय से देखा जाता है और पाकिस्तान द्वारा उठाए गए किसी भी कदम को भारत में संशय से देखा जाता है।
सिंधु जल और उसे कवर करने वाली संधि के आसपास की संवेदनशीलताएं, एक विशिष्ट पद्धति का अनुसरण करती हैं। यह संधि भारत और पाकिस्तान में होने वाली मीडिया रिपोर्टिंग में नियमिति रूप से दिखाई देती। भारत और पाकिस्तान के बीच बार-बार होने वाले जल संबंधी संवादों के बारे में किए गए एक अध्ययन [xxxvi] में पाया गया कि भारत, पाकिस्तान की मीडिया रिपोर्टिंग में सिर्फ सर्दियों के महीनों में दिखाई देता है, जब नदियों में जल कम हो जाता है; गर्मियों में भारत के प्रति यह नकारात्मकता और ज्यादा मंद पड़ जाती है। भारतीय मीडिया की कवरेज में इससे उलट शैली देखी गई है : सर्दी के महीनों की तुलना में, गर्मी के महीनों में जल के संबंध में पाकिस्तान की आलोचनाओं पर गहरी चिंता रहती है। गर्मी के महीनों में पाकिस्तान के कदमों के प्रति इतनी संवेदनशीलता संभवत: उस समय भारत में बिजली की मांग चरम पर होना है। पनबिजली उत्पादन भारत की एक अन्य प्रमुख चिंता है, जिसकी झलक गर्मियों के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच होने वाले मीडिया संवादों में देखने को मिलती है।
उरी हमलों के बाद भारत की बांध और जलाशयों का निर्माण करने की योजनाओं को पर्यावरण संबंधी लागत के मद्देनजर गंभीरता से जांचे जाने की जरूरत है। बांध निर्माण के क्षेत्र में भारत के प्रारंभिक प्रयासों से बांधों का निर्माण करने के पारिस्थिकीय प्रभाव का सबक ग्रहण किया जाना चाहिए।
उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी पर बने श्री सेलम बांध ने क्षेत्र के 117 गांवों की करीब 106,925 एकड़ जमीन को जलमग्न करने में अहम भूमिका निभाई। उससे पहले, इसके निर्माण के समय भी 27,000 से ज्यादा परिवारों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा। विस्थापन की इससे मिलती-जुलती घटनाएं भारत के अन्य राज्यों में भी हुईं। गुजरात में तापी नदी पर बने उकाइ बांध की वजह से 52,000 लोग बेघर हुए; हिमाचल प्रदेश के पोंग बांध के कारण लगभग एक लाख लोग विस्थापित हुए; और भाखड़ा बांध के कारण 2,100 से ज्यादा परिवार विस्थापित हुए। [xxxvii] विस्थापन, जगह खाली कराना और जमीन का जलमग्न होना, बड़े बांधों के निर्माण का बाहरी रूप से दिखाई देने वाली नकारात्मकता है, जिसे बांध परियोजनाओं की योजना बनाने के चरण में अक्सर नजरंदाज कर दिया जाता है। सरकार को इस बात को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि सिंधु बेसिन में नदियों पर बांध बनाना जम्मू कश्मीर में लोगों के विस्थापन और जमीन के डूबने का कारण बनेगा। बांध परियोजना की लागत का अनुमान लगाते समय, सही और सटीक लागत का पता लगाने के लिए पुनर्वास और दोबारा पौधे लगाने की लागत [xxxviii] साथ ही साथ राहत पहुंचाने संबंधी अन्य लागतों को भी शामिल किया जाना चाहिए।
जम्मू कश्मीर में बांधों और जलाशयों का निर्माण शुरू करने से पहले आवश्यक है कि उसकी भौगोलिक स्थिति को पर्याप्त रूप से समझा जाए। साथ ही यह भी स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि वर्तमान में राज्य में पानी का भंडारण करने के लिए समुचित बुनियादी ढांचा (नहरें)नहीं हैं, यदि पाकिस्तान की ओर बहने वाले जल को रोका जाएगा, तो राज्य में बाढ़ आ सकती है। [xxxxi] जम्मू कश्मीर के पर्वतीय इलाकों में किसी भी तरह का निर्माण करने के लिए बेहतरीन इंजीनियरिंग,वास्तुशिल्प संबंधी डिजाइन, पर्याप्त श्रम और सार्वजनिक या निजी क्षेत्र से मौद्रिक निवेश की आवश्यकता होगी।
बांध निर्माण परियोजनाओं से आमतौर पर जल के प्राकृतिक बहाव का रुख बदलने और नतीजतन संबंधित देशों/राज्यों के लिए जल के बंटवारे की पद्धतियों में संशोधन का सबब बनता है। हालांकि रन-ऑफ-रिवर पनबिजली परियोजनाओं के मामले में आमतौर पर बहाव का रुख नहीं बदलता, लेकिन इस बात पर गौर करना महत्वपूर्ण है कि सिंधु जल संधि, सिंधु बेसिन में रन-ऑफ-रिवर पनबिजली परियोजनाओं के डिजाइन और ऑपरेशन की स्वतंत्र परिभाषा और मापदंड उपलब्ध कराती है। [xl] जैसा कि स्थायी मध्यस्थता न्यायालय ने इस बात की पुष्टि की है कि संधि स्पष्ट रूप से स्वीकार करती है कि कुछ मामलों में रन-ऑफ-रिवर परियोजना के कारण नदियों के बीच जल के रुख में परिवर्तन आ सकता है।(यानी अंतर-सहायक नदी हस्तांतरण) [xli] इसके परिणामस्वरूप, भारत और पाकिस्तान के बीच 2013 के विवाद का समाधान का उद्देश्य, किशनगंगा पनबिजली परियोजना, जिसका इरादा किशनगंगा/नीलम नदी के पानी का रुख बोनार नाला की ओर मोड़ना था, उस पर रन-ऑफ-रिवर परियोजना बनाने के बारे में विचार किया गया। [xlii] इसके बावजूद, जल बंटवारे मे किसी तरह का परिवर्तन जल विवादों का प्रमुख स्रोत है। भारत और पाकिस्तान में, महज सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर करने की वजह से अंतर-प्रांतीय स्तर पर जल संघर्ष हुए हैं। पाकिस्तान में अंतर-प्रांतीय स्तर पर इन संघर्षों का एक कारण सिंधु जल संधि है, जो पाकिस्तानी पंजाब के हिस्से के जल का अधिकांश भाग (1945 के सिंध-पंजाब समझौते के अंतर्गत) भारत को आवंटित करती है, ताकि भारत को सिंधु बेसिन की पश्चिमी नदियों के जल को साझा करने के लिए नहरों के निर्माण की इजाजत दी जा सके। [xliii] इसी तरह, जम्मू कश्मीर को इस संधि के कारण नुकसान उठाना पड़ता है, क्योंकि यह तीन पश्चिमी नदियों (राज्य से होकर बहने वाली)का जल पाकिस्तान को आवंटित करती है। आधिकारिक अनुमानों के अनुसार, सिंधु बेसिन की नदियों (विशेषकर चिनाब और सिंधु)पर जल भंडारण सुविधाओं के न होने के परिणामस्वरूप सालाना लगभग 6000 हजार करोड़ रुपयों का नुकसान होता है। [xliv]2014-15 के जम्मू कश्मीर के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, सिंधु बेसिन की नदियों-विशेषकर चिनाब नदी (68.5 प्रतिशत),झेलम नदी (18.7 प्रतिशत),रावी नदी(3 प्रतिशत) और सिंधु नदी (9.8 प्रतिशत)से 20,000 मेगावॉट पनबिजली के उत्पादन की कुल क्षमता में से राज्य में लगभग 16,475 मेगावॉट पनबिजली की क्षमता की पहचान की गई है। [xlv] राज्य में भंडारण संबंधी बुनियादी ढांचे के अभाव और पाकिस्तान की ओर से बांधों, नहरों और भंडारण जलाशयों के डिजाइन पर निरंतर लगाए जा रहे प्रतिबंधों के कारण, इसकी अधिकांश क्षमताओं का दोहन ही नहीं हो पाता। पनबिजली विकास की दिशा में होने वाले नुकसान के कारण इस राज्य के लोगों में असंतोष और शिकायतें उत्पन्न हुई है।
सिंधु बेसिन की नदियों पर बांधों का निर्माण करने की हाल की योजनाओं को अमल में लाने से पहले उपरोक्त कही गई सभी बातों को जहन में रखना होगा, क्योंकि इससे भारत और पाकिस्तान के बीच राजनीतिक तनाव और बढ़ सकता है। भारत सरकार को अपने नीतिगत निर्णय के निहितार्थों का सावधानी से अध्ययन करने की जरूरत है। भारत और पाकिस्तान के बीच जल से जुड़े संघर्षों का लम्बा इतिहास निश्चित तौर एक सबक है।
निष्कर्ष
ट्रांसबाउंड्री जल पर चलाई जाने वाली कोई की विकास परियोजना को न सिर्फ जल-बंटवारा समझौते के अनुपालन, बल्कि प्रचलित अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत स्थापित विविध सिद्धांतों से उनकी अनुरूपता की दृष्टि से भी जांचे-परखे जाने की जरूरत है। जल संसाधन के उचित एवं न्यायसंगत तरीके से उपयोग के दायित्व, ट्रांसबाउंड्री हानि रोकने के कर्तव्य या सहयोग के कर्तव्य के विश्लेषण यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया है, ताकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में जल का हथियार के रूप में इस्तेमाल न हो सके।
बांधों का निर्माण करने वाली परियोजनाएं आर्थिक विश्लेषण के अतिरिक्त अन्य सामाजिक विश्लेषण, पारिस्थिकीय जोखिम का विश्लेषण आदि जैसी जानकारी के अन्य स्वरूपों के साथ करने के बाद ही संचालित की जानी चाहिए। बांध/जलाशयों का निर्माण करने के बारे में कोई भी फैसला करने से पूर्व, उन सभी के बारे में भी विचार किया जाना चाहिए,जिनकी आजीविका दाव पर लगी हो। इस तरह किसी परियोजना की वास्तविक लागत (आर्थिक, सामाजिक और अन्य लागतों सहित) की पहचान की जा सकेगी। भारत और पाकिस्तान का एक दूसरे के इरादों को संदेह की दृष्टि से देखने का इतिहास रहा है। बांध निर्माण परियोजनाएं राजनीतिक अवधारणाओं के स्थान पर आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय आकलनों से अवगत होनी चाहिए। किल्लत की परिस्थितियों में जल संसाधनों का वितरण की परिणति आखिरकार संघर्षों में होगी, जिन्हें देशों के बीच भरोसा कायम करके, सम्मिलित पक्षों के अधिकारों को स्वीकार करके और साझा जल संसाधनों के लाभ को साझा करके टाला जा सकता है। समान पर्यावरणीय चुनौतियों की आवश्यक रूप से पहचान की जानी चाहिए और उन्हें भरोसा व विश्वास कायम करने के अवसर के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
सिंधु जल संधि ट्रांसबाउंड्री जल सहयोग की दिशा में अपार उपलब्धि का प्रतिनिधित्व करती है। दशकों पहले की गई इस संधि में दोनों देशों ने उत्साह से काम लिया, जो साझा जल संसाधनों पर निर्भर समुदायों के परस्पर लाभ के लिए उन्हें सुरक्षित रखने की जरूरत के बारे में उनकी समझ से जाहिर होता है। वर्तमान समय में बढ़ती आबादी और बहुत अधिक दोहण के कारण जल दुर्लभ संसाधन बनता जा रहा है, जिसके कारण दुनिया के कुछ हिस्सों में इस तक पहुंच कायम करने की स्पर्धा संघर्षों का रूप ले रही है। सरकार को जल से खेलते समय इस बात का अहसास होना चाहिए कि हो सकता है कि वह जल्द ही खुद को आग से खेलता पाए। वक्त आ चुका है कि भारत को यह अहसास हो कि पानी मोलभाव करने का तरीका नहीं है और इसकी बजाए उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए साझा संसाधनों का व्यापक साझा हितों के लिए शांतिपूर्ण तरीके से उपयोग होना जारी रहे।
संदर्भ
[i] The Pacific Institute categorises conflicts as: Control of Water Resources (state and non-state actors): where water supplies or access to water is at the root of tensions, Military Tool (state actors): where water resources, or water systems themselves, are used by a nation or state as a weapon during a military action, Political Tool (state and non-state actors): where water resources, or water systems themselves, are used by a nation, state, or non-state actor for a political goal, Terrorism (non-state actors): where water resources, or water systems, are either targets or tools of violence or coercion by non-state actors, Military Target (state actors): where water resource systems are targets of military actions by nations or states, Development Disputes (state and non-state actors): where water resources or water systems are a major source of contention and dispute in the context of economic and social development.
[ii] The list can be accessed at http://worldwater.org/water-conflict/
[iii] “Transboundary Waters: Sharing Benefits, Sharing Responsibilities,” Thematic Paper, UN-Water, 2008, p.2.
[iv] Ibid, p. 3.
[v] International Water Event Database can be downloaded from: http://www.transboundarywaters.orst.edu/database/interwatereventdata.html.
[vi] Water Chronology List http://www2.worldwater.org/conflict/list/
[vii]VK Shashikumar, “The Indus Treaty Has Stood the Test of Time. There’s No Need for Any Rethinking,” The Wire, September 27, 2016. Available at: https://thewire.in/68662/indus-treaty-stood-test-time-no-need-rethinking/
[viii] “Study: Third of Big Groundwater Basins in Distress,” JPL, June 16, 2015. Available at: http://www.jpl.nasa.gov/news/news.php?feature=4626. Also V. Mukunth, “The Indus and Ganges-Brahmaputra Basins Are Drying Up Faster Than We’d Like,” The Wire, June 22, 2016. Available at: https://thewire.in/4430/the-indus-and-ganges-brahmaputra-basins-are-drying-up-faster-than-wed-like/
[ix]Brahma Chellaney, “Water: Asia’s New Battleground,” Table 2.1, (Washington, DC: Georgetown University Press).
[x] “Press Release: World Bank Urges Mediation for India, Pakistan over Indus,” The World Bank, Washington, November 10, 2016.
[xi] S. Haidar, “India suspends talks on Indus water pact,” The Hindu, September 26, 2016.
[xii] Statute of the International Court of Justice in Article 38(1) provides the most authoritative list of the sources of international law.
[xiii] Paragraph 29 of Annexure G to Indus Water Treaty, 1960.
[xiv] Indus Waters Kishengenga Arbitration (Pakistan v. India), PCA Partial Award, para. 445.
[xv] Lake Lanoux Arbitration (France v. Spain), Award, Reports of International Arbitral Awards, vol. XII (1957), pp. 281-317, para. 22.
[xvi]Gabčíkovo -Nagymaros Project (Hungary/Slovakia), Judgment, I.C.J. Reports 1997, p. 7
[xvii]Following the legal succession of rights after the split of Czechoslovakia into Czech Republic and Slovakia
[xviii]Gabčíkovo -Nagymaros Project (Hungary/Slovakia), Judgment, I.C.J. Reports 1997, p. 7, para. 85
[xix] Ibid.
[xx] Award in the Arbitration regarding the Iron Rhine (“Ijzeren Rijn”) Railway between the Kingdom of Belgium and the Kingdom of the Netherlands, Reports of International Arbitral Awards, vol. XXVII (2005), pp. 35 – 125.
[xxi] Indus Waters Kishengenga Arbitration (Pakistan v. India), PCA Final Award 2013, paras. 85 -87 and 112-114.
[xxii] Pulp Mills on the River Uruguay (Argentina v. Uruguay), Judgment, I.C.J. Reports 2010, p. 14, para. 197.
[xxiii] Gabčíkovo -Nagymaros Project (Hungary/Slovakia), Judgment, I.C.J. Reports 1997, p. 7, para. 17.
[xxiv] General Assembly, Resolution 2995 (XXVII) on Cooperation between States in the Field of Environment, 15 December 1972, UN Doc. A/RES/2995(XXVII)
[xxv] Ibid., para. 3
[xxvi] Uruguay – Argentina Statute of the River Uruguay of 26 February 1975. Text available at: http://www.internationalwaterlaw.org/documents/regionaldocs/Uruguay_River_Statute_1975.pdf
[xxvii] Pulp Mills on the River Uruguay (Argentina v. Uruguay), Judgment, I.C.J. Reports 2010, p. 14, para. 204.
[xxviii] The Report of the Narmada Water Disputes Tribunal, Vol -1, 1978, para. 8.2.9.Available at: http://nca.gov.in/hindi_web/NWDT/Vol-1.pdf
[xxix] K.K. Lahiri,“The Genesis and Evolution of the Inter-State River Water Disputes Act, 1956,” India Law Journal, Vol. 1(2009): 47.
[xxx] The Report of the World Commission on Dams, 2000. https://www.internationalrivers.org/sites/default/files/attached-files/world_commission_on_dams_final_report.pdf
[xxxi] Ibid
[xxxii]Iqbal, S. Zaffar, ‘On lands watered by Indus, Many Opinions over Treaty Snub to Pak,’ NDTV, September 26, 2016. Available at: http://www.ndtv.com/india-news/on-lands-watered-by-indus-many-opinions-over-treaty-snub-to-pakistan-1466035
[xxxiii] National Register of Large Dams, Central Water Commission. Available at: http://www.cwc.nic.in/main/downloads/new%20nrld.pdf ; Large dams are those dams that have a height between 10 metres and 15 metres, or height more than 15 metres or storage capacity of over 60 million cubic metres.
[xxxiv] India-WRIS. Available at: http://www.india-wris.nrsc.gov.in/wrpinfo/index.php?title=Dams_in_Indus_Basin [accessed on 25 October 2016]
[xxxv]Daanish, Mustafa, 2010, Special Report, ‘Hydropolitics in Pakistan’s Indus basin’, United States Institute of Peace, Washington DC.
[xxxvi] Saran, Samir, and H. R. Theting. Re-imagining the Indus: Mapping Media Reportage in India and Pakistan. New Delhi: K W Publishers Pvt Ltd., 2012.
[xxxvii]Shiva, Vandana. Ecology and the politics of survival: conflicts over natural resources in India. New Delhi: 1991.
[xxxviii]In India, it is legal requirement to replant the forests submerged or flooded by reservoirs. Pg. – 110. Available at: https://www.internationalrivers.org/sites/default/files/attached-files/world_commission_on_dams_final_report.pdf
[xxxix] If you stop water to Pakistan, you will flood J&K. Available at: http://www.rediff.com/news/interview/if-you-stop-water-to-pakistan-you-will-flood-jk/20160924.htm [accessed on 25 October 2016]
[xl] Annexure D to the Indus Water Treaty.
[xli] This is provided in Para 15(iii) of Annexure D to the Indus Water Treaty.
[xlii] Indus Waters Kishengenga Arbitration (Pakistan v. India), PCA Partial Award, paras. 155, 383-385.
[xliii] United States Institute of Peace, See n. xxxv.
[xliv], ‘J-K govt. pitches for construction of small dams as Centre reviews IWT’, 29 September, 2016. Available at – http://indiatoday.intoday.in/story/indus-waters-treaty-j-and-k-govt-pakal-dul-sawalkot-power-projects-bursar-dam-river-chenab-jhelum-indus-sham-lal-choudhary-omar-abdullah/1/776166.html [accessed on 26 October 2016]
[xlv]Authors’ calculations using data from the Economic Survey of Jammu and Kashmir 2014-15.
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