Author : Sushant Sareen

Published on Nov 14, 2021 Updated 0 Hours ago

क्या प्रधानमंत्री इमरान खान अपने प्रशासन और सेना के बीच हालिया तनाव को देखते हुए अपना कार्यकाल पूरा कर सकेंगे?

पाकिस्तान में सेना और सरकार क्यों हुए आमने-सामने?

इंटर-सर्विसेज़ पब्लिक रिलेशंस (आईएसपीआर) द्वारा पाकिस्तानी सेना के शीर्ष अधिकारियों में फेरबदल की घोषणा के दो हफ्ते बाद इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के मौजूदा महानिदेशक (डीजी) लेफ्टिनेंट जनरल फैज़ हामिद को पेशावर में 11वीं कॉर्प्स के कोर कमांडर के रूप में नियुक्त किया गया और उनकी जगह पर लेफ्टिनेंट जनरल नदीम अंजुम ने डीजी-आईएसआई के रूप में पद ग्रहण किया. इन नई नियुक्तियों को लेकर सेना और प्रधानमंत्री के बीच गतिरोध खत्म नहीं हुआ है. हालांकि, सरकार के मंत्री दावा कर रहे हैं कि मामला सुलझा लिया गया है, (प्रधानमंत्री इमरान खान को सेना प्रमुख जनरल कमर बाज़वा द्वारा अगले आईएसआई प्रमुख के रूप में नामांकित व्यक्ति को ‘चुनने’ का मौका देकर मामले को रफ़ा दफा किया जाएगा) और इस संबंध में अधिसूचना 25 अक्टूबर से पहले जारी की जाएगी जब नव-नियुक्तों को अपना नया कार्यभार ग्रहण करना होगा, लेकिन जो नुकसान होना था, वो हो चुका है. “हम एक साथ हैं” के दावे की हवा निकलने लगी है. असैन्य सरकार और उसके सैन्य हितैषियों के बीच की दरार अब सामने है. इमरान खान हों, या जनरल क़मर बाजवा या फ़ैज़ हामिद, इनमें से किसी की छवि के लिए ये अच्छा नहीं है. अगर इससे कोई मतलब निकलता है तो वो ये कि इन तीनों लोगों की महत्वाकांक्षाओं (इमरान दूसरा कार्यकाल चाहते हैं, बाजवा अपने कार्यकाल में दो साल के लिए एक और बार विस्तार चाहते हैं और फैज़ हामिद को अगले साल बाजवा की जगह लेनी है) को ठोकर लग सकती है.

अगर इससे कोई मतलब निकलता है तो वो ये कि इन तीनों लोगों की महत्वाकांक्षाओं (इमरान दूसरा कार्यकाल चाहते हैं, बाजवा अपने कार्यकाल में दो साल के लिए एक और बार विस्तार चाहते हैं और फैज़ हामिद को अगले साल बाजवा की जगह लेनी है) को ठोकर लग सकती है.

अभी के लिए तो इस सरकार और सेना के रिश्तों के बीच आई दरार को ढकने की कोशिशें की जा रही हैं. हालांकि सत्ताधारी दल के कुछ सदस्य खुले तौर पर इस गतिरोध को हवा दे रहे हैं और उन्हीं सदस्यों ने ये खुलासा किया है कि इमरान खान ने ‘रबर स्टैंप’ बनने से इनकार कर दिया है, लेकिन सरकार के ज्यादातर मंत्री इस स्वयं बुलाई गई मुसीबत पर पर्दा डालने की कोशिशें कर रहे हैं. जबकि सेना ने इस मामले को लेकर एक सोची समझी रणनीति के तहत चुप्पी साध रखी है, जिसे देखकर आईएसपीआर के पूर्व प्रमुख की एक बात याद आती है, “ख़ामोशी भी एक अभिव्यक्ति है.” कुल मिलाकर देखें तो ऐसा लगता है कि

‘हाइब्रिड शासन’ के दिन लद गए हैं. ये तो भूल जाइए कि इमरान खान नवंबर 2023 में दुबारा चुनाव जीत पाएंगे, अभी तो इस बात को लेकर संदेह बना हुआ है कि वो वर्तमान कार्यकाल को पूरा कर पाएंगे या नहीं.

सेना के पास इमरान खान पर नज़र रखने के बहुत से कारण थे. उनका प्रशासनिक कार्यकाल एक न ख़त्म होने वाली आपदा है. अर्थव्यवस्था लुढ़क चुकी है. राजनीतिक ध्रुवीकरण ने कानून के शासन को विवादास्पद बना दिया है और इसे बिना राजनीति और समाज में संघर्ष पैदा किए लागू कर पाना लगभग असंभव हो गया है. कूटनीतिक रूप से, इमरान ने अमेरिकियों को नाराज़ किया है, अरबों को अलग-थलग किया है और चीनियों से संबंध तल्ख किए हैं. भारत से उसके संबंध ऐतिहासिक रूप से अपने सबसे निम्न स्तर पर है और परोक्ष रूप से किसी भी तरह के कामकाजी संबंध बनाए जाने की कोशिशों को इमरान खान ने कमज़ोर किया है. लेकिन इन सभी विफलताओं को सेना नज़रअंदाज कर सकता था अगर इमरान खान ने सेना के आंतरिक मामलों में दखल देने और सैन्य अधिकारियों की नियुक्तियों को राजनीतिक रंग देने का अक्षम्य अपराध नहीं किया होता. ऐसे अपराध को पाकिस्तानी सेना न माफ़ करती है और न भूलती है.

इन सभी विफलताओं को सेना नज़रअंदाज कर सकता था अगर इमरान खान ने सेना के आंतरिक मामलों में दखल देने और सैन्य अधिकारियों की नियुक्तियों को राजनीतिक रंग देने का अक्षम्य अपराध नहीं किया होता. ऐसे अपराध को पाकिस्तानी सेना न माफ़ करती है और न भूलती है.

ये स्पष्ट नहीं है कि इमरान खान ने ऐसी गलती क्यों की और सेना से तकरार की सूरत पैदा कर ली, जबकि एक आईएसआई मुखिया के सेवानिवृत्त होने के बाद उनके पद पर किसी और अधिकारी की नियुक्ति जैसी औपचारिक कार्रवाई हो रही थी. क्या ये अतार्किक होने की क्षणिक भूल थी, जो तेजी से सरकार और सेना के बीच एक बहुत बड़ी तकरार में बदल गई? या फिर इस पागलपन के पीछे कोई योजना थी (या योजना के पीछे पागलपन था) कि वो अपनी कुर्सी के इकलौते  पाए को ढहा दें, जिस पर उनकी चुनी हुई सरकार टिकी हुई थी? इसके पीछे अगर कुछ नहीं तो कम से कम आधा दर्जन कारण हैं, जिसमें से ज्यादातर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और ये सभी उनकी इस आत्मघाती भूल को समझने के लिए जरूरी हैं.

1) आपसी संवाद को लेकर बनी भ्रामक स्थितियां:

ये आपसी संवाद की भ्रामक परिस्थितियां थीं, जो इतनी बड़ी होकर आपसी मुठभेड़ में बदल गई हैं. जैसा कि बताया गया है कि सेनाध्यक्ष जनरल क़मर बाजवा कम से कम पिछली गर्मियों से ही इमरान खान से फैज़ हामिद के स्थानांतरण के मसले पर बातचीत कर रहे थे. इमरान खान से मशविरा करने के बाद ही आईएसपीईआर ने नए आईएसआई प्रमुख की नियुक्ति की घोषणा की थी. और उन्होंने हामिद के स्थान पर नए व्यक्ति की नियुक्ति को लेकर किसी तरह की असहमति दर्ज नहीं कराई थी. ऐसा लगता है कि इमरान खान ने इस घोषणा के बाद अपना मन बदला और

सेना प्रमुख को शर्मिंदा किया. अगर इस दृष्टिकोण से देखें तो ये मामला लगातार बिगड़ता गया क्योंकि प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष दोनों में से कोई भी झुकने को तैयार नहीं था. आखिरकार, इसका हल निकालते हुए एक समझौता किया गया. इमरान खान जनरल अंजुम को आईएसआई प्रमुख के रूप में नियुक्त करेंगे लेकिन इस संबंध में प्रस्तावों पर विचार करने के बाद ही वो ये फैसला लेंगे.

2) नागरिक सत्ता की सर्वोच्चता की अभिव्यक्ति:

इमरान खान नागरिक सत्ता की सर्वोच्चता स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे. उनका ऐसा करना एक बहुत बड़ी हिमाकत थी, ख़ासकर जब वो सेना के साथ सांठ-गांठ करके ही प्रधानमंत्री बन सके थे. बल्कि, वो अपने पद पर केवल इसी कारण बने रहे क्योंकि उन्हें सेना का समर्थन प्राप्त था और 2023 में भी अपनी सरकार बनाने के लिए उन्हें सेना के सहयोग की जरूरत थी. सेना से इस विवाद के बावजूद, इमरान ने तब से लेकर अब तक कम से कम दो अवसरों पर इस्लामिक इतिहास से उठाकर दो टिप्पणियां की हैं, जिसके चलते उन्होंने कईयों को नाराज़ किया है और अपनी मंशा को लेकर कई सवाल खड़े किए हैं. इस सारे तमाशे के शुरू होने के कुछ दिन बाद इमरान ने खलीफा उमर का हवाला देते हुए अपने शीर्ष अधिकारी जनरल खालिद से किसी और को कमान सौंपने के लिए कहा, जो इस बात का इशारा था कि एक सैन्य अधिकारी (शायद जनरल बाजवा) को एक देश का शासक उसके पद से हटा सकता है. उसके बाद एक दूसरे अवसर पर, उन्होंने मदीना राज्य का उदाहरण दिया, जिसमें एक जनरल को भी उसके प्रदर्शन के आधार पर उच्च पद पर पदोन्नत किया जाता था. उनके इस बयान को हामिद के पक्ष में दिया गए बयान के रूप में देखा गया क्योंकि उन्हें अफगानिस्तान में “जीत” दिलाने का श्रेय दिया गया है. लेकिन जब तक ये न कहा जाए कि इमरान खान पूरी तरह सनक गए हैं, यानी वास्तविकता से पूरी तरह कट गए हैं और पाकिस्तान को मदीना की रियासत के बरक्स देखने लगे हैं, जहां वो बड़े सैन्य अधिकारियों को फ़रमान जारी करने की ताकत रखते हैं, उन्हें ये समझना होगा कि वो ऐसा करके सेना को उकसा रहे हैं और केवल अपने लिए मुसीबतें पैदा कर रहे हैं.

3) राजनीतिक गुर्गे रखने की चाह:

ये कोई रहस्य नहीं है कि इमरान खान फैज़ हामिद को आईएसआई के प्रमुख के पद पर बिठाए रखना चाहते थे. जाहिरी तौर पर ऐसा इसलिए कि जब तक अफगानिस्तान में हालात सामान्य नहीं हो जाते, उनका पद पर बने रहना जरूरी था. लेकिन हामिद को पद पर बिठाए रखने का उनका उतावलापन इस बात से और अधिक स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने आईएसआई को एक सैन्य टुकड़ी का दर्ज़ा देने तक का प्रस्ताव रखा ताकि जब जनरल बाजवा अगले साल नवंबर में सैन्य प्रमुख के रूप में अपना दूसरा कार्यकाल ख़त्म करें तो उनकी जगह हामिद को नियुक्त करने की योग्यता उन्हें दी जा सके. हामिद को इस पद पर बनाए रखने के इस उतावलेपन के पीछे राष्ट्रीय हित का कोई कारण न होकर इमरान खान का अपना निजी राजनीतिक स्वार्थ है. पिछले पांच सालों से, पहले आईएसआई में नंबर दो की हैसियत से और बाद में उसके प्रमुख की हैसियत से, हामिद इमरान खान को सत्ता दिलाने और उसे बनाए रखने में एक बहुत बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं. एक तरह से वो राजनीति इमरान खान के दाहिने हाथ की भूमिका निभाते रहे हैं और उनके विरोधियों को निशाना बनाते रहे हैं. हामिद के पूर्ववर्ती लेफ्टिनेंट जनरल असीम मुनीर को इसलिए बाहर का रास्ता दिखाया गया क्योंकि उन्होंने इमरान खान के राजनीतिक हितों को बनाए रखने के किसी षड्यंत्र में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था. हामिद के पास ऐसी कोई विवशता नहीं थी. बल्कि इमरान खान को फैज़ हामिद की पहले की तुलना में वर्तमान में कहीं ज्यादा जरूरत है, ताकि वो नए चुनावी कानून के जरिए अगले चुनाव को अपने पक्ष में मोड़ सकें. इसके लिए वो पाकिस्तान के चुनाव आयोग में अपने पसंदीदा अधिकारियों को बिठाना चाहते हैं, उन न्यायाधीशों को हटाना चाहते हैं, जो उनके लिए ख़तरा हो सकते हैं और अपने राजनीतिक विरोधियों के पुराने किस्से उघाड़कर या उन पर कीचड़ उछालकर उन्हें ध्वस्त करना चाहते हैं.

सेना प्रमुख को शर्मिंदा किया. अगर इस दृष्टिकोण से देखें तो ये मामला लगातार बिगड़ता गया क्योंकि प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष दोनों में से कोई भी झुकने को तैयार नहीं था. आखिरकार, इसका हल निकालते हुए एक समझौता किया गया. इमरान खान जनरल अंजुम को आईएसआई प्रमुख के रूप में नियुक्त करेंगे लेकिन इस संबंध में प्रस्तावों पर विचार करने के बाद ही वो ये फैसला लेंगे.

राजनीतिक गलियारों में ये चर्चा आम है कि इमरान खान बाजवा की जगह हामिद की नियुक्ति चाहते हैं हालांकि अगले साल जब जनरल बाजवा का कार्यकाल समाप्त होगा तो हामिद वरिष्ठता सूची में चौथे स्थान पर होंगे. हामिद पर इमरान खान के निर्भरता सेना के लिए ठीक नहीं है और पाकिस्तानी सेना इस बात को सख़्त नापसंद करती है कि उसके अधिकारी सरकार के नियंत्रण पर काम करें या फिर सेना का राजनीतिकरण हो. बाजवा ये जानते थे और हामिद को आईएसआई से बाहर करना चाहते थे लेकिन हामिद को एक सैन्य टुकड़ी की कमान सौंपने के उनके फैसले को इस तात्कालिक समस्या के चतुराई भरे समाधान के रूप में देखा गया. लेकिन ये तो इमरान खान की असुरक्षाओं का नतीज़ा है कि उन्होंने चीजों को इस हद तक खराब कर दिया है कि अब हामिद पहले से भी अधिक विवादास्पद हो चुके हैं, और अगले प्रमुख के रूप में उनकी स्वीकार्यता और भी कम हो गई है. इस बात की पूरी संभावना है कि आगे चलकर ये मुद्दा सेना के भीतर मुसीबतें खड़ी करेगा, जो वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों द्वारा पैंतरेबाजी और हेरफेर करके सर्वोच्च पद हासिल करने की कोशिशों को वैधानिकता प्रदान करेगा, और इसके लिए वे न सिर्फ एक दूसरे के खिलाफ़ खड़े हो सकते हैं बल्कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था की धज्जियां भी उड़ा सकते हैं. जब तक इस मामले को शुरुआती स्तर पर ही नहीं निपटाया जायेगा, चीज़ों के उस हद तक ख़राब होने की संभावना है, जहां सेना का आंतरिक अनुशासन गड़बड़ा सकता है और वो पंजाब पुलिस की तरह बन सकती है. पहले से ही ऐसी खबरें उड़ रही हैं कि आईएसपीआर के पूर्व प्रमुख

आसिफ़ गफूर, जो काफ़ी विवादास्पद रहे हैं, आईएसआई के अगले प्रमुख बनने के लिए काफ़ी हाथ-पांव मार रहे हैं. गफूर और उनकी पत्नी दोनों ही इमरान खान की पत्नी के आध्यात्मिक अनुयायी बन चुके हैं और ऐसा कहा जा रहा है कि उनके प्रभाव के जरिए वो हामिद की जगह हथियाना चाहते हैं.

4) भविष्यवाणी का सहारा:

इमरान खान के घर में उनकी पत्नी बुशरा (जिन्हें पिंकी पिरनी के नाम से भी जाना जाता है) ज्योतिष और गुप्त कलाओं के अभ्यास के जरिए भविष्यवाणी करती हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि कई महत्त्वपूर्ण शासकीय फैसलों के पीछे उनकी भविष्यवाणियां ज़िम्मेदार रही हैं. उदाहरण के लिए, ऐसा कहा जाता है कि पंजाब के मुख्यमंत्री और पाकिस्तान प्रशासित जम्मू और कश्मीर के ‘प्रधानमंत्री’ दोनों को उनकी पत्नी बुशरा ने ज्योतिष और अन्य कलाओं से परखने के बाद ही चुना था. कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, उन्होंने इमरान खान को चेताया है कि हामिद को कम से कम 4 दिसंबर तक, जब एक सूर्य ग्रहण लगने वाला है, आईएसआई में टिके रहना चाहिए. दुर्भाग्य से, ये इमरान खान के बस में नहीं है कि वो ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर पाकिस्तानी सेना को तबादलों और तैनातियों के लिए राजी करें. अभी तक तो ऐसा नहीं है. इसके अलावा ऐसी अफ़वाहें भी हैं कि हामिद के बाद किसी ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति होनी चाहिए जिसके नाम की शुरुआत एक ख़ास अक्षर से होती हो.

हामिद पर इमरान खान के निर्भरता सेना के लिए ठीक नहीं है और पाकिस्तानी सेना इस बात को सख़्त नापसंद करती है कि उसके अधिकारी सरकार के नियंत्रण पर काम करें या फिर सेना का राजनीतिकरण हो. 

पाकिस्तानी सेना इमरान खान को बच्चों की तरह नादानी की छूट देती रही है. उन्होंने कई बार अजीबोगरीब बयान दिए हैं और बहुत बड़ी भूलों को अंजाम दिया है, जैसे कि ओसामा बिन लादेन को शहीद कहना, अमेरिकी विदेश सचिव के बयानों को ‘अनभिज्ञतापूर्ण‘ कहना, ये स्वीकारना कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने आतंकियों को ट्रेनिंग दी है, सऊदी के साथ अपने संबंधों को बिगाड़ना. इसके बावजूद सेना उनकी इन मूर्खताओं और गलतियों को नज़रअंदाज़ करते हुए उनका साथ देती रही. इसके बावजूद कि सेनाध्यक्ष उन्हें पंजाब के मुख्यमंत्री को बदलने के लिए इशारा करते रहे, इमरान ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. इसलिए अब इमरान खान सोचते हैं कि वो एक बार फिर से सेना के आलाकमानों की मुखालफत करके बच जाएंगे, तो इसके लिए उन्हें कौन दोष दे सकता है?

5) “मैं नहीं तो और कौन” 

ऐसा कहा जाता है कि इमरान ने अपने सहयोगियों से कह रखा है कि सेना के पास उनके अलावा दूसरा कोई राजनीतिक विकल्प नहीं है. उनका सोचना है कि वो सेना के लिए बहुत

ज़रूरी हैं क्योंकि उनसे छुटकारा पाना भले बहुत आसान हो लेकिन उनकी जगह किसी दूसरे को ढूंढना बहुत मुश्किल होगा. नवाज़ शरीफ के बिना शामिल हुए किसी तरह के आंतरिक परिवर्तन को अंजाम देना लगभग असंभव है. और ऐसा कहना आसान है मगर हकीकत में नवाज़ और उनकी बेटी मरियम राजनीति में सेना के हस्तक्षेप को चुपचाप नहीं सहेंगे. ये ज़रूर है कि नवाज़ शरीफ़ और उनकी बेटी मरियम इमरान खान से बदला लेने के लिए सेना साथ आ खड़े हो सकते हैं लेकिन सेना के लिए भी उनकी क़ीमत चुका पाना मुश्किल होगा. हां, ये ज़रूर है कि इमरान ये भूल रहे हैं कि जब सेना किसी राजनीतिक नेता को अपने रास्ते से हटाना चाहती है तो वो किसी संवैधानिक आदर्श और राजनीतिक आचार-विचार की परवाह नहीं करती. उनके पास कई रास्ते हैं: कानूनी, राजनीतिक, न्यायिक. वे उन्हें राजनीतिक घाटे में तब्दील होता देखकर इन सभी रास्तों के इस्तेमाल से एक झटके में उन्हें हटा सकते हैं. इमरान उनके लिए कोई अपवाद नहीं हैं, भले ही वो स्वयं को ऐसा ही समझते हों. और इनमें से कोई रास्ता काम न आए तो उनके पास हमेशा से सैन्य तख्तापलट का विकल्प रहा है.

अब इमरान खान सोचते हैं कि वो एक बार फिर से सेना के आलाकमानों की मुखालफत करके बच जाएंगे, तो इसके लिए उन्हें कौन दोष दे सकता है?

आगे के कुछ हफ्ते हमें इस बात का इशारा कर देंगे कि पाकिस्तानी राजनीति की हवा किस ओर मुड़ेगी. विपक्षी दल, पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट अचानक एक बार फिर से सक्रिय हो गया है, मानो उसने अपने लिए अवसर भांप लिया है. चुनाव आयोग में भ्रष्टाचार और विदेशी फंडिंग के मामले को सक्रिय किया जा सकता है. राजनीतिक रूप से निष्क्रिय तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान एक बार फिर लाहौर में धरने पर बैठा है. बलूचिस्तान में अविश्वास प्रस्ताव को पहले ही रखा जा चुका है. संसद में और पंजाब में असंतुष्ट तत्व अपने खोल से बाहर आकर वर्तमान सत्ता को परेशान करना शुरू कर सकते हैं और इस बार आईएसआई सरकार को बचाने नहीं आएगी.

ये कुछ ऐसे संकेत हैं जो भविष्य के बारे में इशारा कर रहे हैं कि आगे क्या हो सकता है. वहीं सेना विपक्षियों में से किसी के साथ समझौता कर सकती है ताकि शांतिपूर्ण बदलाव को अंजाम दिया जा सके. शायद ये बदलाव आंतरिक स्तर पर किए जाएंगे और फिर अगली गर्मियों में जल्दी चुनावों का आयोजन कर लिया जाएगा. आगे जो भी होगा, अब इमरान खान के लिए अगले 22 महीने यानी आधिकारिक रूप से अपना कार्यकाल ख़त्म होने तक सत्ता में बने रहना मुश्किल हो गया है.

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