Author : Sushant Sareen

Published on Mar 14, 2024 Updated 0 Hours ago

तमाम इरादों और मक़सदों के बावजूद, शहबाज़ शरीफ़ की सरकार तब तक सत्ता में बनी रहेगी, जब तक फ़ौज के साथ इसका टकराव नहीं होता.

शहबाज़ शरीफ़ की ‘हाइब्रिड प्रो-मैक्स’ हुकूमत कितने दिनों तक चलेगी?

पाकिस्तान में आम तौर पर किसी भी हुकूमत के कमान संभालने के कुछ हफ़्तों के भीतर सियासी जानकार ये अटकलें लगाना शुरू कर देते हैं कि सरकार कितने दिनों तक टिकी रहेगी. लेकिन, शहबाज़ शरीफ़ कीहाइब्रिड प्रो-मैक्सहुकूमत के पतन की इबारत तो उस वक़्त से ही लिखी जाने लगी थी, जब नए प्रधानमंत्री का चुनाव भी नहीं हुआ था. शायद ही किसी को ये उम्मीद हो कि ये सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी. पाकिस्तानी फौज ने इस बेढंगे गठबंधन वाली सरकार को बंदूक की नोक पर उसी तरह तैयार किया है, जैसे दुल्हन को अगवा किया जाए. ऐसे में पाकिस्तान के ज़्यादातर सियासी जानकार शहबाज़ सरकार सरकार की उम्र ज़्यादा से ज़्यादा 18 से 24 महीने बता रहे हैं. चूंकि पाकिस्तान में (कार्यवाहक प्रधानमंत्रियों को छोड़कर) 1985 से किसी भी वज़ीर--आज़म का औसत कार्यकाल दो साल चार महीने रहा है. ऐसे में शहबाज़ हुकूमत के 18 से 24 साल चलने का अंदाज़ा बिल्कुल सटीक माना जाएगा. इसमें अगर हम नई सरकार के सामने खड़ी विशाल चुनौतियों, आम जनता का समर्थन होने, गठबंधन की सियासत की खींच-तान और फ़ौज के रौबदार रवैये को भी जोड़ दें, जिसने ये हुकूमत जोड़-तोड़ से खड़ी की और इसको पूरा समर्थन दिया, तो ये बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि किसी को भी इस सरकार के अपना कार्यकाल पूरा कर पाने की उम्मीद नहीं है. फिर भी, आम तौर पर चलने वाले सियासी दांव-पेंचों, साज़िश के क़िस्सों और सरकार का पतन होने की अटकलों के बीच, जब तक ये हुकूमत सत्ता में बनी रहेगी, तब तक ये तो कमज़ोर होगी और ही अस्थिर होगी. 

 ये बिल्कुल साफ़ हो जाता है कि किसी को भी इस सरकार के अपना कार्यकाल पूरा कर पाने की उम्मीद नहीं है. फिर भी, आम तौर पर चलने वाले सियासी दांव-पेंचों, साज़िश के क़िस्सों और सरकार का पतन होने की अटकलों के बीच, जब तक ये हुकूमत सत्ता में बनी रहेगी, तब तक ये न तो कमज़ोर होगी और न ही अस्थिर होगी. 

अपनी कोई ताक़त नहीं

शहबाज़ सरकार को सिर्फ़ इस आधार पर कमज़ोर कहा जा सकता है कि इसकी अपनी कोई हैसियत नहीं है. ये सरकार पाकिस्तान के फौजी तंत्र ने पर्दे के पीछे से जोड़-तोड़ करके खड़ी की है, और फ़ौज की इस हुकूमत के सारे फ़ैसले भी ले रही है. सारे अहम मंत्रालय, फिर चाहे वो वित्त हो, गृह या फिर विदेश- सब जगह फ़ौज के अपने आदमी या फिर उसके सुझाए हुए नुमाइंदे तैनात किए जा चुके हैं, ताकि उन पर पाकिस्तान आर्मी का पूरा नियंत्रण हो. पाकिस्तान में अब असली सरकार स्पेशल इन्वेस्टमेंट फेसिलिटेशन काउंसिल (SFIC) है. शुरुआत में इसकी स्थापना निवेश को बढ़ावा देने के लिए की गई थी. लेकिन, अब असलियत ये है कि परिषद ने किसी भी सत्ताधारी हुकूमत की तरह फ़ैसले लेने और नीतियां बनाने का अधिकार अपने हाथ में ले लिया है. लेकिन, SFIC के लिए हुए फ़ैसलों के सियासी नतीजे तो शहबाज़ सरकार को भुगतने होंगे. अगर कोई झटका लगता है, तो उसकी सियासी क़ीमत शहबाज़ सरकार ही चुकाएगी. अब कोई इस बात को किस तरह घुमाकर पेश करता है, वो अलग बात है. लेकिन, शहबाज़ सरकार को या तो कमज़ोर कहा जा सकता है, क्योंकि इसकी गर्दन SFIC ने पकड़ रखी है. या फिर इसे मज़बूत सरकार भी कहा जा सकता है क्योंकि इसे भारी सियासी क़ीमत चुकाकर बेहद कड़े फ़ैसले लागू करने होंगे.

 इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि किसके पास दो तिहाई बहुमत है. या फिर किसी के पास मामूली बहुमत है. कोई भी सरकार तब तक सत्ता में मज़बूती से बनी रहती है, जब तक उसको पाकिस्तानी फ़ौज का समर्थन हासिल होता है.

कम से कम काग़ज़ पर तो शहबाज़ शरीफ़ की हुकूमत बेहद ताक़तवर दिख रही है. क्योंकि, 366 सदस्यों वाली पाकिस्तान की अवामी असेंबली में उनके पास 200 से ज़्यादा सदस्यों का समर्थन है. आरक्षित सीटें, जो वैसे तो इमरान ख़ान के खाते में जानी चाहिए थीं, मगर अब उनके आवंटन के बाद सदन में शहबाज़ सरकार के पास दो तिहाई बहुमत हो जाएगा. इसकी तुलना अगर आप इमरान ख़ान की सरकार से करें, तो 2018 में वो बमुश्किल अपने लिए सामान्य बहुमत जुटा पाये थे. निश्चित रूप से पाकिस्तान में संसदीय बहुमत बस एक नाम की चीज़ है. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि किसके पास दो तिहाई बहुमत है. या फिर किसी के पास मामूली बहुमत है. कोई भी सरकार तब तक सत्ता में मज़बूती से बनी रहती है, जब तक उसको पाकिस्तानी फ़ौज का समर्थन हासिल होता है. जिस रोज़ सरकार को फ़ौज का समर्थन मिलना बंद हो जाता है, उसी दिन से नेशनल असेंबली के आंकड़े बेमानी हो जाते हैं. हक़ीक़त तो ये है कि अभी और आने वाले लंबे समय तक शहबाज़ शरीफ़ को फ़ौज का पूरा समर्थन हासिल रहेगा. ऐसे में वो मज़बूती से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर तब तक बैठे रहेंगे, जब तक पाकिस्तानी सेना से उनका कोई टकराव नहीं होता.

 

आपसी निर्भरता

शहबाज़ शरीफ़ के हक़ में जो बात जाती है, वो ये सच्चाई है कि पाकिस्तानी सेना के मौजूदा नेतृत्व को भी शहबाज़ की उतनी ही ज़रूरत है, जितनी ज़रूरत शहबाज़ को सत्ता में बने रहने के लिए फ़ौज की है. जनरल आसिम मुनीर की अगुवाई वाले जनरलों के गिरोह के पास दूसरे विकल्प ज़्यादा हैं नहीं. इसलिए तो और भी क्योंकि पिछले महीने हुए चुनावों में तमाम चुनौतियों के बावजूद इमरान ख़ान विजेता बनकर उभरे. चुनाव के नतीजे बदल दिए गए और जनादेश को चुरा लिया गया. पर इस हक़ीक़त से कोई मुंह नहीं मोड़ सकता कि तो फ़ौज और ही मौजूदा हुकूमत को आम जनता का समर्थन हासिल है. ऐसे में अपनी अपनी सत्ता को बचाने के लिए, एक मुल्क के तौर पर पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए, उनके पास एक दूसरे का हाथ मज़बूती से पकड़े रहने के सिवा कोई और विकल्प नहीं है. मौजूदा सरकार को अस्थिर करना या फिर सत्ता से हटाना कोई विकल्प है ही नहीं. क्योंकि जनरल मुनीर इस वक़्त इमरान ख़ान के साथ शांति का हाथ नहीं बढ़ाना चाहते. ये बात तो असंभव है. अभी जनता के मूड को देखते हुए, जो आने वाले समय में कड़े फ़ैसलों के बाद और भी ख़राब होगा, फौज और सरकार की एक दूसरे पर निर्भरता और बढ़ जाएगी. इससे फ़ौज पर शहबाज़ हुकूमत की निर्भरता तो और बढ़ ही जाएगी. इससे एक बात ये भी होगी किचुनी हुई हुकूमतऔर फौजी जनरलों के बीच बात-चीत और मोल भाव की गुंजाइश में भी इज़ाफ़ा होगा.

 

टकराव के बिंदु

वैसे तो शहबाज़ शरीफ़ को सेना का फ़रमाबरदार होने, उसका हुक्म बजा लाने में कोई दिक़्क़त नहीं. अगर कोई आदर्श चापलूस होता हो, तो वो उसकी सबसे अच्छी मिसाल हैं. फिर भी उनके लिए एक लालच होगा, या फिर आदतन उनके भाई नवाज़ शरीफ़ अपने पसंदीदा के एजेंडा को आगे बढ़ाने की कोशिश करें. फौज के कुछ आदेशों को मानने से इनकार कर दें और अपनी पार्टी और सरकार के लिए कुछ हैसियत दोबारा हासिल करने की कोशिश करें. कई मामलों में अपने सियासी बॉस नवाज़ शरीफ़ और सरकार में अपने आक़ा जनरल आसिम मुनीर के बीच मध्यस्थ और पुल का काम करना शहबाज़ शरीफ़ के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगा. अगर वो नवाज़ और जनरल मुनीर के बीच की खींच-तान को अच्छे से संभाल लेते हैं और अगर बाक़ी सारी चीज़ें वैसी की वैसी रहती हैं, तो मौजूदा व्यवस्था को कम से कम अगले 18 महीनों तक यानी अक्टूबर नवंबर 2025 तक सत्ता में बने रहना चाहिए. ये वो समय होगा, जब जनरल आसिम मुनीर का कार्यकाल बढ़ाने का मसला सामने आएगा. फ़ौज के मुखिया का कार्यकाल बढ़ाने का मसला फ़ौज और शरीफ़ भाइयों के बीच दरार पैदा कर सकता है. ख़ास तौर से तब और जब नवाज़ शरीफ़ जनरल मुनीर को एक्सटेंशन देने को तैयार हों.

 अगर हालात हाथ से बाहर जाने के कगार पर पहुंच जाते हैं, तो इस बात की काफ़ी आशंका है कि जनरल मुनीर का कार्यकाल बढ़ाना मुमकिन नहीं रह जाएगा. 

हालांकि, राजनीति में बाक़ी की चीज़ें जस की तस नहीं रहतीं. ऐसे में बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि आर्थिक और सुरक्षा संबंधी हालात आगे चलकर कितने ख़राब होते हैं और फिर आम जनता और आम फ़ौजी इस पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं. एक हद से आगे जाकर, जनरल मुनीर और उनके समर्थक भी अपनी बातें मनवाने में कामयाब नहीं हो पाएंगे. इस वक़्त पाकिस्तानी सेना के भीतर नाख़ुशी की चिंगारी ख़तरनाक रूप से भड़क रही है. ऐसी भी ख़बरें हैं कि फौज के अगुवा व्हाट्सएप ग्रुप की निगरानी कर रहे हैं. अपने अफ़सरों को और उन सैनिकों को चेतावनी जारी कर रहे हैं, जो ख़ामोश बाग़ी के तौर पर देखे जा रहे हैं. यही नहीं ऐसी भी अपुष्ट ख़बरें आई हैं कि पाकिस्तानी वायुसेना के वरिष्ठ अधिकारियों का कोर्ट मार्शल किया गया. ये सारी बातें इशारा करती हैं कि ज़मीन के नीचे कुछ तो अलग चल रहा है. अगर हालात हाथ से बाहर जाने के कगार पर पहुंच जाते हैं, तो इस बात की काफ़ी आशंका है कि जनरल मुनीर का कार्यकाल बढ़ाना मुमकिन नहीं रह जाएगा. ख़ुद फ़ौज के भीतर से उनकी जगह कमान किसी और को देने का दबाव होगा. और, अगर जनरल मुनीर रिटायर हो जाते हैं, तो उन्होंने ताश का जो महल खड़ा किया है, वो ख़ुद ख़ुद ढह जाएगा. ऐसे में, एक तरह से शहबाज़ और जनरल मुनीर की क़िस्मतों की डोर अब एक दूसरे से बंधी हुई है.

 

गठबंधन के सीमित विकल्पों वाले साझीदार

जहां तक सत्ताधारी गठबंधन की बात है, तो ये कहीं नहीं जा रहा है. पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (PPP) शोर मचाती रहेगी. लेकिन वो सरकार को अपना समर्थन भी देती रहेगी. हर असहमति संघीय सरकार से कुछ कुछ हासिल कर लेने का दांव होगा और इसके साथ साथ वो ख़ुद को जनता की सबसे बड़ी हितैषी बताने का मौक़ा भी हाथ से नहीं जाने देगी, ताकि उसके अपने वोट बैंक को कोई नुक़सान हो. लेकिन, इससे आगे बढ़कर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का ट्रैक रिकॉर्ड उसी तरह फौज की चापलूसी करने वाला रहा है, जैसा शहबाज़ शरीफ़ का है. आसिफ़ ज़रदारी जो अगले पांच साल तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहेंगे, उन्होंने बाग़ी तेवर दिखाने और फिर धमकी मिलने पर ख़ामोशी से अपने पत्ते समेट लेने का हुनर बख़ूबी सीख लिया है. किसी भी स्थिति में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का सिंध के बाहर कोई अस्तित्व है नहीं. पंजाब में तमाम कोशिशों के बावजूद उसका वोट बैंक नहीं बढ़ सका है. ऐसे में PPP आज उसी जगह पर खड़ी है, जहां वो 2018 में थी. वहीं बलूचिस्तान में वो इसलिए जीती क्योंकि उसको जिताने के लिए बड़े पैमाने पर धांधली की गई. पीपुल्स पार्टी को पता है कि अगर फिर से चुनाव करा लिए गए, तो उसके पास जो आज है, उससे भी कम ताक़त बचेगी. इसके अलावा, हो सकता है कि PPP को इमरान ख़ान (या फिर उनके किसी मोहरे से) निपटना पड़ेगा. पीपुल्स पार्टी के लिए ये विकल्प शायद ही बेहतर हो. गठबंधन सरकार में दूसरी बड़ी साझीदार मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट (MQM) के पास अपनी कोई सियासी हस्ती नहीं है, जिसके आधार पर वो कोई लाभ ले सके. MQM की जीती हुई लगभग सारी सीटें उसे पाकिस्तान केडीप स्टेटने तोहफ़े में दी हैं. ऐसे में पार्टी वही करेगी, जो फ़ौज उसे कहेगी.

 

पाकिस्तान तहरीक--इंसाफ (PTI) की चुनौती

सियासी स्तर पर सबसे बड़ी चुनौती तो ये होगी कि फिर से ताक़तवर बन चुकी तहरीक--इंसाफ से कैसे निपटा जाए, जिसने अवामी असेंबली में 93 सीटें जीती हैं. वैसे तो पीटीआई से उसके हिस्से की आरक्षित सीटें छीन ली गई हैं (ये उससे छीनी गई उन सीटों के अलावा है, जहां PTI के जीते हुए उम्मीदवार को हारा घोषित कर दिया गया). PTI के ख़ामोश विपक्ष बनकर बैठने की कोई उम्मीद नहीं है. 2018 में पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ (PML-N) की अगुवाई वाले विपक्ष के पास काफ़ी सांसद थे. लेकिन, उसने सत्ता में बैठे इमरान ख़ान से कोई टकराव मोल नहीं लिया. क्योंकि फ़ौजी तंत्र ने उन्हें चेतावनी दे रखी थी कि वो कोई परेशानी खड़ी करें. मगर, PTI उसी तरह हुक्म मानने वाली या फिर अनुशासित नहीं रहने वाली है. इमरान ख़ान की पार्टी सड़कों पर विरोध जताएगी और सोशल मीडिया पर भी ख़ूब अभियान चलाएगी, और इसकी मदद से सत्ता में बैठने वालों के ख़िलाफ़ माहौल बनाएगी. क्योंकि किसी भी सूरत में मौजूदा हुकूमत बैकफुट पर ही रहेगी. क्योंकि उसके पास सत्ता में रहने की वैधता नहीं है. वहीं आर्थिक चुनौतियों की वजह से जनता का ग़ुस्सा भी बढ़ता जा रहा है.

 अगले कुछ महीनों के दौरान पाकिस्तान में सियासी बयानबाज़ी के तीर ख़ूब चलते दिखेंगे. अटकलों का बाज़ार भी गर्म होगा. लेकिन, ये सरकार फिलहाल तो कहीं नहीं जाने वाली है.

अगले कुछ महीनों के दौरान पाकिस्तान में सियासी बयानबाज़ी के तीर ख़ूब चलते दिखेंगे. अटकलों का बाज़ार भी गर्म होगा. लेकिन, ये सरकार फिलहाल तो कहीं नहीं जाने वाली है. अब हुकूमत किस हद तक चीज़ों पर नियंत्रण रखेगी, या उस पर ख़ुद फौजी तंत्र अपना शिकंजा कसेगा, ये इस बात पर निर्भर करेगा कि शहबाज़ सरकार सेना से किस तरह मोल-भाव और बातचीत करती है. इसके अलावा उसके पास कितनी वित्तीय और सियासी गुंजाइश उपलब्ध होगी. लेकिन, शहबाज़ सरकार के पतन का कोई भी पूर्वानुमान कम से कम एक साल तक बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाने वाला होगा. हो सकता है कि ये दो साल भी चलती रहे. पर, उसके बाद क्या होगा, इस पर कोई भी दांव लगा सकता है.

 

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