Published on Apr 29, 2023 Updated 0 Hours ago

कोको द्वीप समूह में बढ़ती सैन्य गतिविधियां और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह से इसकी निकटता ने भारत को अपनी सैन्य क्षमताओं का विस्तार करने के लिए बढ़ावा दिया है.

अंडमान द्वीप समूह के उत्तर में क्या चल रहा है?

हाल ही में चैथम हाउस की एक रिपोर्ट ने म्यांमार में कोको द्वीप समूह को सुर्ख़ियों में ला दिया है और हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में चीन के बढ़ते प्रभाव पर लंबे समय से चल रहे विचार-विमर्श को आगे बढ़ाया है. भारत के अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (एएनआई) से मात्र 55 किलोमीटर की दूरी पर मौज़ूद, इस रिपोर्ट में सैटेलाइट इमेज का हवाला दिया गया है, जो वहां बुनियादी ढांचे के लगातार निर्माण को दिखाता है, जिसमें ग्रेट कोको द्वीप के दक्षिणी हिस्से को पड़ोसी द्वीप से जोड़ने वाले एक ब्रिज का निर्माण शामिल है; एक घाट; एक रनवे; एक रडार स्टेशन; और सैन्य और एयरक्राफ्ट सुविधाओं का निर्माण भी शामिल है. इन सभी  घटनाओं के पीछे कथित तौर पर चीन का हाथ बताया जाता है. 

भारत के अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (एएनआई) से मात्र 55 किलोमीटर की दूरी पर मौज़ूद, इस रिपोर्ट में सैटेलाइट इमेज का हवाला दिया गया है, जो वहां बुनियादी ढांचे के लगातार निर्माण को दिखाता है

जबकि चीन ने कोको द्वीप समूह में कथित निर्माण और अपने संबंधों के आरोपों से इनकार किया है. साथ ही म्यांमार ने भी चीन की भागीदारी से इनकार किया है और इन सबके बीच बीजिंग की भूमिका संदिग्ध है. क्योंकि यह मुमकिन नहीं है कि म्यांमार के पास अपने दम पर इतना साधन हो कि वह कोको जैसे बहुत दूर मौजूद एक द्वीप पर बुनियादी ढांचे का विकास कर सके. वो भी तब जबकि समूचा देश लंबे समय से नागरिक संघर्ष झेलने को मज़बूर है लेकिन इस पूरे मामले में नायपिटा और बीजिंग की मिलीभगत है, क्योंकि चीन वर्षों से म्यांमार का क़रीबी सहयोगी रहा है और 2021 में सैन्य तख़्ता पलट के बाद दोनों देशों के संबंध और भी गहरे हुए हैं, जिसके बाद से ही बाकी दुनिया ने नायपिटा को अलग-थलग कर दिया है.

कोको द्वीप क्यों अहम हैं?

1948 में म्यांमार को स्वतंत्रता मिलने के बाद कोको द्वीप, जिसे पहले द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानी सेना द्वारा एक नौसैनिक अड्डे के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, म्यांमार का हिस्सा बन गया और 1962 के बाद से म्यांमार की सैन्य सरकार द्वारा एक उपनिवेश के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा. 20वीं शताब्दी के अंत में वहां एक नौसैनिक रडार स्टेशन स्थापित किया गया था. हालांकि घरेलू मामलों और नागरिक संघर्ष को संभालने के चक्कर में म्यांमार की सरकार यहां बुनियादी ढांचे को विकसित करने पर ध्यान नहीं दे सकी लेकिन हाल के वर्षों में, टाटमाडॉ ने सैन्य प्रमुखों के साथ इस क्षेत्र का लगातार दौरा किया है और फॉरवर्ड डिफेंस पोस्ट के तौर पर इस क्षेत्र के काम करने की क्षमता को बढ़ाने और इससे अर्ली वॉर्निंग एडवांटेज हासिल करने की संभावना पैदा की है.

1990 के दशक की शुरुआत से चीन द्वारा कोको द्वीप समूह को सिग्नल इंटेलिजेंस (एसआईजीआईएनटी) बेस के रूप में इस्तेमाल करने की अटकलें लगाई जाती रही हैं, जिसकी कभी पुष्टि नहीं हो सकी है.

1990 के दशक की शुरुआत से चीन द्वारा कोको द्वीप समूह को सिग्नल इंटेलिजेंस (एसआईजीआईएनटी) बेस के रूप में इस्तेमाल करने की अटकलें लगाई जाती रही हैं, जिसकी कभी पुष्टि नहीं हो सकी है. इसके बावज़ूद चीन आईओआर में अपनी मौज़ूदगी को बढ़ाने में जुटा है और इस संदर्भ में आशंकाओं को हवा दी गई है. सैटेलाइट इमेज में पहले कम विकसित रेडियो स्टेशन के मुक़ाबले अब यहां ज़्यादा उन्नत सुविधाएं दिखती हैं. रनवे का भी 1,300 से 2,300 मीटर तक विस्तार किया गया है और परिवहन विमान जो इस आईलैंड के लिए सप्लाई लाते हैं, उनके लिए शेड विकसित किए गए हैं. इतना ही नहीं, चीन के कर्मचारियों को कथित तौर पर इस द्वीप पर अक्सर देखा जाता रहा है जहां म्यांमार के लगभग 150 कर्मचारी पहले से ही तैनात हैं.

इस नई जानकारी ने कोको द्वीप के प्रति ध्यान खींचा है और नए सिरे से इस चिंता को बढ़ा दिया है कि यह द्वीप बीजिंग को निगरानी और समुद्री गतिविधियों ख़ास तौर पर आईओआर में भारत की नौसैनिक गतिविधियों पर ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने में मदद करता है और नौसैनिक तैनाती के लिए लॉन्चपैड के रूप में इसका इस्तेमाल किए जाने की क्षमता है.

म्यांमार चीन के लिए क्यों अहम है?

दशकों से चीन ने एनर्जी एक्सपोर्ट के लिए अपनी समुद्री आपूर्ति लाइनों को सुरक्षित करने और मलक्का स्ट्रेट के संकीर्ण रास्ते पर अपनी निर्भरता में विविधता लाने के लिए समुद्री मार्गों तक अपनी पहुंच में बदलाव लाने की कोशिश की है. इसके लिए बीजिंग आईओआर में ईरान से लेकर अफ्रीका और श्रीलंका तक के सभी बंदरगाहों पर लगातार अपनी ताक़त को बढ़ा रहा है. एक पड़ोसी देश होने के नाते जो राजनीतिक रूप से बेहद अस्थिर है, अंतरराष्ट्रीय आलोचना का शिकार है, फिर भी जिसे वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता है, म्यांमार अपनी समुद्री महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के लिए चीन के जाल में फंसने के लिए आसान शिकार है. बीजिंग एक प्रमुख डिफेंस सप्लायर (रक्षा आपूर्तिकर्ता), एक प्रमुख व्यापारिक साझेदार और दूसरा सबसे बड़ा विदेशी निवेशक भी है, जो चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारा (सीएमईसी) जैसी कई बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं का नेतृत्व कर रहा है. सीएमईसी परियोजनाओं की कई कार्य समितियों को पुनर्गठित किया गया है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि इनमें से अधिकांश परियोजनाएं चीन-म्यांमार सीमा पर ही कार्यान्वित की जा रही हैं और जिस पर जातीय सशस्त्र समूहों का प्रभाव है जिनके साथ चीनी सरकार के अच्छे संबंध हैं.

1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से म्यांमार में चीन की प्रमुख विदेश नीति के उद्देश्यों में अपनी सीमा पर स्थिरता सुनिश्चित करना. अपने आर्थिक हितों की रक्षा करना और राष्ट्रीय सुलह प्रक्रिया को बढ़ावा देना शामिल रहा है. चीन-म्यांमार सीमा पर काम करने वाले गैर-बामर जातीय सशस्त्र संगठन (ईएओ) ने राष्ट्रव्यापी युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किया है, जिसके कारण टाटमाडवा के साथ अक्सर संघर्ष होते हैं. इस तरह की झड़पें चीन के व्यापारिक हितों के लिए ख़तरा पैदा करती हैं, क्योंकि म्यांमार और युन्नान के बीच ज़्यादातर व्यापार म्यूज़ जैसे प्रमुख सीमावर्ती शहरों से होकर गुजरता है. प्रमुख आर्थिक परियोजनाएं जैसे चीन-म्यांमार तेल और गैस पाइपलाइन, रुइली-मांडले रेलवे, और क्याकफ्यू स्पेशल इकोनॉमिक जोन संघर्ष क्षेत्रों में मौज़ूद हैं, जो क्षेत्रीय स्थिरता की वकालत करते हैं. लिहाज़ा चीन कई बार ईएओ को जुंटा के साथ बातचीत की मेज पर लाने में सफल रहा है और चीन पर इसके प्रायोजक होने का आरोप भी लगता रहा है. ऐसे में चीन ने म्यांमार में अपनी अहमियत बनाई है, जो इसे चीन को उसके हित पूरा करने के लिए उसके प्रभाव और निवेश का लाभ उठाने के दृष्टिकोण से प्रभावशाली स्थिति में रखता है.

तथ्यों को कल्पना से अलग करना

कोको द्वीप समूह में चीन की मौज़ूदगी के बारे में तमाम अटकलों के बावज़ूद जब से द्वीपों में एक चीनी एसआईजीआईएनटी स्टेशन होने की ख़बर सामने आई है, म्यांमार ने यहां चीन की किसी भी सैन्य भागीदारी को लेकर साफ इनकार किया है और यहां तक कि भारतीय रक्षा अधिकारियों को ग्रेट कोको का दौरा करने के लिए आमंत्रित भी किया है. हालांकि यहां एक हवाई पट्टी की मौज़ूदगी के अलावा किसी भी चीनी सैन्य उपस्थिति से म्यांमार ने इंकार किया है लेकिन अगर यह सच है  तो यह निष्कर्ष निकलता है कि यह म्यांमार की सेना टाटमाडवा ही है जो अपनी इच्छा से यहां विकास कर रही है और जो म्यांमार की अस्थिर आंतरिक स्थिति और इसके लिए कोको द्वीप समूह का सामरिक लिहाज़ से इस्तेमाल करने के लिए किसी भी पर्याप्त औचित्य की कमी को नहीं जोड़ता है. दूसरी ओर, दक्षिण चीन सागर में चट्टानों और द्वीपों पर चीन का व्यापक निर्माण कार्य और आईओआर और इसके आसपास की गतिविधियों को देखते हुए, टाटमाडवा को समर्थन करने और ऐसे डेवलपमेंट में शामिल होने में चीन के अपने हित छिपे हैं.

फिर भी इस बात की परवाह किए बिना कि कोको द्वीप समूह में ऐसे डेवलपमेंट के पीछे कौन है, भारत को एएनआई में अपनी क्षमताओं का विस्तार करने के साथ आगे बढ़ना जारी रखना चाहिए. क्योंकि कोको द्वीप समूह एएनआई के क़रीब हैं जहां ऐसे विकास कार्य हो रहे हैं. ख़ास तौर पर द्वीपों पर सैन्य विकास का काम हो रहा है, जो भारत के लिए बेहद अहम है. इसलिए  नई दिल्ली ने इस उम्मीद में ट्राई सर्विस एएन कमान की डेटरेंस क्षमताओं को बढ़ाने में ज़ोर दिया है जो हवाई रक्षा और हवाई निगरानी कोको द्वीप समूह में हो रहे बुनियादी ढांचे के निर्माण के बारे में जानकारी मुहैया कराएगी.

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Authors

Pratnashree Basu

Pratnashree Basu

Pratnashree Basu is an Associate Fellow, Indo-Pacific at Observer Research Foundation, Kolkata, with the Strategic Studies Programme and the Centre for New Economic Diplomacy. She ...

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Sreeparna Banerjee

Sreeparna Banerjee

Sreeparna Banerjee is an Associate Fellow in the Strategic Studies Programme. Her work focuses on the geopolitical and strategic affairs concerning two Southeast Asian countries, namely ...

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