Published on Sep 28, 2022 Updated 0 Hours ago

पश्चिम द्वारा पाबंदियों को हथियार की तरह इस्तेमाल किए जाने की मार रूस को, और रूस द्वारा ऊर्जा को हथियार बनाने की पीड़ा यूरोप को झेलनी होगी.

मौजूदा भूराजनीति: हर हथकंडा हथियार, सारा संसार शिकार

मौजूदा भूराजनीतिक रुझानों में वैश्विक अर्थव्यवस्था का हरेक हिस्सा सामरिक हथियार में तब्दील हो गया है. महाशक्तियों के बीच की रस्साकशी में इनका जमकर इस्तेमाल हो रहा है. ऐसे में नए सिरे से वैश्वीकरण का विचार पेश करने की क़वायद खटाई में पड़ गई है. वैश्वीकरण से दुनिया के लगभग हर नागरिक को फ़ायदा पहुंचा है, हालांकि अब इसे पलटने (deglobalisation) की बयार बह रही है. अजीब विडंबना है कि इस नए रुझान ने खाद्यान्न और ऊर्जा की महंगाई का वैश्वीकरण कर दिया है. इसने ज़्यादातर बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सुस्त विकास का वातावरण बना दिया है. सत्ताधारी संभ्रांत तबक़ा सामूहिक रूप से चारदीवारी के भीतर के हिफ़ाज़ती माहौल में बैठकर इन हथियारों का इस्तेमाल करता है, जबकि बेबस नागरिकों की हालत दिन ब दिन नाज़ुक होती जा रही है. ऐसे लाचार लोग व्यक्तिगत रूप से इन बदलावों से जूझते रहते हैं. दरअसल अपनी सामूहिक शक्ति को अन्य पक्ष को सौंप देने के बाद इन बेचारे नागरिकों के पास एकजुट होकर सौदेबाज़ी करने की ताक़त नहीं रह जाती है.

2 सितंबर 2022 को रूस ने यूरोप को नॉर्डस्ट्रीम गैस की आपूर्ति पर बेमियादी रोक लगा दी. यूरोप स्थायी रूप से सस्ती ऊर्जा हासिल करने का आदी रहा है, ऐसे में रूस के ताज़ा कदम से वहां तबाही का दौर आना तय है.

युद्ध के दौरान रूस का रुख

2 सितंबर 2022 को रूस ने यूरोप को नॉर्डस्ट्रीम गैस की आपूर्ति पर बेमियादी रोक लगा दी. यूरोप स्थायी रूप से सस्ती ऊर्जा हासिल करने का आदी रहा है, ऐसे में रूस के ताज़ा कदम से वहां तबाही का दौर आना तय है. हम इसे व्यापक पाबंदियों को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की हरकत के ख़िलाफ़ प्राकृतिक संसाधनों को हथियार बनाने की क़वायद क़रार दे सकते हैं. ग़ौरतलब है कि पश्चिमी देशों ने रूसी बैंकों की SWIFT वित्तीय प्रणाली तक पहुंच रोक दी है. ऐसी तमाम हरकतें सामयिक रूप से 2 धाराओं में अपने प्रभाव छोड़ेंगी. दोनों ही सूरतों में उन्हीं मासूम लोगों को मुसीबतें झेलनी होंगी जिनके नाम पर तनातनी का ये पूरा खेल खेला जा रहा है.

अगले छह महीनों तक रूस गैस की बजाए एक ऐसे विचार का निर्यात करेगा जिसे यूरोप काफ़ी अर्सा पहले भुला चुका है. वो विचार है- असुविधा और परेशानी. नर्सिंग से जुड़े क्रियाकलापों के क्लिनिकल मैनुअल में मरीज़ों से पीड़ा की तीव्रता को 0 (कोई पीड़ा नहीं) से 10 (सबसे ज़्यादा तकलीफ़) के बीच ब्योरा देने को कहा जाता है. अक्टूबर 2022 से अप्रैल 2023 के बीच एक पूरा महादेश तकलीफ़ से कराह रहा होगा. उत्तरी यूरोप के लिए पीड़ा सबसे भयानक स्तर (7 से 10) पर होगी. दक्षिणी यूरोप में तकलीफ़ मध्यम दर्जे (4 से 6) पर होगी. इनके बीच स्थित भूभाग में कहीं बहुत ज़्यादा तो कहीं ना के बराबर पीड़ा का दौर रहेगा.

दुश्वारियों का ये दौर समाधानों के भंवर तैयार करेगा, जिनसे राष्ट्रों के सियासी विमर्श प्रभावित होंगे. इसके दायरे में स्वच्छ ऊर्जा के बुनियादी मानकों से समझौते और छेड़छाड़ करने की क़वायद भी शामिल होगी. ग़ौरतलब है कि पश्चिमी जगत विकासशील देशों से इन मानकों पर खरा उतरने की उम्मीद लगाता रहा है. हालांकि ये पूरा खेल यहीं तक सीमित नहीं रहेगा. इस कड़ी में तमाम प्रदूषकों में सबसे गंभीर- कोयले की स्वच्छ तरीक़े से वापसी होने वाली है. जर्मनी, इटली, ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड्स जैसे देश पूरे ज़ोरशोर से कोयले से बिजली पैदा करने की तैयारी कर रहे हैं. विडंबना देखिए, भारत इसी कोयले का प्रयोग करने के चलते लगातार ताने झेलता रहता है.

अगले छह महीनों तक रूस गैस की बजाए एक ऐसे विचार का निर्यात करेगा जिसे यूरोप काफ़ी अर्सा पहले भुला चुका है. वो विचार है- असुविधा और परेशानी.

तकलीफ़ की बुनियाद पर पैदा सियासत से पश्चिम का संभ्रांत तबक़ा नई-नई क़िस्सेबाज़ियों को हवा देना शुरू कर देगा. इस कड़ी में वो कोयले से लेकर परमाणु संयंत्रों तक की हिमायत करता दिखेगा. इसके ज़रिए अतीत की स्वच्छ नैतिकताओं पर दाग़-धब्बे लगाए जाएंगे. गैस की नामौजूदगी से होने वाली पीड़ा और असुविधा के चलते तमाम पुराने क़िस्से सिरे से ग़ायब कर दिए जाएंगे. हालांकि इस पूरे घटनाक्रम से एक सकारात्मक रुझान भी दिखाई दे सकता है. मुमकिन है कि इसके बाद बाहरी दुनिया में ज़्यादा सम्मानजनक भूराजनीतिक संवाद का दौर शुरू हो जाए.

बहरहाल, सामरिक हथकंडे के तौर पर यूरोप को ऐसी तकलीफ़ों में झोंकने वाले रूस पर अल्पकाल में कोई आंच नहीं आएगी. रूस पहले से ही ज़बरदस्त वित्तीय संकटों में घिरा है. मौजूदा संघर्ष का दौर लंबा खिंचने की आशंका है. ऐसे में रूस के राजस्व में 12 से 24 महीनों तक गैस का हिस्सा नदारद रहने से कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला. हो सकता है कि जर्मनी या इटली के उलट रूस को इस तरह की सियासत का कोई ख़ास दबाव महसूस ही ना हो. हालांकि भविष्य में एक लम्हा ऐसा आएगा जब रूस को अपने ऊपर लगी आर्थिक पाबंदियों का दबाव महसूस होने लगेगा. अगर हालिया इतिहास पर नज़र दौड़ाएं तो 1980 के दशक में रूसी महिलाओं ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने बेटों के लाश बनकर वापस लौटने पर क्रेमलिन पर जवाब देने का ज़बरदस्त दबाव बनाया था. साल 2000 में परमाणु पनडुब्बी कुर्स्क के डूबने पर 118 रूसी बेटों के मारे जाने पर उनकी माताओं ने पुतिन को आड़े हाथों लिया था. हालांकि सियासी व्यवस्था पर उस वक़्त कोई आंच नहीं आई थी और ना ही इस बार इसपर कोई असर पड़ने वाला है. अलबत्ता कमज़ोर और बेबस लोगों का निशाना बनने के चलते उसे अपने ऊपर दबाव ज़रूर महसूस होगा. इससे चोट तो लगेगी लेकिन व्यवस्था धराशायी नहीं होगी. चीन और भारत को गैस और तेल के निर्यात के चलते आर्थिक मुसीबतों से रूस का काफ़ी हद तक बचाव होता रहेगा. हालांकि ये दोनों ही मुल्क यूरोप में रूसी गैस की मांग की बराबरी नहीं कर सकते. बहरहाल इस पूरी क़वायद के मायने ये भी हैं कि चीन के साथ रूस का व्यापारिक और निवेश के मोर्चे पर पहले से ज़्यादा जुड़ाव हो जाएगा.

आगे की राह

अब 2024 की तस्वीर देखते हैं. अगले 2 वर्षों में रूस सस्ती ऊर्जा की बदौलत चीन, पूर्वी एशिया और भारत के साथ नई मांग श्रृंखलाएं तैयार कर लेगा. साथ ही यूरोपीय मांग को नए सिरे से संतुलित कर जोख़िम प्रबंधन भी कर चुका होगा. सामरिक मोर्चे पर विविधता लाने की ये प्रक्रिया 8 साल पहले भूआर्थिक क़वायद के तौर पर शुरू हुई थी. तब रूस के गैज़प्रॉम ने चीन की चाइना नेशनल पेट्रोलियम कॉर्प के साथ 30 सालों तक गैस की आपूर्ति करने से जुड़े 400 अरब अमेरिकी डॉलर के क़रार पर दस्तख़त किए थे. महाशक्तियों के बीच बिछी बिसात में पुतिन ने ताज़ा पाबंदियों के लिए पहले से ही तैयारी कर रखी थी. अमेरिकी अगुवाई में आयद की गई इन पाबंदियों के नतीजों की बात करें तो इसने अमेरिका के 2 सबसे बड़े विरोधियों- चीन और रूस को सामरिक तौर पर एक दूसरे की ओर मज़बूती से धकेल दिया है. दोनों के बीच नज़दीकी बढ़ाने में सस्ती ऊर्जा की सबसे बड़ी भूमिका रही है.

भूराजनीति की बिसात पर जारी इन चालबाज़ियों की आंच सैनिकों और नागरिकों को झेलनी पड़ रही है. ऐसे में दुनिया के नेताओं को जोख़िम और इनाम से जुड़े व्यापक संतुलन का आकलन करना चाहिए.

ऐसा नहीं है कि यूरोपीय संघ हाथ पर हाथ धरे चुपचाप बैठा रहेगा. 2024 तक वो भी मौजूदा झटके से उबर चुका होगा और ऊर्जा के मसले पर नई हक़ीक़तों का आदी हो चुका होगा. पश्चिमी एशिया की ओर यूरोप का झुकाव बढ़ जाएगा. लिहाज़ा वो इस इलाक़े की भूराजनीति (जैसे मानवाधिकार या लैंगिक हिंसा) की नए सिरे से समीक्षा कर रहा होगा. ज़ाहिर है ऊर्जा सुरक्षा से जुड़ी अपनी ज़रूरतों को संतुलित करने के लिए यूरोप सामरिक तौर पर इन मसलों पर अपनी आंखें मूंद चुका होगा. दहाई अंकों पर पहुंची महंगाई सियासी बखेड़ों के नए-नए स्वरूप पैदा कर चुकी होगी. हो सकता है कि यूरोपीय संघ गैस से जुड़े संकट पर क़ाबू पाने में कामयाब हो जाए. हालांकि 2 साल काफ़ी लंबा वक़्त होता है. यूरोप के मुल्क, दुश्वारियों की तो छोड़िए, ऊंची क़ीमतों या आर्थिक तनातनियों के व्यापक प्रभावों के भी आदी नहीं हैं. हालांकि इन तमाम मुश्किलों की संभावनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं. ऐसे में यूरोप से सियासी परिपक्वता की उम्मीद करना मुनासिब नहीं जान पड़ता. एक ऐसा भूक्षेत्र, जहां तीसरी पीढ़ी विरासत में मिली साम्राज्यवादी दौलत के मज़े ले रही है (या अक्सर उसे ज़ाया कर रही है), वहां किसी को असुविधा झेलने की आदत नहीं है. इसी मुकाम पर लोकशाहियों का सत्ता और शक्ति से जुड़ा पूरा खेल खेला जाएगा. मौजूदा दौर में ये क़वायद वैचारिक और सियासी स्तर पर असंतुलित है जो आगे चलकर स्थिरता की ओर बढ़ता दिखाई देगा.

आगे इस कड़ी में आबादी में बदलाव होना तय है. जाड़े में यूरोप के सर्द शहरों से अपेक्षाकृत गर्म जलवायु वाले शहरों- जैसे लिस्बन (सर्दियों का औसत तापमान- 8 से 15 डिग्री सेल्सियस), बार्सिलोना (9-15 डिग्री सेल्सियस), एथेंस (8 से 15 डिग्री सेल्सियस) या वलेटा (10 से 17 डिग्री सेल्सियस) की ओर प्रवासियों की आबादी का प्रवाह देखने को मिलेगा. लोगों द्वारा चार से छह महीनों तक घर से काम करने के लिए इन शहरों का रुख़ किए जाने से यहां मकान के किरायों में अल्पकालिक बढ़ोतरी देखने को मिलेगी. ऊर्जा की चढ़ती क़ीमतों से तुलना करने पर शायद इस तरह का बदलाव समझदारी भरा क़दम दिखाई देता है. हालांकि इससे जुड़े अर्थशास्त्र की बारीक़ पड़ताल का काम अभी बाक़ी है. बाज़ार संतुलन सिद्धांत के ज़रिए देखने पर ऐसा बदलाव तार्किक लगता है. बहरहाल, बाज़ारों का रुख़ बेलगाम पशुओं जैसा होता है और उनका संचालन उनके अपने क़ायदों से ही होता है. सामरिक मोर्चे पर इस खेल को शहरी योजनाकार अपने हिसाब से भुना सकते हैं. वो ऊर्जा से जुड़ी सियासत में अल्पकालिक झटकों के मद्देनज़र अपने प्रशासकीय अमलों की नए सिरे से तैनाती सुनिश्चित कर सकते हैं. इस तरह वो ऊर्जा की अनिश्चितताओं भरे दौर में नए तौर-तरीक़ों से अपना कामकाज आगे बढ़ा सकते हैं. दीर्घकाल में ऐसे शहरों का दर्जा नए सिरे से तय हो सकता है. इस तरह भूगोल के ज़रिए आर्थिक और व्यापारिक हितों की पूर्ति की जा सकती है.

इस दलील को आगे बढ़ाते हुए यूरोप, या ज़्यादा सटीक रूप से यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के बीच आबादी के प्रवास से जुड़े बदलावों के बूते एक बड़ा और दीर्घकालिक रुझान शुरू हो सकता है. यूरोपीय नागरिक पूर्वी भूक्षेत्रों में जाने के अवसर तलाश सकते हैं, जहां हरेक यूरोपीय लंबे वक़्त तक रह सकता है. इंडोनेशिया और थाईलैंड जैस देश आरामदेह रिहाइश मुहैया करवा सकते हैं. अगर भारत की अफ़सरशाही अपना कामकाज सुधार ले तो भारत इन यूरोपीय नागरिकों का पसंदीदा ठिकाना बन सकता है. भारत दुनिया के देशों से बेहतरीन तरीक़े से जुड़ा है. विशाल आकार वाले इस देश के बड़े शहरों में अल्पकालिक प्रवास को बढ़ावा देने के लिए सभी ज़रूरी बुनियादी सुविधाएं मौजूद हैं, और उनमें लगातार बढ़ोतरी हो रही है.

इन समायोजनों से परे, ऐसा लग रहा है कि वैश्विक अखाड़े में जारी टकराव अब अपने अंत की ओर बढ़ रहा है. 17 सितंबर 2022 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नसीहत देते हुए कहा था कि मौजूदा दौर “युद्ध का युग नहीं है”. इस पर रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन ने जवाब दिया कि “हम जितनी जल्दी मुमकिन हो, इस पूरे प्रकरण का ख़ात्मा चाहते हैं.” रूस-यूक्रेन टकराव से इलाक़े में सत्ता संग्राम की बेकारी पर लोकतांत्रिक बहसों का दौर शुरू होना चाहिए. इससे ताइवान, दक्षिण चीन सागर क्षेत्र और भारत में चीन की आक्रामक हरकतों पर लगाम लगनी चाहिए. भूराजनीति की बिसात पर जारी इन चालबाज़ियों की आंच सैनिकों और नागरिकों को झेलनी पड़ रही है. ऐसे में दुनिया के नेताओं को जोख़िम और इनाम से जुड़े व्यापक संतुलन का आकलन करना चाहिए.

तमाम क़िस्सेबाज़ियों के परे, इस खेल में कोई भी राज्यसत्ता विजेता नहीं है, पर नागरिक इसमें निश्चित रूप से शिकार बन रहे हैं.

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