Published on Aug 27, 2021 Updated 0 Hours ago

अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलने से जो शून्य पैदा हुआ है, बहुत संभावना है कि चीन उसे भरने की कोशिश करे.

चीन में 'साम्राज्यों की कब्रगाह' क्या कहलाएगी?

अफ़ग़ानिस्तान बहुत लंबे वक्त से दुनिया की अलग-अलग ताक़तों के बीच जोर-आजमाइश का मैदान बना रहा. यहां की जियो-पॉलिटिक्स यानी भू-राजनीति बहुत उलझी रही है और इसे दुनिया का सबसे खतरनाक युद्धक्षेत्र भी माना जाता है. हाल में अमेरिकी और नाटो सैनिकों की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी के तुरंत बाद तालिबान ने देश के अलग-अलग इलाकों को जीतने का दावा करना शुरू कर दिया. आज तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान के बहुत बड़े हिस्से पर कब्जा है. अशरफ गनी की सरकार गिर गई है क्योंकि देश के सुरक्षा बलों की लड़ाई की पूरी तैयारी नहीं थी. ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या चीन वह अगली शक्ति होगा, जो अफ़ग़ानिस्तान में दख़ल देगा. उस अफ़ग़ानिस्तान में, जिसे दुनिया के ‘साम्राज्यों की कब्रगाह’ बताया कहा जाता है.

दुनिया के कई ताक़तवर देशों ने अफ़ग़ानिस्तान का अपनी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए इस्तेमाल करना चाहा, लेकिन वे अपने इरादों में सफल नहीं हो पाए. दुनिया की महाशक्ति माने जाने वाले अमेरिका का इस लिस्ट में नाम सबसे हाल में जुड़ा है, जिसे यहां जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा. अमेरिका ने दो दशक तक अपनी सेना अफ़ग़ानिस्तान में रखी, लेकिन वह इस देश को जैसा बनाना चाहता था, वैसा बना नहीं सका. वह अफ़ग़ानिस्तान में ऊर्जा, बुनियादी ढांचा (इन्फ्रास्ट्रक्चर) और परिवहन नेटवर्क को लेकर किया गया वादा पूरा नहीं कर पाया. पिछले 20 वर्षों में यह उसकी सबसे बड़ी असफलता है. इन परिस्थितियों में उसके सेना वापस बुलाने के बाद अब चीन उससे खाली हुए शून्य को भरने की बहुत सावधानी के साथ तैयारी कर रहा है.

अमेरिका ने दो दशक तक अपनी सेना अफ़ग़ानिस्तान में रखी, लेकिन वह इस देश को जैसा बनाना चाहता था, वैसा बना नहीं सका. वह अफ़ग़ानिस्तान में ऊर्जा, बुनियादी ढांचा (इन्फ्रास्ट्रक्चर) और परिवहन नेटवर्क को लेकर किया गया वादा पूरा नहीं कर पाया. पिछले 20 वर्षों में यह उसकी सबसे बड़ी असफलता है. 

अफ़ग़ानिस्तान पर चीन की सोच

अफ़ग़ानिस्तान को लेकर चीन के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं. वह नहीं चाहता कि वहां गृह युद्ध और बढ़े. इसलिए वह अफ़ग़ानिस्तान के अलग-अलग पक्षों के बीच शांति वार्ता का पक्षधर है. इससे अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवादी तत्वों को पनपने का मौका भी नहीं मिलेगा और आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगा रहेगा. इस मकसद को पूरा करने के लिए वह रूस (ड्रैगनबेयर), ईरान और पाकिस्तान के साथ बात कर रहा है और उसे भरोसा है कि इन देशों के साथ अच्छे रिश्तों के कारण वह अपना लक्ष्य हासिल कर लेगा.

अफ़ग़ानिस्तान मध्य पूर्व, मध्य और दक्षिण एशिया और यूरोप को जोड़ता है, इसलिए सामरिक लिहाज से उसकी काफी अहमियत है. चीन इसे पाकिस्तान और ईरान के बीच एक भू-राजनीतिक पहेली की तरह देखता है और इन दोनों ही देशों के चीन के साथ गहरे रिश्ते हैं. शी चिनफिंग सरकार ने उन्हें अपने बेल्ट और रोड (बीआरआई), चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) प्रॉजेक्ट्स से जोड़ा हुआ है. इस संदर्भ में तशकुरगान, वखान और ग्वादर में चल रही कुछ परियोजनाएं काफी महत्वपूर्ण हैं. शिनच्यांग में उत्तर-पश्चिम उइगुर स्वायत्त क्षेत्र में पामीर पठार पर तशकुरगान हवाई अड्डा बन रहा है. चीन के लिए यह लंबी अवधि का निवेश है. असल में तशकुरगान चीन का ऐसा बड़ा शहर है, जिसकी सीमा तीन देशों- ताजिकिस्तान, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान- से लगती है. वखजीर दर्रे के साथ चीन और अफ़ग़ानिस्तान 80 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करते हैं. दोनों देशों के बीच यह शायद इकलौता दर्रा है, जिससे आवाजाही हो सकती है. हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान की ओर इस दर्रे को जोड़ने के लिए कोई सड़क नहीं है. ऐसे में बीआरआई के तहत यहां निवेश होता है तो इससे अफ़ग़ानिस्तान के साथ वखान और छोटा पामीर होते हुए संपर्क स्थापित किया जा सकता है. ऐसे में चीन को वखान गलियारे के जरिये अफ़ग़ानिस्तान में रेशम मार्ग (सिल्क रोड) को फिर से शुरू करने में मदद मिलेगी.

चीन मानता है कि वखान के जरिये अफ़ग़ानिस्तान से घुसपैठ हो सकती है. और उन लोगों ने शिनच्यांग में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने की पहले धमकी भी दी थी. इसलिए आने वाले वक्त में चीन की अफ़ग़ानिस्तान में सीधी दिलचस्पी बढ़ सकती है क्योंकि अमेरिका यहां से जा चुका है और चीन बीआरआई के जरिये 62 अरब डॉलर के निवेश के साथ अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहा है.

बोजाई गोंबद को वखजीर दर्रे से जोड़ने के लिए अभी एक सड़क परियोजना पर काम चल रहा है. तालिबान के कब्जे से पहले इसके लिए अफ़ग़ानिस्तान सरकार पैसा दे रही थी. इस परियोजना से चीन का कोई लेना-देना नहीं था. इसलिए अब अफ़ग़ानिस्तान में जो नई सरकार बन रही है, उसे फैसला करना होगा कि 50 किलोमीटर हाइवे के जरिये चीन से फिर से संपर्क कायम करना है या नहीं. इस परियोजना पर कम से कम 50 लाख डॉलर खर्च आने का अनुमान है. इस गलियारे से चीन के लिए कुछ जोखिम और चुनौतियां भी खड़ी होंगी. चीन मानता है कि वखान के जरिये अफ़ग़ानिस्तान से घुसपैठ हो सकती है. और उन लोगों ने शिनच्यांग में आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने की पहले धमकी भी दी थी. इसलिए आने वाले वक्त में चीन की अफ़ग़ानिस्तान में सीधी दिलचस्पी बढ़ सकती है क्योंकि अमेरिका यहां से जा चुका है और चीन बीआरआई के जरिये 62 अरब डॉलर के निवेश के साथ अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहा है.

वहीं, सीपीईसी में ख़ासतौर पर हाइवे, रेल रोड और एनर्जी पाइपलाइन जैसी परियोजनाएं हैं. यह चीन और पाकिस्तान का द्विपक्षीय प्रॉजेक्ट है. ग्वादर बंदरगाह चीन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके जरिये उसका इरादा हिंद महासागर में अपनी ताक़त बढ़ाने का है. चीन सीपीईसी में अफ़ग़ानिस्तान को भी शामिल कर सकता है. वह पाकिस्तान से सड़क मार्ग के जरिये इस काम को अंजाम दे सकता है. इससे अफ़ग़ानिस्तान को आर्थिक लाभ हो सकता है. वह ‘डिजिटल सिल्क रोड, चीन-अफ़ग़ानिस्तान विशेष रेल परिवहन परियोजना, पांच देशों की रेलवे परियोजना और काबुल-उरुमकी हवाई कॉरिडोर’ के तहत ठोस परियोजनाएं भी शुरू कर सकता है. आज भी चीन अफ़ग़ानिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है ($1.19 अरब डॉलर), लेकिन पाकिस्तान के साथ सड़क मार्ग से सीधे जुड़ने पर इस व्यापार में कहीं ज्यादा बढ़ोतरी हो सकती है. अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी शहर पेशावर के बीच एक मुख्य मार्ग बनाने को लेकर बातचीत चल रही है, जो निकट भविष्य में सीपीईसी के तहत सबसे बड़ा प्रॉजेक्ट हो सकता है.

दुनिया की सारी बड़ी ताक़तें- रूस, चीन, अमेरिका और सीमित रूप से यूरोप- की दिलचस्पी कई संपर्क, परिवहन और व्यापारिक गलियारों के जरिये दक्षिण और मध्य एशिया के साथ जुड़ने की है. इस बीच, ये देश अफ़ग़ानिस्तान के मध्य एशियाई पड़ोसी देशों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं. 

चीन पहले से ही अफ़ग़ानिस्तान के सभी पक्षों के साथ रिश्ते बनाने की कोशिश कर रहा था. वह तालिबान से भी बात कर रहा है. उसकी दिलचस्पी तालिबान का साथ लेने में हो सकती है. इस तरह से वह अपने यहां शिनच्यांग प्रांत में मुसलमान उइगरों के लिए तालिबान के समर्थन को रोकने की कोशिश कर सकता है. ‘तीन शैतानी ताक़तों’ यानी कट्टरपंथ, आतंकवाद और अलगाववाद को लेकर चीन ने एक अवधारणा बनाई है. इसलिए जिस भी बात से उसे शिनच्यांग में इस्लामिक कट्टरपंथ और आतंकवाद बढ़ने की आशंका होगी, वह उसका दमन करेगा. इसी वजह से चीन पूर्वी तुर्किस्तान में चल रहे इस्लामिक आंदोलन को भी पसंद नहीं करता. इन परिस्थितियों में चीन पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में बीआरआई के समर्थन के लिए तालिबान को वित्तीय प्रोत्साहन की पेशकश कर सकता है. चीन के लिए अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी इलाके में इस्लामिक स्टेट (आईएस) की बढ़ती मौजूदगी भी चिंता का सबब है. चीन मध्य एशिया में किसी अस्थिरता को रोकने के लिए रूस की मदद मांग सकता है, जो रूस के नेतृत्व वाले कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (सीएसटीओ) और चीन के नेतृत्व वाले शंघाई को-ऑपरेशन संगठन (एससीओ) का साझा भू-राजनीतिक लक्ष्य है.

आखिर में, अफ़ग़ानिस्तान में चीन इसलिए भी निवेश बढ़ा सकता है क्योंकि वह ‘वहां तांबा, कोयला, लौह अयस्क, गैस, कोबाल्ट, सोना, मर्करी, लिथियम और थोरियम’ के भंडारों के खनन अधिकार चाहता है. एक अनुमान के मुताबिक, अफ़ग़ानिस्तान में 3 लाख करोड़ डॉलर के रेयर अर्थ और मिनरल हैं. गृह युद्ध में फंसे इस देश में 6 करोड़ टन तांबा, 2.2 अरब टन लौह अयस्क, 14 लाख टन रेयर अर्थ (लैंथेनम, सीरियम और नियोडायमियम) के साथ एल्युमीनियम, सोना, चांदी, जिंक, मर्करी और लिथियम के भंडार मौजूद हैं. ऐसे में यह स्वाभाविक लगता है कि चीन अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने व्यापारिक संबंध मजबूत करने की कोशिश करेगा. हालांकि, इसके साथ चीन यहां भविष्य की अपनी परियोजनाओं और निवेश को हर हाल में सुरक्षित रखने का भी प्रयास करेगा.

भू-राजनीति में अफ़ग़ानिस्तान की अहमियत

दुनिया की सारी बड़ी ताक़तें- रूस, चीन, अमेरिका और सीमित रूप से यूरोप- की दिलचस्पी कई संपर्क, परिवहन और व्यापारिक गलियारों के जरिये दक्षिण और मध्य एशिया के साथ जुड़ने की है. इस बीच, ये देश अफ़ग़ानिस्तान के मध्य एशियाई पड़ोसी देशों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान के मध्य एशियाई पड़ोसियों के साथ रूस जरूर ताल्लुकात बनाएगा क्योंकि वह यूरेशिया आर्थिक संघ को साथ लाने की कोशिश कर रहा है तो दूसरी तरफ चीन यही काम बीआरआई और सीपीईसी के जरिये कर रहा है. रूस, ईरान के दक्षिणी क्षेत्र और भारत अपने यहां के उत्तर स्थित शहरों और यूरोपीय संघ के बीच भू-आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना चाहता है. यूं तो इस क्षेत्र में रूस को अमेरिका की मौजूदगी पसंद नहीं है तो दूसरी ओर अफ़ग़ानिस्तान से सैनिकों को वापस बुलाने के बाद बाइडन सरकार भी मध्य एशिया में अपनी स्थिति मजबूत बनाने की कोशिश करेगी. इसलिए अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया को लेकर रूस और चीन के बीच सहयोग आगे चलकर शायद सीएसटीओ और एससीओ के दायरे में या द्विपक्षीय स्तर पर हो सकता है.

तुर्की को लगता है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद उसे अफ़ग़ानिस्तान में पांव जमाने का मौका मिला है.

अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से निकलने के साथ रूस से गुजारिश की थी कि वह अफगानी शरणार्थियों को अपने यहां जगह दे, लेकिन व्लादिमीर पुतिन सरकार इसके और सैन्य ठिकानों से जुड़े संभावित जोखिमों और खतरों को लेकर आशंकित है. रूस नहीं चाहता कि मध्य एशिया में अमेरिका को फिर से मौजूदगी बढ़ाने में किसी तरह की मदद मिले.

अफ़ग़ानिस्तान सहित दक्षिण एशिया में पड़ोसियों के ‘दिल और दिमाग’ को जीतने के लिए चीन और भारत के बीच मुकाबला पहले से ही चल रहा है. उधर, पाकिस्तान खुद को अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के जाने के बाद बने शून्य को भरने वाली ताक़त मान रहा है. उसे लगता है कि चीन और रूस की मदद से वह यह काम कर सकता है. तालिबान के इस क्षेत्र के अन्य देशों के साथ रिश्ते अच्छे नहीं हैं. इसलिए तालिबान के साथ बेहतर ताल्लुकात रखने वाला पाकिस्तान इसमें अपने लिए मध्यस्थ की भूमिका देख रहा है. हालांकि, वह अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध के जोखिमों को लेकर आशंकित भी है. इसलिए अगर अमेरिका और तुर्की की ओर से वहां स्थिरता लाने की कोई कोशिश होती है तो वह उसमें मदद करेगा. चीन के आर्थिक दबदबे और ‘कर्ज के जाल में फंसाकर’ कूटनीति वाली रणनीति की वजह से पाकिस्तान दूसरे देशों के साथ भी अपने ताल्लुकात बढ़ाने की कोशिश कर सकता है. इसकी भी संभावना है कि आगे चलकर वह भारत के साथ व्यापारिक संबंधों को सामान्य बनाने का प्रयास करे.

चीन और पाकिस्तान आज बहुत गहरे दोस्त हैं. वहीं, चीन और रूस के बीच भी अच्छा तालमेल है. चीन इनका इस्तेमाल अफ़ग़ानिस्तान को मैनेज करने के लिए करेगा, जिसका असर भारत पर भी पड़ सकता है. इसमें भी दो राय नहीं है कि चीन और भारत एशिया-प्रशांत क्षेत्र में दो बड़ी ताक़तें हैं. इस क्षेत्र में दोनों ही भू-राजनीति को प्रभावित करने के लिए मुकाबला करेंगे. इसे लेकर दोनों के बीच टकराव भी होगा. इन बातों का आपसी रिश्तों पर असर पड़ना तय है. अभी चीन-रूस और चीन-पाकिस्तान के करीबी ताल्लुकात के कारण हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में एक भू-राजनीतिक असंतुलन बन गया है. इसका ख़ासतौर पर भारत के हितों पर बुरा असर पड़ सकता है. भारत का पहले से ही वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को लेकर चीन के साथ विवाद चल रहा है. दूसरी तरफ, वह चीन के रेशम मार्ग के जवाब के रूप में ईरान और मध्य एशिया होते हुए रूस से यूरोप तक के गलियारे (इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर) पर काम कर रहा है. भारत ने ईरान के चाबहार बंदरगाह में निवेश किया है, जो दक्षिण ईरान में ओमान की खाड़ी पर स्थित है और यह भारत को अफ़ग़ानिस्तान और दूसरे मध्य एशियाई देशों से जोड़ता है.

चीन को यह फैसला करना होगा कि वह अफ़ग़ानिस्तान को पाकिस्तान के जरिये मैनेज करना चाहता है या सीधे तालिबान के साथ संबंध बनाकर. चीन उस गलती को नहीं दोहराना चाहेगा, जो अमेरिका और सोवियत संघ ने की थी. उसकी दिलचस्पी तालिबान को हटाने में नहीं होगी.

इस बंदरगाह की ख़ास बात यह है कि इससे होकर आने वाले जहाजों को पाकिस्तान की समुद्री सीमा में दाखिल नहीं होना पड़ता. तालिबान के नियंत्रण से पहले तक भारत अफ़ग़ानिस्तान के नवनिर्माण के लिए बड़े डोनरों में शामिल था. वह अफ़ग़ानिस्तान की उथलपुथल को देखते हुए अब समान सोच रखने वाले साझेदारों और वैश्विक मंचों के साथ तालमेल स्थापित कर रहा है. दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन के दबदबे को चुनौती देने के लिए भारत को अमेरिका अपना भरोसेमंद सहयोगी मानता है. हाल में क्वाड जैसे और पश्चिमी देशों के दूसरे मंचों के जरिये अमेरिका, चीन के बीआरआई, सीपीईसी और रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकॉनमिक पार्टनरशिप पहल का जवाब देने की कोशिश कर रहा है.

उधर, अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर पश्चिमी देशों के अपने-अपने अनुमान हैं. क्वाड का ध्यान हिन्द-प्रशांत पर लगातार बढ़ रहा है, ऐसे में इसके सदस्यों- अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया- में से कोई भी ‘अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अपनी आंखें बंद नहीं कर सकता क्योंकि इससे भू-राजनीतिक और आतंकवाद संबंधी खतरा बढ़ने की आशंका है.’ इस बीच, अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान, उज्बेकिस्तान और पाकिस्तान के साथ एक और क्वाड शुरू किया है, जिसका मकसद क्षेत्रीय कनेक्टिविटी को बढ़ावा देना है. अमेरिकी नेतृत्व वाले इन दोनों चार सदस्यीय संगठनों का मकसद चीन को रोकने के साथ अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया में कई भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक मुद्दों, आतंकवाद विरोधी और मानवीय सहायता से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की खातिर तालमेल बढ़ाना है. हालांकि, अब तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जे के बाद अमेरिका को इस मुद्दे पर अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ सकता है. उधर, यूरोपीय संघ को डर है कि अफ़ग़ानिस्तान में आज जो स्थिति है, उससे यूरोपीय देशों में शरणार्थियों की नई लहर पहुंच सकती है. इसलिए वह मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में भी आर्थिक स्थिरता और उनके साथ व्यापारिक रिश्तों को बढ़ावा देना चाहता है.

तुर्की भी अफ़ग़ानिस्तान की पिछली सरकार को समर्थन दे रहा था. यह भी लग रहा था कि उसका तालिबान के साथ टकराव हो सकता है. काबुल एयरपोर्ट की सुरक्षा की तुर्की की महत्वाकांक्षा असल में भू-राजनीति से जुड़ी है. अभी अमेरिका के सैनिक भी एयरपोर्ट की सुरक्षा में लगे हैं. भविष्य में अमेरिका और नाटो सहयोगियों के बीच तालमेल के लिए भी इसकी अहमियत है और तुर्की नाटो का सदस्य है. तुर्की को लगता है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद उसे अफ़ग़ानिस्तान में पांव जमाने का मौका मिला है. अगर वह इसमें सफल रहा तो ईरान जैसी क्षेत्रीय ताक़तों के मुकाबले उसे बढ़त मिल जाएगी. वह लंबे समय तक यहां अपना प्रभाव कायम करने की सोच रहा है. उसके पाकिस्तान और चीन के साथ भी ताल्लुकात अच्छे हैं. तुर्की को इससे भी अपनी रणनीति में मदद मिलने की उम्मीद है. इसमें कोई शक नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान में अगर तुर्की की सैन्य मौजूदगी बनी रहती है तो इससे नाटो के लिए उसकी अहमियत बढ़ेगी. साथ ही, वह इसके जरिये अमेरिका के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में भी बेहतरी की उम्मीद कर रहा है. दूसरी तरफ, उसे यह भी लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य को लेकर वह चीन, रूस और ईरान के साथ मिलकर काम कर सकता है.

आगे क्या होगा

चीन को यह फैसला करना होगा कि वह अफ़ग़ानिस्तान को पाकिस्तान के जरिये मैनेज करना चाहता है या सीधे तालिबान के साथ संबंध बनाकर. चीन उस गलती को नहीं दोहराना चाहेगा, जो अमेरिका और सोवियत संघ ने की थी. उसकी दिलचस्पी तालिबान को हटाने में नहीं होगी. वह उसके साथ संबंध स्थापित करके वहां के खनिज संसाधनों का दोहन करना चाहेगा. वह बीआरआई के तहत और चीन-पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान कॉरिडोर के जरिये जरूरी नेटवर्क स्थापित करना चाहेगा. दूसरी तरफ, मध्य एशिया में स्थिरता के लिए चीन, रूस की मदद भी ले सकता है. इस योजना में रूस की केंद्रीय भूमिका हो सकती है. वह इस क्षेत्र में परिवहन के वैकल्पिक रास्तों, इन्फ्रास्ट्रक्चर और भविष्य में कनेक्टिविटी के लिए अफ़ग़ानिस्तान को भी अपनी योजना में जगह दे सकता है.

यह भी याद रखना होगा कि सीरिया के बाद अफ़ग़ानिस्तान भू-राजनीति के लिहाज से अगला दलदल बन सकता है. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि चीन क्या नजरिया अपनाता है और वह इससे कैसे बाहर आता है. अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलने से जो शून्य पैदा हुआ है, बहुत संभावना है कि चीन उसे भरने की कोशिश करे. अमेरिका को भी डर था कि कहीं वह इस दलदल में और लंबे वक्त तक न फंसा रह जाए. इसीलिए उसने अफ़ग़ानिस्तान से वापस जाने का फैसला किया. अगर अगर चीन अफ़ग़ानिस्तान में दख़ल देता है और नाकाम रहता है तो उसका वही हाल हो सकता है, जो सोवियत संघ का 1979 से 1989 के बीच हुआ था. चीन आने वाले कुछ वर्षों में दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त बनने जा रहा है. अमेरिका उसे चुनौती देने के लिए अलग-अलग मंच बना रहा है. उधर, चीन के लिए अफ़ग़ानिस्तान एक बड़ी भू-राजनीतिक परीक्षा भी होगी. ऐसे में सवाल यह है कि क्या वह यहां सफल हो पाएगा, जबकि दुनिया की कई बड़ी ताक़तें नाकाम हो चुकी हैं?

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