अमेरिकी चुनाव परिणामों से लगे झटके का प्रभाव जैसे जैसे कम हो रहा है, वैसे वैसे अब इस वास्तविकता का सामना करना जरूरी हो गया है कि यह तय किया जाए कि नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाए। सामान्यत: इस उच्च पद की दौड़ में शामिल उम्मीदवार का चुनाव घोषणा — पत्र, चुनाव अभियान के पूर्व और चुनाव अभियान के दौरान उनके द्वारा दिए गए वक्तव्य तथा उम्मीदवार का राजनीतिक इतिहास, इस संदर्भ में निर्णय लेने में मददगार साबित होता है। लेकिन दिक्कत की बात यह है कि इनमें से कोई भी ट्रंप के दुनिया के बारे में दृष्टिकोण, नीतिगत प्राथमिकताओं और प्राथमिकताओं का अंदाजा लगाने में उपयोगी नहीं है। ट्रंप के अब तक के रिकार्ड पर नजर डालें तो लगता है कि वह त्वरित नीतियां बनाते हैं और विदेश नीति से जुड़े मुद्दों पर उनके विचारों में विरोधाभास भी नजर आता है। हालांकि थॉमस राइट जैसे कुछ विश्लेषकों का मानना है कि दीर्घकालीन नजरिए से देखा जाए तो विदेश नीति को लेकर ट्रंप की सोच में विरोधाभास नहीं बल्कि एकरूपता दिखती है। लेकिन यह समस्या और भी जटिल हो गई है क्योंकि ट्रंप ने सरकार यां विधायिका में अब तक कोई राजनीतिक यां प्रशासनिक जिम्मेदारी का पद नहीं संभाला है।
इस प्रकार ट्रंप की सोच को स्पष्ट करने वाला एकमात्र अन्य स्त्रोत उनके द्वारा चुनाव अभियान के दौरान की गई टिप्पणियां हैं जिन पर नजर डालें तो तीन कारणों से एक मिश्रित तस्वीर उभरती है। पहला, उनकी कुछ नीतियों में आंतरिक विरोधाभास है: मसलन एक ओर तो उन्होंने ओबामा प्रशासन पर अमेरिका के मित्र देशों की उपेक्षा करने का आरोप लगाया है साथ ही वह इन सहयोगियों पर भी आरोप लगाते हैं कि सुरक्षा का भार वहन करने में वह अपने हिस्से का योगदान नहीं कर रहे हैं। दूसरा, उनकी विभिन्न नीतियों में आपसी टकराव है: वह सीरिया में इस्लामिक स्टेट के खतरे से निपटने के लिए रूस से सहयोग करना चाहते हैं पर साथ ही ईरान के खिलाफ सख्त रूख अपनाने के पक्षधर हैं जबकि सीरिया में रूस और ईरान करीबी सहयोगी हैं। और अंत में, यह स्पष्ट नहीं है कि विदेश नीति पर उनके वक्तव्य उनके व्यक्तिगत विचार हैं यां सोच — समझ कर तय की गई नीति। विदेश और सुरक्षा संबंधी एजेंडा की बात करें तो उनकी ठोस शक्ल भी साफ नहीं है, हालांकि उनके भाषणों में इस संबंध में कुछ जानकारी मिल जाती है।
ट्रंप की विदेश नीति में सबसे प्रमुख तत्व है रूस के प्रति दोस्ताना रुख। अगर यह स्थायी और सोचा समझा हुआ रूख है तो यह अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक आयामों में भारी बदलाव ला सकता है जिसकी दिशा भारत के अनुकूल होगी। ओबामा प्रशासन के तहत अमेरिका की एक समस्या यह रही है कि उसने रूस और चीन दोनों के साथ अपने सबंध खराब कर लिए। इससे रूस और चीन एक दूसरे के करीब हो गए जबकि दोनों एक दूसरे पर भरोसा नहीं करते हैं। हालांकि इसमें दोष केवल अमेरिका का नहीं है लेकिन अंतत: इसका सबसे ज्यादा खराब असर भारतीय और एशियाई सुरक्षा पर हुआ। अमेरिका — रूस में बेहतर संबंधों से भारत को इन दोनों से समर्थन हासिल करने में मदद मिलेगी जिससे चीन के संदर्भ में उसे शक्ति संतुलन बनाने में मदद मिलेगी।
दूसरी ओर ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका की रूस की ओर दोस्ताना हाथ बढ़ाने की प्रक्रिया को कुछ चुनौतियां मिल सकती हैं। ईरान के साथ परमाणु समझौते के संदर्भ में ट्रंप की भावी योजना रूस के साथ विवादों को बढ़ावा दे सकती है। गौरतलब है कि ईरान के साथ हुए इस समझौते को औपचारिक रूप से ‘संयुक्त समग्र कार्य योजना'( जेसीपीओए) कहा जाता और रूस ने इसके समर्थन में हस्ताक्षर किए हैं। इस मुद्दे पर ट्रंप का रुख स्पष्ट नहीं है: रिपब्लिकन प्राइमरीज़ के दौरान अन्य रिपब्लिकन उम्मीदवारों (जेब बुश को छोड़कर)की तरहं उन्होंने राष्ट्रपति कार्यालय में पहले दिन ही इस समझौते को अस्वीकार करने का वायदा नहीं किया, उन्होंने केवल इस बारे में यह कहा कि यह अब तक का ”खबसे खराब सौदा” है और इस पर दोबारा बातचीत की जाएगी। लेकिन दोबारा हस्तक्षेप की बात बेमानी है: यह संभव नहीं है कि इस समझौते पर नए सिरे से मोल — तोल किया जा सके। ऐसा कोई भी प्रयास इस समझौते को ठंडे बस्ते में डालने जैसा होगा जो अमेरिका को रूस और चीन (तथा यूरोपीय देश जो इस समझौते का समर्थन कर रहे हैं ) के खिलाफ खड़ा कर देगा। जैसा कि पहले ही बताया गया है, ईरान के खिलाफ सख्त रूख सीरिया में रूस के साथ सहयोग में भी अवरोध पैदा कर सकता है।
चीन पर ट्रंप के रूख को लेकर भी संशय है। हालांकि कुछ विश्लेषकों का यह भी मानना है कि संभवत: चीन ट्रंप को तरजीह देगा क्योंकि ऐसा लगता है कि वह मानव अधिकारों पर अपेक्षाकृत नरम रुख अपना सकते हैं यां कम से कम चीन को अमेरिका पर(यातना देने जैसे मुद्दों पर जिनका ट्रंप सार्वजनिक रूप से समर्थन कर चुके हैं) उंगली उठाने का मौका मिलेगा, जिससे परिस्थितियां और जटिल हो सकती हैं। ट्रंप ने बार — बार चीन द्वारा करेंसी को लेकर की जाने वाली जोड़ — तोड़ और उसके व्यापार करने के तरीकों को लेकर कड़ी कार्रवाई की बात कही है।उन्होंने अमेरिका में आयात होने वाले चीनी उत्पादों पर ज्यादा शुल्क(टेरिफ) लगाने की धमकी भी दी है। इन कदमों से चीन और अमेरिका के संबंधों में खाई बढ़ सकती है जिससे भारत को चीन के खिलाफ एक भागीदार मिलने की संभावनाएं बनेंगी। पर इससे एक व्यापारिक युद्ध की शुरूआत भी हो सकती है जो भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाएगा।
एक और जटिलता यह है कि नाटो सहयोगियों की तर्ज पर ही वह अपने एशियाई सहयोगियों,खासकर जापान के खिलाफ नाखुशी जाहिर कर चुके हैं। ट्रंप की जीत से जापानी सरकार पहले से ही चिंतित है। जापान की चिंता का एक कारण ट्रंप द्वारा अमेरिका के सहयोगी देशों को लेकर अपनाए गए रुख से पड़ने वाला प्रभाव भी है। जापानी इस बात को लेकर भी आशंकित हैं कि ट्रंप के इस रूख से अमेरिकी जनमानस में जापान को लेकर क्या सोच रहेगी और इससे अमेरिका — जापान गठबंधन को स्थायी नुकसान हो सकता है।
ट्रंप ने हल्के — फुल्के अंदाज में यह सुझाव दिया कि जापान और दक्षिण कोरिया स्वयं के परमाणु हथियार रख सकते हैं। हालांकि उन्होंने कई बार इस बात का खंडन भी किया है कि उन्होंने पूर्व में ऐसा कुछ कहा था। अगर जापान, दक्षिण कोरिया व अन्य देशों को अमेरिका की उनकी सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्धता पर संदेह हुआ तो वे वाकई परमाणु हथियार रखने के विकल्प पर विचार कर सकते हैं। पर इससे एशिया — प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी गठजोड़ कमजोर होगा जिससे केवल चीन को लाभ होगा और इससे एशिया में शक्ति संतुलन बनाए रखने का प्रयास भारत के लिए और कठिन हो जाएगा।
बड़े स्तर पर देखें तो हमारे सामने एक मिली — जुली तस्वीर है। अमेरिका की अंतराष्ट्रीय स्तर पर भूमिका को लेकर ओबामा की तुलना में ट्रंप कहीं ज्यादा सशंकित हैं। हालांकि उनके संशय की वजह एक बिल्कुल अलग विचारधारा पर आधारित तार्किक सोच है। दूसरी ओर ट्रंप अमेरिकी सैन्य शक्ति के इस्तेमाल को लेकर कहीं ज्यादा तत्पर नजर आते हैं। यह तत्पतरता इस कारण से है कि सैन्य शक्ति के प्रयोग को लेकर उनके उद्देश्य ओबामा के उद्देश्यों से अलग हैं। उदाहरण के तौर पर यह स्पष्ट नहीं है कि दक्षिण चीन सागर जैसे मसलों को लेकर ये विरोधाभास अंतत: किस स्वरूप में सामने आएंगे।
हालांकि ट्रंप ने स्पष्ट रूप से भारत और दक्षिण एशिया को लेकर कुछ ठोस सीधे — सीधे नहीं कहा है, पर विदेश नीति को लेकर ट्रंप की सोच का सीध प्रभाव भारत पर होगा। एक संतुलित और स्थिर एशिया अंतत: भारत और अमेरिका दोनों के साझा हित में है। इस क्षेत्र में बिना स्पष्ट अमेरिकी प्रतिबद्धता के यह स्थिति लाना संभव नहीं है। अब जब कि ट्रंप का राष्ट्रपति पद के लिए अभियान समाप्त हो चुका है और वह प्रशासन के गलियारों की ओर बढ़ रहे हैं, भारत यही आशा कर सकता है कि नए अमेरिकी प्रशासन के सामने विकल्पों और अमेरिकी समृद्धि तथा एशियाई स्थिरता पर उनके प्रभाव को लेकर कुछ और अधिक स्पष्टता होगी।
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